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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । स्थितिबंध और जघन्यस्थिति अनुभाग प्रदेश इन तीनोंकी सत्ता उसके होनेपर मिथ्याती जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नहीं ग्रहण करता ॥ ८॥
सम्मत्तहिमुहमिच्छो विसोहिवड्डीहि वड्डमाणो हु। अंतोकोडाकोडिं सत्तण्हं बंधणं कुणई ॥९॥ सम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यः विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धमानो हि ।
अंत:कोटीकोटिं सप्तानां बंधनं करोति ॥ ९ ॥ अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके सन्मुख हुआ मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धपनेकी वृद्धिसे बढ़ता हुआ प्रायोग्यलब्धिके पहले समयसे लेकर पूर्वस्थितिबंधके संख्यातवें भाग अंतःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण आयुके विना सात कोंकी स्थिति बांधता है ॥९॥
तत्तो उदय सदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय ।। बंधम्मि पयडिम्हि य छेदपदा होंति चोत्तीसा ॥१०॥
ततः उदये शतस्य च पृथक्त्वमानं पुनः पुनरुदीर्य ।
बंधे प्रकृतौ च छेदपदा भवंति चतुश्चत्वारिंशत् ॥ १० ॥ अर्थ—उस अंतःकोड़ाकोड़ी सागर स्थितिबंधसे पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता हुआ स्थितिबंध अंतर्मुहूर्ततक समानतालिये हुए करता है । फिर उससे पल्यके संख्यातवें भाग घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्ततक करता है । इसतरह क्रमसे संख्यातस्थितिबंधापसरणोंकर पृथक्त्व सौसागर घटनेसे पहला प्रकृतिबंधापसरणस्थान होता है । फिर उसी क्रमसे उससे भी पृथवत्व सौ सागर घटनेसे दूसरा प्रकृतिबंधापसरणस्थान होता है । इसतरह इसी क्रमसे इतना २ स्थितिबंध घटनेपर एक एक स्थान होता है । ऐसे प्रकृतिबंधापसरणके चौंतीस स्थान होते हैं ॥ १०॥ आगे चौंतीस स्थानों में क्रमसे कोन कोनसी प्रकृतिका व्युच्छेद होता है ऐसा कहते हैं;
आऊ पडि णिरयदुगे सुहुमतिये सुहुमदोणि पत्तेयं । बादरजुत दोण्णि पदे अपुण्णजुद बितिचसण्णिसण्णीसु॥ ११ ॥
आयुः प्रति निरयद्विकं सूक्ष्मत्रयं सूक्ष्मद्वयं प्रत्येकं ।
बादरयुतं द्वे पदे अपूर्णयुतं द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंशिषु ॥ ११ ॥ अर्थ-पहला नरकायुका व्युच्छित्तिस्थान है अर्थात् वहांसे लेकर उपशमसम्यक्त्वतक नरकायुका बंध नहीं होता । इसीतरह आगे भी जानना । दूसरा तिर्यंचायुका स्थान है तीसरा मनुष्यायुका है चौथा देवायुका है। पांचवां नरकगति नरकगत्यानुपूर्वीका है छठा
१ यहां पृथक्त्व नाम सात वा आठका है इसलिये पृथक्त्व सौ सागर कहनेसे सातसौ वा आठसौ सागर जानना ।२ यहां प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें आयुबंधका अभाव है इसलिये सव आयुबंधकी व्युच्छित्ति कही गई है।