Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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१४७
लब्धिसारः। जस्स कसायस्स जं किर्टि वेदयदि तस्स तं चेव । सेसाण कसायाणं पढमं किहि तु बंधदि हु॥ ५४४ ॥ यस्य कषायस्य यां कृष्टिं वेदयति तस्य तां चैव ।
शेषाणां कषायाणां प्रथमां कृष्टिं तु बध्नाति हि ॥ ५४४ ॥ अर्थ-जिस कषायकी जिस संग्रहकृष्टिको भोगता है उस कषायकी उसी संग्रहकृष्टिको बांधता है । और शेष कषायोंकी प्रथमसंग्रह कृष्टिको बांधता है ऐसा नियम है ॥ ५४४ ॥
माणतिय कोहतदिये मायालोहस्स तियतिये अहिया। संखगुणं वेदिजे अंतरकिट्टी पदेसो य ॥ ५४५ ॥ मानत्रये क्रोधतृतीये मायालोभस्य त्रिकत्रिके अधिका।
संख्यगुणं वेद्यमाने अंतरकृष्टिः प्रदेशश्च ॥ ५४५ ॥ अर्थ-अवयवकृष्टियोंके द्रव्यका अल्पबहुत्व ऐसे है कि मानकी तीन, क्रोधकी तीसरी और माया लोभकी तीन तीन इनमें विशेष अधिक अवयव कृष्टियोंका तथा प्रदेशोंका ( परमाणुओंका ) प्रमाण है । और वेद्यमान ( भोग्य ) क्रोधकी दूसरी कृष्टिमें संख्यातगुणा है ॥ ५४५॥
वेदिजादिहिदिए समयाहियआवलीयपरिसेसे। ताहे जहण्णुदीरणचरिमो पुण वेदगो तस्स ॥ ५४६ ॥ वेद्यमानादि स्थितौ समयाधिकावलिकपरिशेषे ।
तत्र जघन्यो दीरणचरमः पुनः वेदकस्तस्य ॥ ५४६ ॥ अर्थ-जिस संग्रहकृष्टिको वेदता है उसकी प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहनेपर आगाल प्रत्यागालका नाश होता है और समय अधिक आवलि शेष रहनेपर जघन्यस्थि. तिका उदीरक तथा वेदकका अन्तसमय होजाता है ॥ ५४६ ॥
ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणो। सत्तोवि य दिणसीदी चउमासभहियपणवस्सा ॥ ५४७ ॥ तत्र संज्वलनानां बंधो अंतर्मुहूर्तपरिहीनः ।
सत्त्वमपि च दिनाशीतिः चतुर्मासान्यधिकपंचवर्षाः ॥ ५४७ ॥ अर्थ-वहां संज्वलनचारका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम अस्सी दिन है और उनका सत्त्व भी अन्तर्मुहूर्तकम चारमास अधिक पांचवर्षमात्र है ॥ ५४७ ॥
घादितियाणं बंधो बासपुधत्तं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेण ॥ ५४८ ॥

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