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"लेरा बचपन अभी भी छूटा नहीं है, अंजन! इन नन्ही-नन्ही फूल-पत्तियों से खेलने में लगी है कि महाना भूल गयी है। ऐसे ही अपनी बाल्य-क्रीड़ाओं में रत होकर किसी दिन कुमार पवनंजय को मत भूल बैठना, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा!"
कहकर वसन्त खिलखिलाकर हंस पड़ी। अंजना एक बेलि को गाल से लगाये कुछ देर मुग्ध विभोरता में नत हो रही। फिर धीमे-से बोली--
"सो मुझे कुछ नहीं मालूम है, वसन्त । पर देख रही हूँ-कितना सरल है इन नन्ही-नन्ही बल्गारियों का प्यार या महो ही अपेक्षा भी नी, सहज ही आकर मुझसे लिपट रही हैं। किस जन्म की आत्मीयता है यह? (रुककर) सोचती हूँ, कौन-सा प्यार है जो इस प्यार से बड़ा हो सकता है। क्या मनुष्य का प्रेम इससे भी बड़ा है? पर मैं क्या जाने वसन्त, इनसे परे इस क्षण मेरे लिए कुछ भी स्पृहणीय नहीं है!" । कुछ देर चुप रहकर फिर मानो भर आते गले से बोली
पनिखिल को भूलकर जो एक ही याद रह जाएगा, उसकी ठीक-ठीक प्रतीति मुझे नहीं है-पर इस क्षण इस प्यार से परे मैं किसी को भी नहीं जानती?"
___ "तो वह जानने की बेला अब दूर नहीं हैं अंजन-लो उठो, इस आर चलकर कपड़े पहनो।"
छत के दक्षिण भाग में, खुले आकाश के नीचे रल-जटित खम्भोंवाली सुहाग-शय्या बिछी है। चन्द्रमा की उज्ज्वल किरणों से रत्नों में प्रभा की तरंगें उठ-उटकर विलीन हो रही हैं। मानो वह शय्या किसी नील जलधि-वेला में तैर रही है। शय्या पर कचनार और चम्पक पुष्पी की राशियाँ बिछी हैं। उसकी झालरों में केसरवाले पुण्डरीक झूल रहे हैं। पलँग के रत्न-दण्डों पर चारों ओर कुन्द-पुष्पों से उनी जालियों की मसहरी झूल रही है। पलंग के शीर्ष के चौखट पर चन्द्रकान्त मणियों की झालरें लटकी हैं; चाँद की किरणों का योग पाकर उन मणियों में से भीनी-भीनी जल की फुहारे झर रही हैं।
और वहीं पास ही इन्द्रनील शिला के फर्श पर चारों ओर सखियों और दालियों से घिरी, सुहागिनी अंजना का श्रृंगार हो रहा है। उस तरल ज्योत्स्ना-सी देह में पीत कमलों के कंसर से अंगराग किया गया है। हथेलियों और पगलियों में लोध की रेणु से महावर रची गयी है। सन्ध्या की सागर-बेला-सी बह घनश्याम केशराशि ऐसी निर्बन्ध लहरा रही है कि उस देह के तरल तटों में वह सँभाले नहीं संभलती। इसी से वेणी गूंथने का प्रयत्न नहीं किया गया है; केवल मानसरोवर की मुक्ताओं की तीन लड़ियों से हल्का-सा बाँधकर उसे अटका दिया गया है। लिलार और गालों के केशपाश पर से दो लड़ियों दोनों ओर को केशपट्टियों को बाँधती हुई जाकर चोटी के मूल में अटकी हैं; मौंग की सिन्दूर रेखा पर से एक तीसरी लड़ जाकर उन दोनों से मिल गयी है। कानों में नीलोत्पल पहनाये गये हैं। अर्धचन्द्राकार ललाट पर
42 :: माक्तदूत