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सकता। और वह दिन दूर नहीं है प्रहस्त, जब नाग-कन्याओं और गन्धर्व-कन्याओं का लावण्य पचनंजय की चरण-धूलि बनने को तरस जाएगा।"
“ठीक कह रहे हो पवन, अंजना इसे अपना सौभाग्य मानेगी ! क्योंकि वह तो चरण-धूलि बनने के पहले आदित्यपुर के भावी महाराज के भाल का तिलक बनने का नियोग लेकर आयी हैं।"
"नियोगों की पंखला तोड़कर चलना पवनंजय का स्वभाव है प्रहस्त: और परम्पराओं से वह बाधित नहीं। अपने भावी का विधाता वह स्वयं है। आदित्यपुर का राजसिंहासन उसके भाग्य का निर्णायक नहीं हो सकता !"
प्रहस्त गौर से चुपचाप पवनंजय की मुद्रा को देख रहा था। सदा का वह हदयवान् और बालक-सा सरल पवनंजय यह नहीं है।
विमान से उतरकर विदा होते हुए आदेश के स्वर में पवनंजय ने कहा
“अपनी सेना के साथ कल सवेरे सूर्योदय के पहले मैं यहाँ से प्रयाण करूँगा, प्रहस्त! महाराज के डेरे में सूचना भेज दो और सेनापतियों को उचित आज्ञाएँ । मानसरोवर के तट पर मैं कल का सूर्योदय नहीं देखेंगा!"
कहकर तुरन्त पवनंजय एक झटके के साथ यहाँ से चल दिये। प्रहस्त को लगा, जैसे निरभ्र आकाश का हृदय विदीर्ण कर एकाएक बिजली कड़क उठी हो। वह सम्नाटे में आ गया। दिग्मूढ़-सा खड़ा वह शुन्य में ताकता रह गया।
शेष रात के शीणं पंखों पर दिन उतर रहा है। आकाश में तारे कुम्हला गये। दूर पर दो तमसाकार पर्यतों के बीच के गवाक्ष से गुलाबी आभा फूट रही है। मानसरोवर की चंचल लहरावलियों में कोई अदृष्ट बालिका अपने सपनों की जाली बुन रही है। और एक अकेली हंसिनी उस फूटते हुए प्रत्यूष में से पार हो रही है। अंजना अभी-अभी शय्या त्यागकर उठी है। अंगड़ाई भरती हुई वह अपने झरोखे के रेलिंग पर आ खड़ी हुई। एक हाथ से नीलम की मेहराब थामे, खम्भे पर सिर टिकाये वह स्तब्ध देखती ही रह गयी... | वह नीरव हसिनी उस गुलाबी आलोक-सागर में अकेली ही पार हो रही थी। वह क्यों है आज अकेली?
कि लो, हिमगिरि की शैलपाटियों, दरियों और उपत्यकाओं को कैंपाता हुआ प्रस्थान का तूर्यनाद गूंज उठा । दुन्दुभी का घोष मानसरोवर की लहरों में गर्जन भरता हुआ, दिगन्त के छोरों तक व्याप गया।
__ अंजना ने सहमकर वक्ष थाम लिया। उत्तर की पर्वत-श्रेणियों से उठ-उठकर धूल के बादल आकाश में छा रहे हैं। डूबती हुई अश्व-टापों की दूरागत ध्वनि
मुक्तिदूत :: 3