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दर्शन का कुछ मूल्य नहीं। यह दुर्बल की आत्मवंचना है, विजेता का मुक्तिमार्ग नहीं!" ।
"और मुक्ति का मार्ग है-विवाह, स्त्री क्यों न प्रहस्त ?"
हाँ पवन, ये पुक्तिमार्ग की अनिवार्य कसौटियाँ हैं। इन तोरणों को पार करके ही मुक्ति के द्वार तक पहुँचा जा सकेगा। स्त्री से भागकर जो जेता दिग्विजय करने चला है, दिशाओं की अपरिसीम भुजाओं का आलिंगन वह नहीं पा सकेगा। शून्य में टकराकर एक दिन फिर यह सीमित नारी के चरणों में दिग्मूढ़-सा लौट आएगा। स्त्री के सम्मोहन-पाश में ही मुक्ति की ठीक-ठीक प्रतीति हो सकती है। मुक्ति की माँग वहीं तीव्रतम है। उसी चरम पीड़ा की ऊष्मा में से फूटकर मुक्ति का श्वेत कमल खिलता है। मुक्ति स्वयं स्त्री है-नारी को छोड़कर शरण और कहीं नहीं है, पवन ! स्यार्थी, भोगी, उच्छृखल पुरुष अपनी लिप्साओं से विवश होकर, जब स्त्री की परम प्राप्ति में विफल होता है, तब अपने पुरुषार्थ के मिथ्या आस्फालन में वह नारी से परे जाने की बात सोचता है। मुक्ति चरम प्राप्ति है-वह त्याग विराग नहीं है, पवन!"
“और वह चरम प्राप्ति विवाह और स्त्री के बिना सम्भव नहीं-क्यों न प्रहस्त?"
"मैं मानता हूँ कि बिजेता और उसकी चरम प्राप्ति विवाह से बाधित नहीं। पर यदि विवाह अनिवार्य होकर उसके मार्ग में आ ही जाए, तो उससे उसे निस्तार नहीं है। निखिल को अपने भीतर आत्मसात् करनेवाले अखण्ड प्रेम की लौ जिस जेता के वक्ष में जल रही है-उसके सम्मुख एक ती क्या लक्ष-लक्ष विवाह भी बाधा-बन्धन नहीं बन सकते, पवन । छियानबे हजार रानियों के लीलारमण और षट्खण्ड पृथ्वी के अधीश्वर धे भरत चक्रवती! उस सारे वैभव के अव्याबाध भोक्ता होकर वे रहे और अन्तर्मुहूर्त मात्र में सारे बन्धनों को तोड़कर निखिल के स्वामी हो गये। बालपन से जो नरश्रेष्ट तुम्हारा आदर्श रहा है, उसी की बात कह रहा हूँ, पवन!"
पवनंजय का घावल पुरुषार्थ भीतर-ही-भीतर सुलग रहा था। नहीं, यह अंजना को छोड़कर नहीं जा सकेगा। मृत्यु की तरह अनिवार होकर यह सत्य उसकी छाती में बज-सा टकराने लगा। ऐं! क्या वह भाग रहा है-स्त्री से हारकर? भयभीत होकर, कातर और त्रस्त होकर! नहीं, वह हरगिज़ नहीं जाएगा। प्रतिशोध की सौ-सौ नागिनें भीतर फफकार उठी। उस निदारुण अपमान का बदला लेने का इससे अच्छा अवसर
और क्या होगा।...अच्छा अंजना, आओ, पवनंजय के अँगूठे के नीचे आओ।...और फिर मुसकुराओ अपने रूप की चाँदनी पर! तुम्हारे उस गर्विष्ठ रूप को चूर्ण कर उसे अपनी चरण-धूलि बनाये बिना मेरी विजय-यात्रा का आरम्भ नहीं हो सकता।
अपनी अधीरता पर संयम करते हुए प्रकट में पवनंजय बोले--
"यदि तुम्हारी यह इच्छा है, प्रहस्त, तो चलो-मानसरोवर के तट पर ही अपनी विजय-यात्रा का पहला शिला-चिट्ट गाड़ चलूँ!"
36 :: पुक्तिदूत