________________
लब्धिसारः। संज्वलनानामेकं वेदानामेकं उदेति तत् द्वयोः ।
शेषानां प्रथमस्थितिं स्थापयति अंतर्मुहूर्तमावलिकां ॥ २४० ॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधादिमेंसे कोई एक और स्त्री आदि वेदोंमेंसे किसी एकके उदयसहित श्रेणी चढे तो उन उदयरूप दो प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति अंतर्मुहूर्तस्थापन करता है और शेष उन्नीस प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति आवलिमात्र स्थापन करता है । अर्थात् प्रथमस्थितिप्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ ऊपरके निषेकोंका अन्तर करता है । ऐसा जानवा ॥ २४०॥
उवरि समं उक्कीरइ हेट्टावि समं तु मज्झिमपमाणं । तदुपरि पढमठिदीदो संखेजगुणं हवे णियमा ॥ २४१॥
उपरि समं उत्कीर्यते अधस्तनापि समं तु मध्यमप्रमाणं ।
तदुपरि प्रथमस्थितितः संख्येयगुणं भवेत् नियमात् ॥ २४१ ॥ अर्थ-अन्तरायामके अन्तनिषेकसे ऊपरके जो निषेक वे उदयरूप वा अनुदयरूप सब प्रकृतियोंके समान हैं और अन्तरायामके प्रथमनिषेकके नीचे जो निषेक वह उदय प्रकृतियोंका परस्परसमान है वा अनुदयप्रकृतियोंका परस्पर समान है । उसके वाद अन्तमुहूर्त वा आवलिमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति उससे संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तरायाम है अर्थात् इतने निषेकोंका अभाव किया जाता है ॥ २४१ ॥
अंतरपढमे अण्णो ठिदिवंधो ठिदिरसाण खंडो य । एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरसमत्ती ॥ २४२ ॥
अंतरप्रथमे अन्यः स्थितिबंधः स्थितिरसयोः खंडश्च ।
एकस्थितिखंडोत्करणकाले अंतरसमाप्तिः ॥ २४२ ॥ अर्थ-अन्तरकरणके प्रथमसमयमें पूर्वस्थितिबन्धसे असंख्यात गुणा कम ऐसा अन्य ही स्थितिबन्ध अन्य ही स्थितिकांडक अन्य ही पहलेसे कमती अनुभागकांडकका प्रारंभ होता है । वहां एक स्थितिकांडकोत्करणके कालसे अन्तरकरण किया जाता है । उसकी. समाप्ति होनेपर एक स्थितिकांडक घात हुआ उसमें संख्यातहजार अनुभागककांडोंका घात हुआ ऐसा जानना ॥ २४२ ॥
अंतरहेदुकीरिददत्वं तं अंतरम्हि ण य देदि । बंध ताणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ॥ २४३॥
अंतरहेतूत्कीरितद्रव्यं तदतरे न च ददाति ।
बंधं तेषामंतरजं बंधानां द्वितीयकै ददाति ॥ २४३ ॥ अर्थ-अन्तरके निमित्त उत्कीर्ण किये द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं मिलाता परंतु