Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 146
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ताहे अपुवफड्ढयपुवस्सादीदणंतिमुवदेहि । बंधो हु लताणंतिमभागोत्ति अपुवफड्डयदो ॥ ४७३॥ तस्मिन् अपूर्वस्पर्धकपूर्वस्यादितो अनंतिममुदेति । ___बंधो हि लतानंतिमभाग इति अपूर्वस्पर्धकतः ॥ ४७३ ॥ अर्थ-उस अर्श्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें उदयनिषेकोंके सब अपूर्व स्पर्धक और पूर्वस्पर्धककी आदिसे लेकर उसका अनंतवां भाग उदय होता है । और लता भागसे अनंतवें भागमात्र अपूर्वस्पर्धकके प्रथम स्पर्धकसे लेकर अन्तस्पर्धकतक जो स्पर्धक हैं उनरूप होकर बंधरूप स्पर्धक परिणमते हैं ॥ ४७३ ॥ विदियादिसु समयेसु वि पढमं व अपुवफड्डयाण विही। णवरि य संखगुणूणं 'दवपमाणं तु' पडिसमयं ॥ ४७४ ॥ णवफड्ढयाण करणं पडिसमयं एवमेव णवरि तु। दवमसंखेजगुणं फहृयमाणं असंखगुणहीणं ॥ ४७५ ॥ द्वितीयादिषु समयेषु अपि प्रथमं व अपूर्वस्पर्धकानां विधिः । नवरि च संख्यगुणोनं द्रव्यप्रमाणं तु प्रतिसमयम् ॥ ४७४ ।। नवस्पर्धकानां करणं प्रतिसमयं एवमेव नवरि तु । द्रव्यमसंख्येयगुणं स्पर्धकमानं असंख्यगुणहीनम् ॥ ४७५ ॥ अर्थ-द्वितीयादि समयोंमें भी प्रथम समयवत् अपूर्वस्पर्धकोंकी विधि है । परंतु विशेष इतना है कि वहां द्रव्य तो क्रमसे असंख्यातगुणा बढता हुआ अपकर्षण किया जाता है और किये हुए नवीन स्पर्धेकोंका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता होता है ऐसा जानना ॥ ४७४।४७५॥ पढमादिसु दिजकमं तकालजफड्ढयाण चरिमोत्ति । हीणकम से काले असंखगुणहीणय तु हीणकर्म ॥४७६ ॥ प्रथमादिषु देयक्रमं तत्कालजस्पर्धकानां चरम इति । हीनक्रमं वे काले असंख्यगुणहीनकं तु हीनक्रमम् ॥ ४७६ ॥ अर्थ-अपूर्वस्पर्धक करण कालके प्रथमादि समयोंमें अपकर्षण द्रव्य देनेका क्रम उसकालमें किये स्पर्धकोंके अन्तपर्यंत तो विशेष हीन क्रम लिये है । उसके वाद असंख्यातगुणा घटता हुआ उसके ऊपर विशेष हीन क्रमलिये जानना ॥ ४७६ ॥ पढमादिसु दिस्सकम तकालजफड्ढयाण चरिमोत्ति । हीणकम से काले हीणं हीणं कम तत्तो ॥ ४७७ ॥ १ यह पाठ भाषामें छूटा हुआ था सो अभिप्रायके अनुसार लिखागया है । इस समय प्राप्त भाषाकी प्रतिमें यह गाथा ही नहीं लिखा है।

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