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प्रहस्त को हाथ से खींचकर पवनंजय ने रथ पर चढ़ा लिया और बल्गा खींचकर रथ को मोड़ दिया। सेनापति को सैन्य लौटाने की आज्ञा दी गयी। फिर प्रस्थान का शंख मूंज उठा।
आज है परिणय की शुभ लग्न-तिथि। पूर्व की उन हरित-श्याम शैल-श्रेणियों के बीच, ऊषा के आकुल वक्ष पर यौवन का स्वर्णकलश भर आया है। मणि-मुक्ता के झालर-तोरणों से सजे अपने वातायन से अंजना देख रही है। उस एक ओर के शैल की हरी-भरी तलहटी में हंस-होसनियों का एक झुण्ड मुक्त आमोद-प्रमोद कर रहा है। पास ही सरोवर में कमलों का एक संकुलवन है। सारी सत सुख की एक अशेष पीड़ा अंजना के वाक्ष को मथती रही हैं। जैसे वह आनन्द देड़ के सारे सीमा-बन्धनों को तोड़कर निखिल चराचर में बिखर जाना चाहता है। पर कहाँ है इस निकलता का अन्त : सरोवर के उन सदर पद्मवनों में? हंसी के उस विहार में? हरीतिमा की उस आभा में? इन अनन्त लहरों के अन्तराल में?-कहाँ है प्राण की इस चिर विच्छेद-कथा का अन्तः
कि लो, अनेक मंगल-वाद्यों की उछाड़-भरी रागिणियों से सरोवर का वह विशाल तट-देश गूंज उठा। कैलास के स्वर्ण-मन्दिरों के शिखरों पर जाकर वे ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होने लगीं। अनेक लोरण, द्वार, गोपुर, मण्डप और वेदियों से तटभूमि रमणीय हो उठी है। मानो कोई देवोपनीत नगरी ही उत्तर आयी है। स्थान-स्थान पर बालाएँ अक्षत-कुंकुम, मुस्ता और हरिद्रा के चौक पूर रही हैं। दोनों राजकुलों की रमणियाँ मंगल गीत गाती हुई उत्सव के आयोजनों में संलग्न हैं। कहीं पूजा-विधान चल रहे हैं तो कहीं हवन-यज्ञ। विपुल उत्सव, नृत्य-गान, आनन्द-मंगल से वातावरण चंचल है।
सवेरे ही अंजना को नाना राग, गन्ध, उबटनों से नहलाया गया है। पण्डरीक और नील कपलों के पराग से अंगराग किया गया है। दूर-दूर की पर्वत-घाटियों से चन-पाल नानारंगी फुल लाये हैं। उनके हारों और आभरणों से अंजना का श्रृंगार हो रहा है। ललाट, वक्षदेश और दोनों भुजाओं पर वसन्तमाला ने बड़े ही मनोयोग से पत्र-लेखा रची है। प्रत्यूष की पहली गुलाबी आभा के रंग का दुकूल वह ओढ़े है। भीतर कहीं-कहीं से विरत रत्नाभरणों की प्रभा झलमला उठती है।
और इस सारे आस-पास के उत्सव-कोलाइल, शृंगार-सज्जा के भीतर दये अंजना के श्वेत कमलिनी-से पावन हृदय से एक आह-सी निकल आती है। रह-रहकर एक सिसकी-ती वक्ष में उठती है और अनायास बह उसे दबा जाती है। बाहर के
मुक्तिदूत :: 37