Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचंद्रजैनशास्त्रमाला। - ~ ~ ~ श्रीनेमिचंद्राय नमः। श्रीमन्नेमिचंद्राचार्यसिद्धांतचक्रवर्तीविरचित लब्धिसार। पाढमनिवासी पण्डित मनोहरलालशास्त्रीकृत संस्कृतछाया तथा संक्षिप्तहिन्दीभाषाटीका सहित । (प्रथमावृत्ति १००० प्रति जिसे श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडल बंबईके ऑ० व्यवस्थापकने निर्णयसागर प्रेसमें रामचंद्र येसू शेडगेके प्रबंधसे छपाकर प्रसिद्ध किया । वीरनि० सं० २४४२ सन् १९१६ विक्रमसंवत् १९७३ । .. मूल्यं सार्धरूप्यकम्। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya-Sagar Press, 23, Kolbhat Lane, Bombay. Published by Sha Revashankar Jagajeevan Javeri, Hon. Vyavasthapak Shree Paramasbruta-Prabhavak Mandal, Javeri Bazar, Kharakuva, No. 2. BOMBAY Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं नमः प्रस्तावना। प्रिय पाठकगण ! आज मैं श्रीमहावीर प्रभुकी कृपासे आपके सामने यह क्षपणासारगर्भित लब्धिसार ग्रंथ संस्कृत छाया तथा संक्षिप्त हिंदीभाषाटीका सहित उपस्थित करता हूं; जो कि गोमटसारका परिशिष्ट भाग है। गोमटसारके दोनों भागोंमें जीव और कर्मका स्वरूप विस्तारसे दिखलाया गया है । तथा इस उक्त ग्रंथमें कर्मोंसे छूटनेका उपाय विस्तार सहित दिखलाया है । सब कर्मोंमें मोहनीयकर्म बलवान है, उसमें भी दर्शनमोहनीय जिसका दूसरा नाम मिथ्यात्वकर्म है सबसे अधिक बलवान है । इसी कर्मके मौजूद रहनेसे जीव संसारमें भटकता हुआ दुःख भोगरहा है। यदि यह दर्शनमोहनीयकर्म छूट जावे तो जीव सभी कर्मोंसे मुक्त होकर अनन्तसुखमय अपनी स्वाभाविक अबस्थाकोप्राप्त होंसकता है । इसीकारण इस लब्धिसार ग्रंथमें पहले मिथ्यात्वकर्म छुड़ानेकेलिये पांच लब्धियोंका वर्णन है । पांचोमें भी मुख्यतासे करणलब्धिका स्वरूप अच्छीतरह दिखलाया गया है। इसीसे मिथ्यात्व कर्म छूटकर सम्यक्त्वगुणकी प्राप्ति होती है। यही गुण मोक्षका मूलकारण है । उसके वाद चारित्रकी प्राप्तिका उपाय बतलाया है । चारित्रके कथनमें चारित्रमोहनीयकमैके उपशम व क्षय (नाश) होनेका क्रम दिखलाया है। उसके बाद बाकी कोंके क्षय होनेकी विधि बतलाई गयी है । कर्मोंका क्षय होनेपर मोक्षको प्राप्त जीवके मोक्षस्थानका स्वरूप दिखलाके ग्रंथ समाप्त किया गया है। ___ यह ग्रंथ श्रीचामुंडराय राजाके प्रश्नके निमित्तसे श्रीनेमिचंद्रसिद्धांतचक्रवर्तीने बनाया है जोकि कषायप्राभृत नामा जयधवलसिद्धांतके पंद्रह अधिकारोंमेंसे पश्चिमस्कंध नामके पंद्रहवें अधिकारके अभिप्रायसे गर्मित है । इसकी संस्कृतटीका उपशम चारित्रके अधिकारतक केशववर्णीकृत मिलती है आगेके क्षपणाधिकारकी नहीं। इसकी भाषाटीका श्रीमान् विद्वच्छिरोमणि टोडरमल्लजीने बनाई है, वह बहुत विस्तारसे हैं। उसमें उन्होंने लिखा है कि उपशमचारित्रतक तो संस्कृतटीकाके अनुसार व्याख्यान किया गया है। किंतु कोंके क्षपणा अधिकारके गाथाओंका व्याख्यान श्रीमाधवचंद्र आचार्यकृत संस्कृतगद्य रूप क्षपणासारके अनुसार अभिप्राय शामिल कर किया गया है। इसीसे इस ग्रंथका नाम लब्धिसार क्षपणासार प्रसिद्ध है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - इस ग्रंथके कर्ता श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्तीका जीवन-चरित्र जीवकांड भाषाटीकाकी भूमिकामें विस्तारसे लिखा गया है इससे यहां लिखनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके भाषाटीकाकारके विषयमें कुछ लिखना है जोकि वे स्वयं लिखगये हैं। ___ इस ग्रंथकी भाषाटीका रचनेवाले श्रीमद्विद्वद्वर्य टोडरमल्लजी हैं। इनकी जन्मभूमि ढूंढार देशमें जयपुरनगर है । उन्होंने लिखा है "रायमल्लनामके साधर्मी भाईकी प्रेरणासे संवत् १८१८ माघसुदि पंचमीके दिन सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामकी भाषाटीका बनाके पूर्ण की" । इससे उनका जन्म संवत् भी लगभग अठारह सौके है। ___ इसकी भाषाटीकाका बहुतविस्तार होनेसे सबका मुद्रित करना दुस्साध्य समझकर श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलके ऑनरेरी सेक्रेटरी श्रीमान् शा० रेवाशंकर जगजीवन जह्वेरीकी प्रेरणासे मैंने संस्कृतछाया तथा संक्षिप्त हिंदी भाषाटीका तयार की है । यद्यपि इस भाषानुवादमें सब विषयोंका खुलासा नहीं आया है तो भी मैं समझता हूं कि मूलार्थ कहीं नहीं छोड़ा गया है । सब विषयोंका खुलासा इसकी बड़ी भाषाटीकामें ही होसकता है । इस समयके अनुकूल गाथा सूची और विषयसूची भी लगादी गई हैं इसलिये पाठकोंको वांचनेमें सुगमता होसकती है। ___ यह भाषाटीका बड़ी टीकामें प्रवेश होनेकेलिये सहायकरूप अवश्य होगी यह मैं आशा करता हूं। तथा तत्त्वज्ञानी स्वर्गीय श्रीमान् रायचंद्रजी द्वारा स्थापित श्रीपरमश्रुतप्रभावकमंडलकी तरफसे इस ग्रंथका जो उद्धार हुआ है इसलिये उक्तमंडलके सेक्रेटरी तथा अन्य सभ्योंको कोटिशः धन्यवाद देता हूं कि जिन्होंने उत्साहित होकर इस महान ग्रंथका प्रकाशन कराके भव्यजीवोंका महान् उपकार किया है । द्वितीय धन्यवाद श्रीमान् स्याद्वादवारिधि गुरुवर पं० गोपालदासजी वरैयाको दिया जाता है कि जिन्होंके ज्ञानदानकी सहायता पाकर उनके चरणकमलोंकी कृपासे अपनी बुद्धिके अनुसार यह संक्षिप्त भाषाटीका निर्विघ्न समाप्त कीगई है। इस ग्रंथकी तथा गोमटसार ग्रंथकी विशेष संज्ञाओंके तथा गणितके जाननेके लिये इसी मंडलकी तरफसे इन्हीं नेमिचंद्राचार्यका त्रिलोकसार ग्रंथ भी संस्कृतटीका तथा भाषाटीकासहित शीघ्र ही प्रकाशित किया जायगा। अब अंतमें पाठकोंसे मेरी यह प्रार्थना है कि जो प्रमादसे, दृष्टिदोषसे तथा बुद्धिकी मंदतासे कहींपर अशुद्धियां रहगई हों तो पाठकगण मेरे ऊपर क्षमा करके शुद्ध करते हुए पढें । क्योंकि ऐसे कठिनविषयमें अशुद्धियोंका रहजाना संभव है । इसतरह धन्यवाद पूर्वक प्रार्थना करता हुआ इस प्रस्तावनाको समाप्त करता हूं। कृतं पल्लवितेन विज्ञेषु । जैनग्रन्थ उद्धारककार्यालय खत्तरगली हौदावाड़ी। जैनसमाजका सेवक. ___पोष्ट गिरगांव-बंबई. मनोहरलाल आसौज सुदि १५ वी. सं० २४४२. . पाढम ( मैंनपुरी ) निवासी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारके गाथाओंकी अकारादि-क्रमसे सूची। गाथा. ... पृ. गा. १३४|४९२ ।६०४ १६८।६३२ आ मिय २१५ ४।११ १३३४० १३१४२ २३१७८ ११०१३९३ ११२।४०३ १३१।४७९ १३१.४८० १३११४८१ १४१३५२२ १६२।६०७ ::: अ अ अपुण्णपदेसुवि अथिरसुभगजस अरदी अजहण्णमणुक्कस्स अजहण्ण ठिदीतियं अहवावलिगद वरठिदि असुहाणं पयडीणं अणियट्टियसंखगुणे अणियही अद्धाए अणियट्टी संखेज्जा अणियट्टिकरणपढमे अमणं ठिदि सत्तादो अडवस्सादो उवरिं अडवस्से उवरिंमिवि अडवस्से संपहियं अडवस्से गुणसेढी अडवस्से य ठिदीदो अणुसमओवणयं अवरा मिच्छतियद्धा अवर वर देसलद्धी अवरे देसठाणे अवरे विरदठाणे असुहाणं रसखण्ड अणियटिस्स य पढमे अणुभयगाणंतरजं अणुपुब्वीसंकमणं अवरे बहुगं देदि हु . अवरादो चरिमोत्तिय .. अद्धा खए पडतो अवरादो बरमहियं अवरा जेठाबाहा असुहाणं पयडीणं अणियहिस्स य पढमे ... . गाथा. अकसाय कसायाणं अवगयवेदो संतो ५॥१२ अपुव्वादिवग्गणाणं ६.१५ १०॥३० १०॥३२ आदिमलद्धिभवो जो २०१६५ आऊ पडि णिरयदुगे २४१८० आदिमकरणद्धाए २८९५ आदिम पडिसमय ३३।११३ आउगवज्जाणं ठिदि ३३।११५ आदिम पढम ... ३४.११८ आउगव ठिदि... ३४।११९ आदोलस्स य पढमे ३७॥१३० आदोलस्स य चरिमे ३८1१३२ आदोलस्स रसखंडे ३८।१३३ आयादोवयमहियं ३९।१३५ आवरणदुगाण खये ३९।१३६ ४२।१४८ इदि संढं संकामिय ५१।१७८ ५२।१८२ उदये चउदसघादी ५२।१८३ उदइलाणं उदये ५४।१९० उक्कस्सहिदिबंधो ६३।२२१ उक्कस्सद्विदि बंधिय ६४।२२४ ७०।२४५ उक्कस्सट्टिदिबन्धे उदरिय तदो बिदीया ७०।२४७ उदयाणमावलिम्हि य ८०।२८५ उक्कट्टिद इगिभागे ८१।२८७ उदयावलिस्स दव्वं ८६।३०७ उक्कट्टिदम्हि देदि हु १००।३६२ उवसामगो य सव्वा १०४।३७६ उवसमसम्मत्तद्धा ११३।४०६ उवसमसम्मत्तुवरिं ११३।४०८ उकट्टिद इगभागं : १२११४४० .... ९।२८ ९।२९ १८1५८ १८१५९ २०१६६ २०६७ २०१६८ २११६९ २११७१ २२।७३ २९.९९ २९/१०० .३०।१०३ ...३०1१०४ : : : : : : : . .. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। ... : : : पृ. गा. ६६।२३० ७१।२४९ ७३१२५५ ९३१३३५ ११२।४०१ ११३१४०५ ११५।४१४ ११६।४१७ : : : : : ... गाथा. उवहिसहस्सं तु सयं उक्कट्टिद बहुभागे उदयादि गलिदसेसा उदयबहिं उक्कट्टिय उवसमचरियाहिमुहो उदयावलिस्स बाहिं उवरिसमं उक्कीरह उदयिल्लाणंतर उक्कहिद पल्लासंखे उवसंतपढमसमये उदयादि अवट्टिदगा उवसंते पडिवडिदे उदयाणं उदयादो उवसामणा णिधत्ती उवसमसेढीदो पुण उवसंतद्धा दुगुणा उब्बट्टणा जहण्णा उक्कदि जे अंसे उदधिसहस्सपुधत्तं उदधि अभंतरदो उक्की रिदं तु दव्वं उक्कट्टिदं तु देदि अ उक्कट्टिददव्वस्स य उवरिं उदयठाणा उदयगद संगहस्स य उक्कट्टिद इगिभार्ग उक्किण्णे अवसाणे उक्कट्टदि पडिसमयं उक्कट्टदि तंगुण पृ. गा. गाथा. ३४.११६ एवं पल्ला जादा ४१।१४२ एय णउंसयवेदं ४१११४३ एवं संखेज्जेसु ... ४३।१४९ एवं पल्लासंखं ... ५९।२०३ एकं च ठिदिविसेसं ६४।२२२ एकेक्कटिदिखंडय ६९।२४१ एइंदियट्टिदीदो ७०।२४४ एवं पल्ला जादा ७९।२८१ एदेणप्पा बहुग ८४।३०० एत्तो सुहुमंतोत्ति य ८४।३०२ एत्तो पदर कवाडं ८५।३०५ एकेकस्स णिठंभण ८६।३०९ एतो करेदि किटिं ९४।३३९ एत्थापुव्वविहाणं ९७१३४८ १०३१३७१ ओदरसुहमादीए १११।३९८ ओदर बादर पढमे १११।४०० ओदरमायापढमे ११४।४११ ११६१४१८ ओदर मायालोभे ओदरगमाणपढमे ११९।४३२ ओदरग चउमासा १२८१४६७ ओदरग कोहपढमे १३४।४९० ओदरग संजलणा १३९।५१४ ओदरग पुरिसपढमे १४२१५२४ ओदरसुहमादीदो 1५८० ।५९२ १६६१६२३ १६७१६२६ १६८१६३१ १६९/६३५ ८७३१० ८७१३१३ ८८१३१४ ८८३१५ ૮૮૩૧૬ ८८१३१७ ८९।३१८ ८९॥३१९ ८९।३२० ९५६३४१ ... एदेहिं विहीणाणं एतो समऊणावलि एवं विह संकमणं एक्कक्कटिदिखंडय एयटिदि खंडुक्की एत्तो उवरिं विरदे एवं पमत्तमियर एइंदियटिदीदो... १६८।६२९ अंतोकोडाकोडी १६९।६३३ अंतोकोडा ठिदं | अंतोमुहुत्तकाला ८।२५ अंतरकडपढमादो १७१५७ अंतरपढमं पत्ते २३७६ अंतिमरसखंडुक्की २३१७९ अंतोकोडाकोडी २५।८५ अंतोमुहुत्तमद्धं ५४।१८९ अंतोमुहुत्तकालं ६२।२१७ अंतोमुहुत्तकाले ६५।२२० अंतिमरस बरिम ८२४ १११३४ २५/८७ २६८९ २७१९३ २८९७ ३०११०२ ३४।११७ ४८1१६७ ५०1१७६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ... गाथा. अंतोमुहुत्तमेतं... अंतोकोडाकोडी अंतरपढमे अण्णों अंतर हेदुक्कीरिद अंतरपढमादु कमे अंतर पडिसमय अंतरकदादु छण्णो अंतोमुहुत्त धादि अंतोमुहुत्त उवसंत अंतो बंधादो पुण अंतरकदपढमादो अंतरपढमठिदिति य अंतर विहीणकमं अंतर दुघादोत्ति अंतर दिस्सदि हु अंतोमुत्तमाऊ पृ. गा. गाथा. ६०२०८ कोहस्स पढमसंगह ६५।२२५ कोहस्स पढमकिट्टि ६९।२४२ कोहादिकिट्टिवेदग ६९।२४३ कोहस्स य जे पढमे ७१।२४८ कोहादिकिट्टियादि ७१।२५० कोहस्स पढमसंगह ७४।२६२ कोहस्स विदिय किट्टी ८३।२९७ कोहस्स बिदियसंगह ८४।३०१ कोहस्स पढमकिट्टी ११२।४०४ कोहपढमं व माणो १२५।४५७ कोहस्स कोहे... ।५८२ किट्टी वेदगपढमे १५८३ कोहस्स य पढमादो 1५८५ हयगुण चरिमठिदी ।५८६ कोहस्स य पढमठिदी ... १६४।६१६ किट्ठीकरणे चरिमे किट्टिगजोगी झाणं पृ. गा. १३९।५१३ १४३१५२७ १४४३५३२ १४४१५३३ १४४१५३४ 1५३८ 1५४० 1५४१ ।५४३ ।५५२ 1५७१ ।५७३ ।५८४ ... १६९/६३६ १७०।६३९ २१४ ... ४२११४७खय उवसमियविसोही । ४४।१५४ खुज्जद्धं णाराए ७६।२६७/ खवगसुहुमस्स चरिमे २।३ ५।१४ ५८१२०२ १६२१६०६ : ७६.२६खीणे घादिचउक्के : : : कम्ममलपडलसत्ती करणपढमादु जावय कदकरण सम्म खवण कोहदुगं संजलणग कोहस्स पढमठिदी किट्टीकरणद्धाए किट्टीयद्धाचरिमे किहिं सुहुमादीदो कमकरण विणठादो करणे अधापवत्ते किट्टीकरणद्धहिया कोहोवसामणद्धा कोहं च छुहदि माणे कोहादीणमपुव्वं कोह दु सेसेणवहिद कोहादीणं सगसग किट्टीयो इगिफड़य कोहस्स य माणस्स य किट्टीकरणद्धाए किट्टीवेदगपढमे ८१।२८९ ८१।२९० गुणसेढी गुणसंकम गुणसेढी अपुव्व ९३।३३३ गुणसेढीदीहत्तम ९५।३४३ गुणसेढीए सीसं १०१।३६६ गुणसेढि संखभागा १०२।३७० गुणसेढी सत्थेदर १२०।४३६ गुणसेढी पडिसमय -१२८१४६८ गुणसेढी बिदिय १२९/४७१ गुणसेढी दीहत्तं १३३१४८९ गुणसेढि असंखेज्जा १३४।४९१ गुणसेढि अणंतगुणे १३५।४९४ गणणादेयपदेसग १३७५०३ गुणसेढि अंतरहिदि १३९४५११ गुणिय चउरादि खंडे ... १२।३७ १६१५३ १७१५५ २५।८६ ४०1१३९ ८४३११ १०९।३९० ११०।३९४ ११०।३९५ १२११४३९ १२४१४५१ १२७१४६४ 1५८१ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गाथा. घादिति सादं मिच्छं घादितियाणं णियमा घादितियाणं संखं धादयदम्बादो पुण घादितियाणं बंधो घादितियाणं वास धादितियाणं सत्तं घादीण मुहुत्तंतं पृ. गा. ३५।१२३ ३६।१२७ --३९।१३७ ४३११५० ४३११५१ ६१।२१२ ७२।२५२ : : : १२ ९६१३४६ ९८१३५१ ९८।३५२ ९९।३५७ १२९।४७० 1५४४ १६३१६१० १६३१६११ १६५/६१९ १६६४६२२ १७०४६४० १७५।६४९ : : पृ. गा. गाथा. जत्थ असंखेज्जाणं ७२० जदि होदि गुणिदकम्मो ९०।३२५ जदि गोउच्छविसेसं १३७५०५ जदि संकिलेसजुत्तो ... १४२।५२३ जदि वि असंखेजाणं १४५।५३६ जावंतस्स्स दुचरिम १५४८ जत्तोपाये होदि हु ५४९ जत्तोपाये असंखव ।५९७ जदि मरदि सासणो सो जस्सुदयेणारूढो जस्सुद पढम ... जस्सुदएण य चडिदो १४|४७ १८।६० जे हीणा अवहारे ४१।१४४ जस्स कसायस्स जं जंणोकसायविग्घ ४२११४५ जं णोकसाय सुह ५१११७९ जोगिस्स सेसकालो ९६१३४४ १०२।३६७ जगपूरणम्हि एका योगिस्स सेसकालं १०२।३६९ १०४।३७७ जस्स य पायपसाए १०५।३७८ १०५।३७९ ठिदिबंधोसरणं पुण १०६३८१ ठिदिखंडाणुक्कीरण ठिदिरसघादो णस्थि हु १०६।३८३ ठिदिसत्तमपुव्वदुगे १०७१३८६ ठिदिखंडयं तु खइये १०७।३८८ ठिदिबंधसहस्सगदे ५९९ ठिदिबंधपुधत्तगदे १६२।६०५ टिदिबंध मणदाणा ठिदिबंधाणोसरणं ठिदिखंडयं तु चरिमं ठिदिबंध संखेज्जा ठिदिबंध पत्तेयं १३३॥४८७ ठिदिबंध अठ्ठक ... ठिदिबंध सोलस ३८ ठिदिबंध मण ... ११.३५ ठिदिखंडसहस्सगदे १६.५१ ठिदिबंध संढो... : चदुगदिमिच्छो सण्णी चरिमे सव्वे खंडा चरिम णिसेउक्कडे चरिमं फालिं देदि हु चरिमं फालिं दिण्णे चरिमाबाहा तत्तो चडणोदरकालादो चडबादरलोहस्स य चडमाया वेदद्धा चडमाणस्स य णामा चलतदिय अवरबंधं चडमायमाणकोहो चडपडणमोहपढमं चडपडणमोह चरिमं चडणे णामदुगाणं चडपड अपुव्वपढमो ... चडमाण अपुव्वस्स य चरिमे खंडे पडिदे चरिमे पढमं विग्धं चउसमएसु रसस्स : : : : १०६।३८२ : : : : :: :: : १६१५४ ३९।१३४ ५०1१७३ ६०।२०६ ६३।२२० ६५।२२६ ६५।२२७ ६८।२३७ ७२।२५४ १०७।३८५ ११५।४१२ ११५।४१३ ११८।४२६ ११८१४२७ ११८१४२८ ११९४४३० १२११४३७ 1६२१ छद्दव्वणवपयत्थो छक्कम्मे संछुद्धे :: : जेठवरठिदिबंधे जम्हा हेद्विसभावा जम्हा उवरिमभावा : Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। गाथा. ठिदिबंध संखेज्ज ठिदिखंडपुधत्तगदे ठिदिसंतं घादीणं ठिदिसत्तमघादीणं ठिदिखंडमसंखेजे : : : : : णरतिरियाणं ओघो णिक्खेवमदित्थावण णिट्ठवगो तहाणे णरुतिरिये तिरियणरे णामदुगे वेयणिय णवरि य पुवेदस्स य णवरि असंखाणंतिम णामधुवोदय बारस णवरि य णामदुगाणं णरयतिरिक्खणराउग णव फडयाण करणं णासेदि परछाणिय णामदुगे वेयणिये णव णोकसाय विग्घ च ... णट्ठा य रायदोसा णवरि समुग्धादगदे पृ. गा. गाथा. १२३३४४७ तत्थ असंखेजगुणं १२३।४४८ तत्थ य पडिवायगया १२५।४५५ तत्थ य पडिवादगया १३३।४८६ तत्तो पडिवज्जगया १६६१६२० तत्तोणुभयठाणे तत्तो य सुहमसंजम ६।१६ तत्तो तियरणविहिणा - १७५६ तेण परं हायदि वा ३२।१११ तिकरणबंधोसरणं तेत्तियमेत्ते बंधे ७३१२५८ तेत्तिय वेयणीय ७४।२५९ तेत्तिय तीसिय ८०१२८६ तकाले वेयणियं ८५.३०३ तीदे बंधसहस्से ९०१३२३ तो देसघादिकरणा ९६१३४७ तच्चरिमे पुबंधो १३०॥४७५ तेसिं रसवेदमव १४१३५२१ तकाले मोहणियं ५९४ तत्तो अणियटिस्स य १६२१६०८ तस्सम्मत्तद्धाए ताहे चरिमसवेदो १६४।६१५ तग्गुणसेढी अहिया तम्मायावेदद्धा ४।१० तीसिय चउण्ह पढमो ५।१३ तप्पढमट्ठिदिसतं ६।१७ तिकरणमुभयोसरणं ६।१८ तक्काले ठिदिसतं तेत्तियमेत्ते बंधे ... ७२२ तेत्तिय वेय ... . ८॥२३ तेत्तिय वीसि ... ११.३३ तक्काले इदि ... १३१४१ तीदे पल्लासंखे... १३।४३ तस्साणुपुव्विसंकम १९।६२ ताहे संखसहस्सं १९।६४| ताहे मोहो थोवो २७१९४ ताहे असंखगुणियं २९४९८ ताहे संजलणाणं ४०।१३८ ताहे देसावर ... पृ. गा. ४१।१४१. ५३।१८४ ५५।१९१ ५५।१९३ ५६।१९४ .५६।१९५ ५९।२०४ ६२।२१६ ६३।२१८ ६६।२३२ ६७७२३३ ६७।२२४ ६७४२३५ ६७४२३६ ६८।२३९ ७४।२६० ८५।३०४ ९२।३३१ ९४।३३८ ९६।३४५ १००१३६० १०१।३६५ १०२॥३६८ १०६।३८४ १०७७३८७ १०८।३८९ ११५।४१५ ११६१४२० ११७१४२१ ११७/४२२ ११७४२३ ११८१४२५ १२०१४३४ १२२१४४२ १२२।४४३ १२२।४४४ १२६१४६० १२७४४६३ तत्तो उदय सदस्स य तिरियदुगुज्जोवो विय ते चेव चोदसपदा ते तेरस बिदिएण य ते चेवेक्कारपदा तं सुरचउक्कहीणं तं णरदुगुच्चहीणं तत्तो अभव्वजोग्गं तच्चरिमे ठिदिबंधो ताए अधापवत्त तत्तोदित्थावणगं तक्कालवजमाणे तत्तो पढमो अहिओ तठाणे ठिदिसंतो तत्तकाले दिस्सं ल.सा.प्र. २ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गाथा. . ताहे दव्ववहारो ताहे अपुन्वफड़य ताहे कोहुच्छिद्रं ताहे संजलणाणं बंधो ताहे अडमास तदियस्स माणचरिमे ... तदियगमायाचरिमे तत्तो सुहुमं गच्छदि ताणं पुण ठिदिसतं तिण्डं घादीणं ठिदि तत्थ गुणसेढि करणं ... तिहुवण सिहरेण मही ... : : : : : थीयद्धा संखेजदि थी उवसमिदाणंतर थी अणुवसमे पढमे थी उदयस्स य एवं थी अद्धा संखेज थी पढमद्विदिमेत्ता : : पृ. गा. गाथा. ... १२९४४७२ पडिसमयग परिणामा १३०१४७३ पडिखंडगपरिणामा १३८।५०९ पढमे चरिमे समये १४४।५३५ पढमे करणे अवरा ।५४७ पढमे करणे पढमा 1५५४ पढमं व बिदियकरणं ॥५५७ पडिसमयं उक्कट्टदि। ॥५७५/पडिसमयमसंखगुणं ।५७७ पढमं अवरवरहिदि ।५९५ पढमापुव्वरसादो १७११६४१ पढमट्ठिदियावलिपडि १७२१६४५ पढमादो गुणसंकम पढमापुव्वजहणं ७३।२५६ पुव्वं तियरणविहिणा ७३।२५७ पल्लस्स संखभागो ९.१३२४ पल्लट्ठिदिदो उवरिं ९९।३५८ पल्लस्स तस्स माणं १२११४४१ पलिदोवमसंतादो ... . ६०३ पलिदो पढमो... पढमट्ठिदिखंडुक्की २१ पल्लस्स चरिम... १०.३१ पढमे अवरो पल्लो ३२।११० पडिवाददुगवर वर ४२११४६ पडिवादगया मिच्छे ४५।१५८ पडचरिमे गहणादी ४६।१६२ पडिवादादी तिदयं ४७११६४ पडिवज्जजहण्णदुर्ग ४८।१६६ परिहारस्स जहणं ४९/१७२/पढमे छठे चरिमे ५०११७४ पल्लस्स संखगुणूणं पुणरवि मदिपरिभोगे पुरिसस्स य पढमठिदी १४३३५२९/पुरिसस्स उत्तणवर्क 1५६६/पढमावेदे संजल 1५६८/पढमावेदो तिविहं पढमट्ठिदिसीसादो ९।२७ पढमट्ठिदि अद्धते १२॥३९ पडिसमयमसंखगुणा ... पृ. गा. १४॥४४ १४।४५ १४।४६ १५।४८ १५।४९ १५/५० २२१७४ २२१७५ २३१७७ २४।८२ २६४८८ २७४९१ २८1९६ ३२१११२ ३३।११४ ३५१२० ३५।१२१ ४६.१५९ ४६।१६० ५१११७७ ५१११८० ५२।१८१ ५३।१८६ ५५।१९२ ५७११९६ ५७११९७ ५७।१९९ ५८२०० ६४।२२३ ६६।२२९ ६८०२३८ ७४।२६१ ७५/२६३ ७५।२६४ ७५।२६५ ७६।२७० ७९।२७९ ७९/२८२ : : : : : : : : : देवतसवण्ण अगुरु दुति आउ तित्थ हार दसणमोहक्खवणा देवेसु देवमणुए दूरावकिट्टिपढमं दसणमोहूणाणं दसणमोहे खविदे दुविहा चरित्तलद्धी दव्वं असंखगुणिय देसो समये समये दसणमोहुवसमणं दोण्हं विण्ह चउण्हं दिनदि अणंतभागे दव्वं पढमे समये दव्वगपढमे सेसे पढमे सव्वे बिदिये पालस्स संखभागं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार। पृ. गा. 1५६९ 1५८७ ।६०२ १६४।६१४ १६८१६२८ १७०६३७ ... ... ११२।४०२ गाथा. पढमे चरिमे समये पुरिसादीणुच्छिद्रं पुरिसादो लोहगयं पुसंजलणिदराणं पुरिसे दु अणुवसंते पढमो अधापवत्तो पुंकोधोदयचलिय पुंकोहस्स य उदय पडणजहण्णट्ठिदि बंपडणस्स असंखाणं पडणाणियट्टियद्धापडिवडवर गुणसेढी. पडणस्स तस्स दुगुणं पल्लस्स संखभागं पडिसमयं उक्कदि पडिसमयमसंखगुणं पल्लस्स संखभागं पढमे छटे चरिमे पल्लस्स अवरं तु पल्लस्स संखगुणूणं पुणरवि मदिपरिभोगं पडिसमयं असुहाणं पुरिसस्स य पढमट्ठिदि-... पुवाण फड़याणं पढमादिसु दिज्जकमं पढमादिसु दिस्सकमं पढमाणुभागखंडे पढमादिसंगहाओ पडिसमयमसंखगुणं पुव्वादिम्हि अपुव्वा पडिपदमणंतगुणिदा पुवापुव्वप्फड्य पढमस्स संगहस्स य पुव्विल्ल बंधजेठा पडिसमयं अहिगदिपा पडिसमयं संखेजदि पढमादि संगहाणं पढमो विदिये तदिये पढमगमायाचरिमे पृ. गा. | गाथा. ८२।२९४/पढमादिसु दिस्सकम ८३।२९८ पढमगुणसेढिसीसं ८३१२९९ पुरिसोदएण चडिद ८९॥३२१/पडिसमयं दिव्वतम ९०३२२ पुवादि वग्गणाणं ९५।३४० पढमे असंखभागं ९७१३४९ पुव्वण्हस्स तिजोगो १००।३६१ १०१३६३ बिदियकरणादिसमया १०३।३७२ बोलिय बंधावलियं . १०३।३७३ बिदियं व तदियकरणं बिदियकरणादिमादो १०५।३८० बिदियावलिस्स पढमे १०९।३९२ बिदियकरणा वोच्छं। ११०॥३९६ बिदियकरणस्स पढमे । १११३३९७ बिदिय करणादु जावय बिदियट्ठिदिस्स दव्वं ११३।४०७ बिदियट्ठिदिस्स पढम । ११४॥४१० बिदियकरणादिसमये ११६१४१६ बिदियद्धे लोभावर ११८१४२९ बिदियद्धा संखेज्जा १२३१४४९ बिदियद्धा परिसेसे १२५।४५६ बादरलोभादिठिदी १२८१४६५ बिदियादिसु समयेसु हि १३०४७७ बादरपढमे पढम बंधे मोहादिकमे १३१।४७८ १३४।४९३ बंधेण होदि उदओ १३६।४९९ बंधेण होदि अहियो १३६।५०१ बंधोदएहिं णियमा १३४१५०६ बिदियादिसु समएसु १३८५०७ बिदियतिभागो किट्टी -१३९।५१२ बारेकारमणंतं... १४०५१६ | बिदियादिसु चउठाणा १४०१५१८ बंधद्दव्वाणंतिम .. १४१३५२० बिदियस्स माणचरिमे 1५३९ बिदियगमाया चरिमे ... ५४२ बिदियादिसु समये ।५५५ बहुठिदिखंडे तीदे ... १६.५२ . १९।६३ २४।८३ २७१९२ ३८।१३१ ४४/१५२ ४६११६१ ५०1१७५ ६११२१० ६१।२१३ ६३२२१९ ७९।२८. ८११२८८ ८११२९१ ८२१२९२ ८३१२९५ ८७१३१२ ११४।४०९ ११७॥४२४ १२११४३८ १२४/४५० १२४।४५२ १३०१४७४ १३३१४८८ १३७४५०२ १४०/५१५ १४२।५२६ ।५५३ १५५६ १३०१४७६ बादरपढमे किट्टी 1५९८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा. बादरमणवचि उत्सा बाहत्तर पयडीओ म मिच्छणथीणति सुर चउ ... मज्झिमधणमवहरिदे मिच्छत्तमिस्स सम्म मिस्सुदये संमिस्सं मिच्छत्तं वेदंतो मिच्छाइट्ठी जीवो मिच्छुच्छिट्ठादुवरिं मिस्सुच्छिट्ठे समए मिच्छस्स चरमफालि मिस्सदुगच रिमफाली मिच्छे खवदे सम्मदु मिच्छंतिम ठिदिखंडो मिच्छो देसचरितं मिच्छो वेदगस मोहगपल्ला संख माणस्स पढमठिदी माणदुगं संजलणग माणस्स य आवलि मायाए पढमठिदी मादुगं संजणग मायाए आवलि मोहस्स असंखेज्जा मोहं वीसिय तीसिय मोहस्स य ठिदि बंधो मोहस्स पलबंधे माणोदएण चडिदो माणोदयचडपडदो माणादितिया द मोहगपल्लासंख माणादीहियकमा माणतिय कोहत दिये मासपुधत्तं वासा मायतिगादो लोभ माणतियाणुदयमहो मज्झिमबहुभागुदया रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ... पृ. गा. १६७।६२४ १७२।६४४ रसगदपदेस गुणहा गाथा. | रसठिदि खंडुक्कीरण ८।२५ रससंतं आगहिदं २१।७२ रसखंडफड्डयाओ रसठिदिखंडाणेवं २६/९० ३१।१०७ ३१।१०८ ४५/१५६ ४५।१५७ | लोहस्स असंकमणं | लोयाणमसंखेज्जं ३२।१०९ | लोभोदएण चडिदो ३६।१२४ | लोभादी कोहोत्तिय ३६।१२५ लोहस्स अवर किट्टिग ३६।१२६ | लोभस्स दव्वं तु ३७ १२८ लोहादो कोहादो | लोहस्स पढमचरिमे | लोहस्स तदियसंगह ४८।१६८ | लोहस्स पढमकिट्टी ४८।१६९ | लोहस्स तदीयादो ६६।२३१ लोभस्स बिदिय कि हिं ७७/२७१ लोभस्स तिघादीणं ७७/२७२ ७७ २७३ | वेदगजोगो मिच्छो ७८।२७५ वस्साणं बत्तीसा ७८।२७६ विवरीयं पडिहण्णदि ७८।२७७ वेदिज्जादि ट्ठिदिए ९१।३२७ | वीरिंददिवच्छे ९२/३३२ ९३।३३६ | सिद्धे जिनिंदचंदे ९४ । ३३७ सम्मत्त हिमुह मिच्छो ९८१३५३ समए समए भिण्णा ९९।३५५ | सत्थाणमसत्थाणं ९९।३५६ सत्तग्गट्ठिदिबंधो ११६।४१९ | सेसगभागे भजिदे १३२।४८३ | संखेज्जदिमे सेसे ।५४५ सायारे वट्ठवगो । ५५८ सम्मुदये चलमलिण ।५७२ सुत्तादो तं सम्मं ६०१ सम्मस्स असंखाणं १७०।६३८ | सेसं विसेसहीणं र व स पू. गा. २४।८१ -४४।१५३ १२६।४६१ १२७।४६२ १३२।४८४ ९१।३२८ ९२।३३० ९८/३५४ १३५/४९६ १३५/४९७ १३६।४९८ १३९/५१० ५५९ ५६२ १५६४ ।५७० ।५७४ १५७६ ५४।१८८ ७२/२५३ ९१।३२९ । ५४६ १७४ । ६४८ १1१ ४/९ ११।३६ १२।३८ १८।६१ २१।७० २५/८४ २९।१०१ ३०।१०५ ३१।१०६ ३५/१२२ ३७।१२९ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लब्धिसारः। : : : पृ. गा. १२८१४६६ १२९.४६९ १३५।४९५ १३७५०४ १३८१५०० १४११५१९ १४३१५२८ १४३१५३० १४४।५३१ १४५१५३७ 1५५० ।५५१ १५६० ।५६१ ६०।२०७ . 1५७८ 1५८८ 1५९० ।५९१ गाथा. सम्मत्तचरिमखंडे सम्मदुचरिमे चरिमे सत्तण्डं पयडीणं सत्तण्डं अवरं तु सम्मत्तुप्पत्तिं वा से काले देसवदी सयलचरित्तं तिविहं सामयिगदुगजहणं सम्मस्स असंखेज्जा सम्मत्तपयडिपढम सम्मादिठिदिज्झीणे सम्मत्तुप्पत्तीए संजलणाणं एक सत्तकरणाणियंतर संढादिम उवसमगे संजलणचउक्काणं से काले माणस्स य से काले मायाए से काले लोहस्स य से काले किहिस्स य सोदीरणाण दव्वं सुहुममपविठ्ठ समये संढणुवसमे पढमे सहाणे तावदियं संढदयंतरकरणो सुहुमंतिमगुणसेढी संजद अधापवत्तग सत्थाणमसत्थाणं संकामे दुक्कट्टदि संजलणाणं एकं सक्तकरणाणियंतर . संछुहदि पुरिसवेदे सत्तण्हं पढमहिदि सत्तण्हं घादिठिदि संकमणं तदवढं सत्तण्हं संकामग समऊण दोण्णि आवलि ... सेकाले ओवट्टणि पृ. गा. | गाथा. ४०११४० समखंड सविसेसं. ४४।१५५ सगसग फड्डयएहिं ४७११६३ संगहगे एकेके... ४७११६५ सेसाणं वस्साणं ४९।१७०से काले किट्टीओ ४९।१७१ संकमदि संगहाणं ५४।१८७ संखातीदगुणाणि य ५८.२०१ संकमदो किट्टीणं संगह अंतरजाणं ६१।२११ से काले कोहस्स य से काले तदियादो ६२।२१४ से काले माणस्स य ६२।२१५ सेसाणं पयडीणं ६८।२४० ७०।२४६ से काले लोहस्स य सुहसाओ किट्टीओ ७२।२५१ सेकाले सुहुमगुणं ७५।२६६ सुहुमद्धादो अहिया ७६।२६९ सुहमाणं किट्टीणं ७७१२७४ सुहुमे संखसहस्से से काले सो खीण ८२।२९३ सत्तण्हं पयडीणं ८५।३०६ समयट्टिदिगो बंधो ८६।३०८ सहाणे आवज्जिद ९१।३२६ सण्णिवि सुहुमणि ९५६३४२ सुहुमस्स य पढमादो १००।३५९ सेढिपदस्स असंखं १०१।६६४ सेढिपद सव्वाओ १०४।३७५ से काले जोगिजिणो १०९।३९१ सीलेसिं संपत्तो ११११३९९ सो मे तिहुवणमहियो ११९४३१ १२०१४३३ हेठा सीसे उभयं १२०१४३५ हेठा सीसंथोवं १२२१४४५ होदि असंखेज्जगुणं १२३१४४६ हयकण्णकरणचरिमे १२४/४५३ हेठा असंखभागं १२५।४५४ हेट्ठिमणुभयवरादो १२६।४५८ हेठा किट्टिप्पहुदिसु १२६१४५९ हेठादंडस्संतो... ७८।२७८ ... १६२।६०९ १६३१६१३ १६५।६१८ १६७१६२५ १६७१६२७ १६८।६३० १६९।६३४ १७११६४२ १७११६४३ १७३।६४७ : . : . . : : . .. . : : . . . ८०।२८३ ८०।२८४ १३११४८२ १३२।४८५ १३६१५०० १४०॥५१७ १४२।५२५ १६५।६१७ . . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारकी विषयसूची। २२५ बंधापस विषय. पृ. पं. । विषय. मंगलाचरण, ग्रंथप्रतिज्ञा ... ... ११ उपशमचारित्रका वर्णन ... ... ५९।२०३ दर्शनलब्धि अधिकार-१ उपशमश्रेणी चढ़नेमें द्वितीयोपशम स . म्यक्त्वीकी अवस्था ... ... ५९।२०४ प्रथमोपशसम्यक्त होनेके योग्य चारित्रमोहकर्मके उपशमकरनेमें आठ पांच लब्धियोंके नाम २१३ अधिकारोंका वर्णन ... ... ६३।२१८ क्षयोपशमलब्धिका खरूप ... . २।४ तीनकरणका विधान . ... ६३।२१९ विशुद्धिलब्धिका लक्षण ... ... बंधापसरणादिका खरूप... ... ६३।२२० देशनालब्धिका खरूप .... ३।६/उपशांतकषायसे पड़नेकी विधि ... ८५।३०५ प्रायोग्यलब्धिका खरूप ... उपशमश्रेणी चढ़नेवाले बारह तरहके प्रकृतिबंधापसरणके चोंतीस स्थानोंका जीवोंकी विशेष क्रियायें ... ९७१३४९ वर्णन ४।११ उदयका खरूप ९।२८ क्षायिकचारित्र अधिकार-३ सत्त्वका स्वरूप १०॥३१ चारित्रमोहकी क्षपणा (नाश करने) करणलब्धिका स्वरूप ११।३३ का विधान ... ... १०८।३८९ अधःकरणका खरूप ११।३५ अधःप्रवृत्तकरणका वर्णन... ... १०९।३९० अपूर्वकरणका स्वरूप १५५० अपूर्वकरणका खरूप ... ११०१३९४ गुणश्रेणीका वर्णन २०६८ गुणश्रेणीका स्वरूप ११०॥३९५ गुणसंक्रमणका खरूप ... २२।७५ गुणसंक्रमका स्वरूप १११॥३९७ स्थितिकांडकघातका खरूप २३१७७ स्थितिखंडनका स्वरूप ११२।४०२ अनुभागखंडनका कथन ... २३१७९ अनुभागखंडनका स्वरूप... ११३१४०५ अनिवृत्तिकरणका खरूप... अनिवृत्तिकरणका स्वरूप ... ११३१४०८ प्रथमोपशम सम्यक्सकी प्राप्तिके योग्य स्थितिबंधापसरणका क्रम ११५/४१२ काल ... ... ८1९७स्थितिसत्त्वापसरणका क्रम ११७१४२४ क्षायिक सम्यक्त्वका वर्णन और उस क्षपणाका खरूप ११८१४२६ के योग्य सामग्री ३२।११० देशघातिकरणका स्वरूप ... ११८१४२८ अंतकांडकका विधान ... ... ४०।१३९ अंतरकरणका खरूप ... ११९।४३० दर्शनमोहकी क्षपणाके अल्पबहुलके संक्रमणका खरूप ... ... १२०१४३३ तेतीसस्थान ...४४।१५३भारी अपगतवेदीकी क्रियाका खरूप ... १२६।४५९ चारित्रलब्धि अधिकार-२ अनुभागकांडकके घात होनेपर जो चारित्रलब्धिका खरूप और भेदोंका __ अवस्था हो उसका कथन ... १३११४७८ कथन ... ... ४८1१६६ कृष्टि-क्रियासहित अर्श्वकर्ण क्रिया होनेदेशचारित्रका कथन ... ... ४८।१६७ में यति वृषभाचार्यकी सम्मति ... १३२१४८५ सकल चारित्रका वर्णन ... ... ५४।१८७ बादरकृष्टिकरणका काल ... ... १३३१४८७ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ११ पृ पं. विधान ... विषय. पृ. पं. | विषय. पार्श्वकृष्टिका कथन ... ... १३६१५०० केवलीके इंद्रियजनित सुख दुःख नहीं कृष्टिवेदनाका कथन १३८१५०० होनेमें हेतु १६३१६१२ संक्रमणद्रव्यका विधान ... १४११५१९ दूसरा हेतु ... १६३१६१३ अनुसमय अपवर्तनकी प्रवृत्तिका | केवलीके आहारमार्गणा होनेमें कारण १६४।६१४ कथन ... १४१।५२० | समुद्धातक्रियाका वर्णन ... ... १६४।६१६ खस्थान परस्थान गोपुच्छ रचनाका समुद्धातके पहले केवलीके आवर्जित१४२१५२३ करण होता है ... १६५।६१७ दूसरा विधान ... .. १४२१५२४ आवर्जितकरणमें गुणश्रेणी आयामका क्षीणकषाय नामा बारहवें गुणस्थानका कथन ... १६५।६१९ खरूप ... ।५९६ उस समुद्धातमें कार्य विधान १६६।६२० पुरुषवेदसहित श्रेणी चढ़नेवालेका समुद्धातक्रियाके समेंटनेका क्रम ... १६६।६२३ ।६०० बादरयोगोंका सूक्ष्मरूप परिणमन होनेस्त्रीवेद सहित चढ़े जीवोंके मेदोंका की अवस्था ... ... १६७१६२५ वर्णन ।६०२ अयोगकेवलीका कथन ... ... १७११६४२ नपुंसकवेद सहित चढ़े जीवोंका कथन ।६०३ चौदहवें गुणस्थानके अंतसमयसे पहक्षीणकषाय गुणस्थानके अंतसमयका लेमें तथा अंतसमयमें पचासी प्रकृकथन ... ... ... ।६०५] तियोंका (कर्मोका) नाश करनेका सयोगकेवली गुणस्थानका वर्णन ... १६२१६०६ कथन ... .... ... १७२१६४४ चार घातियोंके क्षयसे चार गुणोंका ऊर्ध्वलोकके ऊपर मोक्षस्थानका खरूप १७२१६४५ प्रगट होना ... १६२।६०७ इष्ट प्रार्थना ... ... १७३।६४७ दुःखका लक्षण १६३१६१० ग्रंथकर्ताकी प्रशस्ति .. १७४।६४८ इंद्रियजनित सुखका लक्षण १६३१६११ अंतमंगल १७५४६४९ खरूप ... . इति विषयसूची. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायूचंद्रजैनशास्त्रमालाद्वारा प्रकाशित ग्रंथोंकी सूची। १ पुरुषार्थसिझुपाय भाषाटीका-यह प्रसिद्ध शास्त्र दूसरीवार छपाया गया है । न्यों. १ रु०. 'भा०टी०-इसमें दो संस्कृत टीकायें और एक हिंदी भाषाटीका है। यह भी दूसरी वार छपाया गया है। न्यों० २ रु०. ३ज्ञानार्णव भा०टी०-इसमें ब्रह्मचर्यका विस्तारसे कथन है दूसरी वार छपाया गया है।न्यों०४ रु. ४ सप्तभंगी तरंगिणी भा० टी०-यह भी दूसरी वार छपाई गई है । न्यों. १ रु०. ५ बृहद्रव्यसंग्रह सं० भा टी०-बृहद्रव्यका उत्तम कथन किया है। न्यों. २ रु०. ६ द्रव्यानुयोगतर्कणा भा० टी०-इसमें नयोंका कथन है । न्यों० २ ०. ७ सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम सुत्र भा०टी०-इसकी थोड़ी प्रतियां रहीं थीं इसलिये अब दूसरी बार छपाया जा रहाहै । अबकी बार पहलेकी त्रुटियां निकाल दी जायगीं। न्यों० २ रु०. ८ स्याद्वादमंजरी सं० भा० टी०-इसमें छहों मतोंका विवेचन है । न्यों० ४ २०. ९ गोमटसार ( जीवकांड ) संस्कृत छाया और संक्षिप्त हिन्दी भा० टी० । न्यों. २।। रु०. १० गोमटसार ( कर्मकांड ) संस्कृत छाया और संक्षिप्त हिन्दी भा० टी० न्यों० २ रु०. . ११ प्रवचनसार सं०भा०टी०-इसमें दो संस्कृत टीका और एक हिन्दी भाषाटीका है। न्यों. ३ रु०१२ परमात्मप्रकाश सं० भा० टी०-यह अध्यात्म ग्रंथ है। न्यों. ३ रु०. १३ लब्धिसार (क्षपणासार गर्भित ) संस्कृत छाया और संक्षिप्त हिन्दी भाषाटीका सहित छपाया गया है । न्यों० १॥ रु०. १४ मोक्षमाला-यह ग्रंथ श्रीमद् रायचंद्रजीकृत है। गुजराती भाषामें छपा है। न्यों बार आना । १५ भावनाबोध-यह ग्रंथ भी उक्त महान् पुरुष कृत है। गुजराती भाषामें छपा है। न्यों. चार आना। आवश्यक सूचना। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम भा०टी०-यह ग्रथ दूसरी वार शुद्ध कराके छपाया जा रहा है। पहली वारकी सब त्रुटियां यथा संभव निकाल दी जावेंगी। त्रिलोकसार-यह ग्रंथ श्रीमन्नेमिचंद्राचार्य सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित मूल गाथारूप है । गोमटसार वगैरहकी संज्ञाओंके जाननेकेलिये तथा तीन लोककी रचनाका खरूप और विशेषकर भूगोल, खगोल, भरतखंडकी सृष्टिकी रचना और संहार इत्यादि बहुत बातोंकें विस्तारसे जाननेकेलिये संस्कृत टीका और हिन्दी भाषाटीका इन दो टीकाओं सहित इसी मंडलसे शीघ्र प्रकाशित कर पाठकोंके सामने एक वर्षके अंदर उपस्थित किया जायगा। यह संस्था किसी स्वार्थकेलिये नहीं है केवल प्राचीन आचार्योंके ग्रंथोका उद्धार कर पाठकोंके उपकारके वास्ते खोली गई है। जो द्रव्य आता है वह इसी जैनशास्त्रमालामें उत्तम प्रथोंके ऊद्धारके वास्ते लगाया जाता है। इति शम् । प्रन्थोंके मिलनेका पताशा० रेवाशंकर जगजीवन जोहरी आनरेरी व्यवस्थापक श्रीपरमश्रुत प्रभावकमंडल जोहरी बाजार खाराकुवा पो० नं. २ बंबई । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचंद्रजैनशास्त्रमाला । श्रीनेमिचंद्राय नमः अथ छायासंक्षिप्तहिंदीभाषासहितः लब्धिसारः (क्षपणासारगर्भितः) मंगलाचरण । दोहा-सम्यग्दर्शन चरन गुन, पाय कुकर्मक्षिपाय । केवलज्ञान उपाय प्रभु, भए भजौं शिवराय ॥१॥ लब्धिसारकों पायकें, करिके क्षपणासार । हो है प्रवचनसारसों, समयसार अविकार ॥२॥ पहले श्री गोमटसार शास्त्रमें जीवकांड कर्मकांड अधिकारोंसे जीव और कर्मका स्वरूप दिखलाया उसको यथार्थ जानकर मोक्षमार्गमें प्रवर्त होना चाहिये क्योंकि आत्माका हित मोक्ष है । मोक्षके मार्ग ( उपाय ) दर्शन व चारित्र हैं और सम्यक् ज्ञान भी है परंतु यहां गुणस्थानके क्रममें सम्यग्ज्ञानकी गौणता है इसीलिये मुख्यतासे दर्शन चारित्रकी ही लब्धि ( प्राप्ति ) का उपाय बतलाते हुए प्रथम अपने इष्ट देवको नमस्कार करते हैं: सिद्धे जिणिंदचंदे आयरिय उवज्झाय साहुगणे । वंदिय सम्मइंसण-चरित्तलद्धिं परूवेमो ॥१॥ सिद्धान् जिनेंद्रचंद्रान् आचार्योपाध्यायसाधुगणानू । वंदित्वा सम्यग्दर्शनचारित्रलब्धी प्ररूपयामः ॥ १ ॥ अर्थ-सिद्ध अर्हत आचार्य उपाध्याय और साधुओंको नमस्कारकर हम सम्यग्दर्शनलब्धि और चारित्रलब्धि-इन दोनोंका खरूप कहेंगे। आगे दर्शनलब्धिके कथनमें पहले प्रथमोपशम सम्यक्त्व होनेकी विधि कहते हैं; चद्गदिमिच्छो सपणी पुण्णो गब्भजविसुद्धसागारो। पढमुवसमं स गिण्हदि पंचमवरलद्धिचरिमम्हि ॥२॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चतुर्गतिमिथ्यः संज्ञी पूर्णः गर्भजो विशुद्धः साकारः । प्रथमोपशमं स गृह्णाति पंचमवरलब्धिचरमे ॥ २ ॥ अर्थ-चारों गतिवाला अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि संज्ञी ( मनसहित ) पर्याप्त गर्भज जन्मवाला मंदक्रोधादिफषायरूप विशुद्धपनेका धारक गुणदोषविचाररूप साकार ज्ञानोपयोगवाला जो जीव है वही पांचवीं लब्धिके अनिवृत्तकरण भागके अंतसमयमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है ॥ २॥ ___ आगे प्रथमोपशम सम्यक्त्व होनेसे पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पांच लब्धियां होती हैं उनके नाम कहते हैं खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते ॥३॥ क्षयोपशमविशद्धी देशनाप्रायोग्यकरणलब्धयश्च । चतस्रोपि सामान्याः करणं सम्यक्त्वचारित्रे ॥ ३ ॥ अर्थ-क्षयोपशम १ विशुद्धि २ देशना ३ प्रायोग्य ४ करण ५- ये पांच लब्धियां हैं। उनमेंसे पहली चार तो साधारण हैं अर्थात् भव्यजीव और अभव्यजीव दोनोंके होती हैं । लेकिन पांचवीं करणलब्धि सम्यक्त्व और चारित्रकी तरफ झुके हुए भव्यजीवके ही होती है ॥ ३ ॥ • आगे इन पांचोंमेंसे पहली क्षयोपशमलब्धिका खरूप कहते हैं:। कम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा। होदूणुदीरदि जदा तदा खओवसमलद्धी दु॥४॥ ... कर्ममलपटलशक्तिः प्रतिसमयमनंतगुणविहीनक्रमा । भूत्वा उदीर्यते यदा तदा क्षयोपशमलब्धिस्तु ॥ ४ ॥ अर्थ-कर्मों में मैलरूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह उनका अनुभाग जिस कालमें समय समय अनंतगुणा क्रमसे घटता हुआ उदयको प्राप्त होता है उस कालमें क्षयोपशम लब्धि होती है ॥ ४ ॥ आगे विशुद्धिलब्धिका स्वरूप कहते हैं; आदिमलद्धिभवो जो भावो जीवस्स सादपहुदीणं । सत्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुद्धलद्धी सो ॥५॥ आदिमलब्धिभवो यः भावो जीवस्य सातप्रभृतीनाम् । .. शस्तानां प्रकृतीनां बंधनयोग्यो विशुद्धिलब्धिः सः॥५॥ . .. . Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। - अर्थ-पहली (क्षयोपशम ) लब्धिसे उत्पन्न हुआ जो जीवके साता आदि शुभ प्रकृतियोंके बंधनेका कारण शुभपरिणाम उसकी जो प्राप्ति वह विशुद्धिलब्धि है । अशुभकर्मके अनुभाग घटनेसे संक्लेशकी हानि और उसके विपक्षी विशुद्धपनेकी वृद्धि होना ठीक ही है ॥ ५ ॥ आगे देशनालब्धिका खरूप कहते हैं; छद्दवणवपयत्थोपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो। देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु॥ ६ ॥ षड्द्रव्यनवपदार्थोपदेशकरसूरिप्रभृतिलाभो यः ।। __ देशितपदार्थधारणलाभो वा तृतीयलब्धिस्तु ॥ ६॥ अर्थ-छह द्रव्य और नौपदार्थका उपदेश करनेवाले आचार्य आदिका लाभ यानी उपदेशका मिलना अथवा उपदेशे हुए पदार्थोंके धारण करने ( याद रखने ) की प्राप्ति वह तीसरी देशनालब्धि है । तु शब्दसे नरकादि गतिमें जहां उपदेश देनेवाला नहीं है वहां पूर्वभवमें धारण किये हुए तत्त्वार्थके संस्कारके बलसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति जानना ॥ ६॥ आगे प्रायोग्यलब्धिको कहते हैं; अंतोकोडाकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्धिणामा भवाभवेसु सामण्णा ॥ ७॥ अंतःकोटीकोटिविस्थाने स्थितिरसयोः यत्करणम् । प्रायोग्यलब्धिर्नाम भव्याभव्येषु सामान्या ॥ ७ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त तीन लब्धिवाला जीव हरसमय विशुद्धताकी वढवारी होनेसे आयुके विना सातकर्मोंकी स्थिति घटाता हुआ अंतःकोड़ाकोडि मात्र रखे और कर्मोकी फल देनेकी शक्तिको भी कमजोर करदे ऐसे कार्यकरनेकी योग्यताकी प्राप्तिको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं । वह सामान्यरीतिसे भव्यजीव और अभव्यजीव दोनोंके ही होसकती है ॥ ७ ॥ जेट्टवरहिदिबंधे जेवरहिदितियाण सत्ते य । ण य पडिवजदि पढमुवसमसम्म मिच्छजीवो हु॥८॥ ज्येष्ठावरस्थितिबंधे ज्येष्ठावरस्थितित्रिकाणां सत्त्वे च । न च प्रतिपद्यते प्रथमोपशमसम्यं मिथ्यजीवो हि ॥ ८ ॥ अर्थ-संक्लेशपरिणामवाले संज्ञी पंचेंद्री पर्याप्तके संभव जो उत्कृष्ट स्थितिबंध और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेशका सत्त्व तथा विशुद्ध क्षपकश्रेणीवालेके संभव जो जघन्य Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । स्थितिबंध और जघन्यस्थिति अनुभाग प्रदेश इन तीनोंकी सत्ता उसके होनेपर मिथ्याती जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नहीं ग्रहण करता ॥ ८॥ सम्मत्तहिमुहमिच्छो विसोहिवड्डीहि वड्डमाणो हु। अंतोकोडाकोडिं सत्तण्हं बंधणं कुणई ॥९॥ सम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यः विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धमानो हि । अंत:कोटीकोटिं सप्तानां बंधनं करोति ॥ ९ ॥ अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके सन्मुख हुआ मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धपनेकी वृद्धिसे बढ़ता हुआ प्रायोग्यलब्धिके पहले समयसे लेकर पूर्वस्थितिबंधके संख्यातवें भाग अंतःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण आयुके विना सात कोंकी स्थिति बांधता है ॥९॥ तत्तो उदय सदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय ।। बंधम्मि पयडिम्हि य छेदपदा होंति चोत्तीसा ॥१०॥ ततः उदये शतस्य च पृथक्त्वमानं पुनः पुनरुदीर्य । बंधे प्रकृतौ च छेदपदा भवंति चतुश्चत्वारिंशत् ॥ १० ॥ अर्थ—उस अंतःकोड़ाकोड़ी सागर स्थितिबंधसे पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता हुआ स्थितिबंध अंतर्मुहूर्ततक समानतालिये हुए करता है । फिर उससे पल्यके संख्यातवें भाग घटता स्थितिबंध अंतर्मुहूर्ततक करता है । इसतरह क्रमसे संख्यातस्थितिबंधापसरणोंकर पृथक्त्व सौसागर घटनेसे पहला प्रकृतिबंधापसरणस्थान होता है । फिर उसी क्रमसे उससे भी पृथवत्व सौ सागर घटनेसे दूसरा प्रकृतिबंधापसरणस्थान होता है । इसतरह इसी क्रमसे इतना २ स्थितिबंध घटनेपर एक एक स्थान होता है । ऐसे प्रकृतिबंधापसरणके चौंतीस स्थान होते हैं ॥ १०॥ आगे चौंतीस स्थानों में क्रमसे कोन कोनसी प्रकृतिका व्युच्छेद होता है ऐसा कहते हैं; आऊ पडि णिरयदुगे सुहुमतिये सुहुमदोणि पत्तेयं । बादरजुत दोण्णि पदे अपुण्णजुद बितिचसण्णिसण्णीसु॥ ११ ॥ आयुः प्रति निरयद्विकं सूक्ष्मत्रयं सूक्ष्मद्वयं प्रत्येकं । बादरयुतं द्वे पदे अपूर्णयुतं द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंशिषु ॥ ११ ॥ अर्थ-पहला नरकायुका व्युच्छित्तिस्थान है अर्थात् वहांसे लेकर उपशमसम्यक्त्वतक नरकायुका बंध नहीं होता । इसीतरह आगे भी जानना । दूसरा तिर्यंचायुका स्थान है तीसरा मनुष्यायुका है चौथा देवायुका है। पांचवां नरकगति नरकगत्यानुपूर्वीका है छठा १ यहां पृथक्त्व नाम सात वा आठका है इसलिये पृथक्त्व सौ सागर कहनेसे सातसौ वा आठसौ सागर जानना ।२ यहां प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें आयुबंधका अभाव है इसलिये सव आयुबंधकी व्युच्छित्ति कही गई है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्तसाधारणोंका है । सातवां संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येकका है, आठवां संयोगरूप बादर अपर्याप्त साधारणका है, नवमां संयोगरूप बादर अपर्याप्त प्रत्येकका है दशवां संयोगरूप दोइन्द्री जाति अपर्याप्तका है, ग्यारवां तेंद्री अपर्याप्तका है, बारवां चौइंद्री अपर्याप्तका है, तेरहवां असंज्ञी पंचेंद्री अपर्याप्त है और चौदहवां संज्ञी पंचेंद्री अपर्याप्तका है ॥ ११ ॥ अट्ट अपुण्णपदेसु वि पुण्णेण जुदेसु तेसु तुरियपदे । एइंदिय आदावं थावरणामं च मिलिदछ । १२ ॥ अष्टौ अपूर्णपदेष्वपि पूर्णेन युतेषु तेषु तुरीयपदे। एकेंद्रियं आतापं स्थावरनाम च मिलितव्यम् ॥ १२ ॥ अर्थ-पन्द्रहवां सूक्ष्मपर्याप्तसाधारणका है, सोलवां सूक्ष्मपर्याप्तप्रत्येकका है, सत्रहवां बादरपर्याप्त साधारणका है, अठारवां बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेंद्री आतपस्थावरका है, उन्नीसवां दो इंद्री पर्याप्तका है, बीसमां ते इंद्री पर्याप्तका है, इक्कीसवां चौइंद्री पर्याप्तका है और बावीसवां असंज्ञीपंचेद्री पर्याप्तका है ॥ १२ ॥ तिरिगदुगुज्जोवोवि य णीचे अपसत्थगमण दुभगतिए। .. हुंडासंपत्तेवि य णओसए वामखीलीए ॥ १३॥ तिर्यग्द्विकोद्योतोपि च नीचैः अप्रशस्तगमनं दुर्भगत्रिकं । हुंडासंप्राप्तेपि च नपुंसकं वामनकीलिते ॥ १३ ॥ अर्थ-तेईसवां तिर्यंचगति तिर्यंचगत्यानुपूर्वी उद्योतका है, चौवीसवां नीचगोत्रका है, पच्चीसवां अप्रशस्तविहायोगतिदुर्भगदुःखर अनादेयका है, छठवीसवां हुंडसंस्थान सृपाटिका संहननका है, सत्ताईसवां नपुंसकवेदका है और अट्ठाईसवां वामनसंस्थान कीलितसंहननका है ॥ १३ ॥ खुजद्धं णाराए इत्थीवेदे य सादिणाराए। णग्गोधवजणारा-ए मणुओरालदुगवजे ॥ १४ ॥ कुब्जार्धनाराचं स्त्रीवेदं च स्वातिनाराचे । न्यग्रोधवज्रनाराचे मनुष्यौदारिकद्विकवने ॥ १४ ॥ अर्थ-उनतीसवां कुब्जसंस्थान अर्धनाराचसंहननका है, तीसवां स्त्रीवेदका है, इकतीसवां स्वातिसंस्थाननाराचसंहननका है, बत्तीसवां न्यग्रोधसंस्थान वज्रनाराचसंहननका है और तेतीसवां मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग वज्र ऋषभनाराच संहननका है ॥ १४ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । - अथिरसुभग जस अरदी सोयअसादे य होंति चोतीसा। बंधोसरणट्ठाणा भवाभवेसु सामण्णा ॥ १५ ॥ अस्थिरसुभगयशः अरतिः शोकासाते च भवंति चतुश्चत्वारिंशत् । बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि ॥ १५॥ अर्थ-चौंतीसवां संयोगरूप अस्थिर अशुभ अयश अरति शोक असाताका बंधव्युच्छितिस्थान है । ऐसे ये कहे हुए चौंतीस स्थान भव्य अथवा अभव्यके समान होते हैं ॥११॥ णरतिरियाणं ओघो भवणतिसोहम्मजुगलए बिदियं । तिदियं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥१६॥ नरतिरश्चामोघः भवनत्रिसौधर्मयुगलके द्वितीयं । .. तृतीयं अष्टादशमं त्रयोविंशत्यादि दशपदं चरमम् ॥ १६ ॥ अर्थ-मनुष्य और तिर्यंचोंके सामान्य कहे हुए चौंतीसस्थान पाये जाते हैं अर्थात् उनके बंधयोग्य एकसौ सत्रह प्रकृतियोंमेंसे चौतीसस्थानोंकर छयालीस प्रकृतियोंकी व्युच्छित्ति होती है । वहां आदिके छहस्थानोंमें नौ अठारवें स्थानमें एकेन्द्रियादि तीन उन्नीसवां आदि वीचके स्थानोंमें दो इंद्री ते इंद्री चौइंद्री ये तीन और तेईसवां आदि बारह स्थानोंमें इकतीस-ऐसे छयालीसकी व्युच्छित्ति होती है शेष इकहत्तरि बंधती हैं। भवनवासी आदि तीनमें सौधर्मवर्ग युगलमें दूसरा तीसरा अठारवां तेईसवेंको आदिले दस और अंतका चौंतीसवां-ये चौदह स्थान ही संभवते हैं अर्थात् वहां इकतीस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है, बंधयोग्य एकसौ तीनमें बहत्तरि प्रकृतियों का बंध बाकी रहता है॥१६॥ ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण हीणया होति । रयणादिपुढविछक्के सणकुमारादिदसकप्पे ॥ १७॥ तानि चैव चतुर्दशपदानि अष्टादशेन हीनानि भवंति । रत्नादिपृथिवीष सनत्कुमारादिदशकल्पे ॥ १७ ॥ अर्थ–रत्नप्रभा आदि छह नरककी पृथिवीयोंमें और सानत्कुमार आदि दस वर्गों में पूर्व कहे हुए चौदह स्थान होते हैं लेकिन उनमेंसे अठारवां स्थान नहीं होता । अर्थात् तेरहस्थानोंसे अट्ठाईस प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है वहां बंधयोग्य सौ प्रकृतियोंमेंसे बहत्तरिका बंध शेष रहता है ॥ १७ ॥ ते तेरस बिदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा । आणदकप्पादुवरिमगेवेजंतोत्ति ओसरणा ॥ १८ ॥ तानि त्रयोदश द्वितीयेन च त्रयोविंशतिकेन चापि परिहीनानि । आनतकल्पादुपरि प्रैवेयकांतमित्यपसरणाः ॥ १८ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-आनतवर्गको आदि लेके ऊपरले अवेयकतक उन तेरहस्थानोंमेंसे दूसरे और तेईसवें स्थानोंके विना ग्यारह बंधापसरण स्थान पाये जाते हैं। वहां उन ग्यारह स्थानोंकर चौवीस घटानेसे बंधयोग्य छयानवै प्रकृतियों में से बहत्तरि बांधता है ॥ १८ ॥ .. . ते चेवेकारपदा तदिऊणा बिदियठाणसंजुत्ता। चउवीसदिमेणूणा सत्तमिपुढविम्मि ओसरणा ॥ १९ ॥ तानि चैवैकादशपदानि तृतीयोनानि द्वितीयस्थानसंयुक्तानि । - चतुर्विंशतिकेनोनानि सप्तमीपृथिव्यामपसरणानि ॥ १९॥ अर्थ—सातवीं नरककी पृथिवीमें उन ग्यारहोंमेंसे तीसरे और चौवीसवें स्थानके विना तथा दूसरे स्थानसहित-इस तरह दस स्थान पाये जाते हैं । उन दस स्थानोंमेंसे तेईस वा उद्योतसहित चौवीस घटानेपर बंधयोग्य छयानवै प्रकृतियोंमेंसे तेहत्तरि वा बहत्तर बांधी जाती हैं क्योंकि उद्योतको बंध वा अबंध दोनों संभवते हैं ॥ १९॥ घादिति सादं मिच्छं कसायपुंहस्सरदि भयस्स दुर्ग । अपमत्तडवीसुच्चं बंधति विसुद्धणरतिरिया ॥ २०॥ घातित्रयं सातं मिथ्यं कषायपुंहास्यरतयः भयस्य द्विकम् । अप्रमत्ताष्टाविंशोच्चं बघ्नंति विशुद्धनरतिर्यंचः ॥ २० ॥ अर्थ--इसप्रकार व्युच्छित्ति होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको सन्मुख हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंच हैं वे ज्ञानावरण आदि तीन घातियाओंकी उन्नीस सातावेदनीय मिथ्यात्व सोलह कषाय पुरुषवेद हास्य रति भय जुगुप्सा अप्रमत्तकी अट्ठाईस उच्चगोत्र-इसतरह इकहत्तरि प्रकृतियों को बांधते हैं ॥ २०॥ देवतसवण्णअगुरुचउकं समचउरतेजकम्मइयं । सग्गमणं पंचिंदी थिरादिछण्णिमिणमडवीसं ॥ २१ ॥ देवत्रसवर्णागुरुचतुष्कं समचतुरतेजःकार्मणकम् । सद्गमनं पंचेंद्री स्थिरादिषण्णिर्माणमष्टाविंशम् ॥ २१ ॥ अर्थ-देवचतुष्क त्रसचतुष्क वर्णचतुष्क अगुरुलघुचतुष्क समचतुरस्रसंस्थान तैजस कार्माण शुभविहायोगति, पंचेंद्री, स्थिर आदि छह, निर्माण-ये अट्ठाईस प्रकृतियां अप्रमतकी हैं ॥ २१॥ तं सुरचउकहीणं णरचउवजजुद पयडिपरिमाणं । सुरछप्पुढवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधंति ॥ २२॥ . १ देवचतुष्कसे देवगति देवगत्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर वैक्रियिक अंगोपांग जानना । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तत् सुरचतुष्कहीनं नरचतुर्वअयुतं प्रकृतिपरिमाणं । सुरषटूपृथिवीमिथ्याः सिद्धापसरणा हि बनंति ॥ २२ ॥ अर्थ-उन इकहत्तरमेंसे देवचतुष्क घटानेसे तथा मनुष्यचतुष्क वज्रऋषभ नाराच मिलानेसे बहत्तरि प्रकृतियोंको जिनके बंधापसरणसिद्ध हुए हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि देव वा छह पृथिवियोंके नारकी बांधते हैं ॥ २२॥ तं णरदुगुच्चहीणं तिरियदुणीचजुद पयडिपरिमाणं । उजोवेण जुदं वा सत्तमखिदिगा हु बंधति ॥ २३ ॥ तत् नरद्विकोच्चहीनं तिर्यग्द्विकं नीचयुतं प्रकृतिपरिमाणं । उद्योतेन युतं वा सप्तमक्षितिका हि बध्नति ॥ २३ ॥ अर्थ-उन बहत्तरमेंसे मनुष्यद्विक उच्चगोत्रके विना और तिर्यंचद्विक नीचगोत्रसहित बहत्तर अथवा उद्योतसहित तेहत्तर प्रकृतियोंको सांतवीं नरकपृथ्वीवाले बांधते हैं ।। २३॥ इस तरह प्रकृतिबंध अबंधका विभाग कहा है। अंतोकोडाकोडीठिदं असत्थाण सत्थगाणं च । बि चउहाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणइ ॥ २४ ॥ अंतःकोटाकोटिस्थितिं अशस्तानां शस्तकानां च । अपि चतुःस्थानरसं च च बंधानां बंधनं करोति ॥ २४ ॥ अर्थ-प्रथमसम्यक्त्वके सन्मुख चारोंगतिवाला मिथ्यादृष्टि जीव बध्यमानप्रकृतियोंके चौंतीस बंधापसरणस्थानोंमेंसे एक एक स्थानके प्रति पृथक्त्व सौसागर घटता क्रम लिये हुए अंतःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण स्थिति बांधता है । और प्रशस्तप्रकृतियोंका चार स्थानको प्राप्त समय २ अनंतगुणा बढता बांधता है ॥ २४ ॥ मिच्छणथीणति सुरचउ समवजपसत्थगमणसुभगतियं । णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु॥ २५ ॥ मिथ्यानस्त्यानत्रिकं सुरचतुः समवनप्रशस्तगमनसुभगत्रिकं । नीचोत्कृष्टप्रदेशमनुत्कृष्टं वा प्रबध्नाति हि ॥ २५ ॥ अर्थ-यह जीव मिथ्यात्व अनंतानुबंधीचतुष्क स्त्यानगृद्धित्रिक देवचतुष्क समचतुरस्र वज्रऋषभनाराच प्रशस्तविहायोगति सुभगादि तीन नीचगोत्र-इन उन्नीसप्रकृतियोंका उत्कृष्ट वा अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है ॥ २५॥ एदेहिं विहीणाणं तिण्णिमहादंडएसु उत्ताणं । एकढिपमाणाणमणुक्कस्सपदेसबंधणं कुणइ ॥ २६ ॥ १ मनुष्य चतुष्कसे मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूवीं औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग जानना। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। एतैर्विहीनानां त्रिमहादंडकेषूक्तानाम् । एकषष्ठिप्रमाणानामनुत्कृष्टप्रदेशबंधनं करोति ॥ २६ ॥ अर्थ-इनसे हीन जो तीन महादंडकों ( स्थानों ) में कहीं गई ऐसी प्रकृतियों में इकसठ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है ॥ २६॥ पढमे सवे बिदिये पण तिदिये चउ कमा अपुणरुत्ता । इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसुवि अपुणरुत्ता ॥ २७ ॥ प्रथमे सर्वे द्वितीये पंच तृतीये चतुः क्रमादपुनरुक्ताः । इति प्रकृतीनामशीतिः त्रिदंडकेष्वपि अपुनरुक्ताः ॥ २७ ॥ अर्थ-मनुष्यतिर्यंचके बंध योग्य जो पहलादंडक ( स्थान ) उसमें सब ( इकहत्तर) ही अपुनरुक्त हैं भवनत्रिकादिके योग्य दूसरे दंडकमें मनुष्यचतुष्क वज्रऋषभनाराच-ये पांच अपुनरुक्त हैं अन्यप्रकृतियां पहले दंडकमें कहीं ही थीं। और सातवीं पृथ्वीवालोंके योग्य तीसरे दंडकमें तिर्यंचद्विक नीचगोत्र उद्योत-ये चार अपुनरुक्त हैं। ऐसे तीनों दंडकोंमें अपुनरुक्त अस्सी प्रकृतियां जाननी ॥ २७ ॥ ऐसे बंध कहा। अब उसी जीवके उदय कहते हैं: उदये चउदसघादी णिद्दा पयलाणमेकदरगं तु । मोहे दस सिय णामे वचि ठाणं सेसगे सजोगेकं ॥२८॥ उदये चतुर्दश घातिनः निद्रा प्रचलानामेकतरकं तु । मोहे दश स्यात् नामनि वचःस्थानं शेषके सयोग्येकं ॥ २८ ॥ अर्थ-प्रथमसम्यक्त्वके सन्मुख जीवके नरकगतिमें ज्ञानावरणकी पांच दर्शनावरणकी आदिकी चार अंतरायकी पांच-ऐसे चौदह तथा मोहनीयकी दस वा नौ वा आठ, आयुकी एक नरकायु नामकर्मकी भाषापर्याप्तिकालमें उदययोग्य उनतीस, वेदनीयकी एक गोत्रकी एक नीचगोत्र-ऐसे इन प्रकृतियोंका उदय है ॥ २८ ॥ यहांपर मोहनीय आदिकी प्रकृ. तियां बदलेनेसे जो भंग ( भेद ) होते हैं उनका कथन गोमटसारके कर्मकांडके स्थानसमुकीर्तन अधिकारमें है वहांसे समझलेना । -- उदइलाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि । विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥ २९ ॥ उदयवतामुदये प्राप्ते एकस्थितिकस्य वेदको भवति । द्विचतुःस्थानमशस्ते शस्ते उदीयमानरसभुक्तिः ॥ २९ ॥ अर्थ-उदयवाली प्रकृतियोंका उदय होनेकी अपेक्षा एक स्थिति जो उदयको प्राप्त ल, सा. २ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाथाम् । हुआ एक निषेक उसका ही भोगनेवाला वह जीव होता है । और अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्विस्थानरूप तथा शुभ प्रकृतियोंका चारस्थानरूप अनुभागका भोगना उसके होता है॥२९॥ अजहण्णमणुक्कस्सपदेसमणुभवदि सोदयाणं तु । उदयिल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि ॥३०॥ अजघन्यमनुत्कृष्टप्रदेशमनुभवति सोदयानां तु ।। उदयवतां प्रकृतिचतुष्काणामुदीरको भवति ॥ ३०॥ अर्थ-उदयरूप प्रकृतियोंका अजघन्य वा अनुत्कृष्ट प्रदेशको भोगता है । यहां जघन्य वा उत्कृष्ट परमाणुओंका उदय नहीं है । और प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभाग जो उदयरूप कहे हैं उनका ही यह जीव उदीरणा करनेवाला होता है । क्योंकि जिसके जिन प्रकृतियोंका उदय उसके उन्हींकी उदीरणा भी संभवती है ॥ ३० ॥ इसप्रकार उदय और उदीरणा कहे हैं। अब सत्त्व कहते हैं; दुति आउ तित्थहारचउक्कणा सम्मगेण हीणा वा। मिस्सेणूणा वा वि य सवे पयडी हवे सत्तं ॥३१॥ द्वित्रि आयुः तीर्थाहारचतुष्कानां सम्यक्त्वेन हीना वा। मिश्रेणोना वापि च सर्वेषां प्रकृतीनां भवेत् सत्त्वम् ॥ ३१ ॥ अर्थ-सम्यक्त्वके सन्मुख अनादि मिथ्यादृष्टिके अबद्धायुके तो भुज्यमान बिना तीन आयु, तीर्थकर, आहारकचतुष्क, सम्यग्मोहनी, मिश्रमोहनी-इन दसके बिना एकसौ अड़तीसका सत्त्व है । उसी बद्धायुके एक बध्यमान आयु सहित एकसौ उनतालीसका सत्त्व है । और सम्यक्त्वके सन्मुख सादि मिथ्यादृष्टि अबद्धायुके तो भुज्यमान विना तीन आयु, तीर्थकर आहारकचतुष्क-इन आठके विना एकसौ चालीसका सत्त्व है । सम्यक्त्वमोहनीकी उद्वेलना होनेपर एकसौ उनतालीसका सत्त्व है, मिश्रमोहनीयकी उद्वेलना होनेसे एकसौ अड़तीसका सत्त्व होता है । तथा उसी बद्धायुके बध्यमान आयुसहित एकसौ इक. तालीस एकसौ चालीस एकसौ उनतालीसका सत्त्व होता है क्योंकि आहारकचतुष्टयकी उद्वेलना हुए विना तीर्थकर सत्तावाला जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वके सन्मुख नहीं होता॥३१॥ अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं । एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं ॥३२॥ अजघन्यमनुत्कृष्टं स्थितित्रिकं भवति सत्त्वप्रकृतीनाम् । एवं प्रकृतिचतुष्कं बंधादिषु भवति प्रत्येकम् ॥ ३२ ॥ अर्थ-उन सत्तारूप प्रकृतियोंके स्थिति अनुभाग प्रदेश हैं वे अजघन्य अनुत्कृष्ट हैं। यहां पर जघन्य वा उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेशका सत्त्व नहीं संभवता । इसप्रकार प्रकृति Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। स्थिति अनुभाग प्रदेशरूप चतुष्क हैं वे बंध उदय उदीरणा सत्त्वमें कहे गये हैं सो प्रायोग्यनामा चौथी लब्धिके अंततक जानने ॥ ३२ ॥ आगे करणलब्धिका स्वरूप कहते हैं; तत्तो अभवजोग्गं परिणामं वोलिऊण भयो हु। करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुवमणियहि ॥ ३३॥. ततः अभव्ययोग्यं परिणामं मुक्त्वा भव्यो हि । . करणं करोति क्रमशः अधःप्रवृत्तमपूर्वमनिवृत्तिम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-उसके बाद अभव्यके भी योग्य ऐसे चार लब्धिरूप परिणामोंको समाप्तकर भव्यजीव ही अधःप्रवृत्त, अपूर्व, और अनिवृत्ति करण-इन तीन करणोंको करता है ॥३३॥ इन तीनों करणों ( परिणामों ) का गोमटसारके जीवकांडमें गुणस्थानाधिकारमें तथा कर्मकांडमें त्रिकरणचूलिकाधिकारमें विशेष व्याख्यान है वहांसे जानना । अब यहां भी सामान्यतासे कहते हैं; अंतोमुहुत्तकाला तिषिणवि करणा हवंति पत्तेयं । उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूपेण ॥ ३४ ॥ __ अंतर्मुहूर्तकालानि त्रीण्यपि करणानि भवंति प्रत्येकम् । उपरितः गुणितक्रमाणि क्रमेण संख्यातरूपेण ॥ ३४ ॥ अर्थ-तीनों ही करण हरएक अंतर्मुहूर्तकालतक स्थित रहते हैं तो भी ऊपरसे संख्यातगुणा क्रम लिये हुए हैं । अनिवृत्तिकरणका काल थोड़ा है उससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है उससे संख्यातगुणा काल अधःप्रवृत्तकरणका है ॥ ३४ ॥ जम्हा हेछिमभावा उवरिमभावहिं सरिसगा हुंति । तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिहिटं॥ ३५ ॥ यस्मादधस्तनभावा उपरितनभावैः सदृशा भवंति। तस्मात् प्रथमं करणं अधःप्रवृत्तमिति निर्दिष्टम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-जिसकारण नीचेके समयवर्ती किसी जीवके परिणाम ऊपरले समयवर्ती किसी जीवके परिणामोंके समान होते हैं इसकारण ऐसे परिणामका नाम अधःप्रवृत्तिकरण है। भावार्थ-करणोंका कथन नाना जीवों की अपेक्षा है सो किसी जीवको अधःकरण शुरू किये थोड़ा काल हुआ किसीको बहुतकाल हुआ उनके परिणाम इस करणमें संख्या और विशुद्धताकर समान भी होते हैं ऐसा जानना ॥ ३५ ॥ समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुवकरणो हु। अणियट्टीवि तहं वि य पडिसमयं एकपरिणामो ॥ ३६॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । समये समये भिन्ना भावा तस्मादपूर्वकरणो हि । अनिवृत्तिरपि तथैव च प्रतिसमयमेकपरिणामः ॥ ३६ ॥ अर्थ-समय समयमें जीवोंके भाव जुदे २ ही होते हैं इसीलिये ऐसे परिणामका नाम अपूर्वकरण है । और जहां हरसमयमें एक ही परिणाम हो वह अनिवृत्ति करण है। भावार्थ-किसी जीवको अपूर्वकरण शुरू कियें थोड़ाकाल हुआ किसीको बहुतकाल हुआ वहां उनके परिणाम सर्वथा समान नहीं होते। नीचले समयवालोंके परिणामसे ऊपरले समयवालोंका परिणाम अधिकसंख्यावाला विशुद्धता सहित होता है और जिनको करण प्रारंभ कियें समान काल होगया उनके परिणाम आपसमें समान भी होते हैं अथवा असमान भी होते हैं । जिनको अनिवृत्तिकरण प्रारंभ किये समान काल हुआ उनके परिणाम समान ही होते हैं और नीचले समयवालोंसे ऊपरले समयवालोंके अधिक होते हैं ऐसा जानना ॥ ३६ ॥ गुणसेढी गुणसंकम ठिदिरसखंडं च णत्थि पढमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्डीहिं वहदि हु॥ ३७॥ गुणश्रेढी गुणसंक्रमं स्थितिरसखंडं च नास्ति प्रथमे । . प्रतिसमयमनंतगुणं विशुद्धिवृद्धिभिर्वर्धते हि ॥ ३७॥ अर्थ—पहले अधःकरणमें गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिकांडकघात अनुभागकांडकघात नहीं होता और यहां समय २ में अनंतगुणी विशुद्धता वढती है ॥ ३७ ॥ सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणंतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥ ३८॥ शस्तानामशस्तानां चतुर्विस्थानं रसं च बध्नाति हि । प्रतिसमयमनंतेन च गुणभजितक्रमं तु रसबंधे ॥ ३८ ॥ अर्थ-साता आदि शुभप्रकृतियोंका हरसमय अनंतगुणा चारस्थानरूप अनुभाग बांधता है और असाता आदि अप्रशस्त प्रकृतियोंका समय समयके प्रति अनंतवें भाग ही अनु. भाग बांधता है ॥ ३८॥ पल्लस्स संखभागं मुहुत्तअंतेण उपरदे बंधे । संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्मि ओसरणा ॥ ३९ ॥ पल्यस्य संख्यभागं मुहूर्तातरेण उपरते बंधे। संख्येयसहस्राणि च अधःप्रवृत्ते अपसरणानि ॥ ३९ ॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तकरणके पहले समयसे लेकर अंतर्मुहूर्ततक पूर्वस्थिति बंधसे पल्यके असंख्यातवें भाग घटता हुआ स्थिति बंध होता है । और उसके वाद अंतर्मुहूर्ततक उससे भी पल्यके असंख्यातवें भाग घटता हुआ स्थितिबंध होता है । इस तरह एक अंतर्मुहूर्तकर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि सारः । १३ पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबंधापसरण होता है । इसप्रकार अधःप्रवृत्तिकरण में अपसरण संख्यात हजार होते हैं ॥ ३९ ॥ आदिमकरणद्धाए पढमट्ठिदिबंधदो दु चरिमम्हि । संजगुणविहीण ठिदिबंधो होइ णियमेण ॥ ४० ॥ आदिमकरणाद्धायां प्रथमस्थितिबंधतस्तु चरमे । संख्यातगुणविहीनः स्थितिबंधो भवति नियमेन ॥ ४० ॥ अर्थ - पहले कालमें पहले समयकी अंतःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण स्थितिबंधसे उसके अंतसमय में संख्यातगुणा हीन स्थितिबंध नियमसे होता है ॥ ४० ॥ तच्चरिमे ठिदिबंघो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवजमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो ॥ ४१ ॥ तच्चरमे स्थितिबंध आदिमसम्येन देशसकलयमम् । प्रतिपद्यमानस्यापि संख्येयगुणेन हीनक्रमः ॥ ४१ ॥ अर्थ- उस अंत के समय में जो स्थितिबंध कहा है उससे देशसंयमसहित प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके संख्यातगुणा कम स्थितिबंध होता है । उससे सकलसंयम (चरित्र) सहित प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके संख्यातगुणा कम स्थितिबंध होता है ॥। ४१॥ आदिमकरणद्धाए पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । अहिकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥ ४२ ॥ आदिम करणाद्धायां प्रतिसमयमसंख्य लोकपरिणामाः । अधिकमा हि विशेषे मुहूर्तातर्हि प्रतिभागः ॥ ४२ ॥ अर्थ - पहले अधःप्रवृत्तकरण कालमें त्रिकालवर्ती जीवोंके जो कषायोंके विशुद्धस्थान होते हैं उनमें समय समयके प्रति संभव असंख्यात लोकमात्र परिणाम हैं । वे पहले समयसे द्वितीय आदि समयों में क्रमसे समान प्रमाणरूप एक एक विशेष ( चय ) कर बढते हुए जानने । और उस चयका प्रमाण अंतर्मुहूर्तमात्र भागहारका भाग देने से आता है ॥ ४२ ॥ 1 ताए अधापवत्तद्वाए संखेज्जभागमेत्तं तु । अणुकट्ठीए अद्धा णिवग्गणकंडयं तं तु ॥ ४३ ॥ तस्या अधःप्रवृत्ताद्धायाः संख्येयभागमात्रं तु । अनुकृष्ट्या अद्धा निर्वर्गणकांडकं तत्तु ॥ ४३ ॥ अर्थ — उस अधःप्रवृत्तकाल के प्रमाण जो ऊर्ध्व गच्छ उसके संख्यातवें भागमात्र अनु Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कृष्टिका गच्छ होता है । एक एक समय संबंधी परिणामोंमें इतने २ खंड होते हैं । वे निर्वर्गणकांडक समान जानना ॥ ४३ ॥ पडिसमयगपरिणामा णिवग्गणसमयमेत्तखंडकमा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥४४॥ प्रतिसमयगपरिणामा निर्वर्गणसमयमात्रखंडक्रमाः। अधिकक्रमा हि विशेषे मुहूर्तातर्हि प्रतिभागः ॥ ४४ ॥ अर्थ-समय समयके परिणामोंमें निर्वर्गणाकांडक समान खंड करना । वे भी पहले खंडसे द्वितीय आदि क्रमसे विशेष (चय ) कर बढते हैं । वहां पहले खंडमें अंतर्मुहूतका भाग देनेसे विशेषका प्रमाण आता है ॥ ४४ ॥ पडिखंडगपरिणामा पत्तेयमसंखलोगमेत्ता हु। लोयाणमसंखेज्जा छट्ठाणाणी विसेसेवि ॥ ४५ ॥ प्रतिखंडगपरिणामाः प्रत्येकमसंख्यलोकमात्रा हि । लोकानामसंख्येया षटूस्थानानि विशेषेपि ॥ ४५ ॥ । अर्थ-हरएक खंडमें जघन्य मध्यम उत्कृष्टता लिये हुए विशुद्धपरिणामों के भेद असंख्यातलोकमात्र हैं और यहां एक एक खंडमें तथा एक एक अनुकृष्टि विशेषमें भी असं. ख्यातलोकमात्रवार छहस्थानरूपी वृद्धिका संभव है ॥ ४५ ॥ पढमे चरिमे समये पढमं चरिमं च खंडमसरित्थं । सेसा सरिसा सधे अट्ठवंकादिअंतगया ॥ ४६ ॥ प्रथम चरमे समये प्रथमं चरमं च खंडमसदृशम् । शेषाः सदृशाः सर्वे अष्टोर्वकाद्यंतगताः ॥ ४६ ॥ अर्थ-प्रथमसमयका प्रथमखंड अंतसमयका अंतखंड-ये दोनों तो किसी खंडके समान नहीं हैं । बाकी सबखंड अन्यखंडोंसे यथासंभव समान पाये जाते हैं उन खंडोमें जो परिणामोंका पुज कहा है उसमें पहला परिणाम अष्टांक है अर्थात् पूर्व परिणामसे अनंतगुणा वृद्धिखरूप है । और अंतका परिणाम उर्वक है अर्थात् पूर्वपरिणामसे अनंतभागवृद्धिरूप है । क्योंकि छह स्थानोंका आदि अष्टांक और अंत उर्वक कहा गया है ॥ ४६॥ चरिमे सचे खंडा दुचरिमसमओत्ति अवरखंडाए। असरिसखंडाणोली अधापवत्तम्हि करणम्मि ॥ ४७॥ १ वर्गणा अर्थात् समयोंकी समानता उससे रहित ऊपर २ समयवर्ती परिणामखंडोंका कांडक (पर्व) उसको निर्वर्गणाकांडक कहते हैं । वे अधःकरणकालमें संख्यात हजार होते हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १५. घरमे सर्वे खंडा द्विचरमसमय इति अपरखंडैः। असदृशखंडानामावलिरधःप्रवृत्ते करणे ॥ ४७ ॥ अर्थ-अधःप्रवृत्तकरणकालमें अंतसमयके तो सबखंड और दूसरे समयसे लेकर द्विचरमसमयतकके प्रथम प्रथम खंड हैं वे उनके ऊपरके समयके सबखंडोंसे समान नहीं हैं इसलिये असदृश हैं ॥ ४७ ॥ पढमे करणे अवरा णिवग्गणसमयमेत्तगा तत्तो। अहिगदिणा वरमवरं तो वरपंती अणंतगुणियकमा ॥४८॥ प्रथमे करणे अवरा निर्वर्गणसमयमात्रकाः ततः। अहिगतिना वरमवरमतो वरपंक्तिरनंतगुणितक्रमा ॥४८॥ अर्थ-पहले करणमें विशुद्धताके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा हरएक समयके प्रथमखंडोंके जघन्य परिणाम हैं वे ऊपर ऊपर अनंतगुणे हैं उसके बाद निर्वर्गणकांडके अंतसमयके प्रथमखंडको जघन्य परिणामसे पहले समयके अंतखंडका उत्कृष्ट परिणाम अनंतगुणा है । उससे द्वितीयकांडकके प्रथमसमयके प्रथमखंडका जघन्यपरिणाम अनंतगुणा है इसतरह जैसे सर्प इधरसे उधर उधरसे इधर गमन करता है उसीतरह जघन्यसे उत्कृष्टका उत्कृष्टसे जघन्यका अनंतगुणा क्रम है जबतक कि अंतकांडकके अंतसमयके प्रथमखंडका जघन्यपरिणाम होवे तबतक । यहां षट् स्थान नहीं संभवते ॥ ४८ ॥ पढमे करणे पढमा उड्डगसेढीए चरमसमयस्स । तिरियगखंडाणोली असरित्थाणंतगुणियकमा ॥४९॥ प्रथमे करणे प्रथमा ऊर्ध्वगश्रेण्याः चरमसमयस्य । . तिर्यग्गतखंडानामावलिरसदृशा अणंतगुणितक्रमा ॥ ४९ ॥ अर्थ-प्रथमकरणमें समय समयके परिणामोंकी ऊपर २ पंक्ति करनेसे और अंतसमयके परिणामोंकी बरोबर तिर्यग्रूपपंक्ति करनेसे अंकुशाकार रचना होती है । वह इनके ऊपरके परिणामोंसे समानरूप नहीं है इसलिये असदृश हैं। तथा ये परिणाम अनंतगुणा क्रमलिए विशुद्धतास्वरूप जानने ॥ ४९ ॥ इसतरह अधःकरणका खरूप कहा । .. अब दूसरे अपूर्वकरणका खरूप कहते हैं; पढमं व बिदियकरणं पडिसमयमसंखलोग़परिणामा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥ ५० ॥ प्रथम व द्वितीयकरणं प्रतिसमयमसंख्यलोकपरिणामाः। अधिकक्रमा हि विशेषे मुहूर्तातर्हि प्रतिभागः ॥ ५० ॥ अर्थ-पहले अधःकरणकी तरह दूसरा अपूर्वकरण है। उसमें विशेषता इतनी है कि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । असंख्यातलोकमात्र अधःकरणके परिणामोंसे अपूर्वकरणके परिणाम असंख्यातलोकगुणे हैं। वे समय समयके प्रति विशेष (चय ) कर अधिक हैं । सो प्रथमसमयके परिणामों में अंतर्मुहूर्तका भाग देनेसे चयका प्रमाण आता है ।। ५०॥ जम्हा उवरिमभावा हेहिमभावेहिं णत्थि सरिसत्तं । तम्हा विदियं करणं अपुषकरणेत्ति णिहिटुं॥५१॥ . यस्मादुपरिमभावानां अधस्तनभावैः नास्ति सदृशत्वम् । - तस्मात् द्वितीयं करणमपूर्वकरणमिति निर्दिष्टम् ॥ ५१॥ अर्थ-क्योंकि ऊपरसमयके परिणाम हैं वे नीचले समयके परिणामोंके समान इसमें नहीं होते । अर्थात् प्रथमसमयकी उत्कृष्ट विशुद्धतासे भी द्वितीयसमयकी जघन्य विशुद्धता अनंत गुणी है । इसतरह परिणामोंमें अपूर्वपना है। इसलिये दूसरा करण अपूर्वकरण कहा गया है ॥ ५१ ॥ बिदियकरणादिसमयादंतिमसमओत्ति अवरवरसुद्धी। अहिगदिणा खलु सधे होंति अणतेण गुणियकमा ॥५२॥ द्वितीयकरणादिसमयादंतिमसमय इति अवरवरशुद्धी। अहिगतिना खलु सर्वे भवंत्यनंतेन गुणितक्रमाः ॥ ५२ ॥ अर्थ-दूसरे करणके प्रथमसमयसे लेकर अंतसमयतक अपने जघन्यसे अपना उत्कृष्ट और पूर्वसमयके उत्कृष्टसे उत्तरसमयका जघन्यपरिणाम क्रमसे अनंतगुणी विशुद्धतालिये सर्पकी चालकी तरह जानना । यहांपर अनुकृष्टि नहीं होती ॥ ५२ ॥ गुणसेढीगुणसंकमठिदिरसखंडा अपुवकरणादो। गुणसंकमणेण समा मिस्साणं पूरणोत्ति हवे ॥५३॥ गुणनेणीगुणसंक्रमस्थितिरसखंडा अपूर्वकरणात् । गुणसंक्रमणेन समा मिश्राणां पूरण इति भवेत् ॥ ५३ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयसे लेकर जबतक सम्यक्त्वमोहनीमिश्रमोहनीयका पूर्णकाल है अर्थात् जिसकालमें गुणसंक्रमणसे मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमाता है उसकालके अंतसमयतक गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिखंडन अनुभागखंडन-ये चार आवश्यक होते हैं ॥ ५३ ॥ ठिदिबंधोसरणं पुण अधापवत्ताणुपूरणोत्ति हवे । ठिदिबंधट्ठिदिखंडुक्कीरणकाला समा होति ॥५४॥ स्थितिबंधापसरणं पुनः अधःप्रवृत्तानुपूरण इति भवेत् । स्थितिबंधस्थितिखंडोत्कीरणकालाः समा भवंति ॥ ५४ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-फिर स्थितिबंधापसरण है वह अधःप्रवृत्तकरणकालके प्रथमसमयसे लेकर गुणसंक्रमण पूर्ण होनेके कालतक होता है । यद्यपि प्रायोग्यलब्धिसे ही स्थितिबंधापसरण होता है तौभी प्रायोग्यलब्धिके सम्यक्त्व होनेका नियम नहीं इससे ग्रहण नहीं किया। और स्थितिबंधापसरणका काल तथा स्थितिकांडकोत्करण काल-ये दोनों समान अन्तर्मुहूर्तमात्र गुणसेढीदीहत्तमपुत्वदुगादो दु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलिबाहिरदो दु णिक्खेवो ॥ ५५॥ गुणश्रेणीदीर्घत्वमपूर्वद्विकात् तु साधिकं भवति । गलितावशेषे उदयावलिबाह्यतस्तु निक्षेपः ॥ ५५ ॥ अर्थ-गुणश्रेणीका निषेकोंके प्रमाणमात्र आयाम है वह अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण इन दोनोंके कालसे कुछ अधिक है । यह गुणश्रेणी आयाम गलितावशेष है यानी समय वीतनेपर यह गुणश्रेणी आयाम भी घटता जाता है । और उदयावलिसे वाह्य है क्योंकि उदयावलिसे ऊपर गुणश्रेणि आयामके निषेक हैं । उस गुणश्रेणी आयाममें गुणश्रेणीकेलिये अपकर्षण किये गये द्रव्योंका निक्षेपण किया जाता है ॥ ५५ ॥ णिक्खेवमदित्थावणमवरं समकरण आवलितिभागं । तण्णूणावलिमेत्तं विदियावलियादिमणिसेगे ॥ ५६ ॥ निक्षेपमतिस्थापनमवरं समकरणमावलित्रिभागम् । तन्यूनावलिमात्रं द्वितीयावलिकादिमनिषेके ॥ ५६ ॥ अर्थ-द्वितीय आवलिके प्रथमनिषेकमें समय कम आवलीका त्रिभाग एक समय अधिकप्रमाण निषेक तो जघन्य निक्षेप है और उससे न्यून अर्थात् न मिलानेसे उतना कम आवलि मात्र जघन्य अतिस्थापन है ॥ ५६ ॥ एतो समऊणावलितिभागमेत्तो तु तं खु णिक्खेवो । उवरि आवलिवज्जिय सगढिदी होदि णिक्खेओ ॥ ५७॥ अतः समयोनावलित्रिभागमात्रस्तु तत्खलु निक्षेपः । उपरि आवलिवर्जिता स्वकस्थितिर्भवति निक्षेपः ॥ ५७ ॥ अर्थ-इससे ऊपर द्वितीयावलिके द्वितीयनिषेकका अपकर्षण किया उस जगह एक समय अधिक आवलिमात्र इसके नीचे निषेक हैं उनमें निक्षेप तो समय कम आवलिका त्रिभाग मात्र ही है अतिस्थापन पहलेसे एक समय अधिक है । इसतरह क्रमसे अतिस्थापन एक एक समय अधिक जानना और निक्षेप पूर्वोक्त प्रमाण ही है ॥ ५७ ॥ १ अधिकका प्रमाण अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातवें भागमात्र जानना। ल. सा. ३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उक्कस्सट्ठिदिबंधो समयजुदावलिदुगेण परिहीणो । उदिम्मि चरमे ठिदिम्मि उक्कस्सणिक्खेवो ॥ ५८ ॥ उत्कृष्टस्थितिबंधः समययुतावलिद्विकेन परिहीनः । उत्कृष्टस्थितौ चरमे स्थितौ उत्कृष्टनिक्षेपः ॥ ५८ ॥ अर्थ — स्थिति के अंत निषेकके द्रव्यको अपकर्षणकर नीचले निषेकों में निक्षेपण करनेसे उस अंत निषेकके नीचे आवलीमात्र निषेक तो अतिस्थापना स्वरूप है और समय अधिक दो आवलिकर हीन उत्कृष्ट स्थितिमात्र निक्षेप होता है । यह उत्कृष्टनिक्षेप जानना ॥ ५८ ॥ उस्सदि बंधि मुहुत्तअंतेण सुज्झमाणेण । siriser घादे ह य चरिमस्स फालिस्स ॥ ५९ ॥ चरिमणिसेउकट्ठे जे मदित्थावणं इदं होदि । समयजुदंतोकोडीकोडि विणुक्कस्सकम्मदिदी ॥ ६० ॥ उत्कृष्टस्थितिं बंधयित्वा मुहूर्तान्तः शुद्ध्यता । एककांडकेन घाते तस्मिन् च चरमस्य फालेः ।। ५९ ।। चरम निषेकोत्कर्षे ज्येष्ठमतिस्थापनमिदं भवति । समययुतान्तःकोटीकोटिं विना उत्कृष्टकर्मस्थितिः ॥ ६० ॥ अर्थ —- कोई जीव उत्कृष्टस्थिति बांधकर पीछे क्षयोपशमलब्धि से विशुद्ध हुआ । तब बन्धी हुई स्थितिमें आबाधारूप बंधावलीके वीतजानेपर एक अंतर्मुहूर्तकाल से स्थितिकांडकका घात किया उस जगह जो अंतकी फालिमें स्थितिके अंतनिषेकके द्रव्यको ग्रहणकर अवशेष रही हुई स्थितिमें दिया । वहां एकसमय अधिक अंतः कोड़ा कोड़ी सागरकर हीन उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापन होता है ॥ भावार्थ - जैसे अंक संदृष्टि से हजार समयकी स्थितिमें कांडकघातकर सौ समयकी स्थिति रक्खी । उसजगह निषेकके द्रव्यको आदिके सौसमय संबंधी निषेकोंमें दिया वहांपर आठसौ निन्यानवे समयमात्र उत्कृष्ट अतिस्थापन होता है ॥ ५९ ॥ ६० ॥ हजारवें समय के सत्तग्गट्ठिदिबंधो आदिठिदुकट्टणे जहणेण । आवलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खिवदि ॥ ६१ ॥ सत्ताग्रस्थितिबन्ध आदिस्थित्युत्कर्षणे जघन्येन । आवल्यसंख्यभागं तावन्मात्रमेव निक्षिपति ॥ ६१ ॥ १ यहां बंधके वाद आवलिकालतक तो उदीरणा होती नहीं इसलिये एक आवलि तो आबाधामें गई एक आवली अतिस्थापनारूप रही और अंत निषेकका द्रव्य ग्रहण नहीं किया इसी कारण उत्कृष्टस्थितिमें दो आवलि एक समय कमती किया है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-पूर्व सत्तारूप निषेकोंमें अंतनिषेकके द्रव्यके उत्कर्षण करनेके समयमें बन्धे हुए समयप्रबद्धमें जो पूर्वसत्ताका अंतनिषेक जिससमय उदय आने योग्य हो उससमयमें उस निषेकके ऊपरवर्ती आवलिके असंख्यातवें भागमात्र निषेकोंको अतिस्थापनरूप रख उनके ऊपर वर्ती उतने ही आवलिके असंख्यातवें भागमात्र निषेकोंमें उस सत्ताका अंतनिषेकके द्रव्यको निक्षेपण करते हैं । यह उत्कर्षणमें जघन्य अतिस्थापन और जघन्यनिक्षेप जानना ॥ ६१॥ तत्तोदित्थावणगं वड्ढदि जावावली तदुक्कस्सं । उवरीदो णिक्खेओ वरं तु बंधिय ठिदी जेटं ॥ ६२ ॥ बोलिय बंधावलियं उक्कट्ठिय उदयदो दु णिक्खिविय । उवरिमसमये बिदियावलिपढमुक्कट्टणे जादे ॥ ६३ ॥ तक्कालवजमाणे वरहिदीए अदित्थियावाहं । समयजुदावलियाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ॥ ६४ ॥ ततोतिस्थापनकं वर्धते यावदावलिस्तदुत्कृष्टम् । उपरितो निक्षेपो वरं तु बंधयित्वा स्थितिज्येष्ठम् ॥ ६२ ॥ अपलाप्य बंधावलिकामुत्कर्ण्य उदयतस्तु निक्षिप्य । उपरितनसमये द्वितीयावलिप्रथमोत्कर्षणे जाते ॥ ६३ ॥ तत्कालवय॑माने वरस्थित्या अतिस्थिताबाधां । समययुतावलिकाबाधोनः उत्कृष्टस्थितिबन्धः ॥ ६४ ॥ अर्थ-उस पूर्व सत्त्वके अंतनिषेकसे लगते नीचेके निषेकोंका उत्कर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्वोक्त प्रमाण ही रहता है और अतिस्थापन क्रमसे एक एक समय वढता हुआ होता है जब तक आवलिमात्र उत्कृष्ट अतिस्थापन हो तबतक यह क्रम है। अब उत्कृष्ट निक्षेपक ही होता है ऐसा कहते हैं। किसी जीवने पहले उत्कृष्ट स्थिति बांध पीछे उसकी आबाधामें एक आवलि छोड़कर उसके बाद उस समयप्रबद्धके अंतके निषेकको अपकर्षण किया । उसजगह उसके द्रव्यको अवशेष वर्तमानसमयमें उदययोग्य निषेकसे लेकर सब निषेकोंमें दिया । इसतरह पहले अपकर्षण क्रिया की, फिर उसके ऊपरवर्ती समयमें पहले अपकर्षण क्रिया करनेसे जो द्रव्य द्वितीयावलिके प्रथमनिषेकमें दिया था उसका उत्कर्षण किया । तब उसके द्रव्यको उस उत्कर्षण करनेके समयमें बंधा जो उत्कृष्टस्थिति लिये हुए समय प्रबद्ध उसके आबाधाकालको छोड़कर जो प्रथमादि निषेक पाये जाते हैं उनमें अंतके समय अधिक आवलिमात्र निषक छोड़ अन्य सब निषेकोंमें निक्षेपण किया जाता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । है । और यहां एक समय अधिक आवलिकर सहित जो आवाधाकाल उससे हीन जो उत्कृष्ट कर्मोंकी स्थिति उस प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप जानना ॥ ६२ । ६३ । ६४ ॥ अहवावलिगदवरठिदिपढमणिसेगे वरस्स बंधस्स । विदियणिसेगप्पहुदिसु णिक्खित्ते जेट्टणिक्खेओ ॥६५॥ अथवावलिगतवरस्थितिप्रथमनिषेके वरस्य बंधस्य । द्वितीयनिषेकप्रभृतिषु निक्षिप्ते ज्येष्ठनिक्षेपः ॥ ६५ ॥ अर्थ-अथवा किसी आचार्यके मतसे निक्षेप ऐसा माना गया है कि बांधी हुई उत्कृष्ट स्थितिकी बन्धावलिको छोड़ उसके वाद उसके प्रथमनिषेकका उत्कर्षण कर उसके द्रव्यको उस उत्कर्षण करनेके समयमें बन्धे उत्कृष्ट स्थिति लिये हुए समयप्रबद्धके द्वितीयनिषेकको आदि लेकर अंतमें अतिस्थापनावलीमात्रनिकोंको छोड़ सब निषेकोंमें निक्षेपण पण किया। वहांपर एक समय सहित एक आवलि और बन्धीस्थितिका आबाधाकाल इन दोनोंकर हीन उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है ॥ ६५ ॥ उकस्सद्विदिवंधे आवाहागा ससमयमावलियं । उदरियणणिसेगेसुक्कट्ठसु अवरमावलियं ॥६६॥ उत्कृष्टस्थितिबंधे आबाधाग्रा ससमयामावलिकाम् । उदीर्यमाणनिषेकेषत्कर्षेषु अवरमावलिकम् ॥ ६६ ॥ अर्थ-उत्कृष्ट स्थिति लिये हुए जो उत्कर्षण करनेके समयमें बन्धा समयप्रबद्ध है उसकी आबाधाकालके अन्तसमयसे लेकर एक समय अधिक आवलि मात्र समय पहले उदय आने योग्य जो सब सत्ताका निषेक उसके उत्कर्षण करनेपर आवलिमात्र जघन्य अतिस्थापन होता है ॥ ६६ ॥ उदरिय तदो विदीयावलिपढमुक्कट्टणे वरं हेट्ठा। अइटावणमाबाहा समयजुदावलियपरिहीणा ॥ ६७॥ उदीर्य ततो द्वितीयावलिप्रथमोत्कर्षणे वरमधस्तना। अतिस्थापना आबाधा समययुतावलिकपरिहीना ॥ ६७ ॥ अर्थ-उसके बाद उससे पहले उदय आने योग्य ऐसा दूसरा कोई सत्तारूप समयप्रबद्ध संबन्धी द्वितीय आवलिका प्रथम निषेक उसके उत्कर्षण होनेपर नीचे एक समय अधिक आवलिकर हीन आबाधाकालके प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापन होता है ॥ ६७ ॥ अब प्रसंग पाकर गुणश्रेणीका विधान करते हैं; उदयाणमावलिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि खिवणटुं। लोयाणमसंखेजो कमसो उक्कट्टणो हारो ॥ ६८॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। उदीयमानानामावलौ चोभयानां बाह्ये क्षेपणार्थम् । ' लोकानामसंख्येयः क्रमश उत्कर्षणो हारः ॥ ६८ ॥ अर्थ-जिन प्रकृतियोंका उदय पाया जाता है उन्हींके द्रव्यका उदयावलिमें निक्षेपण होता है । उसके लिये असंख्यातलोकका भागहार जानना । और जिनके उदय और अनुदय हैं उन दोनोंके द्रव्यका उदयावलिसे बाह्य गुणश्रेणीमें अथवा ऊपरकी स्थितिमें निक्षे. पण होता है उसकेलिये अपकर्षण भागहार जानना ॥ ६८ ॥ क्रमशः इस पदसे पल्यका असंख्यातवें भागका भी भाग प्रगट किया है। आगे इसी कथनको खुलासा करते हैं: उक्कट्ठिदइगिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तत्थ । बहुभागमिदं दवं उवरिल्लठिदीसु णिक्खिवदि ॥ ६९ ॥ उत्कर्षितैकभागे पल्यासंख्येन भाजिते तत्र । बहुभागमिदं द्रव्यमुपरितनस्थितिषु निक्षिपति ॥ ६९ ॥ अर्थ-अपकर्षण भागहारका भाग देनेपर एक भागमें पल्यका असंख्यातवें भागका भागदिया उसमेंसे बहुभाग ऊपरकी स्थितिमें निक्षेपण वह जीव करता है ॥ ६९ ॥ सेसगभागे भजिदे असंखलोगेण तत्थ बहुभागं। . • गुणसेढीए सिंचदि सेसेगं चेव उदयम्हि ॥७॥ शेषकभागे भजितेऽसंख्यलोकेन तत्र बहुभागम् । गुणश्रेण्या सिंचति शेषैकं चैव उदये ॥ ७० ॥ अर्थ-अवशेष ( वाकी ) एक भागको असंख्यातलोकका भाग देना वहां बहुभागको गुणश्रेणी आयाममें देना और बाकीका एक भाग उदयावलिमें देना ॥ ७० ॥ उदयावलिस्स दवं आवलिभजिदे दु होदि मज्झधणं । रूऊणद्धाणघेणूणेण णिसेयहारेण ॥ ७१॥ मज्झिमधणमवहरिदे पचयं पचयं णिसेयहारेण । गुणिदे आदिणिसेयं विसेसहीणं कम तत्तो ॥ ७२ ॥ उदयावलेर्द्रव्यमावलिभजिते तु भवति मध्यधनम् । रूपोनाद्धानार्धेनोनेन निषेकहारेण ॥ ७१ ॥ मध्यमधनमक्हरिते प्रचयं प्रचयं निषेकहारेण । गुणिते आदिनिषेकं विशेषहीनं क्रमं ततः ॥ ७२ ॥ अर्थ-उदयावलिमें दिया जो द्रव्य उसको आवलीके समय प्रमाणका भाग देनेपर मध्यधन होता है । और उस मध्यधनको एक कम आवलि प्रमाण गच्छके आधेकम निषे. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कहारका भागदेनेसे चयका प्रमाण होता है । उस चयको निषेक हारसे ( दो गुणहानिसे) गुणा करनेपर आवलीके प्रथम निषेकके द्रव्यका प्रमाण आता है। उससे द्वितीयादिनि. कोंमें दिये क्रमसे एक एक चयकर घटता प्रमाण लिए जानना । वहां एक कम आवलीमात्र चय घटनेपर अंतनिषेकमें दिये द्रव्यका प्रमाण होता है। ऐसे उदयावलिके निषे. कोंमें दिये द्रव्यका विभाग है ॥ ७१ । ७२ ॥ उक्कद्विदम्हि देदि हु असंखसमयप्पबंधमादिम्हि । संखातीदगुणक्कममसंखहीणं विसेसहीणकमं ॥७३॥ अपकर्षिते ददाति हि असंख्यसमयप्रबद्धमादौ । संख्यातीतगुणक्रममसंख्यहीनं विशेषहीनक्रमम् ॥ ७३ ॥ अर्थ-गुणश्रेणीकेलिये अपकर्षण किये द्रव्यको प्रथमसमयकी एक शलाका उससे दूसरेकी असंख्यातगुणी इसतरह अंत समयतक असंख्यातगुणा क्रमलिये हुए जो शलाका उनको जोड़ उसका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उसको अपनी २ शलाकाओंसे गुणाकरनेसे गुणश्रेणिआयामके प्रथमनिषेकमें दिया द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण आता है । उससे द्वितीयादिनिषेकोंमें द्रव्य क्रमसे असंख्यातगुणा अंत समयतक जानना । प्रथम. निषेकमें द्रव्य गुणश्रेणीके अंत निषेकमें दिये द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । प्रथम गुणहानिका द्वितीयादि निषेकोंमें दिया द्रव्य चय घटता क्रमलिये हुए है ॥ ७३ ॥ पडिसमयं उक्कद्ददि असंखगुणियकमेण संचदिय । इदि गुणसेढीकरणं आउगवजाण कम्माणं ॥ ७४ ॥ प्रतिसमयमपकर्षति असंख्यगुणितक्रमेण संचिनोति । __इति गुणश्रेणीकरणमायुष्कवानां कर्मणाम् ॥ ७४ ॥ अर्थ-गुणश्रेणी करनेके द्वितीयादि अंतपर्यंत समयोंमें समय समयके प्रति असंख्यात गुणा क्रम लिये द्रव्यको अपकर्षण करता है और संचित अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार उदयावलि आदिमें उसे निक्षेपण करता है । ऐसे मिथ्यात्वकी तरह आयुके विना सातकोंका गुणश्रेणीविधान समय २ में होता है सो जानना ॥ ७४ ॥ आगे गुणसंक्रमणका खरूप कहते हैं; पडिसमयमसंखगुणं दवं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधं संजादिपयडीसु ॥ ७५ ॥ प्रतिसमयमसंख्यगुणं द्रव्यं संक्रामति अप्रशस्तानां । बन्धोज्झितप्रकृतीनां बन्धं स्वजातिप्रकृतिषु ॥७५ ॥ .. अर्थ-जिनका बन्ध न पाया जावे ऐसी अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्रव्य है वह समय २ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। के प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये जिनका बन्ध पाया जावे ऐसी खजातिप्रकृतियोंमें संक्रमण करता है । अर्थात् अपने खरूपको छोड़ उसरूप परिणमता है ॥ ७५ ॥ एवंविह संकमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्साणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेढिम्मि ॥ ७६ ॥ _ एवंविधं संक्रमणं प्रथमकषायाणां मिथ्यमिश्रयोः। संयोजनक्षपणयोरितरेषामुभयश्रेणौ ॥ ७६ ॥ अर्थ-ऐसा असंख्यातगुणा क्रमलिये हुए जो संक्रमण उसको गुणसंक्रमण कहते हैं । वह अनन्तानुबंधीकषायोंका गुणसंक्रमण उनके विसंयोजनमें होता है और मिथ्यात्व मिश्रमोहनीयका गुणसंक्रमण उनकी क्षपणामें होता है और अन्य प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशमक वा क्षपकश्रेणीमें पाया जाता है ॥ ७६ ॥ आगे स्थितिकांडक घातका स्वरूप कहते हैं; पढमं अवरवरहिदिखंडं पल्लस्म संखभागं खु। सायरपुधत्तमेत्तं इदि संखसहस्सखंडाणि ॥ ७७ ॥ प्रथममवरवरस्थितिखंडं पल्यस्य संख्येयभागं खलु। सागरपृथक्त्वमात्रमिति संख्यसहस्रखंडानि ॥ ७७ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयमें किया जो स्थितिकांडक आयाम वह जघन्य तो पल्यका संख्यातवां भागमात्र और उत्कृष्ट पृथक्त्वसागरप्रमाण है । इसतरह स्थितिखंड अपूर्वकरणके कालमें संख्यात हजार होते हैं ॥ ७७ ॥ आउगवजाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिबंधो य अपुरो होदि हु संखेजगुणहीणो ॥ ७८ ॥ __ आयुष्कवानां स्थितिघातः प्रथमाञ्चरमस्थितिसत्त्वं । स्थितिबंधश्चापूर्वो भवति हि संख्येयगुणहीनः ॥ ७८ ॥ अर्थ-आयुकर्मको छोड़कर शेषकर्मोंके स्थितिखंड स्थितिसत्त्व स्थितिबन्ध हैं वे अपूर्वकरणके पहले समयसे अन्तके समयमें संख्यातगुणे कम हैं । यहांपर संख्यात हजार स्थितिकांडक घातकर स्थितिसत्त्वका और संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरणकर स्थितिबन्धका संख्यातगुणा कम होना जानना चाहिये ॥ ७८ ॥ आगे अनुभागकांडकघातको कहते हैं; एकेक्कट्ठिदिखंडयणिवडणठिदिबंधओसरणकाले । संखेजसहस्साणि य णिवडंति रसस्स खंडाणि ॥ ७९ ॥ १ पृथक्त्व सात वा आठको कहते हैं । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । एकैकस्थितिकांडकनिपतनस्थितिबन्धापसरणकाले। संख्येयसहस्राणि च निपतन्ति रसस्य खंडानि ॥ ७९ ॥ अर्थ-जिसकर एकवार स्थिति सत्त्व घटाया जावे वह स्थितिकांडकौत्करणकाल है, और जिसकर एकवार स्थितिबन्ध घटाया जावे वह स्थितिबन्धापसरण काल है । ये दोनों समान हैं अन्तर्मुहूर्तमात्र हैं। उन दोनोंमेंसे किसी एकमें जिसकर अनुभागसत्व घटाया जाता है ऐसे अनुभागखंडोत्करणकाल संख्यात हजार होते हैं ॥ ७९ ॥ असुहाणं पयडीणं अणंतभागा रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णस्थित्ति रसस्स खंडाणि ॥ ८॥ __ अशुभानां प्रकृतीनामनन्तभागा रसस्य खण्डानि । शुभप्रकृतीनां नियमान्नास्तीति रसस्य खण्डानि ॥ ८०॥ अर्थ-अशुभरूप असातादि प्रकृतियोंका अनुभागखण्ड ( अनुभागकाण्डकायाम ) अनन्त बहुभाग मात्र होता है । और साता वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियोंका अनुभांगकांडक घात नियमसे नहीं है ॥ ८० ॥ रसगदपदेसगुणहाणिट्ठाणगफड्ढयाणि थोवाणि । अइत्थावणणिक्खेवे रसखंडेणंतगुणियकमा ॥ ८१॥ रसगतप्रदेशगुणहानिस्थानकस्पर्धकानि स्तोकानि । अतिस्थापननिक्षेपे रसखण्डेऽनन्तगुणितक्रमाणि ॥ ८१ ॥ अर्थ-अनुभागको प्राप्त ऐसे कर्मपरमाणुओंके एकगुणहानिस्थानमें थोड़े स्पर्धक होते हैं उससे अनन्तगुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं उससे अनन्तगुणा अनुभागकांडक आयाम पढमापुवरसादो चरिमे समये पअच्छइदराणं । रससत्तमणंतगुणं अणंतगुणहीणयं होदि ॥ ८२॥ प्रथमापूर्वरसात् चरमे समये प्रशस्तेतरेषाम् ।। ___रससत्त्वमनन्तगुणमनन्तगुणहीनकं भवति ॥ ८२॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयका प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागसत्त्व उससे उसके अन्तसमयमें प्रशस्तोंका अनन्तगुणा बढता हुआ और अप्रशस्तोंका अनन्तगुणा घटता हुआ अनुभागसत्त्व होता है ॥ ८२ ॥ आगे अनिवृत्तिकरणके कार्य कहते हैं बिदियं व तदियकरणं पडिसमयं एक एक परिणामो। अण्णं ठिदिरसखंडे अण्णं ठिदिबंधमाणुवई ॥ ८३ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कब्धिसारः । द्वितीयमिव तृतीयकरणं प्रतिसमयमेक एकः परिणामः । अन्ये स्थितिरसखंडे अन्यत् स्थितिबंधमाप्नोति ॥ ८३ ॥ अर्थ – दूसरे अपूर्वकरणमें कहे हुए स्थितिखण्डादिकार्य तीसरे अनिवृत्तिकरण में भी जानना । लेकिन इतना भेद है कि समय समयमें एक एक परिणाम ही होता है और यहां अन्य ही प्रमाणलिये हुए स्थितिखण्ड अनुभागखण्ड तथा स्थितिबन्धका प्रारंभ होता 2/211 23 11 संखज्जदिमे सेसे दंसणमोहस्स अंतरं कुणई । अण्णं ठिदिरसखंड अण्णं ठिदिबंधणं तत्थ ॥ ८४ ॥ संख्येये शेषे दर्शनमोहस्यांतरं करोति । अन्यत् स्थितिरसखंडमन्यत् स्थितिबंधनं तत्र ॥ ८४ ॥ अर्थ — इसतरह स्थितिखण्डादिकर अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग बाकी रहनेपर दर्शनमोहका अन्तर ( अभाव ) करता है । वहां उसके कालके प्रथमसमयमें अन्य ही स्थितिखण्ड अनुभागबन्ध स्थितिबन्धका प्रारंभ होता है ॥ ८४ ॥ दिखंडुक्करणकाले अंतरस्स णिष्पत्ती । अंतोमुहुत्तमेत्तं अंतरकरणस्स अद्धाणं ॥ ८५ ॥ एकस्थितिखंडोत्करणकाले अंतरस्य निष्पत्तिः । अंतर्मुहूर्तमात्रमंतरकरणस्याद्धा ।। ८५ ।। २५ अर्थ - एक स्थितिखण्डोत्करणकालमें अन्तरकरणकी उत्पत्ति होती है । वह अन्तरकरणका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ ८५ ॥ गुणसेढीए सीसं तत्तो संखगुण उवरिमठिदिं च । वरह य आवाहुज्झिय बंधम्हि संथुहृदि ॥ ८६ ॥ गुणश्रेण्याः शीर्ष ततः संख्यगुणं उपरितनस्थितिं च । अधस्तनोपरि चाबाधोज्झित्वा बंधे संपातयति ॥ ८६ ॥ अर्थ — गुणश्रेणीशीर्षके सब निषेक और उससे संख्यातगुणे ऊपरकी स्थिति निषे इन दोनोंको मिलानेसे अन्तरायाम होता है अर्थात् इतने निषेकोंका अभाव किया जाता है वह अन्तर्मुहूर्तमात्र है । उसके द्रव्यको मिथ्यात्वकर्मकी स्थितिका आबाधाकाल छोड़कर अन्तरायामसमान निषेकोंके नीचे वा ऊपर के निषेकोंमें निक्षेपण करता है ॥ ८६ ॥ अंतरकडपढमादो पडिसमयमसंखगुणिदमुवसमदि । गुणसंकमेण दंसणमोहणियं जाव पढमठिदी ॥ ८७ ॥ ल. सा. ४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अन्तरकृतप्रथमतः प्रतिसमयमसंख्यगुणितमुपशाम्यति । गुणसंक्रमेण दर्शनमोहनीयं यावत् प्रथमस्थितिः ॥ ८७ ॥ अर्थ-अन्तरकृत हुआ प्रथमस्थितिके प्रथमसमयसे लेकर उसीके अन्तरसमय तक समय समयके प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये अन्तरायामके ऊपरवर्ती निषेकरूप द्वितीयस्थितिमें रहनेवाला जो दर्शनमोह उसके द्रव्यको गुणसंक्रमण भागहारसे भाजित कर उपशमाता है जब तक पहली स्थिति है ॥ ८७ ।। पढमठिदियावलिपडिआवलिसेसेसु णत्थि आगाला। पडिआगाला मिच्छत्तस्स य गुणसेढिकरणंपि ॥ ८८ ॥ प्रथमस्थितावावलिप्रत्यावलिशेषेषु नास्ति आगालाः । प्रत्यागाला मिथ्यात्वस्य च गुणश्रेणिकरणमपि ॥ ८८ ॥ अर्थ-प्रथमस्थितिमें उदयावलि और एकसमय अधिक द्वितीयावलि बाकी रहे वहां आगाल, प्रत्यागाल और मिथ्यात्वकी गुणश्रेणी नहीं होती । अर्थात् दर्शनमोहके विना अन्यकोंकी गुणश्रेणी होती ही है ॥ ८८ ॥ द्वितीयस्थितिके निषेकोंके द्रव्यको अपक. र्षण कर प्रथमस्थितिके निषेकोंमें प्राप्त करनेको आगाल कहते हैं, प्रथम स्थितिके निषेकद्रव्यको उत्कर्षणकर द्वितीय स्थितिके निषेकोंमें प्राप्त करना उसे प्रत्यागाल कहते हैं । अंतरपढमं पत्ते उपसमणामो हु तत्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवइट्ठादूण कुणदि तदा ॥ ८९ ॥ अंतरप्रथमं प्राप्ते उपशमनाम हि तत्र मिथ्यात्वम् । स्थितिरसखंडेन विना उपस्थापयित्वा करोति तदा ॥ ८९ ॥ अर्थ-इस तरह अनिवृत्तिकरणकालको समाप्त होनेपर उसके वाद अन्तरायामके प्रथमसमयको प्राप्त होते दर्शनमोह और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इनका उपशम होनेसे यह जीव तत्त्वार्थश्रद्धानरूप उपशम सम्यग्दृष्टी होता है । वहां द्वितीयस्थितिके प्रथमसमयमें मौजूद मिथ्यात्वद्रव्यको स्थितिकांडक अनुभागकांडकके घातके विना गुणसंक्रमणका भाग देकर तीनप्रकार परिणमाता है ॥ १९॥ मिच्छत्तमिस्ससम्मसरूपेण य तत्तिधा य दवादो। सत्तीदो य असंखाणंतेण य होंति भजियकमा ॥९॥ मिथ्यात्वमिश्रसम्यस्वरूपेण च तत्रिधा च द्रव्यतः । शक्तितश्च असंख्यानंतेन च भवंति भजितक्रमाः॥ ९०॥ अर्थ-वह मिथ्यात्वद्रव्य मिथ्यात्व मिश्र सम्यक्त्वमोहनीयरूप तीनतरहका होता है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ लब्धिसारः। वह क्रमसे द्रव्य अपेक्षा असंख्यातवां भागमात्र और अनुभाग अपेक्षा अनन्तवां भागमात्र जानना ॥ ९०॥ पढमादो गुणसंकमचरिमोत्ति य सम्म मिस्ससंमिस्से । अहिगदिणाऽसंखगुणो विज्झादो संकमो तत्तो ॥ ९१॥ प्रथमात् गुणसंक्रमचरम इति च सम्यगू मिश्रसंमिश्रे । अहिगतिनासंख्यगुणो विध्यातः संक्रमः ततः ॥ ९१ ॥ अर्थ-गुणसंक्रमणकालके प्रथमसमयसे लेकर अन्तसमयतक समय २ सर्पकी चालकी तरह असंख्यात गुणा क्रम लिए मिथ्यात्वका द्रव्य है वह सम्यक्त्व मिश्रप्रकृतिरूप परिणमता है। यहां विध्यातका अर्थ मन्द है सो यहांपर विशुद्धता मन्द होनेसे सूच्यगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण जो विध्यातसंक्रम उसका भागदेनेसे जो प्रमाण आवै उतने द्रव्यको सम्यक्त्व मोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमाता है ॥ ९१ ॥ बिदियकरणादिमादो गुणसंकमपूरणस्स कालोत्ति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्प बहु ॥ ९२ ॥ द्वितीयकरणादिमात् गुणसंक्रमपूरणस्य काल इति । वक्ष्ये रसखंडोत्करणकालादीनामल्पं बहु ॥ ९२ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर गुणसंक्रमकालके पूर्णपनेतक संभवते अनुभागकांडक उत्करणकालादि हैं उनका अल्पबहुत्व आगे कहेंगे ॥ ९२ ॥ अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहिओ। तत्तो संखेजगुणो चरिमहिदिखंडहदिकालो ॥९३॥ अंतिमरसखंडोत्करणकालतस्तु प्रथमो अधिकः । ततः संख्यातगुणः चरमस्थितिखंडहतिकालः ॥ ९३ ॥ अर्थ-अन्तसमयमें संभव ऐसा अनुभागखण्डोत्करणकाल है वह थोड़ा है उससे अपूकरणके प्रथमसमयमें आरंभ होनेवाला अनुभागकांडकोत्करणकाल है उससे संख्यातगुणा अन्तका स्थितिकांडकोत्करणकाल है और स्थितिबन्धापसरण काल भी इतना ही है क्योंकि ये दोनों आपसमें समान हैं ॥ ९३ ॥ तत्तो पढमो अहिओ पूरणगुणसेढिसेसपढमठिदी। संखेण य गुणियकमा उवसमगद्धा विसेसहिया ॥ ९४ ॥ ततः प्रथम अधिकः पूरणगुणश्रेणिशेषप्रथमस्थितिः। संख्येन च गुणितक्रमा उपशमकाद्धा विशेषाधिकाः ॥ ९४ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-उससे अधिक अपूर्वकरणके पहले समयमें प्रारंभ होनेवालेका काल है । उससे संख्यातगुणा गुणसंक्रम पूरण करनेका काल है उससे संख्यात गुणा गुणश्रेणीशीर्ष है उससे संख्यातगुणा प्रथम स्थितिका आयाम है उससे समयकम दो आवलिमात्र विशेषकर अधिक दर्शनमोहके उपशमानेका काल है ॥ ९४ ॥ . अणियट्टियसंखगुणे णियट्टिए सेढियायदं सिद्धं । उवसंतद्धा अंतर अवरावरवाह संखगुणिदकमा ॥ ९५॥ अनिवृत्तिकसंख्यगुणं निवृत्तिकं श्रेण्यायतं सिद्धम् । उपशांताद्धा अंतरमवरवरबाधा संख्यगुणितक्रमा ॥ ९५ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा अनिवृत्ति करण काल है उससे संख्यात गुणा अपूर्वकरण काल है उससे अनिवृत्तिकरणकाल और इसका संख्यातवां भागमात्र विशेषकर अधिक गुणश्रेणि आयाम है उससे संख्यातगुणा उपशम सम्यक्त्वकाल है । उससे संख्यातगुणा अन्तरायाम है । उससे संख्यात गुणी जघन्य आबाधा है उससे संख्यातगुणी उत्कृष्ट आबाधा है ॥ ९५॥ पढमापुवजहणं ठिदिखंडमसंखमं गुणं तस्स । वरमवरहिदिसत्ता एदे य संखगुणियकमा ॥ ९६ ॥ प्रथमापूर्वजघन्यं स्थितिखंडमसंख्यातं गुणं तस्य । वरावरस्थितिसत्त्वे एतानि च संख्यगुणितक्रमाणि ॥ ९६ ॥ अर्थ-उससे संख्यात गुणा पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्यस्थितिकांडक आयाम है उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके पहले समयमें संभव उत्कृष्ट स्थितिकांडक आयाम है उससे संख्यातगुणा मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध है उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके पहले समयमें संभव उत्कृष्ट स्थिति बन्ध है उससे संख्यात गुणा मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्व है उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवता उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व है। यहां पर जघन्य स्थितिबन्धादि चार पदोंका प्रमाण सामान्यरीतिसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है ॥ ९६ ॥ इसतरह पच्चीस जगह अल्पबहुत्व कहा गया है। अंतो कोडाकोडी जाहे संखेजसायरसहस्से । णूणा कम्माण ठिदी ताहे उवसमगुणं गहइ ॥ ९७ ॥ अंतःकोटीकोटिर्यदा संख्येयसागरसहस्रेण । न्यूना कर्मणां स्थितिः तदा उपशमगुणं गृह्णाति ॥ ९७ ॥ अर्थ-जिस अन्तरायामके प्रथमसमयमें संख्यातहजार सागरसे कम अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरमात्र कर्मोंका स्थितिसत्त्व होवे उससमयमें उपशमसम्यक्त्वगुणको ग्रहण करता है ॥९७॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । तट्ठाणे ठिदिसंतो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवज्जमाणगस्स संखेजगुणेण हीणकमो ॥ ९८ ॥ तत्स्थाने स्थितिसत्त्वं आदिमसम्येन देशसकलयमं । प्रतिपद्यमानस्य संख्येयगुणेन हीनक्रमः ॥ ९८ ॥ अर्थ — उसी अन्तरायामके प्रथमसमयरूप स्थानमें जो देशसंयमसहित प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करे तो उसके स्थितिसत्त्व पूर्वक हे हुए से संख्यातगुणा कम होता है । और जो सकलसंयम सहित प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त होवे उसके स्थितिसत्त्व उससे भी संख्यातगुणा कम होता है । क्योंकि अनन्तगुणी विशुद्धताके विशेषसे स्थितिखण्डायाम संख्यातगुणा होता है उनकर घटाई हुई बांकी स्थिति संख्यातवें भाग संभवती है ॥ ९८ ॥ उवसामगो य सद्यो णिवाघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियो णिरासओ चेव खीणम्हि ॥ ९९ ॥ उपशामकश्च सर्वः निर्व्याघातस्तथा निरासानः । उपशांते भजितव्यों निरासानश्चैव क्षीणे ॥ ९९ ॥ २९ अर्थ-दर्शनमोहका उपशम करनेवाले सभी जीव मरण रहित हैं और सासादनको प्राप्त नहीं होते । और उपशम हुए बाद उपशम सम्यक्त्वी हुए कोई सासादन गुणस्थान प्राप्त नहीं होते कोई होते हैं । उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होने वाद सासादन नहीं होता वहां नियमसे दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियों मेंसे एकका उदय होता है ॥ ९९ ॥ उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्तो ढुं समयमेत्तोति । अवसिद्धे आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥ १०० ॥ उपशमसम्यक्त्वाद्धा षडावलिमात्रस्तु समयमात्र इति । अवसिद्धे आसादनः अनान्यतमोदयतो भवति ॥ १०० ॥ अर्थ- — उपशम सम्यक्त्वके कालमें उत्कृष्ट छह आवलि तथा जघन्य एक समय शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोधादिमें से किसी एकका उदय होनेसे सम्यक्त्वको विनाशकर जबतक मिथ्यात्वको प्राप्त न होवे उसके बीच के कालमें सासादन सम्यक्त्व होता है ॥ १०० ॥ सायारे बटुवो विगो मज्झिमो य भजणिजो । जोगे अण्णदरम्हि दु जहण्णए तेउलेस्साए ॥ १०१ ॥ साकारे प्रस्थापको निष्ठापकः मध्यमश्च भजनीयः । योगे अन्यतरस्मिन् तु जघन्यके तेजोलेश्यायाः ॥ १०१ ॥ अर्थ — साकार अर्थात् ज्ञानोपयोग के होनेपर ही यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्रारंभ करता है और उसको संपूर्ण करनेवाला और मध्य अवस्थावर्ती जीवका अनियम है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० राय चन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यानी साकार अनाकार दोनों ही उपयोगवाला होता है । और तीनमें से किसी एक योग में वर्तमान प्रथमसम्यक्त्वको प्रारंभ करसकता है । तेजोलेश्याके जघन्य अंशमें ही वर्तमान जीव प्रथमसम्यक्त्वा प्रारंभक होता है अशुभलेश्या में नहीं होता ॥ १०१ ॥ अंतोमुहुत्तमद्धं सघोवसमेण होदि उवसंतो । ते परं उदओ खलु तिण्णेकदरस्स कम्मस्स ॥ १०२ ॥ अंतर्मुहूर्तमद्धा सर्वोपशमेन भवति उपशांतः । तेन परं उदयः खलु त्रिष्वेकतमस्य कर्मणः ॥ १०२ ॥ अर्थ - अन्तर्मुहूर्त काल तक सब दर्शनमोहका उपशमकर उपशमसम्यग्दृष्टी होता है । उसके बाद तीन दर्शनमोहकीं प्रकृतियोंमेंसे किसी एकका उदय नियमसे होता है ॥ १०२ ॥ उवसमसम्मत्तुवरिं दंसणमोहं तुरंत पूरेदि । उदयिलस्सुदयादो से साणं उदयबाहिरदो ॥ १०३ ॥ उपशमसम्यक्त्वोपरि दर्शनमोहं त्वरितं पूरयति । उदीयमानस्योदयतः शेषाणामुदयबाह्यतः ॥ १०३ ॥ अर्थ — उपशम सम्यक्त्वके अन्तसमय के बाद दर्शनमोहकी अन्तरायामके ऊपरकी द्वितीयस्थितिके निषेकद्रव्यका अपकर्षण करके अन्तरको पूरता है । वहां जिस प्रकृतिका उदय पाया जावे उसका तो उदयावलिके प्रथमनिषेकसे लेकर और उदयहीन प्रकृतियोंका उदयावलिसे बाह्य निषेकसे लेकर उस अपकर्षण किये द्रव्यको अन्तरायाममें वा द्वितीयस्थिति में निक्षेपण करता है ॥ १०३ ॥ उक्तट्ठिदइगभागं समयगदीए विसेसहीणकमं । सासंखाभागे विसेसहीणे खिवदि सवत्थ ॥ १०४ ॥ अपकर्षितैकभागं समयगत्या विशेषहीनक्रमम् । शेषासंख्यभागे विशेषहीने क्षिपति सर्वत्र ॥ १०४॥ अर्थ — उदयवान सम्यक्त्व मोहनीयके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देवै । उनमैंसे एकभागको असंख्यात लोकका भागदेवे उनमें से एक भाग तो उदयावलिके निषेकोंमें चय घटते हुए क्रम से निक्षेपण करना और अपकर्षण किये द्रव्यमें शेष बहुभाग मात्र अपकृष्टवशिष्ट द्रव्य है वह चयकर हीन सब जगह क्षेपण करना ॥ १०४ ॥ यहां चय घटते क्रम से गोपुच्छाकार रचना है । सम्मुदये चलमलिणमगाढं सद्दहदि तच्चयं अत्थं । सहहृदि असन्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ १०५ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि । सो चेव हवदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥ १०६ ॥ सम्यक्त्वोदये चलमलिनमगाढं श्रद्दधाति तत्त्वमर्थम् । श्रद्धधाति असद्भावमजानन् गुरुनियोगात् ॥ १०५॥ सूत्रतस्तं सम्यक् दर्शयंतं यदा न श्रद्दधाति । स चैव भवति मिथ्यादृष्टिर्जीवः ततः प्रभृति ॥ १०६ ॥ अर्थ-उपशम सम्यक्त्वका काल पूर्ण हुए वाद नियमसे तीनोंमें एक दर्शन मोहकी प्रकृतिका उदय होता है। वहां पर सम्यक्त्वमोहनीके उदय होनेपर यह जीव वेदक (क्षयोपशमिक ) सम्यग्दृष्टी होता है । वह चल मलिन अगाढरूप तत्त्वार्थकी श्रद्धा करता है अर्थात् सम्यक्त्व मोहनीयके उदयसे श्रद्धानमें चलपना वा मैलापना वा शिथिलपना होता है । और वह जीव आप तो विशेष नहीं जानता हुआ अज्ञात गुरुके निमित्तसे असत्य श्रद्धान भी कर लेता है परंतु यह सर्वज्ञकी आज्ञा इसीतरह है ऐसा समझता है । इसीलिये सम्यग्दृष्टि है । तथा जो कभी कोई जानकार गुरू जिनसूत्रसे सम्यक् स्वरूप दिखलावे उसपर भी हठ वगैरःसे श्रद्धान न करे तो उसी कालसे लेकर वह मिथ्यादृष्टि होजाता है ॥ १०५। १०६ ॥ मिस्सुदये संमिस्सं दहिगुडमिस्सं व तत्तमियरेण । सद्दहदि एकसमये मरणे मिच्छो व अयदो वा ॥ १०७॥ .. मिश्रोदये संमिश्रं दधिगुडमिश्रं व तत्त्वमितरेण । श्रद्दधात्येकसमये मरणे मिथ्यो वा असंयतो वा ॥ १०७ ॥ अर्थ-मिश्र यानी सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति उसके उदय होनेसे जीव मिश्रगुणस्थानी होता है । वह एकसमयमें तत्त्व और अतत्त्वके मेलरूप श्रद्धान करता है । जैसे दही गुड़ मिलानेसे अन्य ही खादरूप होजाता है उसीतरह यहां सत्य असत्य श्रद्धान मिला हुआ जानना । यहांपर मरण होनेसे पहले ही नियमसे मिथ्यादृष्टि या असंयत होजाता है क्योंकि मिश्रमें मरण नहीं है ॥ १०७ ॥ मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणं होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जुरिदो ॥ १०८ ॥ मिथ्यात्वं वेदयन् जीवो विपरीतदर्शनो भवति । न च धर्म रोचते हि मधुरं खलु रसं यथा ज्वरितः ॥ १०८ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयको अनुभवता हुआ जीव मिथ्यादृष्टि होता है वह विपरीत श्रद्धानी होता है । जैसे ज्वरवालेको मीठा नहीं रुचता उसीतरह उसको धर्म Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " सहहाद। ३२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यानी अनेकान्त वस्तुका खभाव वा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग वह नहीं रुचता ऐसा जानना ॥१०८॥ मिच्छाइट्ठी जीवो उवइ8 पवयणं ण सद्दहदि । सदहदि असम्भावं उवइटुं वा अणुवइडें ॥१०९॥ मिथ्यादृष्टिर्जीव उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति । श्रद्दधात्यसद्भावमुपदिष्टं वा अनुपदिष्टम् ।। १०९ ॥ अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव जिनेश्वर भगवानकर उपदेशे हुए प्रवचनको श्रद्धान नहीं करता और अन्यकर उपदेशा हो वा विना उपदेशा हो ऐसे अतत्त्वको श्रद्धान कर लेता है ॥ १०९ ॥ इस तरह प्रथमोपशमसम्यक्स का कथन किया। अब क्षायिकसम्यक्त्वका वर्णन करते हैं; दसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमूले ॥ ११ ॥ दर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजो मनुष्यः । तीर्थकरपादमूले केवलिश्रुतकेवलिमूले ॥ ११० ॥ अर्थ-जो मनुष्य कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ हो, तीर्थकर वा अन्यकेवली वा श्रुतकेवलीके चरणकमलों में रहता हो वही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभक होता है क्योंकि दूसरी जगह ऐसी परिणामोंमें विशुद्धता नहीं होती ॥ अर्थात् अधःकरणके प्रथम समयसे लेकर जबतक मिथ्यात्वमिश्रमोहनीयका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूप होके संक्रमण करे तबतक अन्तर्मुहूर्तकाल तक दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारंभक कहा जाता है ॥ ११० ॥ णिट्ठवगो तहाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । किदकरणिज्जो चदुसुवि गदीसु उप्पजदे जम्हा ॥ १११ ॥ निष्ठापकः तत्स्थाने विमानभोगावनिषु धर्मे च ।। ___ कृतकृत्यः चतुर्वपि गतिषु उत्पद्यते यस्मात् ॥ १११ ॥ अर्थ-उस प्रारंभकालके आगेके समयसे लेकर क्षायिक सम्यक्त्वके ग्रहणसमयसे पहले निष्ठापक होता है सो जिसजगह प्रारंभ किया था वहां ही तथा सौधर्मादि वर्ग अथवा भोगभूमिया मनुष्य तिर्यचमें अथवा धर्मा नामकी नरकपृथ्वीमें भी निष्ठापक होता है क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि मरकर चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है वहां निष्ठापन करता है ॥ १११ ॥ पुवं तियरणविहिणा अणं खु अणियट्टिकरणचरिमम्हि ।। उदयावलिबाहिरगं ठिदि विसंजोजदे णियमा ॥ ११२॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। पूर्व त्रिकरणविधिना अनंतं खलु अनिवृत्तिकरणचरमे । - उदयावलिबाह्य स्थितिं विसंयोजयति नियमात् ॥ ११२ ॥ अर्थ-दर्शनमोहकी क्षपणाके पहले तीनकरण विधानसे अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभके उदयावलिसे बाह्य सब स्थिति निषेकोंको अनिवृत्ति करणके अन्तसमयमें . नियमसे विसंयोजन करता है अर्थात् बारह कषाय नव नोकषायरूप परिणमाता है॥११२॥ अणियहीअद्धाए अणस्स चत्तारि होति पवाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्टि उच्छिटुं॥ ११३॥ अनिवृत्त्यद्धायां अनंतस्य चत्वारि भवंति पर्वाणि । सागरलक्षपृथक्त्वं पल्यं दूरापकृष्टिरुच्छिष्टम् ॥ ११३ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके कालमें अनन्तानुबन्धीके स्थितिसत्त्वके चार पर्व ( विभाग) होते हैं अर्थात् स्थिति घटनेकी मर्यादाकर चार भाग होते हैं । उनमें से पहले समय पृथक्त्वलाख सागर प्रमाण स्थितिसत्त्व रहता है दूसरा संख्यात हजार स्थितिखण्ड होनेपर पल्यमात्र स्थितिसत्त्व रहता है तीसरा दूरापकृष्टि अर्थात् पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिसत्त्व रहता है और उच्छिष्टावलि अर्थात् आवलिमात्र स्थिति सत्त्व वाकी रहता है वह चौथापर्व है ॥ ११३ ॥ पल्लस्स संखभागो संखा भागा असंखगा भागा। ठिदिखंडा होति कमे अणस्स पवादु पचोत्ति ॥ ११४ ॥ पल्यस्य संख्यभागः संख्या भागा असंख्यका भागाः । स्थितिखंडा भवंति कमेण अनंतस्य पर्वात् पर्वान्तं ॥ ११४ ॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धीके स्थितिसत्त्वके एक पर्वसे दूसरे पर्वतक क्रमसे स्थिति कांडक (खण्ड ) होते हैं । उनका आयाम ( काल ) क्रमसे पल्यका संख्यातवां भाग, पल्यके संख्यात बहुभाग और पत्यके असंख्यात बहुभागमात्र हैं ॥ ११४ ॥ अणियहीसंखेज्जाभागेसु गदेसु अणगठिदिसंतो। उदधिसहस्सं तत्तो वियले य समं तु पल्लादी ॥ ११५ ॥ ____अनिवृत्तिसंख्यातभागेषु गतेषु अनंतगस्थितिसत्त्वं । उदधिसहस्रं ततो विकले च समं तु पल्यादि ॥ ११५ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके कालको संख्यातका भाग देनेसे प्राप्त बहुभागद्रव्य वितीत होनेपर एक भाग बाकी रहते अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व कहीं हजारसागरमात्र पीछे विकलेंद्रीके बन्धसमान पल्य और आदिसे दूरापकृष्टि और आवलिमात्र होता है ॥ ११५॥ ल. सा. ५ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उवहसहरुसं तु सयं पण्णं पणवीसमेक्कयं चेव । वियलचउक्के एगे मिच्छुक्कस्सट्ठिदी होदि ॥ ११६ ॥ उदधिसहस्रं तु शतं पंचाशत् पंचविंशतिरेकं चैव विकलचतुष्के एकस्मिन् मिथ्योत्कृष्टस्थितिर्भवति ॥ ११६ ॥ I अर्थ - विकलचार यानी असंज्ञी पञ्चेन्द्री चौइन्द्री ते इन्द्री दो इन्द्री और एक अर्थात् एकेंद्री इनके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे हजार सागर, सौ सागर, पचास सागर, पच्चीस सागर और एकसागर काल प्रमाण होता है । इन्हींके समान स्थितिसत्त्व अनन्तानुबन्धीका कहीं होता है ॥ ११६ ॥ अंतो मुहुत्तकालं विस्समिय पुणोवि तिकरणं किरिय । अणिट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेइ ॥ ११७ ॥ अंतर्मुहूर्तकालं विश्राम्य पुनरपि त्रिकरणं कृत्वा । अनिवृत्तौ मिथ्यं मिश्रं सम्यक्त्वं क्रमेण नाशयति ॥ ११७ ॥ अर्थ — अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेके बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक विश्राम लेकर उसके वाद फिर तीनकरणोंको करता हुआ अनिवृत्तिकरणकालमें मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीयको क्रमसे नाश करता है ॥ ११७ ॥ अणिकरणपढमे दंसणमोहस्स सेसगाण ठिदी । सायरलक्खपुधत्तं कोडीलक्खगपुधत्तं च ॥ ११८ ॥ अनिवृत्तिकरणप्रथमे दर्शनमोहस्य शेषकानां स्थितिः । सागरलक्षपृथक्त्वं कोटिलक्षक पृथक्त्वं च ॥ ११८ ॥ अर्थ — अनिवृत्तिकरण के पहले समय में दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व पृथक्त्व लक्षसागर प्रमाण है और शेषकमका स्थितिसत्त्व पृथक्त्व लक्षकोटि सागर प्रमाण है । यहां पृथक्त्व नाम बहुतका है इसलिये कोड़ाकोड़ीके नीचे अन्तःको । कोड़ि जानना ॥ ११८ ॥ अमणं ठिदिसत्तादो प्रधत्तमेत्ते पुधत्तमेत्ते य । ठिदिखंडये हवंति हु चउ ति वि एयक्ख पल्लठिदी ॥ ११९ ॥ अमनःस्थितिसत्त्वतः पृथक्त्वमात्रं पृथक्त्वमात्रं च । स्थितिकांडके भवंति हि चतुस्त्रिं द्वि एकाक्षे पल्यस्थितिः ॥ ११९॥ अर्थ-दर्शनमोहनी की पृथक्त्वलक्षसागर प्रमाण स्थिति प्रथमसमय में संभव है उससे परे संख्यात हजार स्थितिकांडक होनेपर असंज्ञीके बन्धसमान हजार सागर स्थितिसत्त्व रहता है उसके बाद बहुत बहुत स्थिति कांडक ( खण्ड ) होनेपर क्रमसे चौ इन्द्री ते इन्द्री दो इन्द्री केंद्रके स्थितिबन्ध के समान सौ सागर आदि स्थितिसत्त्व होता है । उसके Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। बाद बहुत स्थितिखण्ड होनेपर पल्यके प्रमाण स्थितिसत्त्व होता है ॥ ११९ ॥ इस प्रकार यह दूसरा पर्व हुआ। पल्लटिदिदो उवरि संखेजसहस्समेत्तठिदिखंडे। दूरावकिट्टिसण्णिद ठिदिसंते होदि णियमेण ॥ १२० ॥ पल्यस्थितित उपरि संख्येयसहस्रमात्रस्थितिखंडे । दूरापकृष्टिसंज्ञितं स्थितिसत्त्वं भवति नियमेन ॥ १२० ॥ अर्थ-उस पल्य स्थितिसत्त्वके वाद पल्यको संख्यातका भाग देनेसे बहुभागमात्र आयामवाले ऐसे संख्यातहजार स्थितिखण्ड होजानेपर दूरापकृष्टि नामा स्थितिसत्त्व नियमसे होता है ॥ १२० ॥ यह तीसरा पर्व हुआ। पल्लस्स संखभागं तस्स पमाणं तदो असंखेज । भागपमाणे खंडे संखेजसहस्सगेसु तीदेसु ॥ १२१ ॥ सम्मस्स असंखाणं समयपबद्धाणुदीरणा होदि । तत्तो उरि तु पुणो बहुखंडे मिच्छउच्छि8॥ १२२ ॥ पल्यस्य संख्यभागं तस्य प्रमाणं तत असंख्येयं । भागप्रमाणे खंडे संख्येयसहस्रकेषु अतीतेषु ॥ १२१ ॥ सम्यक्त्वस्यासंख्यानां समयप्रबद्धानामुदीरणा भवति । तत उपरि तु पुनः बहुखंडे मिथ्योच्छिष्टम् ॥ १२२ ॥ अर्थ--उस दूरापकृष्टि नामा स्थितिसत्त्वका प्रमाण पत्यके संख्यातवें भागमात्र जानना । उसके बाद पल्यको असंख्यातका भाग देनेपर बहुभागमात्र आयाम ( काल ) लिये ऐसे संख्यात हजार स्थिति खण्ड होनेपर सम्यक्त्वमोहनीयका द्रव्य अपकर्षण किया उसमें असंख्यात समयप्रबद्धमात्र उदीरणा द्रव्यको उदयावलिमें देते हैं अर्थात् उदीरणारूप उदय होता है । उसके वाद फिर पल्यको असंख्यातका भाग देकर बहुभाग मात्र कालको लिये ऐसे बहुत स्थितिखण्ड होनेपर मिथ्यात्वके उच्छिष्टावलिमात्र निषेक बाकी रहते हैं अन्य सब मिथ्यात्वप्रकृतिका द्रव्य मिश्रमोहनीय व सम्यक्त्व मोहनीरूप परिणमता है ॥ १२१ । १२२॥ जत्थ असंखेजाणं समयपबद्धाणुदीरणा तत्तो। पल्लासंखेज दिमो हारेणासंखलोगमिदो ॥ १२३ ॥ यत्रासंख्येयानां समयप्रबद्धानामुदीरणा ततः । पल्यासंख्येयः हारेणासंख्यलोकभितः ॥ १२३ ॥ अर्थ-जिस कालमें असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होवे अर्थात् ऊपरके निषेकोंका Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् द्रव्य उदयावलिमें प्राप्त होवे उस समयसे लेकर आगेके समयोंमें उदयावलिमें द्रव्य देनेके लिये भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही जानना । वह पूर्ववत् असंख्यातलोकमात्र जानना ॥१२३ ॥ मिच्छुच्छिहादुवरि पल्लासंखेजभागगे खंडे । संखेजे समतीदे मिस्सुच्छि8 हवे णियमा ॥ १२४ ॥ मिथ्योच्छिष्टादुपरि पल्यासंख्येयभागगे खंडे । संख्येये समतीते मिश्रोच्छिष्टं भवेत् नियमात् ॥ १२४ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलिमात्र स्थिति बाकी रहनेके समयसे लेकर मिश्रमोहनीकी स्थितिमें पल्यके असंख्यातका भाग देनेपर बहुभागमात्र आयामलिये ऐसे संख्यात हजार स्थितिखण्ड वीत जानेपर अन्तमें मिश्रमोहनीयके निषेक ( उदय होके निर्जरा होनेवाले परमाणु ) उच्छिष्टावलिमात्र नियमसे बाकी रहते हैं ॥ १२४ ॥ मिस्सुच्छि? समये पल्लासंखेजभागगे खंडे। चरिमे पडिदे चेट्टदि सम्मस्सडवस्सठिदिसंतो ॥१२५ ॥ मिश्रोच्छिष्टे समये पल्यासंख्येयभागगे खंडे । चरमे पतिते चेष्टते सम्यक्त्वस्याष्टवर्षस्थितिसत्त्वम् ॥ १२५ ॥ अर्थ-जिस समय मिश्रमोहनीकी उच्छिष्टावलिमात्र स्थिति बाकी रहती है उसी समयमें सम्यक्त्वमोहनीकी स्थितिमें पल्यके असंख्यातवेंका भाग देनेपर बहुभागमात्र आयामलिये ऐसे संख्यात हजार स्थितिखण्ड वीत जानेपर उस सम्यक्त्वमोहनीका आठवर्ष प्रमाण स्थितिसत्त्व बाकी रहता है । भावार्थ-मिश्रमोहनीकी उच्छिष्टावलिमात्र स्थिति रहनेका और सम्यक्त्वमोहनीकी आठ वर्ष स्थिति रहनेका यह एक ही काल है ॥१२५॥ मिच्छस्स चरमफालिं मिस्से मिस्सस्स चरिमफालिं तु। संछुहदि हु सम्मत्ते ताहे तेसिं च वरदवं ॥ १२६ ॥ मिथ्यस्य चरमफालिं मिश्रे मिश्रस्य चरमफालिं तु। संक्रामति हि सम्यक्त्वे तस्मिन् तेषां च वरद्रव्यम् ॥ १२६ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व प्रकृति के अन्तकांडककी अन्तफालि जिस समय मिश्रमोहनीमें संक्रमण होती है उससमय मिश्रमोहनीका द्रव्य उत्कृष्ट होता है और मिश्रमोहनीके अन्तकांडककी अन्तफालिका द्रव्य जिससमय सम्यक्त्व मोहनीमें संक्रमण करता है उससमय सम्पक्त्व मोहनीका द्रव्य उत्कृष्ट होता है ॥ १२६ ॥ जदि होदि गुणिदकम्मो दबमणुकस्समण्णहा तेसिं । अवरि ठिदिमिच्छदुगे उच्छित्ते समयदुगसेसे ॥ १२७ ॥ . Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ३७ यदि भवति गुणितकर्मो द्रव्यमनुत्कृष्टमन्यथा तेषाम् । अवरं स्थितिर्मिथ्यद्विके उच्छिष्टे समयद्विकशेषे ॥ १२७ ॥ अर्थ-दर्शनमोहका क्षय करनेवाला जीव जो उत्कृष्टकर्मसंचय सहित हो तो उसके उन दो प्रकृतियोंका द्रव्य उससमयमें उत्कृष्ट होता है और जो वह उत्कृष्टकर्मका संचय सहित न हो तो उसके उनका द्रव्य अनुत्कृष्ट होता है और मिथ्यात्व तथा मिश्रमोहनीकी स्थिति उच्छिष्टावलिमात्र रहनेपर क्रमसे एक एक समयमें एक एक निषेक झड़कर दो समय बाकी रहनेपर जघन्यस्थिति होती है। भावार्थ-वहां उदयावलीका अन्तनिषेकमात्र स्थितिसत्त्व होता है ॥ १२७। मिस्सदुगचरिमफाली किंचूणदिवडसमयपवद्धपमा।... गुणसेढिं करिय तदो असंखभागेण पुवं व ॥ १२८ ॥ मिश्रद्विकचरमफालिः किंचिदूनव्यर्धसमयप्रबद्धप्रमा। गुणश्रेणिं कृत्वा तत असंख्यभागेन पूर्व वा ॥ १२८ ॥ अर्थ-मिश्रमोहनी और सम्यक्त्वमोहनीकी अन्तकी दो फालिका द्रव्य कुछ कम डेढ गुणहानि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है । उसके बाद पहलेकी तरह उन दोनों फालियोंके द्रव्यमें पल्यका असंख्यातवें भागका भाग देनेसे एक भाग गुणश्रेणीमें दिया ॥ १२८॥ सेसं विसेसहीणं अडवस्सुवरिमठिदीए संखुद्धे । चरमाउलिं व सरिसी रयणा संजायदे एत्तो ॥ १२९ ॥ शेषं विशेषहीनमष्टवर्षस्योपरिस्थित्यां संक्षुब्धे । चरमावलिरिव सदृशी रचना संजायतेऽतः ॥ १२९ ॥ अर्थ-अवशेष बहुभागोंके द्रव्यको गुणश्रेणी आयाममात्र अन्तर्मुहूर्त · कम आठ वर्ष प्रमाण ऊपरकी स्थिति उसके निषेकोंमें चय घटते हुए क्रमसे क्षेपण करे । ऐसा देनेपर गुणश्रेणीके अन्तनिषेकके द्रव्यसे ऊपरकी स्थितिके प्रथमनिषेकका द्रव्य असंख्यातगुणा होता है । क्योंकि यहां बहुभाग मिलाया है और स्थितिका प्रमाण थोड़ा है ॥ १२९ ॥ अडवस्सादो उवरिं उदयादिअवटिदं च गुणसेढी। अंतोमुहुत्तियं ठिदिखंडं च य होदि सम्मस्स ॥१३०॥ अष्टवर्षादुपरि उदयाद्यवस्थितं च गुणश्रेणी । अंतर्मुहूर्तिकं स्थितिखंडं च च भवति सम्यस्य ॥ १३० ॥ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीयकी आठवर्षस्थिति करनेके समयसे लेकर ऊपर सब समयोंमें उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणी आयाम है । और सम्यक्त्वमोहनीयकी स्थितिमें स्थितिखण्ड Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अन्तर्मुहूर्तमात्र आयाम धारण करते हैं । यहांसे अब एक एक स्थितीकांडककर अंतर्मुहूर्त. मात्र स्थिति घटाते हैं ॥ १३० ॥ विदियावलिस्स पढमे पढमस्संते च आदिमणिसेये । तिट्ठाणेणंतगुणेणूणकमोवट्टणं चरमे ॥ १३१॥ द्वितीयावलेः प्रथमे प्रथमस्यांते चादिमनिषेके। त्रिस्थानेनंतगुणेनोनक्रमापवर्तनं चरमे ॥ १३१ ॥ अर्थ-द्वितीयावलिके पहले समयमें प्रथमावलिके अन्तसमयमें और आदिके निषेकमें इसतरह तीन स्थानोंमें समय समय प्रति अनन्तगुणा घटता क्रमसे उच्छिष्टावलिके अन्तसमय पर्यंत अनुभागका अपवर्तन ( नाश ) जानना चाहिये ॥ १३१ ॥ अडवस्से उवरिंमि वि दुचरिमखंडस्स चरिमफालित्ति । संखातीदगुणकम विसेसहीणक्कम देदि ॥ १३२॥ अष्टवर्षात् उपरि अपि द्विचरमखंडस्य चरमफालीति । संख्यातीतगुणक्रमं विशेषहीनक्रमं ददाति ॥ १३२॥ अर्थ-आठवर्षस्थितिसे ऊपर स्थितिमें प्रथमफालिके पतनरूप प्रथमसमयसे लेकर द्विचरमकांडककी अन्तफालिके पतनसमयतक गुणश्रेणी आदिके लिये अपकर्षण किये द्रव्यका और स्थिति घटानेकेलिये ग्रहण किये गये स्थितिकांडककी फालिके द्रव्यका उदयादि अवस्थितिगुणश्रेणी आयाममें तो असंख्यातगुणा कम लिये हुए तथा अन्तर्मुहूर्तकम आठवर्षप्रमाण ऊपरकी स्थितिमें चय घटता क्रम लिये हुए निक्षेपण होता है ॥ १३२ ॥ . आगे यहां स्पष्ट अर्थ जानकेलिये आठवर्ष करनेके समयसे पहले समयमें अथवा आठ वर्ष करनेके समयमें वा आगामी समयोंमें संभव विधान कहते हैं; अडवस्से संपहियं पुचिल्लादो असंखसंगुणियं । उवरिं पुण संपहियं असंखसंखं च भागं तु ॥ १३३ ॥ अष्टवर्षे संप्रहितं पूर्वस्मात् असंख्यसंगुणितं । उपरि पुनः संप्रहितं असंख्यसंख्यं च भागं तु ॥ १३३ ।। अर्थ-आठ वर्ष स्थिति अवशेष करनेके समयमें जो मिश्रसम्यक्त्वमोहनीकी अन्तकी दो फालियोंका द्रव्य है वह इससे पूर्वसमयके द्विचरमफालिके अन्ततक तो गुणसंक्रमद्रव्यसहित सम्यक्त्वमोहनीका सत्त्वद्रव्य उससे असंख्यात गुणा है । और प्रथमकांडककी द्विचरमफालितक असंख्यातवें भागमात्र तो दीयमान द्रव्य है और अन्तफालिका द्रव्य संख्यातवें भागमात्र है ॥ १३३ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। . ३९ ठिदिखंडाणुकीरण दुचरिमसमओत्ति चरिमसमये च। उक्कट्टिदफालीगददवाणि णिसिंचदे जम्हा ॥ १३४ ॥ स्थितिखंडानुत्करणं द्विचरमसमय इति चरमसमये च । अपकर्षितफालिगतद्रव्याणि निषिंचति यस्मात् ॥ १३४ ॥ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीयकी आठवर्ष प्रमाण स्थितिके अन्तर्मुहूर्तमात्र आयाम लिये हुए स्थितिकांडकका आठवर्षकरनेके दूसरे समयमें प्रारंभ किये उनका स्थितिकांडकोत्करण काल यथासंभव अन्तर्मुहूर्तमात्र है उसकालके प्रथम समयसे लेकर द्विचरमसमयतक जो फालि. द्रव्य सहित अपकृष्ट द्रव्य निक्षेपण करते हैं वह सम्यक्त्वमोहनीके सत्त्वद्रव्यसे असंख्यात गुणा कम है। और उसके अन्तसमयमें जो अन्तफालिका द्रव्य दिया जाता है वह सब द्रव्यके संख्यात भागमात्र है । क्योंकि अपकर्षण भागहार संभवता है ॥ १३४ ॥ अडवस्से संवहियं गुणसेढीसीसयं असंखगुणं। पुचिल्लादो णियमा उवरि विसेसाहियं दिस्सं ॥ १३५॥ अष्टवर्षे संप्रहितं गुणश्रेणीशीर्षकं असंख्यगुणम् ।। पूर्वस्मात् नियमात् उपरि विशेषाधिकं दृश्यम् ॥ १३५॥ अर्थ-आठवर्ष करनेके समयमें गुणश्रेणीका शीर्ष ( अग्रभाग ) उसके पूर्व सत्त्वद्रव्यको और निक्षेपण किये द्रव्यको मिलानेसे दृश्यमान द्रव्यका जो प्रमाण है वह इसके वाद पूर्वसमयके गुणश्रेणी शीर्षके दृश्यमान द्रव्यसे असंख्यात गुणा है । और इसके ऊपर आठवर्ष करनेके द्वितीयादि समयके गुणश्रेणी शीर्षका द्रव्य क्रमसे पूर्व पूर्व गुणश्रेणीशीर्षके द्रव्यसे विशेषकर अधिक है । असंख्यात गुणा नहीं है ॥ १३५ ॥ .. अडवस्से य ठिदीदो चरिमेदरफालिपडिददवं खु । संखासंखगुणूणं तेणुवरिमदिस्समाणमहियं सीसे ॥ १३६ ॥ अष्टवर्षे च स्थितितः चरमेतरफालिपतितद्रव्यं खलु । संख्यासंख्यगुणोनं तेनोपरिमदृश्यमानमधिकं शीर्षे ॥ १३६ ॥ अर्थ-आठ वर्ष करनेके पहले समयमें मिश्रसम्यक्त्वमोहनीकी अन्त दो फालियोंका दिया हुआ द्रव्य संख्यात व असंख्यातगुणा कम है और सर्वसत्तारूप द्रव्य और निक्षेपण किये द्रव्यको मिलानेसे जो दृश्यमानद्रव्य वह पूर्व पूर्व समयके गुणश्रेणीशीर्षके द्रव्यसे उत्तर उत्तर समयके गुणश्रेणी शीर्षका द्रव्य कुछ विशेषकर अधिक है । गुणकाररूप नहीं है ॥ १३६॥ जदि गोउच्छविसेसं रिणं हवे तोवि धणपमाणादो।... जस्सि असंखगुणूणं ण गणिजदि तं तदो एत्थ ॥ १३७ ॥.. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यदि गोपुच्छविशेष ऋणं भवेत् तथापि धनप्रमाणात् । यस्मात् असंख्यगुणोनं न गण्यते तत्ततोत्र ॥ १३७ ॥ अर्थ-यद्यपि नीचले गुणश्रेणी निषेकके सत्त्वद्रव्यसे ऊपरके गुणश्रेणीशीर्षके सत्त्वद्रव्यमें गोपुच्छविशेष ऋण है तो भी मिलाये हुए अपकृष्ट द्रव्यसे यह चयप्रमाण घटता हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा कमती है सो यहांपर घटाने योग्य ऋणको मिलाने योग्य धनसे असंख्यातवें भाग जानकर थोड़ेपनेसे नहीं गिना । पूर्व गुणश्रेणीशीर्षके दृश्य द्रव्यसे उत्तर गुणश्रेणीशीर्षका द्रव्य विशेष अधिक ही कहा है ॥ १३७ ॥ तत्तकाले दिस्सं वजिय गुणसेढिसीसयं एकं । उवरिमठिदीसु वट्टदि विसेसहीणकमेणेव ॥ १३८॥ तत्तत्काले दृश्यं वर्जयित्वा गुणश्रेणिशीर्षकमेकम् । उपरिमस्थितिषु वर्तते विशेषहीनक्रमेणैव ॥ १३८ ॥ अर्थ-उस उस समयमें गुणश्रेणीशीर्षरूप हुए एक एक निषेकको छोड़कर उसके ऊपर जो ऊपरकी स्थिति के सब निषेक उनमें तत्काल संभवता दृश्यमान द्रव्य विशेष घटते अनुक्रमलिये ही जानना ॥ १३८ ॥ अब अन्तकांडकका विधान कहते हैं; गुणसेढिसंखभागा तत्तो संखगुण उवरिमठिदीओ। सम्मत्तचरिमखंडो दुचरिमखंडादु संखगुणो ॥ १३९ ॥ गुणश्रेणिसंख्यभागाः ततः संख्यगुणं उपरितनस्थितयः । सम्यक्त्वचरमखंडो द्विचरमखंडात् संख्यगुणः ॥ १३९ ॥ अर्थ-गलितावशेष गुणश्रेणी आयामके संख्यातवें भागसे लेकर संख्यातगुणा ऊपरकी स्थितिके निषेक बाकी रहे उनके अन्तपर्यंत सम्यक्त्वके अन्तकांडकायामका प्रमाण है वह द्विचरमकांडकायामके प्रमाणसे संख्यातगुणा है । तो भी यथायोग्य अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है ॥ १३९ ॥ सम्मत्तचरिमखंडे दुचरिमफालित्तितिणि पचाओ। संपहियपुवगुणसेढीसीसे सीसे य चरिमम्हि ॥ १४० ॥ ___ सम्यक्त्वचरमखंडे द्विचरमफालीति त्रयः पर्वाः । संप्राप्त पूर्वगुणश्रेणीशीर्षे शीर्षे च चरमे ॥ १४० ॥ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीयके अन्तर्खडकी प्रथम फालिके पतन समयसे लेकर द्विचरमफालिके पतनसमयतक द्रव्यनिक्षेपण करनेमें तीन पर्व जानना । अर्थात् विभागकर तीन जगह द्रव्य देना । उस जगहपर प्रथम समयसे लेकर अवशेष स्थितिके अन्तनिषेकतक Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । ४१ जिसका प्रारंभ हुआ ऐसे गुणश्रेणी आयामके शीर्षतक तो एक पर्व जानना । उससे ऊपर पूर्व जो अवस्थितगुणश्रेणी आयाम था उसके शीर्षतक दूसरा पर्व जानना और उससे ऊपर ऊपरकी स्थितिके प्रथमसमयसे लेकर अंतसमयतक तीसरा पर्व जानना ॥ १४० ॥ तत्थ असंखेज्जगुणं असंखगुणहीणयं विसेसूणं । संखातीदगुणूणं विसेसहीणं च दत्तिकमो ॥ १४१ ॥ उक्कट्ठबहुभागे पढमे सेसेकभाग बहुभागे । fafar as सेसिग भागं तदिये जहो देदि ॥ १४२ ॥ तत्रासंख्येयगुणं असंख्यगुणहीनकं विशेषोनम् । संख्यातीतगुणोनं विशेषहीनं च दत्तिक्रमः ॥ १४१ ॥ अपकर्षितबहुभागे प्रथमे शेषैकभागबहुभागे । द्वितीये पर्वेपि शेषैकभागं तृतीये यथा ददाति ॥ १४२ ॥ अर्थ — वहां पहले पर्व में द्रव्य असंख्यातगुणा देना । उससे दूसरे पर्व में निक्षेपण किया • द्रव्य असंख्यात गुणा कम है और उससे तृतीय पर्वके प्रथमनिषेकमें निक्षेपण किया गया द्रव्य गुणा कम है वह चय घटते हुए क्रमसे जानना । उसजगह अपकर्षण किये द्रव्यमेंसे पहले पर्वमें बहुभाग द्रव्य देना बाकीके एक भागमें भाग देनेपर बहुभाग तो दूसरे 'पर्व में देना और बाकी के एकभागको तीसरे पर्व में देना ॥ १४१ ॥ १४२ ॥ उदयादिगलिदसेसा चरिमे खंडे हवेज गुणसेढी । फाडेदि चरिमफालिं अणियट्टीकरणचरिमहि ॥ १४३ ॥ उदयादिगलितशेषा चरमे खंडे भवेत् गुणश्रेणी । पातयति चरमफालिमनिवृत्तिकरणचरमे ॥ १४३॥ अर्थ —सम्यक्त्वमोहनीके अन्तकांडककी प्रथमफालिके पतनसमयसे लेकर द्विचरमफालिके पतनसमयतक उदयादिगलितावशेष गुणश्रेणी आयाम है । और शेष रहे अनिवृत्ति - करण अन्तसमय में अन्तकांडककी अन्तफालिका पतन होता है ॥ १४३ ॥ चरिमं फालिं देदि दु पढमे पत्रे असंखगुणियकमा । अंतिम समय हि पुणो पल्लासंखेज्जमूलाणि ॥ १४४ ॥ चरमं फालिं ददाति तु प्रथमे पर्वे असंख्यगुणितक्रमाणि । अंतिमसमये पुनः पल्यासंख्येयमूलानि ॥ १४४ ॥ अर्थ - गुणितसमय प्रबद्ध प्रमाण अन्तकांडककी अन्तफालिका द्रव्य उसको असंख्यात - गुणा पल्यका प्रथमवर्गमूल उसका भाग देवे उसमेंसे एक भाग तो पहले पर्व में असंख्या ल. सा. ६ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तगुणा कमकर देना । और शेष बहुभागमात्र द्रव्य गुणश्रेणीके अन्तनिषेकमें निक्षेपण 1 करना ॥ १४४ ॥ चरि फालिं दिणे कदकरणिजेत्ति वेदगो होदि । सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तट्ठाणे ॥ १४५ ॥ देवे देवम सुरण तिरिए चउग्गईसुपि । कदकरणिज्जोपत्ती कमेण अंतोमुहुत्तेण ॥ १४६ ॥ चरमे फालिं दत्ते कृतकरणीयेति वेदको भवति । सवा मरणं प्राप्नोति चतुर्गतिगमनं च तत्स्थाने ॥ १४५ ॥ देवेषु देवमनुष्ये सुरनरतिरश्चि चतुर्गतिष्वपि । कृतकरणीयोत्पत्तिः क्रमेण अन्तर्मुहूर्तेन ॥ १४६॥ अर्थ — इसप्रकार अनिवृत्तिकरणके अन्तसमय में सम्यक्त्वमोहनीके अन्तफालिके द्रव्यको नीचले निषेकोंमें क्षेपण करनेसे अन्तर्मुहूर्त कालतक कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी होता है । वह जीव भुज्यमान आयुंके नाशसे मरण पावे तो सम्यक्त्वग्रहण के पहले जो आयु बांधा था उससे चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । वहां पर कृत्यकृत्यवेदकके कालके चार भाग एक एक अन्तर्मुहूर्तमात्र करने चाहिये । उनमें से पहले भागमें मरे तो देवगतिमें दूसरे भागमें मरे तो देव अथवा मनुष्यमें तीसरे भाग में मरे तो देव वा मनुष्य वा तिर्यचमें और चौथे भागमें मरण करे तो चारों गतियों में से कोई गतिमें उत्पन्न होता है । इस तरह कृतकृत्यवेदककी उत्पत्ति जानना चाहिये ॥ १४५ ॥ १४६॥ करणपढमादु जावय किदुकिच्चुवरिं मुद्दत्तअंतोत्ति । सुहाण परावती साधि कओदावरं तु वरिं ॥ १४७ ॥ करणप्रथमात् यावत् कृत्यकृत्योपरि मुहूर्तात इति । न शुभानां परावृत्तिः सा हि कपोतावरं तु उपरि ॥ १४७ ॥ अर्थ — अधःकरण के प्रथमसमय से लेकर जबतक कृतकृत्यवेदक है तबतक उस अन्तर्मुहूर्तकाल से प्रथमभागमें मरण करे तो पीत पद्म शुक्लरूप शुभ लेश्याओंका बदलना नहीं होता क्योंकि यहां से मरके देवगतिमें उत्पन्न होता है । और जो अन्यभागों में मरे तो शुभश्याकी क्रमसे हानि होकर मरणसमय कपोतलेश्याका जघन्य अंश होता है ॥ १४७ ॥ अणुसमओ वट्टणयं कदकिजंतोत्ति पुइकिरियादो । वहृदि उदीरणं वा असंखसमय पबद्धाणं ॥ १४८ ॥ अनुसमयोपवर्तनं कृतकरणीय इति पूर्वक्रियातः । वर्तते उदीरणां वा असंख्य समयप्रबद्धानाम् ॥ १४८ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-समय समय अनन्तगुणा घटता क्रमलिये अनुभागका अपवर्तन कहा था वही . इस कृतकृत्यवेदककालके अन्तसमयतक पाया जाता है उसीकालमें असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा पायी जाती है ॥ १४८॥ अब उसकी विधि कहते हैं; उदयवहिं उक्कट्टिय असंखगुणमुदयआवलिम्हि खिवे । उवरिं विसेसहीणं कदकिज्जो जाव अइत्थवणं ॥ १४९॥ __उदयबहिरपकर्षितं असंख्यगुणं उदयावलौ क्षिपेत् । उपरि विशेषहीनं कृतकृत्यो यावदतिस्थापनम् ॥ १४९ ॥ अर्थ-कृतकृत्यवेदककालके एकभाग प्रमाण द्रव्यको उदयावलिसे बाह्य ऊपरके निषेकोंसे ग्रहणकर उसको पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देके उनमेंसे एक भाग तो उदयावलिमें असंख्यातगुणा क्रमलिये दिया जाता है और शेष बहुभागमात्र द्रव्य उस उदयावलिसे ऊपरकी स्थितिके अन्तमें समय अधिक अतिस्थापनावलिको छोड़ सब निषेकोंमें विशेषहीन क्रम लिये निक्षेपण करे। इसप्रकार ऊपरकी स्थितिका द्रव्य उदयावलिमें दिया जाता है उसका नाम उदीरणा है ॥ १४९ ॥ जदि संकिलेसजुत्तो विसुद्धिसहिदो वतोपि पडिसमयं । दवमसंखेजगुणं उक्कद्ददि णत्थि गुणसेढी ॥१५० ॥ यदि संक्लेशयुक्तो विशुद्धिसहितो अतोपि प्रतिसमयम् । द्रव्यमसंख्येयगुणमपकर्षति नास्ति गुणश्रेणी ॥ १५० ॥ अर्थ-यद्यपि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि लेश्याके बदलेनेसे संक्लेश सहित होता है विशुद्धता युक्त होता है तो भी पहले उत्पन्न हुए करणरूप परिणामोंकी विशुद्धताके संस्कारसे समय २ प्रति असंख्यातगुणे द्रव्यंको अपकर्षण कर उदीरणा करता है । गुणश्रेणी आयामके विना कुछ द्रव्यको उदयावलिमें देता है बाकीको ऊपरकी स्थितिमें देदिया इसलिये यहां गुणश्रेणी नहीं है ॥ १५० ॥ जदि वि असंखेजाणं समयपबद्धाणुदीरणा तोवि। उदयगुणसेढिठिदिए असंखभागो हु पडिसमयं ॥ १५१ ॥ यद्यपि असंख्येयानां समयप्रबद्धानामुदीरणा तथापि । उदयगुणश्रेणिस्थितेरसंख्यभागो हि प्रतिसमयं ॥ १५१ ॥ अर्थ-यद्यपि असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा पूर्वपूर्व समयके उदीरणा द्रव्यसे असंख्यातगुणा क्रम लियेहुए है तो भी उस गुणश्रेणीरूप उदयमें आये निषेकके द्रव्यसे यह उदीरणा द्रव्य प्रतिसमय असंख्यातवां भागमात्र ही है ।। १५१ ॥ समय समय प्रति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उच्छिष्टावलिके एक २ निषेकको निर्जरारूप कर उसके बादके समयमें जीव क्षायकसम्यग्दृष्टी होता है। विदियकरणादिमादो कदकरिणजस्स पढमसमओत्ति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्पबहु ॥ १५२ ॥ द्वितीयकरणादिमात् कृतकृत्यस्य प्रथमसमय इति । वक्ष्ये रसखंडोत्करणकालादीनामल्पबहुत्वम् ॥ १५२ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर कृतकृत्य वेदकके प्रथम समयतक अनुभागकांडकोत्करणकालादिकोंके अल्पबहुत्वके तेतीसस्थान कहूंगा ॥ १५२ ॥ रसठिदिखंडुक्कीरणअद्धा अवरं वरं च अवरवरं । सवत्थो अहियं संखेजगुणं विसेसहियं ॥ १५३॥ . रसस्थितिखंडोत्करणाद्धा अवरं वरं च अवरवरं । .. सर्वस्तोकं अधिक संख्येयगुणं विशेषाधिकम् ॥ १५३ ॥ अर्थ-जघन्य अनुभागखंडोत्करण काल संख्यातआवलिमात्र है तो भी कहे जानेवाले सब स्थानोंसे थोड़ा है, उससे उत्कृष्ट अनुभागखंडोत्करणकाल उसके संख्यातवें भागमात्र• विशेषकर अधिक है, उससे संख्यातगुणा जघन्यस्थितिकांडकोत्करण काल है और उसके संख्यातवें भागमात्र विशेषकर अधिक अपूर्व करणकी आदिमें संभवता ऐसा उत्कृष्ट स्थितिकांडकोत्करण काल है ॥ १५३ ॥ कदकरणसम्मखवणणियट्टिअपुबद्ध संखगुणिदकमं । तत्तो गुणसेढिस्स य णिक्खेओ साहियो होदि ॥ १५४ ॥ कृतकरणसम्यक्षपणनिवृत्त्यपूर्वाद्धा संख्यगुणितक्रमं । ततो गुणश्रेण्याश्च निक्षेपः साधिको भवति ॥ १५४ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकका काल है ५। उससे संख्यातगुणा अष्ट वर्ष करनेके समयसे लेकर कृतकृत्य वेदकके अन्तसमयतक सम्यक्त्वमोहनीकी क्षपणाका काल है ६। उससे संख्यातगुणा अनिवृत्तिकरणका काल है ७ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणका काल है ८ । उससे अनिवृत्तिकरणकाल और इसके संख्यातवें भागमात्र विशेषकर अधिक अपूर्वकरणके पहले समयमें जिसका प्रारंभ हुआ था ऐसा गुणश्रेणी आयाम है ॥ १५४ ॥ सम्मदुचरिमे चरिमे अडवस्सस्सादिमे च ठिदिखंडा। अवरवराबाहावि य अडवस्सं संखगुणियकमा ॥ १५५ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। - सम्यग्द्विचरने चरमे अष्टवर्षस्यादिमे च स्थितिखंडानि । अवरवराबाधापि च अष्टवर्ष संख्यातगुणितक्रमाणि ॥ १५५॥ ... " - अर्थ-उससे संख्यातगुणा सम्यक्त्वमोहनीका द्विचरम स्थितिकांडकायाम है १० । उससे संख्यातगुणा सम्यक्त्व मोहनीका अन्तस्थितिकांडका आयाम है ११ । उससे संख्यातगुणा सम्यक्त्वमोहनीका आठवर्षस्थितिका प्रथमस्थितिकांडक आयाम है १२ । उससे संख्यातगुणा कृतकृत्य वेदकके प्रथमसमयमें संभवता जो ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिबन्ध उसका जघन्य आबाधाकाल है १३ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवतां स्थितिबन्धका उत्कृष्ट आबाधा काल है १४ । यहांतक ये सब काल प्रत्येक यथासंभव अन्तर्मुहूर्तमात्र ही जानने । उससे संख्यातगुणी सम्यक्त्वमोहनीकी अवशेष अष्टवर्षप्रमाण स्थिति है ॥ १५५ ॥ मिच्छे खवदे सम्मदुगाणं ताणं च मिच्छसंतहि । पढमंतिमठिदिखंडा असंखगुणिदा हु दुट्टाणे ॥ १५६ ॥ मिथ्ये क्षपिते सम्यद्विकानां तेषां च मिथ्यसत्त्वं हि। प्रथमांतिमस्थितिखंडान्यसंख्यगुणितानि हि द्विस्थाने ॥ १५६ ॥ अर्थ-उससे असंख्यात गुणा मिथ्यात्वके क्षय करने के समय सम्यक्त्वमोहनीयका अन्तका स्थितिकांडक आयाम है १६ । उससे असंख्यातगुणा मिश्रमोहनीयका अन्तका स्थितिकांडक आयाम है १७ । उससे असंख्यातगुणा मिथ्यात्व क्षयकरनेके समयके वादमें संभवता मिश्रमोहनीय वा सम्यक्त्वमोहनीयका प्रथमस्थितिकांडक आयाम है १८ । उससे असंख्यात गुणा मिथ्यात्वका सत्त्वद्रव्य अन्तकांडक प्रमाण जहां बाकी रहे उस कालमें संभवता मिश्रमोहनी वा सम्यक्त्वमोहनीयका अन्तकांडकका आयाम है ।। १५६॥ मिच्छंतिमठिदिखंडो पल्लासंखेजभागमेत्तेण । हेटिमठिदिप्पमाणेणभिहियो होदि णियमेण ॥ १५७ ॥ मिथ्यांतिम स्थितिखंडं पल्यसंख्येयभागमात्रेण ।। अधस्तनस्थितिप्रमाणेनाभ्यधिकं भवति नियमेन ॥ १५७ ॥ अर्थ-उससे मिथ्यात्वका सत्त्व जिसकालमें पाया जावे उसमें मिश्रसम्यक्त्व मोहनीके अन्तखंडका घात होनेके वाद शेष रही उन दोनों के नीचेकी स्थिति पत्यके असंख्यातवें भागमात्र उससे अधिक मिथ्यात्वके अन्तकांडकका आयाम है ॥ १५७ ॥ दूरावकिहिपढमं ठिदिखंडं संखसंगुणं तिण्णं ।। दूरावकिटिहेदू ठिदिखंडं संखसंगुणियं ॥ १५८ ॥ दूरापकृष्टिप्रथमं स्थितिखंड संखसंगुणं त्रयं ।। दूरापकृष्टिहेतुः स्थितिखंडः संख्यसंगुणितः ॥ १५८ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। अर्थ-उससे असंख्यातगुणा दर्शनमोहत्रिककी दूरापकृष्टि नामा स्थितिमें प्राप्त हुआ ऐसा पल्यका असंख्यातवां बहुभागमात्र स्थितिकांडक आयाम है २१ । उससे संख्यातगुणा दूरापकृष्टिस्थितिका कारण ऐसा पल्यका असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकांडक आयाम है ॥ १५८॥ पलिदोवमसंतादो विदियो पल्लस्स हेदुगो जो दु । अवरो अपुवपढमे ठिदिखंडो संखगुणिदकमा ॥ १५९ ॥ पलितोपमसत्त्वतो द्वितीयं पल्यस्य हेतुकं यत्तु । अवरमपूर्वप्रथमे स्थितिखंडं संख्यगुणितक्रमं ॥ १५९ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा पल्यमात्र शेषस्थिति होनेपर पाया जावे ऐसा द्वितीयस्थितिकांडकका आयाम है २३ । उससे संख्यातगुणा पल्यमात्र स्थितिको कारण ऐसा पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थितिकांडक आयाम है २४ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जिसका प्रारंभ हुआ ऐसा जघन्य स्थितिकांडकका आयाम है ॥ १५९ ॥ पलिदोवमसंतादो पढमो ठिदिखंडओ दु संखगुणो। पलिदोवमठिदिसंतं होदि विसेसाहियं तत्तो ॥ १६० ॥ पल्योपमसत्त्वतः प्रथमं स्थितिखंडकं तु संख्यगुणं । पल्योपमस्थितिसत्त्वं भवति विशेषाधिकं ततः ॥ १६० ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा पल्यमात्र अवशेष स्थितिमें प्राप्त ऐसा पल्यका संख्यात बहुभागमात्र प्रथमकांडकका आयाम है २६ । उससे पल्यका संख्यातवां भागमात्र विशेषकर अधिक पल्यमात्र स्थितिसत्त्व है ॥ १६० ॥ बिदियकरणस्स पढमे ठिदिखंडविसेसयं तु तदियस्स । करणस्स पढमसमये दंसणमोहस्स ठिदिसंतं ॥ १६१ ॥ दंसणमोहूणाणं बंधो संतो य अवर वरगो य। संखये गुणयकमा तेत्तीसा एत्थ पदसंखा ॥ १६२॥ द्वितीयकरणस्य प्रथमे स्थितिखंडविशेषकं तु तृतीयस्य । करणस्य प्रथमसमये दर्शनमोहस्य स्थितिसत्त्वम् ।। १६१ ॥ दर्शनमोहोनानां बंधः सत्त्वं च अवरं वरकं च । संख्येयगुणितक्रमं त्रायस्त्रिंशदत्र पदसंख्या ॥ १६२ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जघन्य और उत्कृष्टकांडकोंमें बीचके विशेषका प्रमाण पत्यका संख्यातवें भागकर हीन पृथक्त्व सागर प्रमाण है २८ । उससे संख्यातगुणा अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें संभवता दर्शनमोहका स्थितिसत्त्व है Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। २९ । उससे संख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकके प्रथमसमयमें संभवता दर्शनमोहके विना अन्य कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध है ३० । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवता उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है ३१ । उससे संख्यातगुणा अनिवृत्तिकरणके अन्तभागमें संभवता उन्हीं कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्त्व है ३२ । उससे संख्यातगुंणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवता उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है । ३३ । इस प्रकार दर्शनमोहकी क्षपणाके अवसरमें संभवते अल्प बहुत्वके तेतीस स्थान हैं ॥ १६१॥१६२ ।। सत्तण्हं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरुं व णिप्पकप सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ॥ १६३॥ सप्तानां प्रकृतिनां क्षयात् क्षायिकं तु भवति सम्यक्त्वम् । मेरुरिव निष्प्रकंपं सुनिर्मलमक्षयमनंतम् ॥ १६३ ॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धी चार दर्शनमोहकी तीन-इन सातों प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायक सम्यक्त्व होता है वह सुमेरुके समान निश्चल है शंका आदि मलोंसे रहित है शिथिलताके अभावसे गाढ है और अन्तरहित है ॥ १६३ ॥ दंसणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवें । णादिकदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्मं व ॥१६४॥ दर्शनमोहे क्षपिते सिद्ध्यति तत्रैव तृतीयतुरीयभवे । ___ नातिक्रामति तुरीयभवं न विनश्यति शेषसम्यगिव ॥ १६४ ॥ अर्थ-दर्शनमोहका क्षय होनेपर उसी भवमें अथवा तीसरे भवमें या मनुष्यतिर्यंचका पहले आयु बन्धा हो तो भोगभूमि अपेक्षा चौथे भवमें सिद्धपदको पाता है। चौथे भवको नहीं उलंघन करता । और यह सम्यक्त्व शेषके उपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी तरह नाशको नहीं प्राप्त होता ॥ १६४ ॥ सत्तण्हं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयलद्धी दु। उक्कस्सखइयलद्धी घाइचउक्वक्खएण हवे ॥ १६५ ॥ सप्तानां प्रकृतीनां क्षयादवरा तु क्षायिकलब्धिस्तु । उत्कृष्टक्षायिकलब्धिर्घातिचतुष्कक्षयेण भवेत् ॥ १६५ ॥ अर्थ-सात प्रकृतियोंके क्षयसे असंयतसम्यग्दृष्टीके क्षायिकसम्यक्त्वरूप जघन्य क्षायकलब्धि होती है और चार घातिया कर्मोंके क्षयसे परमात्माके केवलज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायक लब्धि होती है ॥ १६५॥ __ इसप्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित क्षपणासार गर्भित लब्धिसारमें दर्शनलब्धिका व्याख्यान करनेवाला पहला अधिकार समाप्त हुआ ॥१॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चारित्रलब्धिका अधिकार ॥२॥ आगे चारित्रलब्धिका स्वरूप कहते हैं; दुविहा चरितलद्धी देसे सयले य देसचारित्तं । मिच्छो अयदो सयलं तेचि य देसो य लब्भेई ॥१६६ ॥ द्विविधा चारित्रलब्धिः देशे सकले च देशचारित्रम् । मिथ्यो अयत: सकलं तावपि च देशश्च लभते ॥ १६६ ॥ अर्थ-चारित्रकी लब्धि अर्थात् प्राप्ति वह चारित्रलब्धि है वह देश सकलके भेदसे दो प्रकारकी है । उनमेंसे देश चारित्रको मिथ्यादृष्टि वा असंयत सम्यग्दृष्टी प्राप्त होता है और सकल चारित्रको वे दोनों तथा देशसंयत प्राप्त होता है ॥ १६६॥ अंतोमुहुत्तकाले देसवदी होहिदित्ति मिच्छो हु। सोसरणो सुझंतो करणेहिं करेदि सगजोग्गं ॥ १६७ ॥ . अन्तमुहूर्तकाले देशव्रती भविष्यतीति मिथ्यो हि । . सापसरणः शुध्यन् करणानि करोति स्वकयोग्यम् ॥ १६७ ॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्तकालके वाद जो देशव्रती होगा वह मिथ्यादृष्टि जीव समय समय अनन्तगुणी विशुद्धतासे बढे तो आयुके विना सातकर्मोंका बन्ध वा सत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ीमात्र शेष करनेसे स्थितिबन्धापसरणको करता हुआ अशुभकर्मोंका अनुभाग अनन्तवें भागमात्र करनेसे अनुभागबन्धापसरणको करता हुआ अपने योग्य करण परिणामोंको करता है ॥ १६७ ॥ मिच्छो देसचरित्तं उवसमसम्मेण गिण्हमाणो हु । सम्मत्तुप्पत्तिं वा तिकरणचरिमम्हि गेण्हदि हु॥ १६८॥ मिथ्यो देशचारित्रं उपशमसम्येन गृह्णन हि।। सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव त्रिकरणचरमे गृह्णाति हि ॥ १६८ ॥ अर्थ-अनादि वा सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वसहित देशचारित्रको ग्रहण करता है वह सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कथनकी तरह तीनकरणोंके अन्तसमयमें देशचारित्रको ग्रहण करता है । अर्थात् प्रकृतिबन्धापसरण स्थितिबंधापसरण आदि जो कार्यविशेष वहां कहे हैं वे सब होते हैं कुछ विशेषता नहीं है ॥ १६८ ॥ मिच्छो देसचरित्तं वेदगसम्मेण गेण्हमाणो हु। दुकरणचरिमे गेण्हदि गुणसेढी णत्थि तक्करणे ॥ १६९ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । सम्मत्तुष्पत्तिं वा थोववहुत्तं च होदि करणाणं । ठिदिखंडसह स्सगदे अपुत्रकरणं समप्पदि हु ॥ १७० ॥ मिथ्यो देशचारित्रं वेदकसम्येन गृह्णन् हि । द्विकरणचर मे गृह्णाति गुणश्रेणी नास्ति तत्करणे ॥ १६९ ॥ सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव स्तोकबहुत्वं च भवति करणानाम् । स्थितिखंडसहस्रगते अपूर्वकरणं समाप्यते हि ॥ १७० ॥ ४९ अर्थ - सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्वसहितं देशचारित्रको ग्रहण करे तो उसके अधःकरण अपूर्वकरण ये दोही करण होते हैं उनमें गुणश्रेणीनिर्जरा नहीं होती अन्य स्थितिखंडादि सब कार्य होते हैं । वह अपूर्वकरणके अन्तसमय में एक ही वक्त वेदक सम्यक्त्व और देशचारित्रको ग्रहण करता है क्योंकि अनिवृत्ति करणके बिना ही इनकी प्राप्ति है । वहां पर प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पति की तरह करणोंका अल्पबहुत्व है इस लिये यहां अधःकरणकालसे अपूर्वंकरणका काल संख्यातवें भाग है और अपूर्वकरणकाल में संख्यात हजार स्थितिखंड वीतनेपर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है ।। १६९। १७०॥ से काले सवदी असंखसमयष्पवद्धमाहरिय | उदयावलिस्स वाहिं गुणसेढिमवट्ठिदं कुणदि ॥ १७१ ॥ तस्मिन् काले देशव्रती असंख्यसमयप्रबद्धमाहृत्य । उदयावलेर्बाह्यं गुणश्रेणीमवस्थितां करोति ॥ १७१ ॥ अर्थ - अपूर्णकरण के अन्तसमयके वाद में जीव देशत्रती होकर असंख्यातसमय प्रबद्ध प्रमाण द्रव्यको ग्रहणकर उदयावलीसे बाह्य अवस्थित गुणश्रेणी आयाम करता है ॥ १७१ ॥ दवं असंखगुणियकमेण एतबुद्धिकालोत्ति । बहुठिदिखंडे तीते अधापवत्तो हवे देसो ॥ १७२ ॥ द्रव्यमसंख्यगुणितक्रमेण एकांतवृद्धिकाल इति । बहुस्थितिखंडेती अधाप्रवृत्तो भवेद्देशः ॥ १७२ ॥ अर्थ – देशसंयत के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्ततक समय समय अनन्तगुणी विशु समय समय असं - द्धतासे बन्धता है उसे एकांतवृद्धि कहते हैं । उस एकांतवृद्धिकाल में ख्यातगुणे क्रमसे द्रव्यको अपकर्षणकर अवस्थित गुणश्रेणी आयाममें निक्षेपण करता है वहां स्थितिकांडकादि कार्य होते हैं और बहुत स्थितिखंड होनेपर एकांतवृद्धिका काल समाप्त होनेके वाद विशुद्धताकी वृद्धि रहित हुआ स्वस्थान देशसंयत होता है । इसीको नवृतसंयत भी कहते हैं । उसका काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट देशोन कोड़ि पूर्व वर्षप्रमाण है ॥ १७२ ॥ ल. सा. ७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ठिदिरसघादो णत्थि हु अधापवत्ताभिधाणदेसस्स । पडिउट्ठदे मुहुत्तं संतेण हि तस्स करणदुगा ॥ १७३॥ स्थितिरसघातो नास्ति हि अधाप्रवृत्ताभिधानदेशस्य । प्रतिपतिते मुहूर्त संयतेन हि तस्य करणद्विकम् ॥ १७३ ॥ अर्थ-अधाप्रवृत्त देससंयतके कालमें स्थितिखण्डन वा अनुभागखण्डन नहीं होता और जो बाह्य कारणोंसे सम्यक्त्व वा देशसंयतसे भ्रष्ट होकर मिथ्यादृष्टि होता है वहां बड़ा अन्तर्मुहूर्त वा संख्यात असंख्यातवर्षतक रहकर फिर वेदक सम्यक्त्वसहित देशसंयमको ग्रहण करे उसके अधःप्रवृत्त अपूर्वकरण दो करण होते हैं । इसलिये स्थिति अनुभा. गकांडकका घात भी होता है ॥ १७३ ॥ देसो समये समये सुझंतो संकिलिस्समाणो य । चउवढिहाणिदचादवविदं कुणदि गुणसेढिं ॥ १७४ ॥ देशः समये समये शुध्यन् संक्लिश्यन् च । चतुर्वृद्धिहानिद्रव्यादवस्थितां करोति गुणश्रेणिम् ॥ १७४ ॥ अर्थ-अधाप्रवृत्त देशसंयत जीव संक्लेशी हुआ विशुद्धताकी वृद्धि समय समयमें करता उसके अनुसार कभी असंख्यातवें भाग वढता कभी संख्यातवें भाग वढता कभी संख्यातगुणा कभी असंख्यातगुणा द्रव्यको अपकर्षणकर गुणश्रेणीमें निक्षेपण करता है । और विशुद्धताकी हानिके अनुसार कभी असंख्यातवें भाग घटता कभी संख्यातवें भाग घटता कभी संख्यातगुणा घटता कभी असंख्यातगुणा घटता द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणीमें निक्षेपण करता है । इसप्रकार अधाप्रवृत्त देशसंयतके सबकालमें समय समय यथासंभव चतुस्थान पतित वृद्धि हानि लिये गुणश्रेणी विधान पायाजाता है ॥ १७४ ॥ विदियकरणादु जावय देसस्सेयंतवढिचरिमेति । अप्पावहुगं वोच्छं रसखंडद्धाण पहुदीणं ॥ १७५ ॥ द्वितीयकरणात् यावत् देशस्यैकांतवृद्धिचरमे इति । अल्पबहुत्वं वक्ष्ये रसखंडाद्धानां प्रभृतीनाम् ॥ १७५ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणसे लेकर एकांत वृद्धि देशसंयतके अन्ततक संभव जो जघन्य अनुभाग खण्डोत्करणकालादिरूप अठारह स्थान उनके अल्प बहुत्वको मैं कहूंगा ॥ १७५॥ अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमओ अहिओ। चरिमझिदिखंडुक्कीरणकालो संखगुणिदो हु॥ १७६ ॥ अंतिमरसखंडोत्करणकालतस्तु प्रथमो अधिकः । चरमस्थितिखंडोत्करणकालः संख्यगुणितो हि ॥ १७६ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ५१ अर्थ-सबसे थोड़ा देशसंयतके एकांतवृद्धिकालके अन्तमें संभव जघन्य अनुभागखंडोकरणकाल है १ । उससे कुछ विशेषकर अधिक अपूर्वकरणके प्रथमसमय में सम्भव उत्कृष्ट अनुभागखण्डोत्करण काल है २ । उससे संख्यातगुणा देशसंयतके एकांतवृद्धिकालके अन्तसमयमें संभवता जघन्यस्थिति कांडकोत्करणकाल ३ है ॥ १७६ ॥ पढमट्ठिदिखंडुकीरणकालो साहियो हवे तत्तो। एयंतवड्डिकालो अपुवकालो य संखगुणियकमा ॥ १७७ ॥ प्रथमस्थितिखंडोत्करणकालः साधिको भवेत् ततः। एकांतवृद्धिकाले अपूर्वकालश्च संख्यगुणितक्रमः ॥ १७७ ॥ "अर्थ—उससे कुछ विशेषकर अधिक अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवता उत्कृष्टस्थितिखण्डोत्करणकाल है ४ । उससे संख्यातगुणा एकांतवृद्धिका काल है ५ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणका काल ६ है ॥ १७७ ॥ अवरा मिच्छतियद्धा अविरद तह देससंयमद्धा य । छप्पि समा संखगुणा तत्तो देसस्स गुणसेढी ॥ १७८ ॥ .... अवरा मिथ्यत्रिकाद्धा अविरता तथा देशसंयमाद्धा च । . षडपि समाः संख्यगुणा ततो देशस्य गुणश्रेणी ॥ १७८ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमोहनी इन तीनोंका उदयकाल और असंयम देशसंयम सकलसंयम-इन छहोंका जघन्यकाल आपसमें समान है ७ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जिसका आरंभ हुआ ऐसा देशसंयतका गुणश्रेणी आयाम ८ है ॥ १७८ ॥ चरिमाबाहा तत्तो पढमावाहा य संखगुणियकमा। तत्तो असंखगुणियो चरिमझिदिखंडओ णियमा ॥ १७९ ॥ चरमाबाधा ततः प्रथमाबाधा च संख्यगुणितक्रमा । तत असंख्यगुणितः चरमस्थितिखंडो नियमात् ॥ १७९ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा एकांतवृद्धिके अन्तसमयमें संभव स्थितिबन्धका जघन्य आबाधा काल है ९ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथम समयमें संभवते स्थितिबन्धका उत्कृष्ट आबाधाकाल है १०। यहांतक ये कहे हुए सबकाल प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमात्र ही जानना । उससे असंख्यातगुणा एकांतवृद्धिके अन्तसमयमें सम्भवता जघन्यस्थितिकांडक आयाम ११ है ॥ १७९ ॥ पल्लस्स संखभागं चरिमटिदिखंडयं हवे जम्हा । तम्हा असंखगुणियं चरिमं ठिदिखंडयं होई ॥ १८० ॥ . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पल्यस्य संख्यभागं चरमस्थितिखंडकं भवेत् यस्मात् । सस्मादसंख्यगुणितं चरमं स्थितिखंडकं भवति ॥ १८० ॥ अर्थ-यह कहा गया जो अन्तमें सम्भवता जघन्यस्थितिकांडक आयाम वह पल्यके संख्यातवें भागमात्र है क्योंकि पूर्वोक्त अन्तर्मुहूर्तकालसे यह अन्तखण्ड असंख्यातगुणा कहा है ॥ १८०॥ पढमे अवरो पल्लो पढमुक्कस्सं च चरिमठिदिबंधो। पढमो चरिमं पढमठिदिसंतं संखगुणिदकमा ॥ १८१ ॥ प्रथमे अवरः पल्यः प्रथमोत्कृष्टं च चरमस्थितिबंधः । प्रथमः चरमं प्रथमस्थितिसत्त्वं संख्यगुणितक्रमाणि ॥ १८१ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता जघन्य स्थितिकांडक आयाम है १२ । उससे संख्यातगुणा पत्य है १३ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता पृथक्त्वसागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिकांडक आयाम है १४ । उससे संख्यातगुणा जघन्यस्थितिबन्ध है १५ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता उत्कृष्टस्थितिबन्ध है १६ । उससे संख्यातगुणा एकांतवृद्धिके अन्तसमयमें सम्भवता जघन्यस्थितिसत्त्व है १७ । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भवता उत्कृष्टस्थितिसत्त्व है १८ । इसप्रकार कालके अल्प बहुत्व स्थान कहे ॥ १८१ ॥ आगे देशसंयममें परिणामोंकी विशुद्धतारूप लब्धिका अल्प बहुत्व कहते हैं अवरवरदेसलद्धी सेकाले मिच्छसंजमुववण्णे। अवरादु अणंतगुणा उक्कस्सा देसलद्धी दु ॥ १८२ ॥ अवरवरदेशलब्धिः स्वकाले मिथ्यसंयममुपपन्ने । अवरादनंतगुणा उत्कृष्टा देशलब्धिस्तु ॥ १८२ ॥ अर्थ-जो जीव देशसंयमके घातक कर्मके उदयसे देशसंयमसे गिरा हुआ मिथ्यात्वके सन्मुख होता है उस मनुष्यके देशसंयमके अन्तमें जघन्य देशसंयमलब्धि होती है । और अनन्तगुणी विशुद्धतासे देशसंयमके उत्कृष्टपनेको पाकर उसके वादके समयमें सकलसंयमको जो प्राप्त होगा ऐसे मनुष्यके उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि होती है । तथा जघन्य देशसंयमके अविभागप्रतिच्छेदोंसे अनन्तानन्तगुणे उत्कृष्ट देशसंयमके अविभागप्रतिच्छेद हैं ॥ १८२ ॥ अवरे देसठ्ठाणे होंति अणंताणि फड्ढयाणि तदो। छठाणगदा सवे लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥ १८३॥ अवरे देशस्थाने भवंत्यनन्तानि स्पर्धकानि ततः। षट्स्थानगतानि सर्वाणि लोकानामसंख्यषटूस्थानानि ॥ १८३ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-सबसे जघन्य पूर्वोक्त देशसंयमके स्थानमें अविभागप्रतिच्छेद अनन्तानन्त पाये जाते हैं । वे सब जीवराशिसे अनन्तगुणे हैं । और इस जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यातलोकमात्र देशसंयमलब्धिके स्थान हैं वे छह स्थानरूप वृद्धिको लिये हुए हैं ।। १८३ ॥ तत्थ य पडिवायगया पडिपश्चगयात्ति अणुभयगयात्ति । उवरुवरिलद्धिठाणा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥ १८४ ॥ तत्र च प्रतिपातगता प्रतिपद्यगता इति अनुभयगता इति । उपर्युपरि लब्धिस्थानानि लोकानामसंख्यषट्स्थानानि ॥ १८४ ॥ अर्थ-वहां देशसंयमके स्थान तीनप्रकार हैं । प्रतिपातगत १ प्रतिपद्यमानगत २ अनुभयगत ३ । वे लब्धिस्थान ऊपर २ हैं । और असंख्यातलोकमात्र स्थान षट्स्थान पतित वृद्धिको लिये हुए मध्यमें होते हैं ॥ १८४ ॥ देशसंयमसे भ्रष्ट होनेपर अन्तसमयमें सम्भव जो स्थान वे प्रतिपातगत हैं । देशसंयमके प्राप्त होनेपर प्रथमसमयमें संभव जो स्थान वे प्रतिपद्यमानगत हैं । और इनके विना अन्यसमयोंमें संभव जो स्थान वे अनुभयगत हैं। णरतिरिये तिरियणरे अवरं अवरं वरं वरं तिसुवि । लोयाणमसंखेज्जा छहाणा होंति तम्मज्झे ॥ १८५ ॥ नरतिरश्चि तिर्यग्नरे अवरं अवरं वरं वरं त्रिष्वपि । लोकानामसंख्येयानि षटूस्थानानि भवंति तन्मध्ये ॥ १८५ ॥ अर्थ-उन प्रतिपात प्रतिपद्यमान अनुभय इन तीनोंके जघन्य जघन्य उत्कृष्ट उत्कृष्ट स्थान मनुष्य तिर्यच तिर्यंच मनुष्योंमें क्रमसे जानना । और उनके बीच में अन्तरस्थान असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानपतित वृद्धि सहित हैं ॥ १८५ ॥ पडिवाददुगवरवरं मिच्छे अयदे अणुभयगजहणं । मिच्छवरविदियसमये तत्तिरियवरं तु संठाणे ॥ १८६ ॥ प्रतिपातद्विकावरवरं मिथ्ये अयते अनुभयगजघन्यं । मिथ्यावरद्वितीयसमये तत्तिर्यग्वरं तु स्वस्थाने ॥ १८६ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वके सन्मुख जीवके प्रतिपातस्थानों में मनुष्यके जघन्यसे लेकर तिर्यचके उत्कृष्टस्थानतक जो स्थान हैं वे होते हैं, तिर्यंचके उत्कृष्ट से लेकर मनुष्यके उत्कृष्टस्थानतक जो स्थान वे असंयतके सन्मुख हुए जीवके होते हैं । प्रतिपद्यमानस्थानोंमें मनुष्यके जघन्यसे लेकर तिर्यचके उत्कृष्टतक स्थान मिथ्यादृष्टिसे देशसंयतको प्राप्त होनेवालेके ही होते हैं । तिर्यचके उत्कृष्ट से लेकर मनुष्यके उत्कृष्टतक स्थान असंयतसे देशसंयत हुएके Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । होते हैं, और अनुभयस्थानोंमें मनुष्य के जघन्यसे लेकर तिर्यंचके अनुत्कृष्टतक स्थान मिथ्यादृष्टिसे देशसंयत हुएके होते हैं और तिर्यंचके उत्कृष्टसे लेकर मनुष्यके उत्कृष्टतक स्थान असंयत से देशसंयत हुएके होते हैं ॥ १८६ ॥ इति देशचारित्रविधानं । अब सकल चारित्रका वर्णन करते हैं; - सयलचरितं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खयियं च । सम्मत्तप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिण्हदो पढमं ॥ १८७ ॥ सकलचारित्रं त्रिविधं क्षायोपशमिकं औपशमिकं च क्षायिकं च । सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव उपशमसम्येन गृह्णन् प्रथमम् ॥ १८७ ॥ अर्थ — सकल चारित्र तीन तरहका है, क्षायोपशमिक १ औपशमिक २ क्षायिक ३ । उनमेंसे पहला क्षायोपशमिक चारित्र सातवें वा छठे गुणस्थान में है उसको जो जीव उपशमसम्यक्त्वसहित ग्रहण करता है वह मिथ्यात्व से ग्रहण करता है उसका सब विधान प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति में कहे गयेकी तरह जानना ॥ १८७ ॥ क्षयोपशमचारित्रको ग्रहण करता हुआ जीव पहले अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होता है । वेदगजोगो मच्छो अविरददेसो य दोणिकरणेण । देसवदं वा गिण्हदि गुणसेढी णत्थि तकरणे ॥ १८८ ॥ वेदयोगो मिथ्यो अविरतदेशश्च द्विकरणेन । देशव्रतमिव गृह्णाति गुणश्रेणी नास्ति तत्करणे ॥ १८८ ॥ अर्थ-वेदक सम्यक्त्व सहित क्षयोपशमचारित्रको मिथ्यादृष्टि वा अविरत वा देशसंयत जीव है वह देशव्रत के ग्रहण करनेकी तरह अधःप्रवृत्त करण अपूर्व करण इन दोनों करणोंसे ग्रहण करता है । वहां करणोंमें गुणश्रेणी नहीं है । सकल संयम के ग्रहण समय से लेकर गुणश्रेणी होती है ॥ १८८ ॥ तो वरं वरदे देसो वा होदि अप्पबहुगोत्ति । देसोति य तट्ठाणे विरदो ति य होदि वत्तवं ॥ १८९ ॥ अत उपरि विरते देश इव भवति अल्पबहुकत्वमिति । देश इति च तत्स्थाने विरत इति च भवति वक्तव्यम् ॥ १८९ ॥ अर्थ —यहांसे ऊपर सकल विरतमें अल्पबहुत्व देशविरतकी तरह जानना । लेकिन इतना भेद है कि जिस जगह देशविरत कहा है उस जगह सकलविरत कहना चाहिये ॥ १८९ ॥ aat forgetति अनंताणि फड्डयाणि तदो । छाणगया सबै लोयाणमसंख छट्टाणा ॥ १९० ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अवरे विरतस्थाने भवंत्यनंतानि स्पर्धकानि ततः । पट्रस्थानगतानि सर्वाणि लोकानामसंख्यं षट्स्थानानि ॥ १९० ॥ अर्थ-सकलसंयमके जघन्यस्थानमें अनन्तानन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं वे जीवराशिसे अनन्तगुणे जानने । वे स्थान षट्रस्थानपतित वृद्धिलिये असंख्यात लोकमात्र हैं उनमें असंख्यातलोकमात्र वार षट्स्थानपतित वृद्धिका सम्भव है ॥ १९० ॥ तत्थ य पडिवादगया पडिवजगयात्ति अणुभयगयात्ति । उवरुवरि लद्धिठाणा लोयाणमसंखछटाणा ॥ १९१ ॥ तत्र च प्रतिपातगता प्रतिपद्यगता इति अनुभयगता इति । उपर्युपरि लब्धिस्थानानि लोकानामसंख्यषटूस्थानानि ॥ १९१ ॥ अर्थ-उस सकलसंयममें भी तीनप्रकार स्थान हैं-प्रतिपातगत १ प्रतिपद्यमान २ अनुभयगत ३ । ये लब्धिस्थान ऊपर ऊपर रचनावाले जानना । वे हर एक असंख्यातलोकमात्र हैं वहांपर असंख्यातलोकमात्र वार षट्स्थानरूप वृद्धिका सम्भव है ॥ १९१॥ पडिवादगया मिच्छे अयदे देसे य होंति उवरुवरि । पत्तेयमसंखमिदा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥ १९२ ॥ प्रतिपातगतानि मिथ्ये अयते देशे च भवंति उपर्युपरि । प्रत्येकमसंख्यमितानि लोकानामसंख्यषटूस्थानानि ॥ १९२ ॥ अर्थ-उन स्थानोंमेंसे प्रतिपातगत स्थान सकल संयमसे भ्रष्ट होनेके अन्तसमयमें पाये जाते हैं । वहांपर जघन्यसे लेकर असंख्यातलोकमात्र स्थान तो मिथ्यात्वके सन्मुख होनेवाले जीवोंके होते हैं उनके ऊपर असंख्यातलोकमात्र असंयतके सन्मुख होनेवालेके होते हैं । उसके वाद असंख्यातलोकमात्र स्थान देशसंयतके सन्मुख हुए जीवके होते हैं। इसप्रकार प्रतिपातस्थान तीन तरहके हैं । उन तीनों जगह जघन्य स्थान यथायोग्य तीव्रसंक्लेशवालेके और उत्कृष्टस्थान मंदसंक्लेशवालेके होते हैं । तथा हरएकमें असंख्यातलोकमात्र छहस्थान सम्भवते हैं ॥ १९२ ॥ तत्तो पडिवजगया अजमिलेच्छे मिलेच्छअजे य । कमसो अवरं अवरं वरं वरं होदि संखं वा ॥ १९३॥ ततः प्रतिपद्यगता आर्यम्लेच्छे म्लेच्छार्ये च । क्रमशो अवरमवरं वरं वरं भवति संख्यं वा ॥ १९३ ॥ अर्थ-उनके वाद प्रतिपद्यमानस्थानोंमेंसे प्रथम आर्यखण्डका मनुष्य मिथ्यादृष्टिसे संयमी हुआ उसके जघन्य स्थान हैं। उसके वाद असंख्यात लोकमात्र षटू स्थानके ऊपर Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । म्लेच्छखण्डको मनुष्य मिध्यादृष्टि से सकल संयमी हुआ उसका जघन्य स्थान है। उसके ऊपर म्लेच्छखण्डका मनुष्य देशसंयतसे सकलसंयमी हुआ उसका उत्कृष्ट स्थान है । उसके बाद भार्यखण्डका मनुष्य देशसंयत से सकलसंयमी हुआ उसका उत्कृष्ट स्थान होता है ॥१९३॥ तत्तणुभट्ठाणे सामाइयछेदजुगलपरिहारे । पविद्धा परिणामा असंखलोगप्पमा होंति ॥ १९४ ॥ ततोनुभयस्थाने सामायिकछेदयुगल परिहारे । प्रतिबद्धाः परिणामा असंख्यलोकप्रमा भवंति ॥ १९४ ॥ 1 अर्थ - उसके वाद अन्तरस्थानों के जानेपर उसके ऊपर अनुभयस्थान हैं । वहां प्रथम मिथ्यादृष्टिसे सकलसंयमी होनेके दूसरे समय में सामायिक छेदोपस्थापनाको जघन्य स्थान होते हैं । उसके ऊपर परिहार विशुद्धिका जघन्यस्थान होता है । यह स्थान परिहारविशुद्धिसे छूटकर सामायिक छेदोपस्थापना के सन्मुख होनेवाले के अन्तसमय में होता है । उसके ऊपर परिहारविशुद्धिका उत्कृष्टस्थान होता है । उसके ऊपर सामायिक छेदोपस्थापनाका उत्कृष्टस्थान है । ये सबस्थान आपसमें असंख्यात लोकगुणे हैं परंतु सब मिलकर असंख्यातलोक प्रमाण सकलसंयमके स्थान होते हैं, क्योंकि असंख्यातके भेद बहुत हैं ॥ १९४ ॥ तत्तो य सुहुमसंजम पडिवज्जय संखसमयमेत्ता हु । ततो दुहाखादं एयविहं संजमं होदि ॥ १९५ ॥ ततश्च सूक्ष्मसंयमं प्रतिवर्ज्य संख्यसमयमात्रा हि । ततस्तु यथाख्यातमेकविधं संयमं भवति ॥ १९५ ॥ अर्थ- उस सामायक छेदोपस्थापना के उत्कृष्ट स्थान से ऊपर असंख्यात लोकमात्र स्थानोंका अन्तरालकर उपशमश्रेणी से उतरते अनिवृत्तिकरण के सन्मुख जीवके अपने अन्तसमय में संभवता सूक्ष्मसांपरायका जघन्यस्थान होता है । उसके ऊपर असंख्यात समयमात्र स्थान जानेपर क्षपक सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमय में सम्भव सूक्ष्मसांपरायका उत्कृष्ट स्थान है । उसके ऊपर असंख्यात लोकमात्र स्थानोंका अन्तरालकर यथाख्यात चारित्रका एक स्थान होता है । यह स्थान सबसे अनन्तगुणी विशुद्धतालिये उपशांतकषाय क्षीणकषाय सयोगी अयोगी होता है । इसमें सबकषायोंका सर्वथा उपशम वा क्षय है इसलिये जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेद नहीं हैं ॥ १९५ ॥ १ म्लेच्छखण्ड के उपजे मनुष्य के सकलसंयम इस तरह है कि जो म्लेच्छ मनुष्य चक्रवर्ती के साथ आर्यखण्ड में आवे तव उसको दीक्षा सम्भव है । क्योंकि चक्रवर्तीके विवाहादिकका सम्बन्ध पाया जाता है । अथवा म्लेच्छकी कन्या चक्रवर्ती विवाहता है उसके जो पुत्र हुआ वह मातापक्ष के सम्बन्धसे म्लेंच्छ है उसके दीक्षा सम्भव होसकती है। । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। पडचरिमे गहणादीसमये पडिवाददुगमणुभयं तु । तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा ॥ १९६ ॥ पतनचरमे ग्रहणादिसमये प्रतिपातद्विकमनुभयं तु । तन्मध्ये उपरितनगुणग्रहणाभिमुखे च देशमिव ॥ १९६ ॥ अर्थ-संयमसे पड़नेके अन्तसमयमें और संयमके ग्रहणके प्रथम समयमें क्रमसे प्रतिपात और प्रतिपद्यमान ये दो स्थान हैं और इनके बीचमें अथवा ऊपरके गुणस्थानके सन्मुख होनेपर अनुभयस्थान होते हैं वे देशसंयमकी तरह यहां भी जानने ॥ १९६ ॥ पडिवादादीतिदयं उवरुवरिमसंखलोगगुणिदकमा । अंतरछक्कपमाणं असंखलोगा हु देसं वा ॥ १९७ ॥ प्रतिपातादित्रितयं उपर्युपरितनमसंख्यलोकगुणितक्रमं । अंतरषटप्रमाणमसंख्यलोको हि देशमिव ॥ १९७ ॥ __ अर्थ-प्रतिपातआदि तीन स्थान अपने २ जघन्यसे उत्कृष्टतक ऊपर ऊपर असंख्यातलोकगुणा क्रमलिये हुए हैं। उन छहोंमें प्रत्येकमें असंख्यातलोकमात्रवार षट्स्थान वृद्धि देशसंयमकी तरह जाननी ॥ १९७ ॥ मिच्छयददेसभिण्णे पडिवादट्ठाणगे वरं अवरं । तप्पाउग्गकिय? तिवकिलिटे कमे चरिमे ॥ १९८ ॥ मिथ्यायतदेशभिन्ने प्रतिपातस्थानके वरमवरम् । तत्प्रायोग्यक्लिष्टे तीव्रक्लिष्टे क्रमेण चरमे ॥ १९८ ॥ अर्थ-प्रतिपातस्थान मिथ्यात्व असंयत देशसंयतको सन्मुख होनेकी अपेक्षा तीन भेद लिये है । वहां जघन्यस्थान तो तीव्र संक्लेशवालेके संयमके अन्तसमयमें होता है और उत्कृष्टस्थान यथायोग्य मन्दसंक्लेशवालेके होते हैं ॥ १९८ ॥ पडिवजजहण्णदुर्ग मिच्छे उक्कस्सजुगलमवि देसे । उवरि सामइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा ॥ १९९ ॥ प्रतिपद्यजघन्यद्विकं मिथ्ये उत्कृष्टयुगलमपि देशे । उपरि सामायिकद्विकं तन्मध्ये भवंति परिहाराणि ॥ १९९ ॥ अर्थ-प्रतिपद्यमानस्थान आर्यम्लेच्छकी अपेक्षा दो प्रकारसे हैं उनका जघन्य तो मिथ्यादृष्टि से संयमी हुए जीवके होता है वा उत्कृष्ट देशसंयतसे संयमी हुएके होता है। ल, सा.८ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । उनके ऊपर अनुभयस्थान हैं वे सामायिक छेदोपस्थापनाके हैं उनके जघन्य उत्कृष्टके बीचमें परिहारविशुद्धिके स्थान हैं ॥ १९९ ॥ परिहारस्स जहणणं सामयियदुगे पडत चरिमम्हि । तजेडं सट्ठाणे सबविसुद्धस्स तस्सेव ॥ २०० ॥ परिहारस्य जघन्यं सामायिकद्विके पततः चरमे । तज्ज्येष्ठं स्वस्थाने सर्वविशुद्धस्य तस्यैव ॥ २० ॥ अर्थ-परिहार विशुद्धिका जघन्यस्थान सामायिक छेदोपस्थापनामें पड़ते हुए जीवके अन्तसमयमें ही होता है और उसका उत्कृष्टस्थान सबसे विशुद्ध अप्रमत्तगुणस्थानवर्तीके ही एकांतवृद्धिके अन्तसमयमें होता है ॥ २०० ॥ सामयियदुगजहण्णं ओघ अणियट्टिखवगचरिमम्हि । चरिमणियट्टिस्सुवरि पडंत सुहुमस्स सुहुमवरं ॥ २०१॥ सामायिकद्विकजघन्यमोघं अनिवृत्तिक्षपकचरमे । चरमानिवृत्तेरुपरि पततः सूक्ष्मस्य सूक्ष्मवरम् ॥ २०१॥ अर्थ-सामायिक छेदोपस्थापनाका जघन्यस्थान मिथ्यात्वके सन्मुख जीवके संयमके अन्तसमयमें होता है । उसका उत्कृष्टस्थान अनिवृत्तिकरण क्षपकश्रेणीवालेके अन्तसमयमें होता है । और उपशमश्रेणीसे पड़ते हुए सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें अनिवृत्तिकरणके सन्मुख होनेपर सूक्ष्मसांपरायका जघन्यस्थान होता है ॥ २०१॥ खवगसुहुमस्स चरिमे वरं जहाखादमोघजेटं तं । पडिवाददुगा सवे सामाइयछेदपडिबद्धा ॥ २०२॥ क्षपकसूक्ष्मस्य चरमे वरं यथाख्यातमोघज्येष्ठं तत् । प्रतिपातद्विके सर्वाणि सामायिकछेदप्रतिबद्धानि ॥ २०२॥ अर्थ-क्षीणकषायके सन्मुख हुए क्षपक सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें सूक्ष्मसांपरायका उत्कृष्टस्थान होता है और यथाख्यात चारित्रका उत्कृष्ट स्थान सामान्य ( अभेदरूप ) है । तथा प्रतिपात प्रतिपद्यमानके सव स्थान सामायिक छेदोपस्थापनाके ही जानना । क्योंकि सकलसंयमसे भ्रष्ट होनेपर अन्तसमयमें और सकल संयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सामायिक छेदोपस्थापना संयम ही होता है, अन्य परिहार विशुद्धि आदि नहीं होते ॥२०२॥ इसतरह प्रसङ्ग पाकर सामायिक आदि पांचप्रकार सकलचारित्रके स्थान कहे । मुख्यपनेसे प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानमें सम्भव क्षायोपशमिक सकल चारित्रका कथन किया वह समाप्त हुआ। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। __ आगे जिन्होंने सब दोष उपशांत किये हैं ऐसे उपशांतकषाय वीतरागको प्रणामकर उपशमचारित्रका विधान कहते हैं; उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता । अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तो पमत्तो य ॥२०३॥ उपशमचरित्राभिमुखो वेदकसम्यक् अनं वियोज्य । अंतर्मुहूर्तकालं अधाप्रवृतः प्रमत्तश्च ॥ २०३ ॥ अर्थ-उपशम चारित्रके सन्मुख हुआ ऐसा वेदक सम्यग्दृष्टी जीव वह पहले कहे हुए विधानसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकर अन्तर्मुहूर्तकालतक अधाप्रवृत्त अप्रमत्त है अर्थात् खस्थान अप्रमत्त होता है वहां प्रमत्त अप्रमत्त दोनोंमें हजारोंवार जाना आना कर वादमें अप्रमत्तमें विश्राम करता है ॥ २०३ ॥ कोई जीव तीन दर्शनका क्षयकर क्षायिक सम्य. ग्दृष्टि हुआ चारित्रमोहके उपशमनका आरंभ करता है उसके तो पूर्व कहा हुआ क्षायिकसम्यक्स्व होनेका विधान जानलेना । आगे कोई जीव द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सहित उपशमश्रेणी चढे उसके दर्शनमोहके उपशमनका विधान कहते हैं तत्तो तियरणविहिणा दंसणमोहं समं खु उवसमदि । सम्मत्तुप्पतिं वा अण्णं च गुणसेढिकरणविही ॥ २०४॥ ततः त्रिकरणविधिना दर्शनमोहं समं खलु उपशमयति । सम्यक्त्वोत्पतिमिव अन्यं च गुणश्रेणिकरणविधिः ॥ २०४ ॥ अर्थ-खस्थान अप्रमत्तमें अन्तर्मुहूर्त विश्रामकर उसके बाद तीनकरणविधिसे एक समयमें दर्शनमोहका उपशम करता है । वहांपर अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी तरह गुणसंक्रमणके विना अन्यस्थिति अनुभागकांडकका घात वा गुणश्रेणीनिर्जरा आदि सब विधान जानना । और इसके जो अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होता है उसमें भी स्थितिखण्डनादि सब पूर्वकथितवत् जानने ॥ २०४ ॥ दसणमोहुवसमणं तक्खवणं वा हु होदि णवरिं तु । गुणसंकमो ण विजदि विज्झद वाधापवत्तं च ॥ २०५॥ दर्शनमोहोपशमनं तत्क्षपणं वा हि भवति नवरि तु। . गुणसंक्रमो न विद्यते विध्यातं वा अधःप्रवृत्तं च ॥ २०५ ॥ अर्थ-चारित्रमोहको उपशमानेके सन्मुख हुए जीवके दर्शनमोहका उपशम होता है अथवा क्षय होता है । वहां विशेष इतना है कि उपशमविधानमें केवलगुणसंक्रमण नहीं होता, विध्यातसंक्रमण अथवा अधःप्रवृत्त संक्रम है। उसका विशेष आगे कहेंगे ॥२०५॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। ठिदिसत्तमपुत्वदुगे संखगुणूणं तु पढमदो चरिमं ।। उवसामण अणियट्टीसंखाभागासु तीदासु ॥ २०६ ॥ स्थितिसत्त्वमपूर्वद्विके संख्यगुणोनं तु प्रथमतः चरमम् । उपशामनमनिवृत्तिसंख्यभागेष्वतीतेषु ॥ २०६॥ अर्थ-अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयके स्थितिसत्त्वसे अन्तसमयमें स्थितिसत्त्व है वह कांडक घात करनेसे संख्यातगुणा कम होता है । और अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातबहुभाग वीत जानेपर एक भाग रहनेके समय उपशमकार्य होता है ॥ २०६॥ . अब उसीको दिखलाते हैं; सम्मस्स असंखेजा समयपबद्धाणुदीरणा होदि । तत्तो मुहुत्तअंते दंसणमोहंतरं कुणई ॥ २०७॥ सम्यस्य असंख्येयानां समयप्रबद्धानामुदीरणा भवति । ततो मुहूर्तातः दर्शनमोहांतरं करोति ॥ २०७ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग शेष रहनेपर सम्यक्त्व मोहनीके असं. ख्यातसमयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । उसके वाद अन्तर्मुहूर्तकाल वीत जानेपर दर्शनमोहका अन्तर करता है ॥ २०७॥ अंतोमुहुत्तमेत्तं आवलिमेत्तं च सम्मतियठाणं । मोत्तूण य पढमहिदि दंसणमोहंतरं कुणइ ॥ २०८ ॥ अंतर्मुहूर्तमानं आवलिमात्रं च सम्यक्त्वत्रयस्थानम् । मुक्त्वा च प्रथमस्थितिं दर्शनमोहांतरं करोति ॥ २०८ ॥ अर्थ-सम्यक्त्व मोहनीयकी अंतर्मुहूर्तमात्र और उदयरहित मिश्र व मिथ्यात्वकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति प्रमाण नीचले निषेकोंको छोड़कर उसके ऊपरके जो अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण दर्शनमोहके निषेक हैं उनका अन्तर ( अभाव ) करता है ॥ २०८॥ सम्मत्तपयडिपढमहिदिम्मि संछुहदि दंसणतियाणं। उक्कीरयं तु दवं बंधाभावादु मिच्छस्स ॥ २०९ ॥ सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थितौ संपातयति दर्शनत्रयाणाम् । उत्कीर्ण तु द्रव्यं बंधाभावात् मिथ्यस्य ॥ २०९॥ .. अर्थ-उन तीनों दर्शनमोहकी प्रकृतियों के निषेकद्रव्यको उदयरूप सम्यक्त्वमोहनीकी मनमस्थितिमें निक्षेपण करता है । क्योंकि जहां नवीनबन्ध होता है वहां उत्कर्षणकर द्विती Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । ६१ यस्थिति में भी निक्षेपण होता है । यहांपर सातवें गुणस्थानमें दर्शनमोहका बन्भ है ही नहीं इसलिये द्वितीय स्थिति निक्षेपण नहीं करता ॥ २०९ ॥ विदियट्ठिदिस्स दवं उक्कट्टिय देदि सम्मपढमम्मि । बिदियट्ठिदिहि तस्स अणुक्कीरिजंतमाणम्हि ॥ २९० ॥ द्वितीयस्थितेर्द्रव्यमपकर्ण्य ददाति सम्यक्त्वप्रथमे । द्वितीयस्थितौ तस्यानुत्कीर्यमाणे ।। २१० ॥ अर्थ — द्वितीयस्थितिका अपकर्षण क्रिया द्रव्य सम्यक्त्वमोहनी के प्रथमस्थितिरूपगुणश्रेणी आयाममें निक्षेपण करता है । और उसके अपकर्षण किये द्रव्यको द्वितीयस्थिति में निक्षेपण करता है | २१० ॥ सम्मत्तपयडिपढमट्ठिदीसु सरिसाण मिच्छमिस्साणं । ठिदिदवं सम्मस्स य सरिसणिसेयम्हि संकमदि ॥ २१९ ॥ सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थितिषु सदृशानां मिध्यमिश्राणाम् । स्थितिद्रव्यं सम्यस्य च सदृशनिषेके संक्रामति ।। २११ ॥ अर्थ — मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीकी प्रथमस्थितिके ऊपर जो अन्तरायामके निषेक सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथमस्थितिके समानपर्यंत पाये जाते हैं उनके द्रव्यको अपने २ समानवर्ती सम्यक्त्वमोहनीयके निषेकों में निक्षेपण करता है। वहां द्रव्य देनेका विधान नहीं है ॥२११॥ . जायं तरस्स दुचरिमफालिं पावे इमो कमो ताव | चरिमतिदंसणदवं छुहेदि सम्मस्स पढमम्हि ॥ २१२ ॥ यावदंतरस्य द्विचरमफालिं प्राप्ते अयं क्रमस्तावत् । चरमत्रिदर्शनद्रव्यं क्षेपयति सम्यस्य प्रथमे ॥ २१२ ॥ अर्थ-- जबतक अन्तरकरणकाल के द्विचरमसमयवर्ती अन्तकी द्विचरमफालि प्राप्त हो वहांतक फालिद्रव्य और अपकृष्टद्रव्यके निक्षेपण करनेका यह पूर्वोक्त क्रम जानना । और अन्तरकरणकालके अन्तसमय के दर्शनमोहन्त्रिककी अन्तफालिका द्रव्य और अपकृष्ट सब सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथमस्थितिमें ही निक्षेपण किया जाता है ॥ २१२ ॥ विदियट्टिदिस्स दवं पढमट्ठिदिमेदि जाव आवलिया । पंडिआवलिया चिट्ठदि सम्मत्तादिमठिदी ताव ॥ २१३ ॥ द्वितीयस्थितेर्द्रव्यं प्रथमस्थितिमेति यावदाबलिका । प्रत्यावलिका तिष्ठति सम्यक्त्वादिमस्थितिः तावत् ॥ २१३ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथमस्थितिमें उदयावलि प्रत्यावलि ऐसे दो आवली शेष रहें तब तक द्वितीयस्थितिके द्रव्यको अपकर्षणके वशसे प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करते हैं। वहां तक ही दर्शनमोहकी गुणश्रेणी है ॥ २१३ ॥ सम्मादिठिदिज्झीणे मिच्छद्दवादु सम्मसंमिस्से । गुणसंकमो ण णियमा विज्झादो संकमो होदि ॥ २१४ ॥ सम्यगादिस्थितिक्षीणे मिथ्यद्रव्यात् सम्यसंमिश्रे । गुणसंक्रमो न नियमात् विध्यातः संक्रमो भवति ॥ २१४ ॥ - अर्थ-सम्यक्वमोहनीकी प्रथमस्थितिके क्षय होनेपर उसके वाद अन्तरायामके प्रथमसमयमें द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होता है वहां नियमसे गुणसंक्रमण नहीं होता विध्यात संक्रमण होता है । इसलिये विध्यातसंक्रमण भागहार मिथ्यात्वके द्रव्यको मिश्रसम्यक्त्व मोहनीयमें निक्षेपण करते हैं ॥ २१४ ॥ ... सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्स कालादो। संखेजगुणं कालं विसोहिवड्डीहिं वड्डदि हु॥ २१५ ॥ सम्यक्त्वोत्पत्तौ गुणसंक्रमपूरणस्य कालात् । संख्येयगुणं कालं विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धते हि ॥ २१५ ॥ अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें पूर्वकथित गुणसंक्रम पूरणके अन्तर्मुहूर्तमात्रकालसे संख्यातगुणे कालतक यह द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि प्रथमसमयसे लेकर समय समय प्रति अनन्तगुणी विशुद्धिकर वढता है। ऐसे यहां एकांतविशुद्धताकी वृद्धिका काल अन्त. मुहूर्तमात्र जानना ॥ २१५ ॥ तेण परं हायदि वा वडदि तबढिदो विसुद्धीहिं। उवसंतदंसणतियो होदि पमत्तापमत्तेसु ॥ २१६ ॥ ... तेन परं हीयते वा वर्धते तद्वृद्धितो विशुद्धिभिः । उपशांतदर्शनत्रिकः भवति प्रमत्ताप्रमत्तयोः ॥ २१६॥ अर्थ-उस एकांतवृद्धिकालके वाद विशुद्धतासे घटे अथवा वढे अथवा जैसाका तैसा रहे । कुछ नियम नहीं है । इसतरह जिसने तीन दर्शनमोह उपशम किये हैं ऐसा जीव बहुतवार प्रमत्त अप्रमत्तमें चक्कर करता है ॥ २१६ ॥ एवं पमत्तमियर परावत्तिसहस्सयं तु कादूण । इगवीसमोहणीयं उवसमदि ण अण्णपयडीसु ॥ २१७ ॥ एवं प्रमत्तमितरं परावर्तिसहस्रकं तु कृत्वा । . एकविंशमोहनीयं उपशमयति न अन्यप्रकृतिषु ॥ २१७ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-इसतरह अप्रमत्तसे प्रमत्तमें प्रमत्तसे अप्रमत्तमें हजारों वार पलटनेकर अनन्तानुबन्धीचारके विना शेष इक्कीस चारित्रमोहकी प्रकृतियोंके उपशमानेका उद्यम करता है । अन्यप्रकृतियोंका उपशम नहीं होता ॥ २१७ ॥ तिकरणबंधोसरणं कमकरणं देसघादिकरणं च । अंतरकरणं उवसमकरणं उवसामणे होंति ॥ २१८॥ त्रिकरणं बंधापसरणं क्रमकरणं देशघातिकरणं च । अंतरकरणमुपशमकरणं उपशामने भवंति ॥ २१८ ॥ अर्थ-अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण-ये तीनकरण, स्थिति बन्धापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण, उपशमकरण-इसतरह आठ अधिकार चारित्रमोहके उपशमविधानमें पाये जाते हैं। उनमेंसे अधःकरणको सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवाला मुंनि करता है ॥ २१८ ॥ विदियकरणादिसमये उवसंततिदंसणे जहण्णेण । पल्लस्स संखभागं उक्कस्सं सायरपुधत्तं ॥ २१९ ॥ द्वितीयकरणादिसमये उपशांतत्रिदर्शने जघन्येन । पल्यस्य संख्यभागं उत्कृष्टं सागरपृथक्त्वम् ॥ २१९ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिके जघन्यस्थितिकांडक आयाम पल्यका असंख्यातवां भागमात्र है और उत्कृष्ट पृथक्त्वसागर प्रमाण है ॥ २१९ ॥ ठिदिखंडयं तु खइये वरावरं पल्लसंखभागो दु। ठिदिबंधोसरणं पुण वरावरं तत्तियं होदि ॥ २२०॥ स्थितिकांडकं तु क्षायिके वरावरं पल्यसंख्यभागस्तु । स्थितिबन्धापसरणं पुनः वरावरं तावत्कं भवति ॥ २२० ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें क्षायिकसम्यग्दृष्टीके जघन्य वा उत्कृष्ट स्थितिकांडक आयाम पत्यके असंख्यातवें भागमात्र है, क्योंकि दर्शनमोहकी क्षपणाके समयमें बहुत स्थिति घटाई जाती है स्थितिके अनुसारही कांडक होता है तौभी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा है । और उपशम वा क्षायिकसम्यग्दृष्टीके स्थितिबन्धापसरण पल्यके संख्यातवें भागमात्र ही है तो भी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा है ॥ २२० ॥ ... असुहाणं रसखंडमणंतभागाण खंडमियराणं । - - अंतोकोडाकोडी संतं बंधं च तहाणे ॥ २२१ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अशुभाना रसखंडमनंतभागानां खंडमितरेषाम् । - अन्ताकोटीकोटिः सत्त्वं बन्धश्च तत्स्थाने ॥ २२१ ॥ अर्थ-अशुभप्रकृतियोंका अनुभागखण्डन अनन्तबहुभागमात्र होता है एकभागमात्र शेष रहता है । विशुद्धपनेसे शुभप्रकृतियोंका अनुभागखण्डन नहीं होता । और उसी अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण है, उसमें इतना विशेष है कि स्थितिबन्धसे स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ॥ २२१ ॥ उदयावलिस्स बाहिं गलिदवसेसा अपुषअणियट्टी। सुहुमद्धादो अहिया गुणसेढी होदि तहाणे ॥ २२२ ॥ उदयावलेबर्बाह्यं गलितावशेषा अपूर्वानिवृत्तेः । सूक्ष्माद्धातो अधिका गुणश्रेणी भवति तत्स्थाने ॥ २२२ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयमें उदयावलिके बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणीका प्रारंभ हुआ, उस गुणश्रेणी आयामका प्रमाण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय-इनके मिलानेके कालसे उपशांतकषायके कालका संख्यातवां भागमात्र अधिक जानना । उस अपूर्वकरणमें गुणश्रेणी होती है ॥ २२२ ॥ पढमे छठे चरिमे बंधे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । छण्णोकसायउदया अपुषचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥ २२३ ॥ प्रथमे षटे चरमे बंधे द्विकं त्रिंशत् चतस्रो व्युच्छिन्नाः । घण्णोकषायोदया अपूर्वचरमे व्युच्छिन्नाः ॥ २२३ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेंसे पहले भागमें निद्रा प्रचला ये दोनों, छठे भागमें तीर्थकर आदि तीस और अंतके सातवें भागमें हास्यादि चार-ऐसे छत्तीसप्रकृतियां बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । और अपूर्वकरणके अन्तसमयमें छह हास्यादि नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥ २२३ ॥ अणियट्टिस्स य पढमे अण्णट्ठिदिखंडपहुदिमारवई । उयसामणा णिवत्ती णिकाचणा तत्थ वोच्छिण्णा ॥ २२४ ॥ अनिवृत्तेः च प्रथमे अन्यस्थितिखंडप्रभृतिमारभते । उपशमनं निधत्तिः निकाचना तत्र व्युच्छिन्ना ॥ २२४ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें पहलेसे अन्यप्रमाण ही लिये स्थितिकांडक स्थितिबन्धापसरण अनुभागखण्ड प्रारंभ किये जाते हैं और वहां ही सब कर्मोंकी उपशम Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । ६५ free निकाचना इन तीन अवस्थाओंकी व्युच्छित्ति होती है । इन तीनोंका स्वरूप कर्मकांडमें हैं ॥ २२४ ॥ अंतोकोडाकोडी अंतोकोडी य संत बंधं च । सत्तहं पयडीणं अणियट्टीकरणपढमम्हि ॥ २२५ ॥ अंतःकोटीकोटि : अंतः कोटिश्च सत्त्वं बंधच । सप्तानां प्रकृतीनां अनिवृत्तिकरणप्रथमे ॥ २२५ ॥ अर्थ — अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमय में आयुके विना सातकर्मोंका स्थितिसत्त्व यथायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़िसागरमात्र है और स्थितिबन्ध अन्तःकोटीसागरमात्र है । अपूर्वकरणमें घटा - से इतना कम रह जाता है ॥ २२५ ॥ 1 ठिदिबंध सहस्सगदे संखेज्जा वादरे गदा भागा । तत्थ असण्णस्स ठिदीसरिस ट्ठिदिबंधणं होदि ॥ २२६ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते संख्येया बादरे गता भागाः । तत्र असंज्ञिनः स्थितिसदृशं स्थितिबंधनं भवति ।। २२६ ॥ अर्थ — स्थितिबन्धा पसरण के क्रमसे हजारों स्थितिबन्ध होजानेपर अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यातभागोंमेंसे बहुभाग वीत जानेपर एकभाग शेष रहते असंज्ञीके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ॥ २२६॥ ठिदिबंधपुधत्तगदे पत्तेयं चदुर तिय वि एएदि । ठिदिबंध समं होदि हु ठिदिबंधमणुक्कमेणेव ॥ २२७ ॥ स्थितिबंध पृथक्त्वगते प्रत्येकं चतुस्त्रिद्वि एकेति । स्थितिबंधसमो भवति हि स्थितिबंधोऽनुक्रमेणैव ॥ २२७ ॥ अर्थ —उसके वाद हरएक के संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर क्रमसे चौइन्द्री ते इन्द्री दो इन्द्री केंद्रीके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ॥ २२७ ॥ एइंदियट्ठिदीदो संखसहस्से गदे दु ठिदिबंधो । पलेकदिवदुगे ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥ २२८ ॥ एकेंद्रियस्थितितः संख्यसहस्रे गते तु स्थितिबंधः । पल्यैकद्व्यर्धद्विके स्थितिबंधो विंशतित्रिकाणाम् ॥ २२८ ॥ अर्थ- - उस एकेंद्रीसमान स्थितिबन्धसे परे संख्यात हजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर वीसियका एक पल्य तीसियका डेढ पल्य चालीसियका दो पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होता है || २२८ ॥ यहांपर असंज्ञीके सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिधारक दर्शनमोहका ल. सा. ९ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । हजार बन्ध होता है तो वीस कोड़ा कोड़ी स्थितिधारक नामगोत्रोंका कितना होवे -इस तरह त्रैराशिक करने पर हजार सागरका सांतवेका दो भाग आता है । ऐसे अन्य में भी त्रैराशिक विधान जानना । पलस्स संखभागं संखगुणूणं असंखगुणहीणं । बंधोसरणे पलं पलासंखंति संखवस्संति ॥ २२९ ॥ पल्यस्य संख्यभागं संख्यगुणोनम संख्यगुणहीनम् । बंधापसरणे पल्यं पल्यासंख्यमिति संख्यवर्षमिति ।। २२९ ।। अर्थ — अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिबन्ध से जबतक पल्यमात्र स्थितिबन्ध हो तबतक स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पल्यके संख्यातवें भाग है, उसके बाद पल्य के असंख्यातवें भागरूप दूरापकृष्टि स्थितितक क्रमसे संख्यातगुणा कम पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्धापसरण होता है । और दूरापकृष्टिस्थिति से लेकर जबतक संख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध हो वहां पल्यके असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिबन्धापसरण है और असंख्यातगुणा कम पल्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिबन्ध होता है ऐसा जानना ॥ २२९ ॥ 1 एवं पल्ला जादा वीसीया तीसिया य मोहो य । पलासंखं च कमे बंधेण य वीसियतियाओ ॥ २३० ॥ एवं पल्ये जाते वीसिया तीसिया च मोहश्च । पल्यासंख्यं च क्रमे बंधेन च वीसियत्रिकाः ॥ २३० ॥ अर्थ — उस पल्यस्थिति से परे वीसीय तीसीय मोहनीका स्थितिबन्ध है वह क्रमकरण - कालके अंतमें पल्यका असंख्यातवां भागमात्र है । इसतरह संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण जानेपर वीसीय तीसियोंका पल्यके संख्यातवें भागमात्र मोहका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ २३० ॥ मोहगपल्लासंखद्विदिबंध सहस्सगेसु तीदेसु । मोहो तीसिय हेट्ठा असंखगुणहीणयं होदि ॥ २३१ ॥ मोहगपल्यासंख्यस्थितिबन्धसहस्रकेष्वतीतेषु । मोहः तीसियं अधस्तना असंख्यगुणहीनकं भवति ॥ २३१ ॥ अर्थ — मोहगतपल्यके असंख्यात बहुभागमात्र आयाम लिये ऐसे संख्यातहजार स्थिति - बंध वीत जानेपर पूर्वस्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा कम तीसिय मोह और वीसिय- इन तीनोंका स्थितिबन्ध होता है ॥ २३९ ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठावि । एक्कसराहो मोहो असंखगुणहीणयं होदि ॥ २३२ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ लब्धिसारः। तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानां अधस्तनापि । एकसदृशः मोहो असंख्यगुणहीनको भवति ॥ २३२ ॥ अर्थ-उतना संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर तीनोंका पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होता है वहांपर थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा वीसियाओंका उससे असंख्यातगुणा तीसियाओंका स्थितिबन्ध होता है । यहांपर विशुद्धताके होनेसे वीसियाओंसे भी मोहका घटता स्थितिबन्धरूप क्रम हुआ ॥ २३२ ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयणीयहेहादु । तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होंति ॥ २३३॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वेदनीयाधस्तनात् । तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ २३३ ॥ अर्थ-उतने ही स्थितिबन्धापसरण वीत जानेपर उतना ही स्थितिबन्ध होता है। उसमें से सबसे थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा वीसियाओंका उससे असंख्यातगुणा तीसियाओंमें तीन घातियोंका उससे असंख्यातगुणा वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है । यहांपर विशेष विशुद्धताके कारण सातावेदनीयसे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध कम होजाता है ॥ २३३ ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठादु।। तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होति ॥ २३४ ॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानामधस्तनात् । तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ २३४ ॥ अर्थ-उतने ही बंधके वीतनेपर उतना ही स्थितिबन्ध होता है। वहांपर सबसे थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा तीसियाओंका उससे असंख्यातगुणा वीसियाओंका उससे ड्योढ़ा वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ २३४ ॥ तक्काले वेयणियं णामागोदादु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेयणियाणं कमो जादो ॥ २३५ ॥ तत्काले वेदनीयं नामगोत्रतः साधिकं भवति । इति मोहतीसवीसियवेदनीयानां क्रमो जातः ॥ २३५ ॥ अर्थ-उस क्रमकरणकालमें नाम गोत्रसे वेदनीयका साधिक बन्ध होता है। इसप्रकार मोहतीसीयवीसिय और वेदनीयका क्रम है ऐसा जानना ॥ २३५॥ तीदे बंधसहस्से पल्लासंखेजयं तु ठिदिबंधो। तत्थ असंखेजाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥ २३६ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अतीते बंधसहस्रे पल्यासंख्येयं तु स्थितिबंध: । तत्र असंख्येयानां उदीरणा समयप्रबद्धानाम् ॥ २३६ ॥ अर्थ-क्रमकरण प्रारंभके समय से लेकर संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण वीतनेपर जिस जगह क्रमकरणके अंत में मोहादिकोंका पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध हुआ है वहां असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है ॥ २३६ ॥ 光 ठिदिबंध सहस्सगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहिदुगं । लाभं व पुणो वि सुदं अ चक्खु भोगं पुणो चक्खु ॥ २३७ ॥ पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विश्यं कमेण अणुभागो । बंधेण देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधे ॥ २३८ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते मनोदाने तावन्मात्रेपि अवधिद्विकं । लाभो वा पुनरपि श्रुतं च चक्षुर्भोगं पुनरचक्षुः ॥ २३७ ॥ पुनरपि मतिपरिभोगं पुनरपि वीर्यं क्रमेण अनुभागः । बंधेन देशघातिः पल्यासंख्यं तु स्थितिबंधे ॥ २३८ ॥ 1 अर्थ – पूर्व प्रकृतियोंका सर्वघाती स्पर्धकरूप अनुभाग बांधता था अब देशघाति करसे लेकर दारु लता समान दोस्थानगत देशघाती स्पर्धक रूप ही अनुभागको बांधता है। वहां असंख्यात समयप्रबद्ध की उदीरणाके प्रारंभ से आगे संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण वीत जानेपर मन:पर्ययज्ञानावरण दानांतरायका देशघातीबंध होता है । उससे परे उतने २ ही स्थितिबन्धापसरण वीतनेपर क्रमसे अवधिज्ञानावरण अवधिदर्शनावरण लाभांतराय - इनका और श्रुतज्ञानावरण चक्षुदर्शनावरण भोगांतरायका तथा मतिज्ञानावरण उपभोगांत - राम वीर्यात रायका देशघाती बन्ध होता है । और देशघातीकरण के अंत में मोहादिकों का स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवां भागमात्र ही है ।। २३७ । २३८ ॥ तो देसघादिकरणादुवरिं तु गदेसु तत्तियपदेसु । surataमोहणीयाणंतरकरणं करेदीदि ॥ २३९ ॥ अतो देशघातिकरणादुपरि तु गतेषु तावत्कपदेषु । एकविंशमोहनीयानामंतरकरणं करोतीति ॥ २३९॥ अर्थ-उस देशघातिकरणसे ऊपर संख्यात हजार स्थितिबन्ध वीतनेपर इक्कीस मोह - नीयकी प्रकृतियोंका अंतरकरण करता है || २३९ ॥ ऊपरके वा नीचेके निषेकों को छोड़ श्रीचके विवक्षित कितने ही निषेकोंका अभाव करना वह अंतरकरण है 1 संजणाणं एकं वेदाणेकं उदेदि तं दोहं । साणं पढमडिदि वेदि अंतोमुहुत्त आवलियं ॥ २४० ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। संज्वलनानामेकं वेदानामेकं उदेति तत् द्वयोः । शेषानां प्रथमस्थितिं स्थापयति अंतर्मुहूर्तमावलिकां ॥ २४० ॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधादिमेंसे कोई एक और स्त्री आदि वेदोंमेंसे किसी एकके उदयसहित श्रेणी चढे तो उन उदयरूप दो प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति अंतर्मुहूर्तस्थापन करता है और शेष उन्नीस प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति आवलिमात्र स्थापन करता है । अर्थात् प्रथमस्थितिप्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ ऊपरके निषेकोंका अन्तर करता है । ऐसा जानवा ॥ २४०॥ उवरि समं उक्कीरइ हेट्टावि समं तु मज्झिमपमाणं । तदुपरि पढमठिदीदो संखेजगुणं हवे णियमा ॥ २४१॥ उपरि समं उत्कीर्यते अधस्तनापि समं तु मध्यमप्रमाणं । तदुपरि प्रथमस्थितितः संख्येयगुणं भवेत् नियमात् ॥ २४१ ॥ अर्थ-अन्तरायामके अन्तनिषेकसे ऊपरके जो निषेक वे उदयरूप वा अनुदयरूप सब प्रकृतियोंके समान हैं और अन्तरायामके प्रथमनिषेकके नीचे जो निषेक वह उदय प्रकृतियोंका परस्परसमान है वा अनुदयप्रकृतियोंका परस्पर समान है । उसके वाद अन्तमुहूर्त वा आवलिमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति उससे संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तरायाम है अर्थात् इतने निषेकोंका अभाव किया जाता है ॥ २४१ ॥ अंतरपढमे अण्णो ठिदिवंधो ठिदिरसाण खंडो य । एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरसमत्ती ॥ २४२ ॥ अंतरप्रथमे अन्यः स्थितिबंधः स्थितिरसयोः खंडश्च । एकस्थितिखंडोत्करणकाले अंतरसमाप्तिः ॥ २४२ ॥ अर्थ-अन्तरकरणके प्रथमसमयमें पूर्वस्थितिबन्धसे असंख्यात गुणा कम ऐसा अन्य ही स्थितिबन्ध अन्य ही स्थितिकांडक अन्य ही पहलेसे कमती अनुभागकांडकका प्रारंभ होता है । वहां एक स्थितिकांडकोत्करणके कालसे अन्तरकरण किया जाता है । उसकी. समाप्ति होनेपर एक स्थितिकांडक घात हुआ उसमें संख्यातहजार अनुभागककांडोंका घात हुआ ऐसा जानना ॥ २४२ ॥ अंतरहेदुकीरिददत्वं तं अंतरम्हि ण य देदि । बंध ताणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ॥ २४३॥ अंतरहेतूत्कीरितद्रव्यं तदतरे न च ददाति । बंधं तेषामंतरजं बंधानां द्वितीयकै ददाति ॥ २४३ ॥ अर्थ-अन्तरके निमित्त उत्कीर्ण किये द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं मिलाता परंतु Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । जिनका केवल बंध ही पाया जाता है ऐसी प्रकृतियोंके द्रव्यको उत्कर्षणकर तत्काल अपनी बन्धी हुई प्रकृतिकी आबाधाको छोड़कर उसीकी द्वितीय स्थितिके प्रथमनिषेकसे लेकर यथायोग्य अन्ततक निक्षेपण करता है । और अपकर्षणकर उदयरूप अन्यकषायकी प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करता है ॥ २४३॥ उदयिल्लाणंतरजं सगपढमे देदि बंधविदिये च । उभयाणंतरदचं पढमे विदिये च संछुहदि ॥ २४४ ॥ औदयिकानामंतरजं स्वकप्रथमे ददाति बंधद्वितीये च ।। उभयानामंतरद्रव्यं प्रथमे द्वितीये च संक्षिपति ॥ २४४ ॥ अर्थ-जिनका केवल उदय ही पाया जावे ऐसे स्त्रीवेद वा नपुंसकवेदके अन्तरके द्रव्यको अपकर्षणकर अपनी अपनी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है और उत्कर्षणकर उस जगह बन्धे हुए अन्यकषायोंकी द्वितीयस्थितिमें निक्षेपण करता है । और जिनके बन्ध उदय दोनों ही पाये जाते हैं ऐसे पुरुषवेद वा कोई एक कषाय उनके अन्तरके द्रव्यको अपकर्षणकर उदयरूप प्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करता है और उत्कर्षण कर वहां बंधवाली प्रकृतियोंकी द्वितीयस्थितिमें निक्षेपण करता है ॥ २४४ ॥ अणुभयगाणंतरजं बंध ताणं च विदियगे देदि । एवं अंतरकरणं सिज्झदि अंतोमुहुत्तेण ॥ २४५ ॥ अनुभयकानामंतरजं बंधं तेषां च द्वितीयके ददाति । एवमंतरकरणं सिद्ध्यति अंतर्मुहूर्तेण ॥ २४५ ॥ अर्थ-बंध उदय रहित जो अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानकषाय और हास्यादि छह नोकषाय इनके अन्तरके द्रव्यको उत्कर्षणकर उस कालमें बंधी अन्यप्रकृतियोंकी द्वितीयस्थितिमें निक्षेपण करता है और अपकर्षणकर उदयरूप अन्यप्रकृतियोंकी प्रथमस्थितिमें देता है ॥ २४५॥ सत्तकरणाणि यंतरकदपढमे होंति मोहणीयस्स । इगिठाणिय बंधुदओ ठिदिबंधे संखवस्सं च ॥ २४६ ॥ अणुपुचीसंकमणं लोहस्स असंकमं च संढस्स । पढमोवसामकरणं छावलितीदेसुदीरणदा ॥ २४७ ॥ सप्तकरणानि अंतरकृतप्रथमे भवंति मोहनीयस्य । एकस्थानको बंधोदयः स्थितिबंधः संख्यवर्ष च ॥ २४६ ॥ आनुपूर्वीसंक्रमणं लोभस्यासंक्रमं च षंढस्य । प्रथमोपशमकरणं षडावल्यतीतेषूदीरणता ॥ २४७॥ . .. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । ७१ अर्थ- - अन्तर करनेके वाद प्रथमसमय में सातकरणोंका एककालमें आरंभ होता है । वहां पहले अन्तरकरनेकी समाप्तितक मोहका दारुलतासमान दोस्थानगतबंध और उदय था वह अब लतासमान एकस्थानगत बन्ध उदय होनेलगा । ऐसे दो करण हुए । पहले मोहका स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षका होता था अब संख्यातवर्षका ही होने लगा, पहले चारित्रमोहका परस्पर प्रकृतियोंका जिस तिस जगह संक्रमण होता था अब आनुपूर्वी संक्र मण होने लगा, पहले संज्वलन लोभका संज्वलन क्रोधादिमें संक्रमण होता था अब इसका कहीं भी संक्रमण नहीं होता, अब नपुंसकवेदकी उपशमक्रियाका प्रारंभ हुआ, पहले बन्ध होनेके बाद एक आवलिकाल वीतजानेपर उदीरणा करनेकी सामर्थ्य थी अब जिसका बंध होता है उसकी बंधसमयसे छह आवलि बीत जानेपर उदीरणा करनेकी सामर्थ्य होती है । २४६ । २४७ ॥ अंतरपढमादु कमे एक्केकं सत्त चदुसु तिय पयडिं । सममुच सामदि णवकं समऊणावलिदुगं वज्जं ॥ २४८ ॥ अंतरप्रथमात् क्रमेण एकैकं सप्त चतुर्षु त्रयं प्रकृतिं । समुच्य शमयति नवकं समयोनावलिद्विकं वर्ज्यम् ॥ २४८ ॥ अर्थ—अन्तरकरनेके वाद प्रथमसमयसे लेकर क्रमसे एक एक अन्तर्मुहूर्तकालकर तो एक एक सात प्रकृतियोंको और चार अन्तर्मुहूर्तमें क्रमसे तीन तीन तीन तीन प्रकृतियोंको उपशमाता है | वहां समयकम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्धको नहीं उपशमाता ॥ २४८ ॥ एय णउंसयवेदं इत्थीवेदं तहेव एयं च । सत्तेव णोकसाया कोहादितियं तु पयडीओ ॥ २४९ ॥ एकं नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं तथैव एकं च । सप्तैव नोकषायाः क्रोधादित्रयं तु प्रकृतयः ॥ २४९ ॥ अर्थ – एक नपुंसक वेद एक स्त्रीवेद उसीतरह सात नोकषाय और तीन क्रोध तीन मान तीन माया तीन लोभ ऐसे क्रमसे उपशम होनेपर इक्कीस प्रकृतियां हैं ॥ २४९ ॥ अंतरकद पढमादो पडिसमयमसंखगुणविहाणकमे । वसामेदि हुड उवसंतं जाण णव अण्णं ॥ २५० ॥ अंतरकृतप्रथमतः प्रतिसमयमसंख्यगुणविधानक्रमे । गोपशाम्यति हि षंढं उपशांतं जानीहि नवान्यम् ॥ २५० ॥ अर्थ — अन्तरकर ने वाद प्रथमसमय से लेकर समय २ प्रति नपुंसक वेदका उपशम Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। होता है वह असंख्यातगुणा क्रमलिये द्रव्य उपशमाता है जो समय समय प्रति द्रव्य उपशमाया उसीका नाम उपशमन फालिका द्रव्य जानना ॥ २५०॥ . संढादिमउवसमगे इस्स उदीरणा य उदओ य । संढादो संकमिदं उवसमियमसंखगुणियकमां ॥ २५१॥ षंढादिमोपशामके इष्टस्योदीरणा च उदयश्च । - पंढात् संक्रमितमुपशमितमसंख्यगुणितक्रमः ॥ २५१ ॥ अर्थ-नपुंसकवेदके उपशमकालके प्रथमसमयमें विवक्षित उपशमरूप पुरुषवेद उसका उदय उदीरणा वह नपुंसकवेदसे संक्रमण करता हुआ असंख्यातगुणा क्रम लिये है॥२५१॥ जत्तोपाये होदि हु ठिदिबंधो संखवस्समेत्तं तु । तत्तो संखगुणूणं बंधोसरणं तु पयडीणं ॥ २५२ ॥ यत उपायेन भवति हि स्थितिबंधः संख्यवर्षमात्रं तु । ततः संख्यगुणोनं बंधापसरणं तु प्रकृतीनाम् ॥ २५२ ॥ अर्थ-जिस कारण यहां मोहका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षमात्र होता है इसलिये पूर्वस्थितिबन्धापसरणसे यहां स्थितिबन्धापसरण सब प्रकृतियोंका संख्यातगुणा कम होता है ॥ २५२ ॥ वस्साणं बत्तीसादुवरि अंतोमुहुत्तपरिमाणं । ठिदिबंधाणोसरणं अवरद्विदिबंधणं जाव ॥ २५३ ॥ वर्षाणां द्वात्रिंशदुपरि अन्तर्मुहूर्तपरिमाणम् । स्थितिबंधानापसरणमवरस्थितिबंधनं यावत् ॥ २५३ ॥ अर्थ-जिसजगह बत्तीसवर्षका स्थितिबन्ध होता है वहांसे लेकर जहां जघन्य स्थितिबन्ध होता है वहांतक उस बन्धापसरणका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र जानना ॥ २५३ ॥ ठिदिबंधाणोसरणं एवं समयप्पबद्धमहिकित्ता । . . उत्तं णाणादो पुण ण च उत्तं अणुववत्तीदो ॥ २५४ ॥ स्थितिबंधानामपसरणमेकं समयप्रबद्धमधिकृत्य । उक्तं नानातः पुनः न च उक्तमनुपपत्तितः ॥ २५४ ॥ अर्थ-स्थितिबन्धापसरण विवक्षित स्थितिबन्धके प्रथम समयमें संभव एक समयप्रबद्धको अधिकारकरके कहा गया है और हरसमय स्थितिबन्ध कम होनेकी अप्राप्तिसे नाना समयप्रबद्धकी अपेक्षा नहीं कहा ॥ २५४ ॥ १ इसके आगेका एक गाथा भाषा टीकामें नहीं मिला वह यह है-"अंतरकरणादुवरि ठिदिस्स खंडा. ण मोहणीयस्स । ठिदिबन्धोसरणं पुण संखेजगुणेण हीणकमा" ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । एवं संखेजेस ठिदिबंध सहस्सगेसु तीदेसु । संवसमदे तत्तो इत्थि च तहेव उवसमदि ॥ २५५ ॥ एवं संख्येयेषु स्थितिबंधसहस्रकेषु अतीतेषु । ढोपशांते ततः स्त्रीं च तथैव उपशमयति ।। २५५ ॥ अर्थ — इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर अन्तर्मुहूर्तकालकर नपुंसक वेदका उपशम होता है उसके वाद उसीतरह अन्तर्मुहूर्त कालसे स्त्रीवेदको उपशमाता है ॥२५५॥ थीयद्धा संखेज दिभागेपगदे तिघादठिदिबंधो । संखतुवं रसबंधो केवलणाणेगठाणं तु ॥ २५६ ॥ स्त्री अद्धा संख्येयभागेपगते त्रिघातिस्थितिबंधः । संख्यातं रसबंधः केवलज्ञानैकस्थानं तु ॥ २५६ ॥ ७३ अर्थ — स्त्रीवेद उपशमानेके कालका संख्यातवां भाग वीतजानेपर मोहका स्थितिबन्ध औरोंसे कम संख्यातहजार वर्षमात्र होता है उससे संख्यातगुणा तीनघातियोंका उससे असंख्यातगुणा पल्यका असंख्यातवां भागमात्र नामगोत्रका उससे कुछ अधिक सातावेदनीया स्थितिबन्ध होता है । और इसीकालमें केवलज्ञानावरण केवलदर्शनावरणके विना अन्यघातियाओंका लतासमान एकस्थानगत ही अनुभागबन्ध है || २५६ ॥ थीउवसमिदाणंतरसमयादो सत्त णोकसायाणं । उवसमगो तस्सद्धा संखज्जदिमे गदे तत्तो ॥ २५७ ॥ स्त्री उपशमितानंतरसमयात् सप्तनोकषायाणाम् । उपशामकः तस्याद्धा संख्याते गते ततः ॥ २५७ ॥ अर्थ—स्त्रीवेद उपशमानेके बाद के समय से लेकर पुरुषवेद और छह हास्यादि ऐसे इन सातप्रकृतियोंको उपशमाता है । उनके उपशमानेका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । उसके संख्यातवें भाग वीतजानेपर । जो होता है वह आगे कहते हैं ॥ २५७ ॥ णामदुगे वेयणियट्ठिदिबंधो संखवस्सयं होदि एवं सत्तकसाया उवसंता से सभागते ॥ २५४ वेदनीय स्थितिबन्धः संख्यवर्षको भवति । एवं सप्तकषाया उपशांताः शेषभागांते ॥ २५८ ॥ नाम अर्थ — नामगोत्रका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है उससे कुछ अधिक वेदनीयका जानना । इसतरह सात नोकषाय उपशमनकालके शेष बहुभागके अन्तसमय में उपशम होते हैं ॥ २५८ ॥ ल. सा. १० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । णवरि य पुंवेदस्स य णवकं समयोणदोण्णिावलियं । मुच्चा सेसं सवं उवसंते होदि तचरिमे ॥ २५९ ॥ नवरि च पुवेदस्य च नवकं समयोनद्वथावलिकाम् । ___ मुक्त्वा शेषं सर्वमुपशांते भवति तच्चरमे ॥ २५९ ॥ अर्थ-इतना विशेष है कि उस अन्तसमयमें पुरुषवेदका एकसमयकम दो आवलिमात्र नवीनसमयप्रबद्धको छोड़ अवशेष सबको उपशमाता है ॥ २५९ ॥ तचरिमे पुंबंधो सोलसवस्साणि संजलणगाणं । तदुगाणं सेसाणं संखेजसहस्सवस्साणि ॥ २६० ॥ तञ्चरमे पुंबंधः षोडशवर्षाणि संज्वलनकानाम् । तहिकानां शेषाणां संख्येयसहस्रवर्षाणि ॥ २६० ॥ अर्थ-सवेद अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयमें पुरुषवेदका स्थितिबन्ध सोलहवर्षमात्र, संज्वलनचतुष्कका बत्तीसवर्षमात्र और शेषका संख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है । उन शेषोंमेंसे भी थोड़ा तीनघातियोंका उससे संख्यातगुणा नामगोत्रका उससे साधिक वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ २६० ॥ पुरिसस्स य पढमठिदी आवलिदोसुवरिदासु आगाला । पडिआगाला छिण्णा पडियावलियादुदीरणदा ॥ २६१॥ . पुरुषस्य च प्रथमस्थितिः आवलिद्वयोरुपरतयोरागालाः । प्रत्यागालाः छिन्नाः प्रत्यावलिकांत उदीरणता ॥ २६१ ॥ अर्थ-पुरुषवेदकी अन्तरायामके नीचे कही प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहनेपर आगाल प्रत्यागालका व्युच्छेद होता है और शेष दो आवलिके प्रथमसमयसे लेकर पुरुषवेदकी गुणश्रेणी निर्जराका व्युच्छेद हुआ वहां उदयावलीसे बाह्य ऊपरके निषेकोंमें तिष्ठते द्रव्यको उदयावलीमें देते हैं ऐसी उदीरणा ही पाई जाती है ॥ २६१ ॥ अंतरकदादु छण्णोकसायदवं ण परिसगे देदि । एदि हु संजलणस्स य कोधे अणुपुविसंकमदो ॥ २६२ ॥ अंतरकृतात् षण्णोकषायद्रव्यं न पुरुषके ददाति । एति हि संज्वलनस्य च क्रोधे आनुपूर्विसंक्रमतः ॥ २६२ ॥ अर्थ-अन्तर करनेके वाद हास्यादि छह नोकषायोंका द्रव्य पुरुष वेदमें संक्रमण नहीं करता संज्वलनक्रोधमें ही संक्रमण करता है क्योंकि यहां आनुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है ॥ २६२ ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। पुरिसस्स उत्तणवकं असंखगुणियकमेण उपसमदि । संकमदि हु हीणकमेणधापवत्तेण हारेण ॥ २६३ ॥ पुरुषस्य उक्तनवकं असंख्यगुणितक्रमेण उपशमयति । संक्रामति हि हीनक्रमेणाधःप्रवृत्तेन हारेण ॥ २६३ ।। अर्थ-पुरुषवेदका पूर्व कहा हुआ नवीनसमय प्रबद्ध है उसे असंख्यातगुणा कमलिये उपशमाता है और उसीका कोई एक नवीनसमयप्रबद्ध है उसको अधाप्रवृत्त भागहारसे विशेष हीनक्रमसे अन्यप्रकृतिमें संक्रमण करता है ॥ २६३ ॥ पढमावेदे संजलणाणं अंतोमुहुत्तपरिहीणं । वस्साणं बत्तीसं संखसहस्सियरगाणठिदिबंधो ॥ २६४ ॥ प्रथमावेदे संज्वलनाना अंतर्मुहूर्तपरिहीनम् । वर्षाणां द्वात्रिंशत् संख्यसहस्रमितरेषां स्थितिबन्धः ॥ २६४ ॥ अर्थ-अपगतवेदके प्रथमसमयमें संज्वलनचौकड़ीका तो अन्तर्मुहूर्तकम बत्तीस वर्षमात्र स्थितिबन्ध है और अन्यकर्मोंका पूर्वस्थितिबन्धसे संख्यातगुणा कम हुआ हीनाधिक क्रमलिये संख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ २६४ ॥ पढमावेदो तिविहं कोहं उवसमदि पुवपढमठिदी। समयाहियआवलियं जाव य तकालठिदिबंधो ॥ २६५ ॥ प्रथमावेदस्त्रिविधं क्रोधं उपशमयति पूर्वप्रथम स्थितिः । समयाधिकावलिको यावच्च तत्कालस्थितिबन्धः ॥ २६५ ॥ अर्थ-प्रथम समयवाला अपगतवेदी संयमी पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धसहित प्रत्याख्यानादि तीनों क्रोधोंका उपशम करता है । उससे पहले स्थापनकी हुई प्रथमस्थितिके वीतनेपर शेषकाल एक समय अधिक आवलिमात्र जबतक रहे तबतक ही क्रोधादिका स्थितिबन्ध रहता है ॥ २६५ ॥ संजलणचउक्काणं मासचउकं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेण ॥ २६६ ॥ संज्वलनचतुष्काणां मासचतुष्कं तु शेषप्रकृतीनाम् । वर्षाणां संख्येयसहस्राणि भवंति नियमेन ॥ २६६ ॥ अर्थ-अपगतवेदीके प्रथमसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तमात्रकाल लिये ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर क्रोधत्रिकके उपशमकालके अन्तसमयमें संज्वलनचौकड़ीका स्थितिबन्ध चारमासमात्र होता है और उसी अन्तसमयमें अन्यकर्मोंका स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा कम ऐसा संख्यातहजार वर्षमात्र पूर्वोक्तप्रकार हीनाधिकपना लिये हुए होता है ॥ २६६ ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कोहदुगं संजलणगकोहे संछुहदि जाव पढमठिदी। आवलितियं तु उवरिं संछुहदि हु माणसंजलणे ॥ २६७ ॥ क्रोधद्विकं संज्वलनकक्रोधे संक्रामति यावत् प्रथमस्थितिः । आवलित्रिकं तु उपरि संक्रामति हि मानसंज्वलने ॥ २६७ ॥ अर्थ-अवेदके प्रथमसमयसे लेकर संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें तीन आवली शेष रहनेतक अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानरूप दो क्रोधके द्रव्यको संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है । और संक्रमावली उपशमनावलि उच्छिष्टावलि इन तीनोंमेंसे संक्रमावलिके अन्तसमयतक उन दोनोंका द्रव्य संज्वलनमानमें संक्रमण होता है ॥ २६७ ॥ कोहस्स पढमठिदी आवलिसेसे तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होंति कोहस्स ॥ २६८ ॥ क्रोधस्य प्रथमस्थितिः आवलिशेषे त्रिक्रोधमुपशांतं । न च नवकं तत्रांतिमबंधोदयौ भवतः क्रोधस्य ॥ २६८ ॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें उच्छिष्टावलि शेष रहनेपर अन्तमें नवीनसमयप्रबद्धके विना समस्त संज्वलन क्रोधका द्रव्य अपनेरूप रहता हुआ उपशम हुआ। वहां ही संज्वलन क्रोधके बन्ध उदयका व्युच्छेद होता है ॥ २६८ ॥ से काले माणस्स य पढमहिदिकारवेदगो होदि। पढमहिदिम्मि दवं असंखगुणियक्कमे देदि ॥ २६९ ॥ तस्मिन् काले मानस्य च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति । प्रथमस्थितौ द्रव्यं असंख्यगुणितक्रमेण ददाति ॥ २६९ ॥ अर्थ-तीन क्रोधोंके उपशम होनेके वादमें यह संयमी संज्वलनमानकी प्रथमस्थितिके ऊपरवर्ती जो द्वितीयस्थितिका द्रव्य उसे प्रथमस्थितिके निषेकोंमें असंख्यातगुणा क्रम लिये निक्षेपण करता है और उसी प्रथमस्थितिका कर्ता भोक्ता होता है ॥ २६९ ॥ पढमट्ठिदिसीसादो विदियादिम्हि य असंखगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं जाव अइच्छावणमपत्तं ॥ २७॥ प्रथमस्थितिशीर्षत: द्वितीयादौ च असंख्यगुणहीनम् । ततो विशेषहीनं यावत् अतिस्थापनमप्राप्तम् ॥ २७० ॥ अर्थ-प्रथमस्थितिके अन्तसमयमें निक्षेपण किये द्रव्यसे द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेकमै निक्षेपण किया द्रव्य असंख्यातगुणा कम है और उससे ऊपर विशेष घटता क्रमलिये जबतक अतिस्थापनावली प्राप्त न हो तबतक व्यका निक्षेपण होता है ॥ २७० ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०० लब्धिसारः। माणस्स पढमठिदी सेसे समयाहिया तु आवलियं । तियसंजलणगबंधो दुमास सेसाण कोह आलावो ॥ २७१॥ मानस्य प्रथमस्थितिः शेषे समयाधिकां तु आवलिकाम् । त्रिकसंज्वलनकबंधो द्विमासं शेषाणां क्रोध आलापः ॥ २७१ ॥ अर्थ-संज्वलनमानकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर उपशमकालके अन्तमें संज्वलन मान माया लोभका स्थितिबन्ध दोमहीनेका होता है । अन्यकर्मोका स्थितिबन्ध क्रोधके समान संख्यातहजार वर्षमात्र होता है ॥ २७१ ॥ माणदुगं संजलणगमाणे संछुहदि जाव पढमठिदी। आवलितियं तु उवरिं मायासंजलणगे य संछुहदि ॥ २७२ ॥ मानद्विकं संज्वलनकमाने संक्रामति यावत् प्रथमस्थितिः । आवलित्रयं तु उपरि मायासंज्वलनके च संक्रामति ॥ २७२ ॥ अर्थ-संज्वलनमानकी प्रथमस्थितिमें तीन आवलि शेष रहनेपर अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानमानद्विकको संज्वलनमानमें संक्रमण करता है । उसके वाद संक्रमणावलिके अन्तसमयतक उन दो मानोंको संज्वलनमायामें संक्रमण करता है ॥ २७२ ॥ माणस्स य पढमठिदी आवलिसेसे तिमाणमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होंति माणस्स ॥ २७३ ॥ मानस्य च प्रथमस्थितौ आवलिशेषे त्रिमानमुपशांतं । न च नवकं तत्रांतिमबंधोदयौ भवतः मानस्य ॥ २७३ ॥ अर्थ-संज्वलनमानकी प्रथमस्थितिमें आवलिकाल शेष रहनेपर नवीनसमयप्रबद्धके विना अन्य सब तीनमानका द्रव्य उपशम हुआ उसीसमय संज्वलनके बन्धकी और उदयकी व्युच्छित्ति होती है ॥ २७३ ॥ से काले मायाए पढमद्विदिकारवेदगो होदि । माणस्स य आलाओ दवस्स विभंजणं तत्थ ॥ २७४ ॥ तस्मिन् काले मायायाः प्रथमस्थितिकारवेदको भवति । मानस्य च आलापो द्रव्यस्य विभंजनं तत्र ॥ ७४ ॥ अर्थ-तीन मानके उपशमके वाद संज्वलनमायाकी प्रथम स्थितिका कर्ता व वेदक ( भोक्ता ) होता है वहां संज्वलनमायाद्रव्यका अपकर्षण निक्षेपण विभाग मानद्रव्यवत् जानना । और संज्वलनमानके समयकम दो आवलिमात्र नवीन समयप्रबद्ध हैं वे तभी समयकम दो आवलिमात्र कालकर उपशमते हैं ॥ २७४ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मायाए पढमठिदी सेसे समयाहियं तु आवलियं । मायालोहगबंधो मासं सेसाण कोह आलाओ॥ २७५॥ मायायाः प्रथमस्थितौ शेषे समयाधिकं तु आवलिकां । मायालोभगबन्धः मासं शेषाणां क्रोध आलापः ॥ २७५ ॥ अर्थ-मायाकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर संज्वलन माया और लोभका तो मासमात्र स्थितिबन्ध होता है अन्यकर्मोंका क्रोधवत् आलाप करना । पूर्वकथित रीतिसे हीनाधिकपना लिये संख्यातहजारवर्षमात्र स्थितिबन्ध है ॥ २७५ ॥ मायदुगं संजलणगमायाए छुहदि जाव पढमठिदी। आवलितियं तु उवरिं संछुहदि हु लोहसंजलणे ॥ २७६ ॥ मायाद्विकं संज्वलनगमायायां संक्रामति यावत् प्रथमस्थितिः । आवलित्रिकं तु उपरि संक्रामति हि लोभसंज्वलने ॥ २७६ ॥ अर्थ-संज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिमें जबतक तीन आवलि शेष रहें तबतक अपत्याख्यानप्रत्याख्यानमाया द्विकका द्रव्य संज्वलनमायामें ही संक्रमण करता है। उससे परे संक्रमणावलीमें उनका द्रव्य संज्वलनलोभमें संक्रमण करता है ॥ २७६ ॥ मायाए पढमठिदी आवलिसेसेति मायमुवसंतं । ण य णवक तत्थंतिम बंधुदया होति मायाए ॥ २७७ ॥ मायायाः प्रथमस्थितौ आवलिशेषे इति मायमुपशांतं । न च नवकं तत्रांतिमे बंधोदयौ भवतः मायायाः ॥ २७७ ॥ अर्थ-मायाकी प्रथमस्थितिमें आवलि शेष रहनेपर नवक समय प्रबद्धके विना अन्यसब मायाका द्रव्य उपशम होजाता है । और उसीसमयमें संज्वलनमायाके बन्ध वा उदयकी व्युच्छित्ति होती है ॥ २७७ ॥ से काले लोहस्स य पढमटिदिकारवेदगो होदि । तं पुण वादरलोहो माणं वा होदि णिक्खेओ ॥ २७८ ॥ स्वे काले लोभस्य च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति । तत् पुनः बादरलोभः मानो वा भवति निक्षेपः ॥ २७८ ॥ अर्थ-मायाके उपशमके वाद संज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिका कर्ता और भोगता होता है। वह अनिवृत्तिकरण जीव स्थूल लोभको अनुभवता हुआ बादरसांपराय कहा जाता है । उस संज्वलनलोभका द्रव्य अपकर्षणकर प्रथमस्थितिमें निक्षेपण किया जाता है उसकी विधि मानकी तरह जानना ॥ २७८॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। पढमहिदिअद्धंते लोहस्स य होदि दिणुपुधत्तं तु । वस्ससहस्सपुधत्तं सेसाणं होदि ठिदिवंधो ॥ २७९ ॥ प्रथमस्थित्याते लोभस्य च भवति दिनपृथक्त्वं तु । । वर्षसहस्रपृथक्त्वं शेषाणां भवति स्थितिबंधः ॥ २७९ ॥ अर्थ-माया उपशमनके वाद अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयतक बादर लोभका वेदनकालके प्रथम अन्तसमयमें स्थितिबन्ध संज्वलन लोभका तो पृथक्त्व दिन प्रमाण और अन्यका पूर्वकथितक्रमसे पृथक्तव हजार वर्षप्रमाण है ॥ २७९ ॥ विदियद्धे लोभावरफड्ढयहेट्ठा करेदि रसकिदि । इगिफड्ढयवग्गणगद संखाणमणंतभागमिदं ॥ २८०॥ द्वितीयाधै लोभावरस्पर्धकाधस्तनां करोति रसकृष्टिम् । एकस्पर्धकवर्गणागतं संख्यानामनंतभागमिदम् ॥ २८० ॥ अर्थ-संज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिके प्रथम आधेको विताकर द्वितीय अर्धके प्रथमसमयमें संज्वलन लोभके अनुभागसत्त्वमें जघन्यस्पर्धकोंकी नीचेसे अनुभाग कृष्टिं करता है अर्थात् फलदेनेकी शक्तिको क्षीण करता है । उन सूक्ष्मकृष्टिरूप अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण एक स्पर्धकमें वर्गणाप्रमाणके अनन्तवें भागमात्र जानना ॥ २८० ॥ उक्कट्टिदइगिभागं पल्लासंखेजखंडिदिगिभागं । देदि सुहुमासु किट्टिसु फड्ढयगे सेसबहुभागं ॥ २८१ ॥ अपकर्षितैकभागं पल्यासंख्येयखंडितैकभागम् । ददाति सूक्ष्मासु कृष्टिषु स्पर्धके शेषबहुभागम् ॥ २८१ ॥ अर्थ-संज्वलनलोभके सब सत्त्वरूपद्रव्य के अपकर्षित एक भागमात्र द्रव्यको ग्रहणकर उसमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित एक भागको सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाता है और शेष बहुभागको स्पर्धकमें निक्षेपण करता है ॥ २८१ ॥ पडिसमयमसंखगुणा दवादु असंखगुणविहीणकमे । पुवगहेट्ठा हेट्ठा करेदि किट्टि स चरिमोत्ति ॥ २८२ ॥ प्रतिसमयमसंख्यगुणा द्रव्यात् असंख्यगुणविहीनक्रमेण । . पूर्वगाधस्तनां अधस्तनां करोति कृष्टिं स चरम इति ॥ २८२ ॥ अर्थ-कृष्टिकरनेके कालके अन्तसमयतक हरसमय पूर्वपूर्वसमयोंमें की हुई कृष्टियोंके प्रमाणसे आगे आगेके समयमें की गई कृष्टियोंका प्रमाण क्रमसे असंख्यातगुणा घटता हुआ है और अनुभाग अनन्तगुणा घटता है ॥ २८२ ॥ १ कर्म परमाणुओंकी अनुभाग शक्तिके घटानेको कृष्टि कहते हैं । - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ट्ठा सीसे उभयं दविसेसे य कट्टिम्म । मज्झिमखंडे दत्रं विभज्ज बिदियादिसमयेसु ॥ २८३ ॥ अधस्तना शीर्षे उभयं द्रव्यविशेषे च अधस्तनकृष्टौ । मध्यमखंडे द्रव्यं विभज्य द्वितीयादिसमयेषु ॥ २८३ ॥ अर्थ - कृष्टिकरणकालके दूसरे आदि समयोंमें अपकर्षण किये द्रव्यको अधस्तनशीर्ष - विशेषों में उभयद्रव्यविशेषोंमें अधस्तनकृष्टियों में मध्यमखंडोंमें - इसतरह चार विभागों में निक्षेपण करता है ॥ २८३ ॥ ट्ठासीसं थोवं उभयविसेसं तदो असंखगुणं । ट्ठा अनंतगुणिदं मज्झिमखंडं असंखगुणं ॥ २८४ ॥ अधस्त शीर्ष स्तोकं उभयविशेषं ततोऽसंख्यगुणम् । अधस्तनमनंतगुणितं मध्यमखंडं असंख्यगुणम् ॥ २८४ ॥ अर्थ - इन पूर्वकथित चारों द्रव्योंमेंसे अधस्तन शीर्षविशेषद्रव्य सबसे थोड़ा है उससे असंख्यातगुणा उभयद्रव्यविशेष है उससे अनन्तगुणी अधस्तन कृष्टि है और उससे भी असं - ख्यातगुणा मध्यमखण्ड द्रव्य है ॥ २८४ ॥ अवरे बहुगं देदि हु विसेसहीणकमेण चरिमोत्ति । तत्तो तगुणूणं विसेसहीणं तु फट्टयमे ॥ २८५ ॥ अवरस्मिन् बहुकं ददाति हि विशेषहीनक्रमेण चरम इति । ततोऽनंतगुणनं विशेषहीनं तु स्पर्धके ॥ २८५ ॥ अर्थ – जघन्य कृष्टिमें बहुत द्रव्य दिया जाता है । द्वितीय अपूर्व कृष्टिसे लेकर पूर्व - कृष्टिकी अन्तकृष्टि पर्यंत चय घटता क्रम लिये निक्षेपण करता है । उससे पूर्वस्पर्धक की प्रथमवर्गणा में निक्षेपण किया द्रव्य अनन्तगुणा घटता हुआ है और उसके वाद चय घटते क्रमसे निक्षेपण करता है ॥ २८५ ॥ वरि असंखाणंतिमभागूणं पुत्रकिट्टिसंधी | हेमिखंडपमाणेणेव विसेसेण हीणादो ॥ २८६ ॥ नवरि असंख्यानामंतिमभागोनं पूर्वकृष्टिसंधिषु । अधस्तनखंडप्रमाणेनैव विशेषेण हीनात् ॥ २८६ ॥ अर्थ — इतना विशेष है कि अपूर्वकृष्टिकी अन्तकृष्टिमें निक्षेपण किये द्रव्यसे पूर्वकृष्टिकी प्रथमकृष्टिमें निक्षेपण किया द्रव्य असंख्यातवें भागकर व अनन्तवें भागकर घटता हुआ है । क्योंकि एक अधस्तन कृष्टिका द्रव्य और एक उभयद्रव्यविशेष इनकर हींन है ॥ २८६ ॥ 1 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ लब्धिसारः। अवरादो चरिमोत्ति य अणंतगुणिदक्कमादु सत्तीदो। इदि किट्टीकरणद्धा बादरलोहस्स बिदियद्धं ॥ २८७ ॥ अवरस्मात् चरम इति च अनंतगुणितक्रमात् शक्तितः । ___ इति कृष्टिकरणाद्धा बादरलोभस्य द्वितीयार्धम् ॥ २८७ ॥ अर्थ-जघन्य अपूर्वकृष्टि के अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोंसे द्वितीय पूर्वकृष्टिकी अंतकृष्टितकके अविभागप्रतिच्छेद क्रमसे अनन्त अनन्तगुणे हैं । इसप्रकार बादर लोभवेदककालके द्वितीयअर्धमात्ररूप सूक्ष्मकृष्टि करनेका काल वितीत होता है ॥ २८७॥ विदियद्धा संखेजाभागेसु गदेसु लोभठिदिबंधो। अंतोमुहुत्तमेत्तं दिवसपुधत्तं तिघादीणं ॥ २८८ ॥ द्वितीयाद्धा संख्येयभागेषु गतेषु लोभस्थितिबंधः । __ अंतर्मुहूर्तमानं दिवसपृथक्त्वं त्रिघातिनाम् ॥ २८८ ॥ अर्थ-संज्वलनलोभकी प्रथम स्थितिका द्वितीय अर्धमात्र कृष्टि करणकालके संख्याते बहुभाग वीतनेपर अन्तसमयमें संज्वलनलोभका अन्तर्मुहूर्तमात्र और तीन घातियाओंका पृथक्त्व दिनमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ २८८ ॥ किट्टीकरणद्धाए जाव दुचरिमं तु होदि ठिदिबंधो। वस्साणं संखेजसहस्साणि अघादिठिदिबंधो ॥ २८९ ॥ कृष्टिकरणाद्धाया यावत् द्विचरमं तु भवति स्थितिबंधः। वर्षाणां संख्येयसहस्राणि अघातिस्थितिबंधः ॥ २८९ ॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालका जबतक द्विचरमसमय प्राप्त होवे तबतक तीन अघातियाओंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र है और संज्वलनलोभादिका भी स्थितिबन्ध इसीके समान है ॥ २८९॥ किट्टीयद्धाचरिमे लोभस्संतो मुहुत्तियं बंधो। दिवसंतो घादीणं वेवस्संतो अघादीणं ॥ २९॥ कृष्ट्यद्धाचरमे लोभस्यांतर्मुहूर्तकं बंधः।। दिवसांतः घातिनां द्विवर्षातो अघातिनाम् ॥ २९० ॥ अर्थ-कृष्टिकरण कालके अन्तसमयमें पहले स्थितिबन्धसे संख्यातगुणाकम संज्वलनलोभका अन्तर्मुहूर्तमात्र, तीन घातियाओंका कुछ कम एक दिन और अघातियाओंका कुछकम दोवर्ष स्थितिबन्ध होता है ॥ २९० ॥ बिदियद्धा परिसेसे समऊणावलितियेसु लोभदुगं । सट्टाणे उवसमदि हु ण देदि संजलणलोहम्मि ॥ २९१ ॥ ल. सा. ११ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । द्वितीयार्धे परिशेषे समयोनावलित्रिकेषु लोभद्विकम् । स्वस्थाने उपशाम्यति हि न ददाति संज्वलनलोभे ॥ २९१ ॥ अर्थ-संज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिके द्वितीयार्धमें समयकम तीन आवलि शेष रहनेपर अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानलोभ अपने खरूपमें ही रहते हुए उपशम होते हैं लेकिन संज्वलनलोभमें संक्रमण नहीं करते ॥ २९१ ॥ बादरलोभादिठिदी आवलिसेसे तिलोहमुवसंतं । णवकं किट्टि मुच्चा सो चरिमो थूलसंपराओ य ॥ २९२ ॥ बादरलोभादिस्थितौ आवलिशेषे त्रिलोभमुपशांतम् ।। ___ नवकं कृष्टिं मुक्त्वा स चरमः स्थूलसांपरायो यः ॥ २९२ ॥ अर्थ-बादरलोभकी प्रथमस्थितिमें उच्छिष्टावली शेष रहनेपर उपशमनावलीके अन्तसमयमें तीनों लोभका द्रव्य उपशम होता है लेकिन सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त हुआ द्रव्य और एकसमय कम दो आवलिमात्र नवीनसमयप्रबद्धोंका द्रव्य तथा उच्छिष्टावलिमात्र निषेकोंका द्रव्य उपशमरूप नहीं होता । इसप्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तसमयवर्तीको अन्तिम अनिवृत्तबादरसांपराय कहते हैं ॥ २९२ ॥ इसप्रकार अनिवृत्तकरणका स्वरूप कहा । से काले किट्टिस्स य पढमहिदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदो अद्धं किंचूणयं गत्थ ॥ २९३॥ स्वे काले कृष्टेश्च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति । लोभगप्रथमस्थितितो अर्ध किंचिदूनकं गत्वा ॥ २९३ ॥ अर्थ-बादरलोभकी प्रथमस्थितिके द्वितीय अर्धसे कुछ कम सूक्ष्मकृष्टियोंकी प्रथमस्थिति करता है । और उसी सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टिके उदयका कर्ता और भोगता है ॥ २९३ ॥ पढमे चरिमे समये कदकिट्टीणग्गदो दु आदीदो। मुच्चा असंखभागं उदेदि सुहुमादिमे सवे ॥ २९४ ॥ प्रथम चरमे समये कृतकृष्टीनामग्रतस्तु आदितः । मुक्त्वा असंख्यभागं उदेति सूक्ष्मादिमे सर्वे ॥ २९४ ॥ अर्थ-सूक्ष्मकृष्टि करनेके कालके प्रथमसमयमें अन्तसमयमेंकी हुई कृष्टियोंका असंख्यातवां एकभाग अपने खरूपकर उदय नहीं होता । अन्य कृष्टिरूप परिणमनकर उदय होती है । और शेष बहुभाग तथा द्वितीयादि द्विचरम समयोंमें की हुई सब कृष्टियें अपने खरूपकर ही उदय होती हैं ॥ २९४ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। विदियादिसु समयेसु हि छंडदि पल्लाअसंखभागं तु । आकुंददि हु अपुवा हेट्ठा तु असंखभागं तु ॥ २९५ ॥ द्वितीयादिषु समयेषु हि त्यजति पल्यासंख्यभागं तु । आक्रामति हि अपूर्वा अधस्तनास्तु असंख्यभागं तु ॥ २९५ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायके द्वितीय आदिसमयोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़ता है अर्थात् उदयको प्राप्त नहीं करता । और उस प्रथमसमयमें जो नीचेकी अनुदय कृष्टि कहीं थीं उनमें अन्तकृष्टिसे लेकर यहां जितना प्रमाण कहा है उतनी कृष्टियां उदयरूप होती हैं ॥ २९५॥ किटिं सुहुमादीदो चरिमोत्ति असंखगुणिदसेढीए । उवसमदि हु तचरिमे अवरहिदिबंधणं छण्हं ॥ २९६ ॥ कृष्टिं सूक्ष्मादितः चरम इति असंख्यगुणितश्रेण्याः। उपशमयति हि तच्चरमे अवरस्थितिबंधनं षण्णाम् ॥ २९६ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायके प्रथम समयसे लेकर अन्तसमयतक असंख्यातगुणा क्रमलिये द्रव्य उपशमाता है । और सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें आयुमोहके विना छहकाँका जघन्य स्थितिबन्ध होता है ॥ २९६ ॥ अंतोमुहुत्तमत्तं घादितियाणं जहण्णठिदिबंधो। णामदुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता ॥ २९७ ॥ अंतर्मुहूर्तमानं घातित्रयाणां जघन्यस्थितिबंधः । नामद्विकं वेदनीयं षोडश चतुविंशश्च मुहूर्ताः ॥ २९७ ॥ अर्थ-उनमेंसे तीन घातियाओंका अन्तर्मुहूर्तमात्र, नाम गोत्रका सोलह मुहूर्त, सातावेदनीयका चौवीसमुहूर्त जघन्य स्थितिबंध होता है ॥ २९७ ॥ पुरिसादीणुच्छिटुं समऊणावलिगदं तु पचिहिदि । सोदयपढमहिदिणा कोहादीकिट्टियंताणं ॥ २९८ ॥ पुरुषादीनामुच्छिष्टं समयोनावलिगतं तु प्रत्याहंति । सोदयप्रथमस्थितिना क्रोधादिकृष्ट्यंतानाम् ॥ २९८ ॥ अर्थ-पुरुषवेदादिकोंका एकसमयकम आवलिमात्र निषेकोंका द्रव्य उच्छिष्टावलिरूप रहता है वह क्रोधादि सूक्ष्मकृष्टिपर्यंतोंके उदयरूप निषेकसे लेकर प्रथमस्थितिके निषेकोंके साथ उसरूप परिणमनकर उदय होता है ॥ २९८ ॥ पुरिसादो लोहगयं णवकं समऊण दोणि आवलियं । वसमदि हु कोहादीकिट्टीअंतेसु ठाणेसु ॥ २९९ ॥ . . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पुरुषात् लोभगतं नवकं समयोने द्वे आवलिके । उपशाम्यति हि क्रोधादिकृष्ट्यंतेषु स्थानेषु ॥ २९९ ॥ अर्थ-पुरुषवेद आदि लोभ पर्यंततकका एकसमय कम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्धोंका द्रव्य है वह क्रोधादिकृष्टितकके प्रथम स्थितिके कालोंमें समयसमय असंख्यातगुणा क्रमलिये उपशम होता है ॥ २९९ ॥ इसप्रकार सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें सब कृष्टि द्रव्यको उपशमाके वादके समयमें उपशांतकषाय होता है । उपसंतपढमसमये उवसंतं सयलमोहणीयं तु । मोहस्सुदयाभावा सवत्थ समाणपरिणामो ॥ ३०॥ उपशांतप्रथमसमये उपशांतं सकलमोहनीयं तु । मोहस्योदयाभावात् सर्वत्र समानपरिणामः ॥ ३०० ॥ अर्थ-उपशांतकषायके पहले समयमें सकलचारित्रमोहनीयकर्म बंधादिक अवस्थाओं के न होनेसे सब तरह उपशमरूप होगया। और कषायोंके उदयका अभाव होनेसे अपने गुणस्थानके कालमें समानरूप विशुद्धपरिणाम होते हैं । हीनाधिकता नहीं होती ॥ ३०० ॥ ऐसा यथाख्यात चारित्र होता है। अंतोमुहुत्तमेत्तं उवसंतकसायवीयरायद्धा । गुणसेढीदीहत्तं तस्सद्धा संखभागो दु ॥ ३०१ ॥ अंतर्मुहूर्तमानं उपशांतकषायवीतरागाद्धा । गुणश्रेणीदीर्घत्वं तस्याद्धा संख्यभागस्तु ॥ ३०१ ॥ अर्थ-उपशांतकषाय वीतराग ग्यारवें गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है। उससे परे नियमकर द्रव्यकर्मके उदयके निमित्तसे संक्लेशरूप भावकर्म प्रगट होजाता है । और इस कालके संख्यातवें भागमात्र यहां उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है ॥ ३०१ ॥ उदयादिअवट्ठिदगा गुणसेढी दवमवि अवडिदगं । पढमगुणसेढिसीसे उदये जेहें पदेसुदयं ॥३०२॥ उदयाद्यवस्थितका गुणश्रेणी द्रव्यमपि अवस्थितकम् । प्रथमगुणश्रेणिशीर्षे उदये ज्येष्ठं प्रदेशोदयम् ॥ ३०२ ॥ अर्थ-उपशांतकषायमें उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है और यहां परिणाम अवस्थित है उसके निमित्तसे अपकर्षणरूप द्रव्यका प्रमाण भी अवस्थित है । तथा प्रथमसयममें की गई गुणश्रेणीका अन्तनिषेक जिससमय उदय आवे उस समय उत्कृष्ट परमाणु. ओंका उदय जानना ॥ ३०२ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। णामधुवोदयबारस सुभगति गोदेक विग्यपणगं च । केवल णिदाजुयलं चेदे परिणामपचया होंति ॥ ३०३ ॥ नामध्रुवोदयद्वादश सुभगत्रि गोत्रैकं विघ्नपंचकं च । केवलं निद्रायुगलं चैते परिणामप्रत्यया भवंति ॥ ३०३ ॥ अर्थ-उपशांतकषायमें जो उनसठ उदयप्रकृतियां पाई जाती हैं उनमेंसे तैजसशरीर आदि नामकर्मकी ध्रुवोदयी बारह प्रकृतियां, सुभग आदेय यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र, पांच अन्तराय, केवल ज्ञानावरण दर्शनावरण और निद्रा प्रचला-ये पच्चीस प्रकृतियां परिणाम प्रत्यय हैं अर्थात् वर्तमान परिणामके निमित्तसे इनका अनुभाग उत्कर्षण ( वढना ) अपकर्षण ( घटना ) आदिरूप होके उदय होता है ॥ ३०३ ॥ तेसिं रसवेदमवठाणं भवपच्चया हु सेसाओ। चोत्तीसा उवसंते तेसि तिहाण रसवेदं ॥३०४ ॥ तेषां रसवेदमवस्थानं भवप्रत्यया हि शेषाः । चतुस्त्रिंशत् उपशांते तेषां त्रिस्थानं रसवेदं ॥ ३०४ ॥ अर्थ-उन पच्चीस प्रकृतियोंके अनुभागका उदय उपशांत कषायके प्रथमसमयसे अंतसमयतक अवस्थित ( समानरूप) है । क्योंकि वहां परिणाम समान हैं । और शेष चौंतीस प्रकृतियां भवप्रत्यय हैं । आत्माके परिणामोंकी अपेक्षा रहित पर्यायके ही आश्रयसे इनके अनुभागमें हानि वृद्धि पायी जाती है इसलिये इनके अनुभागका उदय तीन अवस्था लिये है ॥ ३०४ ॥ इस तरह उपशांत कषाय गुणस्थानके अन्तसमयतक इक्कीस चारित्र. मोहकी प्रकृतियोंका उपशमन विधान समाप्त हुआ। आगे उपशांतकषायसे पड़नेका विधान कहते हैं उवसंते पडिवडिदे भवक्खये देवपढमसमयम्हि । उग्घाडिदाणि सबवि करणाणि हवंति णियमण ॥ ३०५॥ उपशांते प्रतिपतिते भवक्षये देवप्रथमसमये । उद्घाटितानि सर्वाण्यपि करणानि भवंति नियमेन ॥ ३०५ ॥ अर्थ-उपशांतकषायके कालमें प्रथमादि अन्तसमयतक समयों में जिस किसीमें आयुके नाशसे मरकर देवपर्यायके असंयतगुणस्थानमें पड़े वहां असंयतके प्रथमसमयमें बंध उदी. रणा वगैरह सब करणोंको प्रगटकर प्रवर्तता है । क्योंकि जो उपशांत कषायमें उपशमे थे वे सब असंयतमें उपशम रहित हुए हैं ॥ ३०५ ॥ सोदीरणाण दवं देदि हु उदयावलिम्हि इयरं तु । उदयावलिबाहिरगे उंछाये देदि सेढीये ॥ ३०६ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । सोदीरणानां द्रव्यं ददाति हि उदयावलौ इतरत्तु । उदयावलिबाह्यके अन्तरे ददाति श्रेण्याम् ॥ ३०६ ॥ अर्थ-वह देव उदयरूप प्रकृतियों के द्रव्यको उदयावलिमें देता है। और उदय रहित नपुंसकवेदादि मोहकी प्रकृतियोंके द्रव्यको उदयावलीसे बाह्य अन्तरायाम वा ऊपरकी स्थितिमें चय घटते क्रमसे देता है ॥ ३०६ ॥ अद्धाखए पडतो अधापवत्तोत्ति पडदि हु कमेण । सुज्झतो आरोहदि पडदि सो संकिलिस्संतो ॥ ३०७॥ अद्धाक्षये पतन अधःप्रवृत्त इति पतति हि क्रमेण । शुद्ध्यन आरोहति पतति स संक्लिश्यन् ॥ ३०७ ॥ अर्थ-उपशांतकषायका अन्तर्मुहूर्तकाल वीतनेपर क्रमसे पड़कर अधःप्रवृत्तकरणरूप अप्रमत्त होता है । उसके बाद शुद्धता सहित होनेसे ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ जाता है और वही जीव संक्लेश सहित होनेसे नीचेके गुणस्थानोंमें पड़ जाता है । यहां उपशमकालके क्षयके निमित्तसे पड़ना जानना ॥ ३०७ ॥ सुहुममपविठ्ठसमयेणदुवसामण तिलोहगुणसेढी। सुहुमद्धादो अहिया अवढिदा मोहगुणसेढी ॥ ३०८ ॥ सूक्ष्ममप्रविष्टसमयेनाध्रुवशमं त्रिलोभगुणश्रेणी। सूक्ष्माद्धातो अधिका अवस्थिता मोहगुणश्रेणी ॥ ३०८ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायमें प्रवेश करनेके वाद प्रथमसमयमें जिनका उपशमकरण नष्ट होगया है ऐसे अप्रत्याख्यानादि तीन लोभोंकी गुणश्रेणीका आरंभ होता है । उस गुणश्रेणी आयामका प्रमाण चढनेवाले सूक्ष्मसांपरायके कालसे एक आवलिमात्र अधिक है । इस अवसरमें मोहकी गुणश्रेणीका आयाम अवस्थितरूप जानना ॥ ३०८ ॥ उदयाणं उदयादो सेसाणं उदयबाहिरे देदि । छण्हें बाहिरसेसे पुवतिगादहियणिक्खेओ ॥ ३०९ ॥ उदयानामुदयतः शेषाणां उदयबाह्ये ददादि । षण्णां बाह्यशेषे पूर्वत्रिकादधिकनिक्षेपः ॥ ३०९ ॥ अर्थ---उदयरूप द्रव्यको अपकर्षणकर उदयरूप गुणश्रेणी आयाममें निक्षेपण करे और उदय रहित अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान लोभके द्रव्यको अपकर्षणकर उदयावलीसे बाह्य निक्षेपण करे । और आयु मोह के विना छह कर्मों के द्रव्यको अपकर्षणकर उदयावलीमें तथा बहुभाग गुणश्रेणी आयाममें देवै । वह गुणश्रेणी आयाम उतरनेवाले सूक्ष्मसांपरायादि तीनोंका मिलाये हुए कालसे कुछ अधिक प्रमाण लिये हुए गलितावशेषरूप है ॥ ३०९॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ओदरसुहुमादीए बंधो अंतो मुहुत्तबत्तीसं।। अडदालं च मुहुत्ता तिघादिणामदुगवेयणीयाणं ॥ ३१०॥ अवतरसूक्ष्मादिके बंधो अन्तर्मुहूर्त द्वात्रिंशत् । अष्टचत्वारिंशत् च मुहूर्ताः त्रिघातिनामद्विकवेदनीयानाम् ॥ ३१० ॥ अर्थ-उतरे हुए सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें तीन घातियाओंका अन्तर्मुहूर्त, नाम गोत्रका बत्तीसमुहूर्त और वेदनीयका अड़तालीस मुहूर्तमात्र स्थितिबन्ध है ॥३१०॥ आरोहकसे अवरोहक ( उतरनेवाला) का दूना स्थितिबन्ध होता है । गुणसेढीसत्थेदररसबंधो उवसमादु विवरीयं । पढमुदओ किट्टीणमसंखभागा विसेसहियकमा ॥ ३११ ॥ गुणश्रेणी शस्तेतररसबन्ध उपशमात् विपरीतम् । प्रथमोदयः कृष्टीनामसंख्यभागा विशेषाधिकक्रमाः ॥ ३११ ॥ अर्थ-गुणश्रेणी प्रशस्त अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागबंधका चढ़नेसे उतरनेमें विपरीतपना है । घटता बढता क्रमलिये है । और कृष्टियोंका प्रथम समयमें पल्यके असंख्यातवें भाग है फिस उसके वाद द्वितीयादि समयोंमें विशेष अधिकका क्रम जानना ॥११॥ इस तरह सूक्ष्मसांपरायका काल वितीत हुआ। बादरपढमे किट्टी मोहस्स य आणुपुविसंकमणं । णहूं ण च उच्छिटे फड्डयलोहं तु वेदयदि ॥ ३१२ ॥ ___ बादरप्रथमे कृष्टिः मोहस्य च आनुपूर्विसंक्रमणम् । नष्टं न च उच्छिष्टं स्पर्धकलोभं तु वेदयति ॥ ३१२ ॥ अर्थ-अवरोहक अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टियां उच्छिष्टावलिमात्र निषेकके विना सभी वरूपसे नष्ट हुई, मोहका आनुपूर्वी संक्रमण भी नष्ट होगया । अब उदयको प्राप्त हुए स्पर्धकरूप बादरलोभको भोगता है ॥ ३१२ ॥ ओदरबादरपढमे लोहस्संतोमुहुत्तियो बंधो। दुदिणंतो घादितिये चउवस्संतो अघादितिये ॥३१३॥ अवतरबादरप्रथमे लोभस्यांतर्मुहूर्तको बंधः । द्विदिनांतो घातित्रिके चतुःवर्षान्तो अघातित्रये ॥ ३१३ ॥ अर्थ-उतरनेवाले बादरसांपराय अनिवृत्तिकरणके पहले समयमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त है, तीन घातियाओंका कुछकम दो दिन है, नामगोत्रका कुछकम चार दिन और तीन अघातियाओंका संख्यातहजार वर्ष है ॥ ३१३ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ओदरमायापढमे मायातिण्हं च लोभतिण्हं च । ओदरमायावेदगकालादहियो दु गुणसेढी ॥३१४ ॥ अवतरमायाप्रथमे मायात्रयाणां च लोभत्रयाणां च । . अवतरमायावेदककालादधिकस्तु गुणश्रेणी ॥ ३१४ ॥ अर्थ-उतरनेवाला अनिवृत्तिकरण मायावेदक कालके प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यानादि तीन मायाके द्रव्यको और तीनलोभके द्रव्यको अपकर्षणकर उदयावलिसे बाह्य साधिक मायावेदककालमात्र अवस्थित आयाममें गुणश्रेणी करता है । यहां संक्रमण होता है॥ ३१४ ॥ ओदरमायापढमे मायालोमे दुमासठिदिबंधो। छण्हं पुण वस्साणं संखेजसहस्सवस्साणि ॥३१५॥ अवतरमायाप्रथमे मायालोमे द्विमासस्थितिबन्धः । षण्णां पुनः वर्षाणां संख्येयसहस्रवर्षाणि ॥ ३१५॥ अर्थ-उतरनेवाले माया वेदक कालके प्रथमसमयमें संज्वलन मायालोभका दो महीने तीन घातियाओंका संख्यातहजार वर्ष, तीन अघातियाओंका उससे भी संख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर मायावेदककाल समाप्त होजाता है ॥ ३१५॥ ओदरगमाणपंढमे तेत्तियमाणादियाण पयडीणं । ओदरगमाणवेदगकालादहिओ दु गुणसेढी ॥ ३१६ ॥ अवतरकमानप्रथमे तावन्मानादिकानां प्रकृतीनाम् । अवतरकमानवेदककालादधिकस्तु गुणश्रेणी ॥ ३१६ ॥ अर्थ-उसके वाद मानवेदककालके प्रथमसमयमें संज्वलनमानके द्रव्यको अपकर्षणकर उदयावलिके प्रथमसमयसे लेकर और दो मान तीन माया तीनलोभोंके द्रव्यको अपकर्षणकर उदयावलिसे बाह्य प्रथमसमयसे लेकर आवलि अधिक माया वेदक कालप्रमाण अवस्थित आयाममें गुणश्रेणी करता है ॥ ३१६ ॥ ओदरगमाणपढमे चउमासा माणपहुदिठिदिवंधो। छण्हं पुण वस्साणं संखेजसहस्समेत्ताणि ॥ ३१७ ॥ अवतरकमानप्रथमे चतुर्मासा मानप्रभृतिस्थितिबंधः। षण्णां पुनः वर्षाणां संख्येयसहस्रमात्राणि ॥ ३१७ ॥ अर्थ-उसी उतरनेवाले मानवेदक कालके प्रथमसमयमें संज्वलनमानमायालोभोंका चार महीने, तीन घातियाओंका संख्यातहजार वर्ष, तीन अघातियाओंका उससे संख्यातगुणा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। स्थितिबन्ध होता है । इसतरह संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर मानवेदककाल समाप्त हो. जाता है ।। ३१७ ॥ ओदरगकोहपढमे छक्कम्मसमाणया हु गुणसेढी। वादरकसायाणं पुण एतो गलिदावसेसं तु ॥ ३१८ ॥ अवतरकक्रोधप्रथमे षट्कर्मसमानिका हि गुणश्रेणी। बादरकषायाणां पुनः इतः गलितावशेषं तु ॥ ३१८ ॥ अर्थ-उसके बाद उतरनेवाला अनिवृत्तिकरण है वह संज्वलनक्रोधके उदयके प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन क्रोध मान माया लोभरूप बारह कषायोंकी ज्ञानावरणादि छहकर्मोंके समान गलितावशेष गुणश्रेणी करता है ॥ ३१८ ॥ ओदरगकोहपढमे संजलणाणं तु अट्टमासठिदी। छण्हं पुण वस्साणं संखेजसहस्सवस्साणि ॥ ३१९ ॥ अवतरकक्रोधप्रथमे संज्वलनानां तु अष्टमासस्थितिः । षण्णां पुनः वर्षाणां संख्येयसहस्रवर्षाणि ॥ ३१९ ॥ अर्थ-उतरनेवालेके क्रोधउदयके प्रथमसमयमें संज्वलन चार कषायोंका आठ महीने, तीनघातियाओंका संख्यातहजार वर्ष, उससे संख्यातगुणा नामगोत्रका, उससे डौढा वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ ३१९ ॥ ओदरगपुरिसपढमे सत्तकसाया पण?उवसमणा । उणवीसकसायाणं छक्कम्माणं समाणगुणसेढी ॥ ३२० ॥ अवतरकपुरुषप्रथमे सप्तकषायाः प्रणष्टोपशमकाः। एकोनविंशकषायाणां षट्कर्मणां समानगुणश्रेणी ॥ ३२०॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधवेदककालमें पुरुषवेदके उदय होनेके प्रथमसमयमें पुरुषवेद, छह हास्यादि-ये सात कषाय हैं वे नष्ट उपशम करणवाले होजाते हैं तव ही बारहकषाय और सातनोकषाय-ऐसे उन्नीस कषायोंकी ज्ञानावरणादि छहकर्मों के समान आयाममें गुणश्रेणी करता है ॥ ३२० ॥ पुंसंजलणिदराणं वस्सा बत्तीसयं तु चउसही। संखेजसहस्साणि य तकाले होदि ठिदिबंधो ॥ ३२१ ॥ पुंसंज्वलनेतरेषां वर्षाणि द्वात्रिंशत् तु चतुःषष्ठिः। संख्येयसहस्राणि च तत्काले भवति स्थितिबंधः॥ ३२१ ॥ अर्थ-उतरनेवालेके पुरुषवेद उदयके प्रथमसमयमें पुरुषवेदका बत्तीसवर्ष, संज्वलनचा ल. सा. १२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। रका चौंसठवर्ष, तीनघातियाओंका संख्यात हजार वर्ष, उससे संख्यातगुणा नामगोत्रका और उससे ड्योढा वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ ३२१ ॥ पुरिसे दु अणुवसंते इत्थी उवसंतगोत्ति अद्धाए । संखाभागासु गदेससंखवस्सं अघादिठिदिबंधो ॥ ३२२ ॥ पुरुषे तु अनुपशांते स्त्री उपशांतका इति अद्धायाः । संख्यभागेषु गतेष्वसंख्यवर्ष अघातिस्थितिबंधः ॥ ३२२ ॥ अर्थ-पुरुषवेदके उदयकालमें स्त्रीवेदका जबतक उपशम काल रहे तब तकके कालके संख्यात बहुभाग वीतनेपर एकभाग शेष रहे अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यात हजार वर्षमात्र होता है ॥ ३२२॥ णवरि य णामदुगाणं वीसियपडिभागदो हवे बंधो। तीसियपडिभागेण य बंधो पुण वेयणीयस्स ॥ ३२३ ॥ नवरि च नामद्विकयोः वीसियप्रतिभागतो भवेत् बंधः । तीसियप्रतिभागेन च बंधः पुनः वेदनीयस्य ॥ ३२३ ॥ अर्थ-वहां इतना विशेष है कि नामगोत्रका पल्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिबन्ध है इतना वीसियोंका है । इसहिसावसे तीसिय वेदनीयका डेढगुणा पल्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिबन्ध है । और तीन घातियाओंका संख्यात हजार वर्षमात्र, उससे संख्यात. गुणा कम संख्यातहजार वर्षमात्र मोहनीयका स्थितिबन्ध है ॥ ३२३ ॥ थी अणुवसमे पढमे वीसकसायाण होदि गुणसेढी। संढुवसमोत्ति मज्झे संखाभागेसु तीदेसु ॥ ३२४ ॥ स्त्री अनुशमे प्रथमे विंशकषायाणां भवति गुणश्रेणी । षंढोपशम इति मध्ये संख्यभागेष्वतीतेषु ॥ ३२४ ॥ अर्थ-उससे आगे अन्तर्मुहूर्तकाल वीतनेपर स्त्रीवेदका उपशम नष्ट होजाता है वहांसे लेकर प्रथमसमयमें स्त्रीवेद और पहले कहे हुए उन्नीस कषाय-इसतरह वीस कषायोंकी गुणश्रेणी होती है । उसीकालमें जबतक नपुंसकवेदका उपशम है तवतकके कालके संख्यात बहुभाग वीतनेपर ॥ ३२४ ॥ घादितियाणं णियमा असंखवस्सं तु होदि ठिदिबंधो। तकाले दुट्टाणं रसबंधो ताण देसघादीणं ॥ ३२५ ॥ घातित्रयाणां नियमात् असंख्यवर्षस्तु भवति स्थितिबंधः । तत्काले द्विस्थानं रसबंधः तेषां देशघातिनाम् ॥ ३२५ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लब्धिसारः। . ९१ अर्थ-तीन घातियाओंका पत्यके असंख्यातवें भागमात्र, इससे असंख्यातगुणा नामगोत्रका, उससे ड्योढा वेदनीयका और मोहका संख्यात हजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है। उसी अवसरमें चार ज्ञानावरण तीन दर्शनावरण और पांच अन्तराय-इन देशघातियाओंका लता और दारु समान दो स्थानगत अनुभागबंध होता है ॥ ३२५ ॥ संढणुवसमे पढमे मोहिगिवीसाण होदि गुणसेढी। अंतरकदोति मज्झे संखाभागासु तीदासु ॥ ३२६ ॥ षंढानुपशमे प्रथमे मोहैकविंशानां भवति गुणश्रेणी। अंतरकृत इति मध्ये संख्यभागेष्वतीतेषु ॥ ३२६ ॥ अर्थ-नपुंसकवेदका उपशम नष्ट होनेपर उसके प्रथमसमयमें नपुंसकवेद और पहली वीस-इसतरह मोहकी इक्कीस प्रकृतियोंकी गुणश्रेणी होती है। और अन्तरकरण करे उसके बीचमें अन्तर्मुहूर्तकाल है उसके संख्यात बहुभाग वीतनेपर ॥ ३२६ ॥ मोहस्स असंखेजा वस्सपमाणा हवेज ठिदिबंधो। ताहे तस्स य जादं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ॥ ३२७ ॥ मोहस्य असंख्येयानि वर्षप्रमाणानि भवेत् स्थितिबंधः । तस्मिन् तस्य च जातो बंध उदयश्च द्विस्थानम् ॥ ३२७ ॥ अर्थ-मोहनीयका असंख्यातवर्ष, तीन घातियाओंका उससे असंख्यातगुणा, नामगोत्रका उससे असंख्यातगुणा और वेदनीयका उससे अधिक स्थितिबन्ध होता है । उसी अवसरमें मोहनीयके लता दारुरूप दो स्थानगत बन्ध और उदय होते हैं ॥ ३२७ ॥ . . लोहस्स असंकमणं छावलितीदेसु दीरणत्तं च । णियमेण पडताणं मोहस्सणुपुविसंकमणं ॥ ३२८ ॥ लोभस्य असंक्रमणं षडावल्यतीतेषूदीरणत्वं च । 'नियमेन पततां मोहस्यानुपूर्विसंक्रमणम् ॥ ३२८ ॥ अर्थ-उतरनेवालेके सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयसे लेकर जो कर्मबन्धे हुए थे उनकी छह आवलि वीत जानेपर उदीरणा होनेका नियम था उसको छोड़ अब बन्धावली बीत जानेपर ही उदीरणा की जाती है । और उतरनेवाले के मोहकी सब प्रकृतियोंका आनुपूवीसंक्रमका नियम था वह नष्ट हुआ ॥ ३२८ ॥ विवरीयं पडिहण्णदि विरयादीणं च देसघादित्तं । तह य असंखेजाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥ ३२९ ॥ विपरीतं प्रतिहन्यते वीर्यादीनां च देशघातित्वम् । तथा च असंख्येयानामुदीरणा समयप्रबद्धानाम् ॥ ३२९॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-इससरह वीर्यातराय आदिका देशघातीबन्ध होता था वह उलटा सर्वघातीरूप अनुमागध होनेलगा। उसके बाद हजारों स्थितिबन्ध होनेपर असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होनेका अभाव हुआ ॥ ३२९॥ लोयाणमसंखेजं समयपबद्धस्स होदि पडिभागो। तत्तियमेत्तद्दवस्सुदीरणा वट्टदे तत्तो ॥ ३३०॥ लोकानामसंख्येयं समयप्रबद्धस्य भवति प्रतिभागः । तावन्मात्रद्रव्यस्योदीरणा वर्तते ततः ॥ ३३० ॥ अर्थ-अब असंख्यातलोकका भागहार समयप्रबद्धको हुआ इसलिये असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणाका नाश होकर अब एक समयप्रबद्ध के असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यकी उदीरणा होनेलगी ॥ ३३० ॥ तकाले मोहणियं तीसीयं वीसियं च वेयणियं । मोहं वीसिय तीसिय वेयणिय कम हवे तत्तो ॥ ३३१॥ तत्काले मोहनीयं तीसियं वीसियं च वेदनीयम् ।। मोहं वीसियं तीसियं वेदनीयं क्रमं भवेत् ततः ॥ ३३१ ॥ अर्थ-उस असंख्यात लोकमात्र भागहार संभव होनेके समयमें मोहका सबसे थोड़ा पत्यका असंख्यातवां भागमात्र, उससे असंख्यातगुणा तीन घातियाओंका, उससे असंख्यातगुणा नामगोत्रका, उससे साधिक वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है । उससे परे संख्यातहजार स्थितिबन्ध जानेपर मोहका थोड़ा पत्यके असंख्यातवें भागमात्र, उससे असंख्यातगुणा नामगोत्रका, उससे विशेष अधिक तीन घ.तियाओंका, उससे विशेष अधिक वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ ३३१ ॥ मोहं वीसिय तीसिय तो वीसिय मोहतीसयाण कर्म । वीसिय तीसिय मोहं अप्पाबहुगं तु अविरुद्धं ॥ ३३२ ॥ मोहं वीसियं तीसियं ततो वीसियं मोहतीसियानां क्रमं । वीसियं तीसियं मोहं अल्पबहुकं तु अविरुद्धम् ॥ ३३२ ॥ अर्थ-उसके वाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध जानेपर सबसे थोड़ा मोहका उससे असंख्यातगुणा नामगोत्रका उससे विशेष अधिक तीन घातिया और वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है । उसके बाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध जानेपर सबसे थोड़ा नामगोत्रका पल्यके असंख्यातवें भागमात्र उससे विशेष अधिक मोहका उससे विशेष अधिक तीन घातिया और वेदनीयका सितिबन्ध होता है। उसके वाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। थोड़ा नामगोत्रका, उससे विशेष अधिक तीन घातिया और वेदनीयका उससे तीसरा भाग अधिक मोहका स्थितिबन्ध होता है ॥ ३३२ ॥ कमकरणविणहादो उवरिठविदा विसेसअहियाओ। सवासिं तण्णद्धे हेट्ठा सबासु अहियकमं ॥ ३३३॥ क्रमकरणविनाशात् उपरि स्थिता विशेषाधिकाः । सर्वासां तदद्धायां अधस्तना सर्वासु अधिकक्रमं ॥ ३३३ ॥ अर्थ-क्रमकरण विनाशकालसे ऊपर अर्थात् उस कालके अन्तमें पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होनेके वाद उत्तरकालमें सब कर्मोंके स्थितिबन्धोंमें पूर्वस्थितिबन्धसे उत्तर स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। और उस क्रमकरणकालकी आदिमें असंख्यातवर्षमात्र स्थितिबन्धसे पहले संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्धपर्यंत आयु विना सात कर्मोंका स्थितिबन्ध होता है वह भी पूर्वस्थितिबन्धसे आगेका स्थितिबन्ध अधिकक्रम लिये होता है ॥ ३३३ ॥ जत्तोपाये होदि हु असंखवस्सप्पमाणठिदिबंधो। तत्तोपाये अण्णं ठिदिबंधमसंखगुणियकमं ॥ ३३४ ॥ यदुत्पादे भवति हि असंख्यवर्षप्रमाणस्थितिबंधः । तदुपायेन अन्यं स्थितिबंधमसंख्यगुणितक्रमम् ॥ ३३४ ॥ अर्थ-जहांसे लेकर नाम गोत्रादिकोंका असंख्यातवर्षमात्र स्थितिबन्धका प्रारंभ हुआ वहांसे लेकर जो पहला पहला स्थितिबन्ध है उससे पिछला पिछला अन्य स्थितिबन्ध हुआ वह असंख्यातगुणा है ऐसा क्रम जानना ॥ ३३४ ॥ एवं पल्लासंखं संखं भागं च होइ बंधेण । एतोपाये अण्णं ठिदिबंधो संखगुणियकमं ॥ ३३५ ॥ एवं पल्यासंख्यं संख्यं भागं च भवति बंधेन । एतदुपायेन अन्यः स्थितिबंधः संख्यगुणितक्रमः ॥ ३३५ ॥ अर्थ-इसतरह यथासम्भव हीन अधिक प्रमाण लिये पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध वढता क्रम लिये है वहां सबसे पीछे एक कालमें सातोंकोंका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागमात्र ही कहा है । उसके वाद अन्यस्थितिबन्ध होता है वह सातोंकोका संख्यातगुणा ही है ॥ ३३५ ॥ मोहस्स य ठिदिबंधो पल्ले जादे तदा दु परिवड्डी। पल्लस्स संखभागं इगिबिगलासण्णिबंधसमं ॥ ३३६ ॥ .. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । मोहस्य च स्थितिबंधः पल्ये जाते तदा तु परिवृद्धिः ।। पल्यस्य संख्यभागं एकविकलासंज्ञिबंधसमम् ॥ ३३६ ॥ अर्थ-जब मोहका स्थितिबन्ध पल्यमात्र होजावे तव आगेके स्थितिबन्धमें वृद्धि होती है । एक एक स्थितिबन्धोत्सरणमें पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थिति बढती है । इसतरह प्रत्येक संख्यात हजार स्थितिबन्ध होके क्रमसे एकेंद्री दो इंद्री तेइंद्री चौइंद्री और असंज्ञी पञ्चेंद्रीके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है ॥ ३३६ ॥ मोहस्स पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च । दुति चऊ सत्तभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥ ३३७ ।। मोहस्य पल्यबंधे त्रिंशद्विके तत्रिपादमधु च । द्वि त्रि चतुः सप्त भागा वीसत्रिके एकविकलस्थितिः ॥ ३३७ ॥ अर्थ-जब मोहका स्थितिबन्ध पल्यमात्र हुआ तब तीसियाओंका पल्यका तीन चौथाभागमात्र, वीसियाओंका आधापल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है। जहां एकेंद्री समान बन्ध हुआ वहां मोहका सागरके चार सातभागमात्र, तीसियाओंका सागरके तीन सातवांभागमात्र वीसियाओंका सागरके दो सातवां भागमात्र स्थितिबन्ध जानना । और दो इंद्री तेइंद्री चौइंद्री असंज्ञी समान जहां स्थितिबन्ध हुआ वहां क्रमसे एकेंद्री समान बन्धसे पच्चीसगुणा पचासगुणा सौगुणा हजारगुणा जानना ॥ ३३७ ॥ तत्तो अणियहिस्स य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीणं । लक्खपुधत्तं बंधो से काले पुवकरणो हु॥ ३३८ ॥ तत अनिवृत्तेश्च अंतं प्राप्तो हि तत्र उदधीनाम् ।। लक्ष्यपृथक्त्वं बंधः स्वे काले अपूर्वकरणो हि ॥ ३३८ ॥ अर्थ-उसके वाद असंज्ञीसमान बन्धसे परे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होनेपर उतरनेवाला अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयको प्राप्त होता है । वहां मोह वीसिय तीसियोंका क्रमसे पृथक्त्वलक्षसागरोंका चार सातवां भाग, तीन सातवां भाग और दो सातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होता है। उसके वादके समयमें उतरनेवाला अपूर्वकरण होता है ॥३३८॥ उवसामणा णिधत्ती णिकाचणुग्घाडिदाणि तत्थेव। चदुतीसदुगाणं च य बंधो अद्धापवत्तो य ॥ ३३९ ॥ उपशामना निधत्तिः निकाचना उद्घाटितानि तत्रैव । चतुर्विंशद्विकानां च च बंधो अधाप्रवृत्तं च ॥ ३३९ ॥ अर्थ-उसके प्रथमसमयसे लेकर अप्रशस्त उपशमकरण निधत्तिकरण और निकाचनकरण-इनको प्रगट करता है । और अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेंसे पहले भागमें हास्या Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । ९५ दि चारका दूसरे भागमें तीर्थकरादि तीस प्रकृतियोंका छठे भागके अन्तसमयसे लेकर निद्रा प्रचलारूप दोका बंध होता है । उसके वाद के समयमें उतरकर अप्रमत्तगुणस्थान में अधःकरण परिणामको प्राप्त होता है ॥ ३३९ ॥ पढमो अधापवत्तो गुणसेढिमवद्विदं पुराणादो । संखगुणं तच्चंतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु ॥ ३४० ॥ प्रथमो अधाप्रवृत्तः गुणश्रेणिमवस्थितां पुराणात् । संख्यगुणं तच्च अंतर्मुहूर्तमात्रं करोति हि ॥ ३४० ॥ अर्थ — उसके प्रथमसमय में उतरनेवाला अपूर्वकरणके अन्तसमय में जितना द्रव्य अपकर्षण किया था उससे असंख्यातगुणा कम द्रव्यको अपकर्षणकर गुणश्रेणी करता है । जिसका सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें आरंभ हुआ था ऐसे पुराने गुणश्रेणी आयामसे संख्यातगुणा है तौभी इसका अवस्थित आयाम अन्तर्मुहूर्त जानना ॥ ३४० ॥ ओदरसुहुमादीदो अपुवचरिमोत्ति गलिदसे से व । गुणसेढी क्खेिवो साणे होदि तिट्ठाणं ॥ ३४१ ॥ अवतरसूक्ष्मादितो अपूर्वचरम इति गलितशेषो वा । गुणश्रेणी निक्षेपः स्वस्थाने भवति त्रिस्थानं ॥ ३४१ ॥ अर्थ - उतरनेवाले सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयसे लेकर अपूर्वकरणके अन्तसमयतक ज्ञानावरणादिका गुणश्रेणी आयाम गलितावशेष है अवस्थित नहीं है । क्योंकि तीन स्थानोंमें बढकर अवस्थित गुणश्रेणी आयाम होता है ॥ ३४१ ॥ साणे तावदियं संखगुणूणं तु उवरि चडमाणे । विरदावरदाहिमु संखेजगुणं तदो तिविहं ॥ ३४२ ॥ स्वस्थाने तावत्कं संख्यगुणोनं तु उपरि चटमाने । विरताविरताभिमुखे संख्येयगुणं ततः त्रिविधं ॥ ३४२ ॥ 1 अर्थ- - स्वस्थान संयत होनेमें वृद्धि हानि रहित अवस्थित गुणश्रेणी आयाम करता है। वही जीव विरताविरतरूप पांचवें गुणस्थानके सन्मुख होवे तो संक्लेशताकर पूर्वगुणश्रेणी आयामसे संख्यातगुणा वढता गुणश्रेणी आयाम करता है । और पलटकर उपशम वा क्षपकश्रेणी चढनेके सन्मुख होवे - तो विशुद्धपनेकर उस गुणश्रेणी आयामसे संख्यातगुणा घटता गुणश्रेणी आयाम करता है । इसप्रकार स्वस्थानसंयमीके गुणश्रेणीकी वृद्धि हानि अवस्थित - रूप तीन स्थान कहे हैं ॥ ३४२ ॥ करणे अधापवत्ते अधापवत्तो दु संकमो जादो ! विज्झादमबंधाणे णट्टो गुणसंकमो तत्थ ॥ ३४३ ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। : करणे अधःप्रवृत्ते अधःप्रवृत्तस्तु संक्रमो जातः । विध्यातमबंधने नष्टो गुणसंक्रमस्तत्र ॥ ३४३ ॥ अर्थ-उतरनेवाले अधःप्रवृत्तकरणमें जिन प्रकृतियोंका बंध पायाजाता है उनका तो अधःप्रवृत्त संक्रम होगया और जिनका बन्ध नहीं पायाजावे उनके विध्यात संक्रम होता है । गुणसंक्रमका नाश ही होजाता है ॥ ३४३ ॥ चडणोदरकालादो पुवादो पुवगोत्ति संखगुणं । कालं अधापवत्तं पालदि सो उवसमं सम्मं ॥ ३४४ ॥ चटनावतरकालतो अपूर्वात् अपूर्वक इति संख्यगुणं। कालं अधःप्रवृत्तं पालयति स उपशमं सम्यम् ॥ ३४४ ॥ अर्थ-द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसहित जीव चढते अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर उत. रते अपूर्वकरणके अन्तसमयतक जितना काल हुआ उससे संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्तमात्र द्वितीयोपशमसम्यक्त्वका काल है इसकालतक अधःप्रवृत्त करण सहित इस द्वितीयो. पशम सम्यक्त्वको पालता है ॥ ३४४ ॥ तस्सम्मत्तद्धाए असंजमं देससंजमं वापि । गच्छेजावलिछक्के सेसे सासणगुणं वापि ॥ ३४५ ॥ तत्सम्यक्त्वाद्धायां असंयमं देशसंयमं वापि । गत्वावलिषदे शेषे सासनगुणं वापि ॥ ३४५ ॥ .. अर्थ-उसी द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालमें अधःप्रवृत्तकरण कालको समाप्त कर अप्रत्याख्यानके उदयसे असंयमको प्राप्त होता है, अथवा प्रत्याख्यानके उदयसे देशसंयत गुणस्थानको प्राप्त होता है अथवा वहां असंयतकालके छह आवलि शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोधादिमें किसी एकके उदयसे सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है ॥३४५॥ जदि मरदि सासणो सो णिरयतिरक्खं णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥ ३४६ ॥ यदि म्रियते सासनः स निरयतिर्यञ्चं नरं न गच्छति । .. नियमात् देवं गच्छति यतिवृषभमुनींद्रवचनेन ॥ ३४६ ॥ अर्थ-उपशमश्रेणीसे उतरा वह सासादन जीव जो आयुनाश होनेसे मरे तो नारकतिर्यंच और मनुष्यगतिको नहीं प्राप्त होता लेकिन देवगतिमें नियमसे जाता है ऐसा कषाय प्राभृतनामा दूसरे महाधवलशास्त्रमें यतिवृषभनामा आचार्य ने कहा है ॥ ३४६ ॥ णरयतिरिक्खणराउगसत्तो सक्को ण मोहमुवसमिदं । तम्हा तिसुवि गदीसु ण तस्स उप्पजणं होदि ॥ ३४७ ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। . मरकतिर्यग्नरायुष्कसवः शक्यो न मोहमुपशमयितुम् । तस्मात् त्रिष्वपि गतिषु न तस्य उत्पादो भवति ॥ ३४७ ॥ अर्थ-नारक तिर्यच मनुष्य आयुके सत्त्व सहित जीव चारित्रमोहके उपशमानेको समर्थ नहीं है इसलिये उपशम श्रेणीसे उतरे सासादनके देवगतिके विना अन्य तीन गतियोंमें उपजना नहीं होता । पहले जिसके आयु बंधा हो उसी सासादनका मरण होता है अबद्धायुका नहीं होता ॥ ३४७ ॥ उवसमसेढीदो पुण ओदिण्णो सासणं ण पापुणदि । भूदवलिणाहणिम्मलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥ ३४८ ॥ उपशमश्रेणीतः पुनरवतीर्णः सासनं न प्राप्नोति । भूतबलिनाथनिर्मलसूत्रस्य स्फुटोपदेशेन ॥ ३४८ ॥ अर्थ-उपशमश्रेणीसे उतरा हुआ जीव सासादनको नहीं प्राप्त होता क्योंकि पूर्व अनन्तानुबन्धीका विसंयोजनकर उपशमश्रेणी चढा है इसलिये उसके अनन्तानुबन्धीका उदय नहीं संभव होता । इसप्रकार भूतवलि मुनिनाथके कहे हुए महाकर्मप्रकृति प्राभृत नामा पहले धवल शास्त्रमें पूर्वीपर विरोधरहित निर्मल प्रगट उपदेश है । उसीसे हमने भी निश्चय किया है ॥ ३४८॥ ___ आगे उपशमश्रेणी चढनेवाले बारहप्रकारके जीव हैं उनकी क्रिया विशेषता कहते हैं पुंकोधोदयचलियस्सेसाह परूवणा हु पुंमाणे । मायालोभे चलिदस्सत्थि विसेसं तु पत्तेयं ॥ ३४९ ॥ पुंक्रोधोदयचटितस्य शेषा अथ प्ररूपणा हि घुमाने । मायालोभे चटितस्यास्ति विशेषं तु प्रत्येकम् ॥ ३४९ ॥ अर्थ-पूर्व कहीं सर्व प्ररूपणा वे पुरुषवेद और क्रोधकषाय सहित उपशम श्रेणी चढनेवाले जीवकी कहीं हैं और पुरुषवेद संज्वलन मान व माया व लोभसहित उपशमश्रेणी चढनेवालोंके क्रियाविशेष है । वही आगे कहते हैं ॥ ३४९॥ दोण्हं तिण्ह चउण्हं कोहादीणं तु पढमठिदिमित्तं । माणस्स य मायाए वादरलोहस्स पढमठिदी ॥ ३५०॥ द्वयोः त्रयाणां चतुर्णा क्रोधादीनां तु प्रथमस्थितिमात्रम् । मानस्य च मायाया बादरलोभस्य प्रथमस्थितिः ॥ ३५० ॥ अर्थ-क्रोधके उदयसहित श्रेणी चढनेवालेके क्रमसे चारों कषायोंका उदय होता है, मानसहित चढनेवालेके क्रोधके विना तीनका ही उदय है, मायासहित चढनेवालेके माया ल. सा. १३ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । लोभ-इन दोनोंका उदय है, लोभसहित चढनेवालेके केवल लोभका ही उदय होता है इसलिये पूर्वोक्तप्रकार प्रथमस्थिति कही है । और चारोंमें किसी कषायके उदयसहित चढे सब जीवोंके सूक्ष्मलोभकी प्रथमस्थिति समान है उनके नपुंसक स्त्रीवेद सातनोकषायोंका उपशमनकाल समान है ॥ ३५०॥ जस्सुदयेणारूढो सेढिं तस्सेव ठविदि पढमठिदी। सेसाणावलिमत्तं मोत्तूण करेदि अंतरं णियमा ॥ ३५१ ॥ यस्योदयेनारूढो श्रेणिं तस्यैव स्थापयति प्रथमस्थितिः। शेषाणामावलिमात्रं मुक्त्वा करोति अंतरं नियमात् ॥ ३५१ ॥ अर्थ-जिस वेद या कषायके उदयकर जीव श्रेणी चढा हो उसकी अन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थिति स्थापन करता है और उदयरहित वेद या कषायोंकी आवलिमात्र स्थितिको छोड़ उसके ऊपरके निषेकोंका अन्तर करता है ॥ ३५१ ॥ जस्सुदएणारूढो सेढिं तकालपरिसमत्तीए । पढमहिदिं करेदि हु अणंतरुवरुदयमोहस्स ॥ ३५२ ॥ यस्योदयेनारूढः श्रेणिं तत्कालपरिसमाप्तौ। प्रथमस्थितिं करोति हि अनंतरोपर्युदयमोहस्य ॥ ३५२ ॥ अर्थ-जिस कषायके उदयसहितश्रेणी चढा है उस कषायकी प्रथमस्थिति समाप्त होनेपर उसके अनन्तरवर्ती कषायकी प्रथमस्थिति करता है। भावार्थ-क्रोधसहितश्रेणी चढे जीवके क्रोधकी प्रथमस्थितिका काल पूर्ण हुए बाद मानकी प्रथमस्थिति होती है इसीप्रकार आगे मायादिककी जानना । इसीतरह मान वगैर सहित चढे जीवमें जानना ॥ ३५२ ॥ माणोदएण चडिदो कोहं उवसमदि कोहअद्धाए । मायोदएण चडिदो कोहं माणं सगद्धाए ॥ ३५३ ॥ मानोदयेन चटितः क्रोधं उपशमयति क्रोधाद्धायाम् । मायोदयेन चटितः क्रोधं मानं स्वकाद्धायाम् ॥ ३५३ ॥ अर्थ-क्रोधके उदयकालमें ही मानके उदय सहित चढा जीव उदय रहित तीन क्रोधोंको उपशमाता है । उसीतरह मायाके उदय सहित चढा हुआ जीव उदय रहित तीन क्रोधोंको और तीन मानोंको अपने २ कालमें उपशमाता है ॥ ३५३ ॥ लोभोदएण चडिदो कोहं माणं च मायामुवसमदि । अप्पप्पण अद्धाणे ताणं पढमहिदी णस्थि ॥ ३५४ ॥ लोभोदयेन चटितः क्रोधं मानं च मायामुपशाम्यति । आत्मात्मनो अध्वाने तेषां प्रथमस्थितिर्नास्ति ॥ ३५४ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-लोभके उदय सहित चढा जीव अपने २ कालमें उदय रहित तीन क्रोध तीन मान तीन मायाओंको क्रमसे उपशमाता है उन क्रोधादिकोंकी प्रथमस्थितीका अभाव है, क्योंकि लोभसहित चढे हुएके क्रोधादिका उदय नहीं पाया जाता ॥ ३५४ ॥ माणोदयचडपडिदो कोहोदयमाणमेत्तमाणुदओ। माणतियाणं सेसे सेससमं कुणदि गुणसेढी ॥ ३५५ ॥ मानोदयचटपतितः क्रोधोदयमानमात्रमानोदयः ।। मानत्रयाणां शेषे शेषसमं करोति गुणश्रेणी ॥ ३५५॥ अर्थ-मानके उदयसहित श्रेणी चढ पडा जो जीव उसके क्रोध मानका उदयकाल मिलाया हुआ जितना हो उतना मानका उदयकाल है । और मान माया लोभसहित चढकर पड़ा जीव क्रमसे मान माया लोभके द्रव्यको अपकर्षणकर ज्ञानावरणादिकोंकी गुणश्रेणी आयामके समान गलितावशेष आयामकर गुणश्रेणी आयाम करता है ॥ ३५५ ॥ माणादितियाणुदये चडपडिये सगसगुदयसंपत्ते । णव छत्ति कसायाणं गलिदवसेसं करेदि गुणसेढिं ॥ ३५६ ॥ मानादित्रयाणामुदये चटपतिते स्वकस्वकोदयसंप्राप्ते । नव षट् त्रिकषायाणां गलितावशेषं करोति गुणश्रेणिम् ॥ ३५६ ॥ अर्थ—मान माया लोभके उदयसहित चढके पड़ा हुआ जीव अपनी २ कषायके उदयको प्राप्त हुए क्रमसे नवकषायोंकी, छहकषायोंकी और तीन कषायोंकी पूर्वोक्त रीतिसे गलितावशेष आयामलिये गुणश्रेणी करता है ॥ ३५६ ॥ जस्सुदएण य चडिदो तम्हि य उक्कट्टियम्हि पडिऊण । अंतरमाऊरेदि हु एवं पुरिसोदए चडिदो ॥ ३५७ ॥ यस्योदयेन च चटितः तस्मिंश्च अपकर्षिते पतित्वा । अंतरमापूरयति हि एवं पुरुषोदये चटितः ॥ ३५७ ॥ अर्थ-जिस कषायके उदय सहित चढके पड़ा हो उसी कषायके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर अन्तरको पूरता है अर्थात् नष्ट किये निषेकोंका सद्भाव करता है । इसीप्रकार पुरुपवेद सहित क्रोधादि युक्त श्रेणी चढने उतरनेका व्याख्यान जानना ॥ ३५७ ॥ थी उदयस्स य एवं अवगदवेदो हु सत्तकम्मंसे । सममुवसामदि संढस्सुदए चडिदस्स वोच्छामि ॥ ३५८ ॥ स्त्री उदयस्य च एवं अपगतवेदो हि सप्तकर्माशान् शममुपशमयति पंढस्योदये चटितस्य वक्ष्यामि ॥ ३५८ ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-स्त्रीवेदयुक्त क्रोधादिकोंके उदय सहित श्रेणी चढे चार प्रकारके जीव हैं । वे वेद उदयरहित हुए पुरुषवेद और छह हास्यादि-इस तरह सात नोकषायोंको एकसाथ उपशमाते हैं । अब नपुंसकवेदके उदयसहित श्रेणी चढे हुएके विशेषता कहते हैं ॥ ३५८ ॥ संददयंतरकरणो संढद्धाणम्हि अणुवसंतसे । इथिस्स य अद्धाए संढं इत्थिं च समगमुवसमदि ॥ ३५९ ॥ पंढोदयांतरकरणः षंढाद्धायां अनुपशांतांशे । स्त्रियः च अद्धायां षंढं स्त्री च समकमुपशमयति ॥ ३५९ ॥ अर्थ-वे चारप्रकारके जीव नपुंसकवेदका अन्तर करते हुए नपुंसक वेदके कालमें नपुंसकवेदका उपशम समाप्त न हुआ हो तबतक स्त्रीवेद नपुंसकवेद इनदोनोंका एकसाथ उपशम करता है। वहांपर पुरुषवेद सहित चढे जीवके स्त्रीवेदके उपशम करनेके कालको प्राप्त होकर ॥ ३५९॥ ताहे चरिमसवेदो अवगदवेदो हु सत्तकम्मंसे । सममुवसामदि सेसा पुरिसोदयचलिदभंगा हु ॥ ३६०॥ तस्मिन् चरमसवेदो अपगतवेदो हि सप्तकर्माशान् । सममुपशमयति शेषाः पुरुषोदयचलितभङ्गा हि ॥ ३६० ॥ अर्थ-सवेद अवस्थाके अन्तसमयको प्राप्त हुआ स्त्रीवेद नपुंसकवेदके उपशमको एकसाथ समाप्त करता है । उसके वाद अपगतवेदी हुआ पुरुषवेद छह हास्यादि कषाय-इन सातोंको युगपत् उपशमाता है । अन्य सब पुरुषवेद सहित श्रेणी चढे जीवके समान विधान जानना ॥ ३६०॥ पुंकोहस्स य उदए चलपलिदे पुत्वदो अपुरोत्ति । एदिस्से अद्धाणं अप्पाबहुगं तु वोच्छामि ॥ ३६१॥ पुंक्रोधस्य च उदये चटपतितेऽपूर्वतो अपूर्व इति । एतस्य अद्धानामल्पबहुकं तु वक्ष्यामि ॥ ३६१ ॥ अर्थ-पुरुषवेद और क्रोधकषायके उदय सहित चढकर .पड़े जीवके आरोहक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अवरोहक अपूर्वकरणके अन्तसमय पर्यंतकालमें संभवते अल्प बहुत्वके स्थानोंको कहूंगा ॥ ३६१ ॥ अवरादो वरमहियं रसखंडुकीरणस्स अद्धाणं । संखगुणं अवरहिदिखंडस्सुक्कीरणो कालो ॥ ३६२ ॥ अवरात् वरमधिकं रसखंडोत्करणस्याध्वानम् । संख्यगुणं अवरस्थितिखंडस्योत्करणः कालः ॥ ३६२ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १०१ अर्थ-जघन्य अनुभागकांडकोत्करणकाल सबसे थोड़ा है उससे अधिक उत्कृष्ट अनुभागकांडकोत्करणकाल है । उससे संख्यातगुणा जघन्यस्थितिकांडकोत्करण काल है।३६२॥ पडणजहण्णहिदिबंधद्धा तह अंतरस्स करणद्धा । जेहिदिबंधठिदीउकीरद्धा य अहियकमा ॥ ३६३ ॥ पतनजघन्यस्थितिबंधाद्धा तथा अंतरस्य करणाद्धा । ज्येष्ठस्थितिबंधस्थित्युत्करणाद्धा च अधिकक्रमाः ॥ ३६३ ॥ अर्थ-अवरोहक अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें संभव मोहका जघन्यस्थितिबंधापसरण काल विशेष अधिक है । उससे विशेष अधिक अन्तर करनेका काल है, उससे अधिक उत्कृष्टस्थितिबंधकाल है उससे अधिक उत्कृष्ट स्थितिकांडकोत्करणकाल है ॥ ३६३ ॥ सुहमंतिमगुणसेढी उवसंतकसायगस्स गुणसेढी। पडिवदसुहुमद्धावि य तिण्णिवि संखेजगुणिदकमा ॥ ३६४ ॥ सूक्ष्मांतिमगुणश्रेणी उपशांतकषायकस्य गुणश्रेणी । प्रतिपतत्सूक्ष्माद्धापि च तिस्रोपि संख्येयगुणितक्रमाः ॥ ३६४ ॥ अर्थ-उससे संख्यातगुणा आरोहक सूक्ष्मसापरायके अन्तसमयमें संभव ऐसा गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम है । उससे संख्यातगुणा उपशांतकषायके प्रथमसमयमें आरंभ किया गुणश्रेणी आयाम है। उससे संख्यातगुणा पड़नेवाला सूक्ष्मसांपरायका काल है ॥ ३६४ ॥ तग्गुणसेढी अहिया चलसुहुमो किट्टिउवसमद्धा य । सुहुमस्स य पढमठिदी तिण्णिवि सरिसा विसेसहिया ॥३६५॥ तद्गुणश्रेणी अधिका चलसूक्ष्मः कृष्ट्युपशमाद्धा च । सूक्ष्मस्य च प्रथमस्थितिः तिस्रोपि सदृशा विशेषाधिकाः ३६५ ॥ अर्थ-उससे पड़नेवाले सूक्ष्मसांपरायके लोभका गुणश्रेणी आयाम आवलिमात्र विशेषकर अधिक है, उससे सूक्ष्मकृष्टि उपशमानेका काल और सूक्ष्मसांपरायकी प्रथमस्थिति आयाम-ये तीनों आपसमें समान हैं तौभी अन्तर्मुहूर्तमात्र विशेषकर अधिक हैं ॥३६५॥ किट्टीकरणद्धहिया पडवादर लोभवेदगद्धा हु। संखगुणं तस्सेय तिलोहगुणसे दिणिक्खेओ ॥ ३६६ ॥ कृष्टिकरणाद्धाधिका पतद्वादरलोभवेदकाद्धा हि । संख्यगुणं तस्यैव त्रिलोभगुणश्रेणिनिक्षेपः ॥ ३६६ ॥ अर्थ-उससे सूक्ष्मकृष्टि करनेका काल विशेष अधिक है १२ । उससे पड़नेवाले Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । वादरसांपरायके बादरलोभवेदकका काल संख्यातगुणा है १३ ॥ उससे पड़नेवाले अनिवृत्तिकरणके तीनलोभकी गुणश्रेणीका आयाम आवलिमात्र अधिक है ॥ ३६६ ॥ चडवादरलोहस्स य वेदगकालो य तस्स पढमठिदी। पडलोहवेदगद्धा तस्सेव य लोहपढमठिदी ॥ ३६७ ॥ चटवादरलोभस्य च वेदककालश्च तस्य प्रथमस्थितिः । पतल्लोहवेदकाद्धा तस्यैव च लोभप्रथमस्थितिः ॥ ३६७ ॥ अर्थ-उससे आरोहक अनिवृत्तिकरणके वादरलोभका वेदककाल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है १५ । उससे वादरलोभकी प्रथमस्थितिका आयाम विशेष अधिक है १६ । उससे पड़नेवालेके बादरलोभका वेदककाल विशेष अधिक है १७ । उससे उतरनेवालेके लोभकी प्रथमस्थितिका आयाम आवलिमात्र अधिक १८ है ॥३६७ ॥ तम्मायावेदद्धा पडिवडछण्हंपि खित्तगुणसेढी। तम्माणवेदगद्धा तस्स णवण्हंपि गुणसेढी ॥ ३६८ ॥ तन्मायावेदकाद्धा प्रतिपतत्षण्णामपि क्षिप्तगुणश्रेणी । तन्मानवेदकाद्धा तस्य नवानामपि गुणश्रेणी ॥ ३६८ ॥ अर्थ-उससे पड़नेवालेके मायावेदककाल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है १९ । उससे पड़. नेवाले माया वेदकके छह कषायोंका गुणश्रेणी आयाम आवलिकर अधिक है २० । उससे पड़नेवालेके मानवेदककाल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है २१ । उससे उसीके नौकषायोंका गुणश्रेणी आयाम आवलिकर अधिक २२ है ॥ ३६८ ॥ चडमायावेदद्धा पढमठिदिमायउवसमद्धा य । चलमाणवेदगद्धा पढमहिदिमाणउवसमद्धा य ॥ ३६९ ॥ चटमायावेदाद्धा प्रथमस्थितिमायोपशमाद्धा च । चटमानवेदकाद्धा प्रथमस्थितिमानोपशमाता च ॥ ३६९ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके मायावेदककाल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है २३ । उससे उसके मायाकी प्रथमस्थितिका आयाम उच्छिष्टावलिकर अधिक है २४ । उससे मायाके उपशमानेका काल समयकम आवलिमात्र अधिक है २५ । उससे चढनेवालेके मानवेदककाल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है २६ । उससे उसकी प्रथमस्थितिका आयाम आवलिमात्र अधिक है २७ । उससे उसके मान उपशमानेका काल समयकम आवलिमात्र अधिक २८ है ॥ ३६९॥ कोहोवसामणद्धा छप्पुरिसित्थीण उवसमाणं च । खुहुभवगाहणं च य अहियकमा एकवीसपदा ॥ ३७० ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । क्रोधोपशामनाद्धा षट्पुरुषस्त्रीणामुपशमानां च । क्षुद्रभवगाहनं च च अधिकक्रमाणि एकविंशपदानि ॥ ३७० ॥ अर्थ — उससे क्रोध के उपशमानेका काल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है २९ । उससे छह नोकषायके उपशमानेका काल विशेष अधिक है ३० । उससे पुरुषवेदके उपशमानेका काल एकसमयकम दो आवलिकर अधिक है । उससे स्त्रीवेदके उपशमानेका काल अन्तमुहूर्तकर अधिक है। उससे नपुंसक वेद उपशमानेका काल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है । उससे क्षुद्रभवका काल विशेष अधिक है वह एक श्वासके अठारवें भागमात्र है ॥ ३७० ॥ इसतरह इक्कीसस्थान अधिक क्रम हैं । वसंतद्धा दुगुणा तत्तो पुरिसस्स कोहपढमठिदी | मोहोवसामणद्धा तिण्णिवि अहियक्कमा होंति ॥ ३७१ ॥ उपशांताद्धा द्विगुणा ततः पुरुषस्य क्रोधप्रथमस्थितिः । मोहोपशमनाद्धा त्रीण्यपि अधिकक्रमाणि भवंति ॥ ३७१ ॥ अर्थ-उस क्षुद्रभवसे उपशांतकषायका काल दूना है । उससे पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिका आयाम विशेष अधिक है । उससे संज्वलनकोधकी प्रथम स्थितिका आयाम कुछ कम त्रिभागमात्र अधिक है । उससे सर्व मोहनीयका उपशमनकाल कुछ अधिक है ॥ ३७९॥ पडणस्स असंखाणं समयपबद्धाणुदीरणाकालो । संखगुणो चडणस्स य तक्कालो होदि अहियो य ॥ ३७२ ॥ पतनस्यासंख्यानां समयप्रबद्धानामुदीरणाकालः । संख्यगुणः चटनस्य च तत्कालो भवत्यधिकश्च ॥ ३७२ ॥ अर्थ — उससे पड़नेवालेके असंख्यात समयप्रबद्ध की उदीरणा होनेका काल संख्यातहै । उससे चढनेवालेके असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होनेका काल अन्तर्मुहूर्त - मात्र अधिक है || ३७२ ॥ गुणा पडणाणियट्टियद्धा संखगुणा चडणगा विसेसहिया । पडमाणा पुचद्धा संखगुणा चडणगा अहिया ॥ ३७३ ॥ पतनानिवृत्त्यद्धा संख्यगुणा चटनका विशेषाधिका । पतंत्योपूर्वाद्धाः संख्यगुणाः चटनका अधिकाः ॥ ३७३ ॥ अर्थ —उससे पड़नेवालेके अनिवृत्तिकरणका काल संख्यातगुणा है । उससे चढनेवालेके अनिवृत्तिकरणकाल अन्तर्मुहूर्तमात्रकर अधिक है । उससे पड़नेवाले के अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है । उससे चढनेवालेके अपूर्वकरणका काल अन्तर्मुहूर्तकर अधिक 2 11 203 11 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। पडिवडवरगुणसेढी चढमाणापुवपढमगुणसेढी । अहियकमा उवसामगकोहस्स य वेदगद्धा हु॥ ३७४ ॥ प्रतिपतद्वरगुणश्रेणी चटदपूर्वप्रथमगुणश्रेणी। अधिकक्रमा उपशामकक्रोधस्य च वेदकाद्धा हि ॥ ३७४ ॥ अर्थ-उससे पड़नेवालेके सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें आरंभ किया उत्कृष्ट गुणश्रेणी आयाम अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है । उससे चढनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें आरंभ हुआ उत्कृष्ट गुणश्रेणी आयाम अन्तर्मुहूर्तकर अधिक है । उससे चढनेवालेके क्रोधवेदककाल संख्यातगुणा है ॥ ३७४ ॥ संजदअधापवत्तगगुणसेढी दसणोवसंतद्धा। चारितंतरिगठिदी दसणमोहंतरठिदीओ ॥ ३७५॥ संयताधःप्रवृत्तकगुणश्रेणी दर्शनोपशांताद्धा। . चारित्रांतरिकस्थितिः दर्शनमोहांतरस्थितिः ॥ ३७५ ॥ अर्थ-उससे पड़नेवाले अप्रमत्तसंयमीके प्रथम समयमें किया गुणश्रेणी आयाम संख्यातगुणा है । उससे दर्शनमोहका उपशम अवस्थाका काल संख्यातगुणा है । उससे चारित्रमोहका अन्तर आयाम संख्यातगुणा है । उससे दर्शनमोहका अन्तर आयाम संख्यातगुणा है ॥ ३७५ ॥ अवराजेठाबाहा चडपडमोहस्स अवरठिदिबंधो। चडपडतिघादिअवरहिदिबंधत्तोमुहुत्तो य ॥ ३७६ ॥ अवराज्येष्ठाबाधा चटपतमोहस्य अवरस्थितिबंधः । चटपतत्रिघात्यवरस्थितिबंधोंतर्मुहूर्तश्च ॥ ३७६ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयमें संभव मोहके स्थितिबन्धकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है । उससे उतरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तसमयमें संभवती सवकर्मों के स्थितिबन्धकी उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणी है। उससे चढनेवालेके मोहका जघन्यस्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उतरनेवालेके मोहके जघन्यस्थितिबन्धका प्रमाण संख्यातगुणा है । उससे चढनेवालेके सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें संभव ऐसा तीन घातियाओंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे उतरनेवालेके तीन घातियाकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त संख्यातगुणा है वह एकसमयकम दो घड़ी प्रमाण जानना ॥ ३७६ ॥ चडमाणस्स य णामागोदजहण्णहिदीण बंधो य । तेरसपदासु कमसो संखेण य होति गुणियकमा ॥ ३७७ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। चटतः च नामगोत्रजघन्यस्थितीनां बंधश्च । त्रयोदशपदेषु क्रमशः संख्येन च भवंति गुणितक्रमाः॥ ३७७ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके नामगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है वह सोलहमुहूर्त है । वह अपनी २ व्युच्छित्तिके अन्तसमयमें जानना । और वह तेरह स्थानों में क्रमसे संख्यातगुणा है ॥ ३७७ ॥ चलतदियअवरबंधं पडणामागोदअवरठिदिबंधो। पडतदियस्स य अवरं तिण्णि पदा होंति अहियकमा ॥ ३७८ ॥ चटतृतीयावरबंध पतन्नामगोत्रावरस्थितिबंधः । चटत्तृतीयस्य च अवरं त्रीणि पदानि भवंति अधिकक्रमाणि ॥ ३७८ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके वेदनीयका जघन्यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है वह चौवीस मुहूर्तमात्र है । उससे पड़नेवालेके नाम गोत्रका जघन्यबन्ध विशेष अधिक है वह बत्तीसमुहूर्त है । उससे पड़नेवालेके वेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है वह अड़तालीस मुहूर्तमात्र है ॥ ३७८ ॥ चडमायमाणकोहो मासादीद्गुण अवरठिदिबंधो। पडणे ताणं दुगुणं सोलसवस्साणि चलणपुरिसस्स ॥ ३७९ ॥ चटमायामानक्रोधो मासादिद्विगुणोवरस्थितिबंधः । पतने तेषां द्विगुणं षोडशवर्षाणि चटनपुरुषस्य ॥ ३७९ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके संज्वलन मायाका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है वह एकमासमात्र है। उससे मानका जघन्यस्थितिबन्ध दूना है । उससे क्रोधका जघन्य स्थितिबंध दूना है। और उतरनेवालेके उन्हीं मायादिकोंका जघन्यस्थितिबन्ध चढनेवालेसे दूना है । वह मायाका दो मास मानका चारमास क्रोधका आठमास जानना । चढनेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध सोलह वर्षमात्र है ॥ ३७९॥ पडणस्स तस्स दुगुणं संजलणाणं तु तत्थ दुट्ठाणे। बत्तीसं चउसही वस्सपमाणेण ठिदिबंधो ॥ ३८०॥ पतनस्य तस्य द्विगुणं संज्वलनानां तु तत्र द्विस्थाने । द्वात्रिंशत् चतुःषष्ठिः वर्षप्रमाणेन स्थितिबंधः ॥ ३८० ॥ अर्थ-पड़नेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध उससे दूना बत्तीस वर्ष है । और उसकालमें संज्वलन चौकड़ीका स्थितिबन्ध चढनेवालेके बत्तीस वर्ष उतरनेवालेके चैंसठवर्षमात्र है ॥ ३८०॥ ल.सा. १४ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । चडपडणमोहपढमं चरिमं तु तहा तिघादयादीणं । संखेजवस्सबंधो संखेजगुणकमो छण्हं ॥ ३८१ ॥ चटपतनमोहप्रथमं चरमं तु तथा त्रिघातकादीनाम् । संख्येयवर्षबंधः संख्येयगुणक्रमः षण्णाम् ॥ ३८१ ॥ अर्थ-चढनेवालेके मोहनीयका प्रथमस्थितिवन्ध -संख्यातगुणा है । उससे उतरनेवालेके मोहका अन्तस्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे चढनेवालेके तीन घातियाओंका प्रथ. मस्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे उतरनेवालेके उनके अन्तका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । वह संख्यातहजार वर्षमात्र है ॥ ३८१ ॥ चडपडणमोहचरिमं पढमं तु तहा तिघादियादीणं । असंखेजवस्सबंधो संखेजगुणकमो छण्हं ॥ ३८२ ॥ चटपतनमोहचरमं प्रथमं तु तथा त्रिघातकादीनाम् । __ असंख्येयवर्षबंधः संख्येयगुणक्रमः षण्णाम् ॥ ३८२ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके मोहनीयका असंख्यात वर्षमात्र अन्तस्थितिबन्ध है वह असंख्यातगुणा है । उससे उतरनेवालेके मोहका प्रथमस्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । उससे चढनेवालेके तीन घातियाओंका अन्तस्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । उससे उतरनेवालेके तीन घातियाओंका प्रथमस्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है वह पल्यका असंख्यातवां भागमात्र है ॥ ३८२॥ चडणे णामदुगाणं पढमो पलिदोवमस्स संखेजो। भागो ठिदिस्स बंधो हेडिल्लादो असंखगुणो ॥ ३८३ ॥ चटने नामद्विकयोः प्रथमः पलितोपमस्यासंख्येयः । भागः स्थितेबंधो अधस्तनादसंख्यगुणः ॥ ३८३ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके नामगोत्रका पहला स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवें भागमात्र है वह नीचेके तीनघातियाओंके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा है ॥ ३८३ ॥ तीसियचउण्ह पढमो पलिदोवमसंखभागठिदिबंधो। मोहस्सवि दोण्णि पदा विसेसअहियकमा होंति ॥ ३८४ ॥ तीसियचतुर्णा प्रथमः पलितोपमासंख्यभागस्थितिबंधः। मोहस्यापि द्वे पदे विशेषाधिकक्रमा भवंति ॥ ३८४ ॥ अर्थ-उससे चढनेवालेके तीसियचतुष्कका प्रथम स्थितिबन्ध विशेष अधिक है वह भी पल्यके असंख्यातवें भागमात्र है। उससे चढनेवालेके मोहका चालीसियस्थितिबन्ध उसीके त्रिभागमात्रं विशेषकर अधिक है ॥ ३८४ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ लब्धिसारः। ठिदिखंडयं तु चरिमं बंधोसरणट्ठिदी य पल्लद्धं । पलं चडपडबादरपढमो चरिमो य ठिदिबंधो ॥ ३८५ ॥ स्थितिखंडकं तु चरमं बंधापसरणस्थिती च पल्यार्ध । पल्यं चटपतद्वादरप्रथमः चरमश्च स्थितिबंधः ॥ ३८५ ॥ अर्थ-उससे अन्तका स्थितिखण्ड संख्यातगुणा है। उससे स्थितिबन्धापसरणोंकर उत्पन्न हुए पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध वे सभी क्रमसे संख्यातगुणे हैं। उससे चढनेवालेके अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें सम्भव स्थितिबन्ध संख्यातगुणे हैं वे पृथक्त्वलक्षसागर प्रमाण हैं । उससे उतरनेवालेके अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयमें सम्भव स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है ॥ ३८५ ॥ चडपडअपुत्वपढमो चरिमो ठिदिबंधओ य पडणस्स । तच्चरिमं ठिदिसतं संखेजगुणकमा अट्ठ ॥ ३८६ ॥ चटपतदपूर्वप्रथमः चरमः स्थितिबंधकश्च पतनस्य । तच्चरमं स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणक्रमं अष्ट ।। ३८६ ॥ अर्थ-उससे चढनेवाले अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है वह अंतःकोटाकोटि सागर मात्र है। उससे पड़नेवाले अपूर्वकरणके अन्तसमयमें स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे पड़नेवालेके अपूर्वकरणके अंतसमयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ॥ ३८६ ॥ तप्पढमटिदिसंतं पडिवडअणियहिचरिमठिदिसत्तं । अहियकमा चलबादरपढमहिदिसत्तयं तु संखगुण ॥ ३८७ ॥ तत्प्रथमस्थितिसत्त्वं प्रतिपतदनिवृत्तिचरमस्थितिसत्त्वं । अधिकक्रमं चटवादरप्रथमस्थितिसत्त्वकं तु संख्यगुणम् ॥ ३८७ ॥ अर्थ-उससे पड़नेवालेके अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है । उससे पड़नेवाले अनिवृत्ति करणके अंतसमयमें स्थितिसत्त्व एक समयकर अधिक है। उससे चढनेवाले अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है क्योंकि इसके अब भी अनिवृत्तिकरणके परिणामोंसे स्थितिसत्त्वका खंडन सम्भवता है ॥ ३८७ ॥ चडमाणअपुवस्स य चरिमठिदिसत्तयं विसेसहियं । तस्सेव य पढमहिदिसत्तं संखेजसंगुणियं ॥ ३८८ ॥ चटदपूर्वस्य च चरमस्थितिसत्त्वकं विशेषाधिकम् । तस्यैव च प्रथमस्थितिसत्त्वं संख्येयसंगुणितम् ॥ ३८८ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-उससे चढनेवाले अपूर्वकरणके अन्तसमयमें स्थितिसत्त्वविशेष अधिक है, क्योंकि उसके अन्तकांडककी अन्तफालिका प्रमाण पत्यके संख्यातवें भागमात्र सम्भवता है । उससे चढनेवाले अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है वह अन्तःकोटाकोटि प्रमाण है, क्योंकि अपूर्वकरणके कालमें संख्यात हजार स्थितिकांडक होते हैं उनकर उसके प्रथमसमयमें जो स्थिति पाई जाती है उसका संख्यात बहुभागमात्र स्थितिका घात होता है, उसके अन्तसमयमें एकभागमात्र स्थिति रहती है और उस प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्वसे पहले स्थितिकांडकका घात ही नहीं है इसलिये उसके अन्तसमयके स्थितिसत्वसे प्रथमसमयवर्ती स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा जानना ॥ ३८८ ॥ इसतरह अल्पबहुत्व जानना। इसप्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित लब्धिसारमें चारित्रलब्धि अधिकारमेंसे क्षयोपशम व उपशमलब्धिका कहनेवाला दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥ २ ॥ क्षायिकचारित्रका अधिकार ॥ ३ ॥ आगे माधवचंद्राचार्यविरचित संस्कृत क्षपणासारके अनुसारको लिये गाथाओंका व्याख्यान किया जाता है उसमें प्रथम मङ्गलाचरण भाषामें अनुवादित दिखलाते हैं । श्रीवरधर्मजलधिके नंदन रत्नाकरवर्धक सुखकार लोकप्रकाशक अतुल विमलप्रभु संतनिकरि सेवित गुनधार । माधववर बलभद्र नमितपदपद्मयुगल धारे विस्तार नेमिचंद्रजिन नेमिचंद्रगुरु चंद्र समान नमहुं सो सार ॥१॥ अब चारित्रमोहकी क्षपणाका विधान कहते हैं तिकरणमुभयोसरणं कमकरणं खवणदेसमंतरयं । संकम अपुवफड्ढयकिट्टीकरणुभवण खमणाये ॥ ३८९ ॥ त्रिकरणमुभयापसरणं क्रमकरणं क्षपणं देशमंतरकम् । संक्रमं अपूर्वस्पर्धककृष्टिकरणानुभवनानि क्षपणायाम् ॥ ३८९ ॥ अर्थ-अधःकरण आदि तीन करण, बंधापसरण, सत्त्वापसरण, कमकरण, आठ कषाय सोलह प्रकृतियोंकी क्षपणा, देशघातिकरण, अंतरकरण, संक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, कृष्टिअनुभवन–इसतरह ये चारित्रमोहकी क्षपणामें अधिकार जानने ॥३८९॥ उसके वाद ज्ञानावरणादि कर्मकी क्षपणाका अधिकार और योगनिरोध अधिकारका वर्णन किया जायगा। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १०९ आगे चारित्र मोहकी क्षपणाके सन्मुख हुआ पहले अधःप्रवृत्तकरण करता है उसे कहते हैं; गुणसेढी गुणसंकम ठिदिरसखंडाण णत्थि पढमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्डीहिं वहदि हु॥ ३९॥ गुणश्रेणी गुणसंक्रमं स्थितिरसखंडनं नास्ति प्रथमे । प्रतिसमयमनंतगुणं विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धते हि ॥ ३९० ॥ अर्थ-पहले अधःप्रवृत्तकरणमें गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिकांडकघात अनुभागकांडकघात—ये नहीं हैं । इसलिये वह जीव हर समय अनन्तगुणा क्रमलिये विशुद्धपनेकी वृद्धिकर वढता है ॥ ३९० ॥ सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणं रसं च बंधदि हु। पडिसमयमणंतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥ ३९१ ॥ शस्तानामशस्तानां चतुरपि स्थानं रसं च बध्नाति हि । प्रतिसमयमनंतेन च गुणभजितक्रमं तु रसबंधे ॥ ३९१ ॥ अर्थ-वोही जीव हरसमय प्रशस्त प्रकृतियोंका अनन्तगुणा क्रमलिये चार स्थानिक अनुभागबन्ध करता है और अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तवां भागका क्रमलिये द्विस्थानिक अनुभागबन्ध करता है ॥ ३९१ ॥ पल्लस्स संखभागं मुहुत्तअंतेण ओसरदि बंधे। संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्हि ओसरणा ॥ ३९२ ॥ पल्यस्य संख्यभागं मुहूर्तान्तरपसरति बंधे । संख्येयसहस्राणि च अधःप्रवृत्ते अपसरणानि ॥ ३९२ ॥ अर्थ-पूर्वस्थितिबन्धसे पल्यका संख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध घटाके एक अन्तर्मुहूर्तकालतक समयसमय समान बंध होवे वह एक स्थितिबन्धापसरण है। ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण अधःप्रवृत्तकरणमें होते हैं ॥ ३९२ ॥ १. "कसायखवणो ठाणे परिणामो केरिसो हवे। कसाय उवजोगो को लेस्सा वेदो य को हवे॥" "काणि वा पुव्वबन्धाणि के वा अंसेण बंधदि । कदियावलि पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥" "केदिये सेज्झीयदे पुव्वं बन्धेण उदयेण वा । अंतरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं ॥" "केहिदीयाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । उक्कट्टिदूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥” इन चार सूत्रोंकर अधःप्रवृत्त. करणके विशेषजाननेके प्रश्न किये गये हैं उनका उत्तर बड़ी भाषामें दिखलाया है। ये चार श्लोक दूसरे ग्रन्थमेंके मालूम होते हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । आदिमकरणद्धाए पढमटिदिबंधदो दुचरिमम्हि । संखेजगुणविहीणो ठिदिबंधो होदि णियमेण ॥ ३९३ ॥ आद्यकरणाद्धायां प्रथमस्थितिबंधतस्तु चरमे । संख्येयगुणविहीनः स्थितिबंधो भवति नियमेन ॥ ३९३ ॥ ___ अर्थ-इसतरह स्थितिबन्धापसरण होनेसे पहले अधःप्रवृत्तकरण कालमें प्रथमसमयके स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा कम अन्तसमयमें स्थितिबन्ध नियमसे होता है ॥ ३९३ ॥ इसतरह इस अधःकरणमें आवश्यक होते हैं । जिस जगह अन्य जीवके नीचेके समयवर्ती भावोंके समान अन्यजीवके ऊपर समयवर्ती भाव हों वह अधःप्रवृत्तकरण ऐसा सार्थक नाम है जानना। आगे अपूर्वकरणका वर्णन करते हैं; गुणसेढी गुणसंकम ठिदिखंडमसत्थगाण रसखंडं । विदियकरणादिसमए अण्णं ठिदिवंधमारवई ॥ ३९४ ॥ गुणश्रेणी गुणसंक्रमं स्थितिखंडमशस्तकानां रसखंडम् । द्वितीयकरणादिसमये अन्यं स्थितिबंधमारभते ॥ ३९४ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके पहलेसमयमें गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिखण्डन और अप्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागखण्डन होता है । और अधःकरणके अन्तसमयमें जो स्थितिबंध होता था उससे पल्यका असंख्यातवां भाग घटता अन्य ही स्थितिबन्ध आरंभ करता है। इसलिये यहां एक स्थितिबन्धापसरण होनेसे इतना स्थितिबन्ध घटाते हैं ॥ ३९४ ॥ गुणसेढीदीहत्तं अपुवचउक्कादु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलिवाहिरदो दुणिक्खेओ ॥ ३९५ ॥ गुणश्रेणीदीर्घत्वं अपूर्वचतुष्कात् साधिकं भवति । गलितावशेषे उदयावलिबाह्यतस्तु निक्षेपः ॥ ३९५ ॥ अर्थ—यहांपर गुणश्रेणी आयामका प्रमाण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय क्षीणकषाय-इन चार गुणस्थानोंके मिलाये हुए कालसे साधिक है । वह अधिकका प्रमाण क्षीणकषायके कालके संख्यातवें भागमात्र है । वह उदयावलिसे बाह्य गलितावशेषरूप गुणश्रेणी आयाममें अपकर्षण किये द्रव्यका निक्षेपण होता है ॥ ३९५॥ पडिसमयं उक्कट्टदि असंखगुणिदक्कमेण संचदि य । इदि गुणसेढीकरणं पडिसमयमपुवपढमादो ॥ ३९६ ॥ प्रतिसमयं अपकर्षति असंख्यगुणितक्रमेण संचिनोति च । इति गुणश्रेणीकरणं प्रतिसमयमपूर्वप्रथमात् ॥ ३९६ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १११ अर्थ-प्रथमसमयमें अपकर्षण किये द्रव्यसे द्वितीयादि समयोंमें असंख्यातगुणा क्रमलिये समय समय प्रति द्रव्यको अपकर्षण करता है । और उदयावलिमें गुणश्रेणी आयाममें ऊपरकी स्थितिमें निक्षेपण करता है । इसतरह अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर समय समय प्रति गुणश्रेणीका करना है । यह गुणश्रेणीका खरूप कहा ॥ ३९६ ॥ पडिसमयमसंखगुणं दवं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुज्झियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥ ३९७ ॥ प्रतिसमयमसंख्यगुणं द्रव्यं संक्रामति अप्रशस्तानाम् । बंधोज्झितप्रकृतीनां वध्यमानस्वजातिप्रकृतिषु ।। ३९७ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर जिनका यहां बन्ध नहीं पाया जाता ऐसी अप्रशस्तप्रकृतियों का गुणसंक्रमण होता है वह समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये उन प्रकृतियोंका द्रव्य है वह बंध होनेवाली खजातिप्रकृतियोंमें संक्रमण करता है उसरूप परिणमता है । जैसे असातावेदनीका द्रव्य सातावेदनीयरूप होके परिणमता है । इसीतरह अन्य प्रकृतियोंका भी जानना ॥ ३९७ ॥ उवट्टणा जहण्णा आवलियाऊणिया तिभागेण । एसा ठिदिसु जहण्णा तहाणुभागे सणंतेसु ॥ ३९८॥ अतिस्थापना जघन्या आवलिकोनिका त्रिभागेन । एषा स्थितिषु जघन्या तथानुभागेष्वनंतेषु ॥ ३९८ ॥ अर्थ-संक्रमणमें जघन्य अतिस्थापन अपने विभागकर कमती आवलिमात्र है यही जघन्य स्थिति है । उसीतरह अनन्त अनुभागोंमें भी जानना ॥ ३९८ ॥ संकामे दुकट्टदि जे असे ते अवहिदा होति ।। आवलियं से काले तेण परं होंति भजियव ॥ ३९९॥ संक्रामे तु उत्कृष्यंते ये अंशास्ते अवस्थिता भवंति । आवलिका स्वे काले तेन परं भवंति भजितव्याः ॥ ३९९ ॥ अर्थ-संक्रमणमें जो प्रकृतियों के परमाणू उत्कर्षणरूप किये जाते हैं वे अपने कालमें आवलिपर्यंत तो अवस्थित ही रहते हैं उससे परे भजनीय हैं अर्थात् अवस्थित भी. रहते हैं और स्थिति आदिकी वृद्धि हानिआदिरूप भी रहते हैं ॥ ३९९ ॥ उकट्टदि जे अंसे से काले ते च होंति भजियवा। वडीए अवठ्ठाणे हाणीए संकमे उदए ॥ ४००॥ उत्कृष्यंते ये अंशाःस्वे काले ते च भवंति भजितव्याः । वृद्धौ अवस्थाने हानौ संक्रमे उदये ॥ ४०॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ' अर्थ-जो प्रकृतियोंके परमाणू अपकर्षण किये जाते हैं वे अपने कालमें भजनीय हैं। स्थित्यादिकी वृद्धि अवस्थान हानि संक्रमण और उदय इनरूप होवें भी और नहीं भी हों कुछ नियम नहीं है ॥ ४०० ॥ एकं च ठिदिविसेसं तु असंखेजेसु ठिदिविसेसेसु । वहेदि रहस्सेदि व तहाणुभागेसुर्णतेसु ॥४०१ ॥ एकं च स्थितिविशेषं तु असंख्येयेषु स्थितिविशेषेषु । वय॑ते रहस्यते वा तथानुभागेष्वनंतेषु ॥ ४०१ ॥ अर्थ-एक स्थितिविशेष जो एक निषेकका द्रव्य वह असंख्यात निषेकोंमें निक्षेपण किया जाता है । उसीतरह अनंत अनुभागोंमें भी एक स्पर्धकका द्रव्य अनंत स्पर्धकोंमें निक्षेपण किया जाता है ऐसा जानना ॥ ४०१ ॥ इस तरह गुणसंक्रमणका खरूप कहा । पल्लस्स संखभागं वरं पि अवरादु संखगुणिदं तु। पढमे अपुविखवगे ठिदिखंडपमाणयं होदि ॥ ४०२॥ पल्यस्य संख्यभागं वरमपि अवरात् संख्यगुणितं तु। प्रथमे अपूर्वक्षपके स्थितिखंडप्रमाणकं भवति ॥ ४०२ ॥ अर्थ-क्षपक अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिकांडक आयामका जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण पत्यके संख्यातवें भागमात्र है तो भी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा है ॥ ४०२॥ आउगवजाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिबंधो य अपुवे होदि हु संखेजगुणहीणो ॥ ४०३ ॥ आयुष्कवानां स्थितिघातः प्रथमात् चरमस्थितिसत्त्वम् । स्थितिबंधश्च अपूर्वे भवति हि संख्येयगुणहीनः ॥ ४०३ ॥ अर्थ-आयुके विना सातकर्मोंका स्थितिकांडक आयाम स्थितिसत्त्व और स्थितिबंध-ये तीनों अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें जो पाये जाते हैं उनसे उसके अंतसमयमें संख्यातगुणे कम होते हैं ॥ ४०३ ॥ अंतोकोडाकोडी अपुचपढमम्हि होदि ठिदिबंधो। बंधादो पुण सत्तं संखेजगुणं हवे तत्थ ॥ ४०४॥ अंतःकोटीकोटिः अपूर्वप्रथमे भवति स्थितिबंधः । बंधात् पुनः सत्त्वं संख्येयगुणं भवेत् तत्र ॥ ४०४ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिबंध अंतःकोड़ाकोड़ी प्रमाण है वह पृथक्त्व Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ११३ लक्ष्यकोडिसागर है । और वहां सत्त्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है ॥ ४०४ ॥ इसतरह स्थितिकांडकका खरूप कहा। एकेकढिदिखंडयणिवडणठिदिओसरणकाले। संखेजसहस्साणि य णिवडंति रसस्स खंडाणि ॥ ४०५॥ एकैकस्थितिखंडकनिपतनस्थित्युत्करणकाले । संख्येयसहस्राणि च निपतंति रसस्य खंडानि ॥ ४०५॥ अर्थ-एक एक स्थिति खण्डघात जिसमें होवे ऐसे स्थितिकांडकोत्करणकालमें संख्यातहजार अनुभागकांडकोंका घात होता है ॥ ४०५॥ असुहाणं पयडीणं अणंतभागा रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णत्थित्ति रसस्स खंडाणि ॥ ४०६ ॥ अशुभानां प्रकृतीनां अनंतभागा रसस्य खंडानि । शुभप्रकृतीनां नियमात् नास्तीति रसस्य खंडानि ॥ ४०६ ॥ अर्थ-अशुभ प्रकृतियोंका अनंत बहुभागमात्र अनुभागकांडकका प्रमाण है और प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागखण्ड नियमसे नहीं होता क्योंकि विशुद्धपरिणामोंकर शुभप्रकृतियोंके अनुभागका घटाना संभव नहीं होता ॥ ४०६ ॥ इसप्रकार अनुभागखण्डका खरूप कहा। पढमे छठे चरिमे भागे दुग तीस चदुर वोछिण्णा । बंधेण अपुवस्स य से काले वादरो होदि ॥ ४०७॥ प्रथमे षढ़े चरमे भागे द्विकं त्रिंशत् चतस्रो व्युच्छिन्नाः । बंधेन अपूर्वस्य च स्वे काले बादरो भवति ॥ ४०७॥ अर्थ-अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे पहले भागमें निद्रा प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी बंधसे व्युच्छित्ति हुई । छठे भागमें देवगति आदि तीस प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छित्ति हुई और इसके वाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अपूर्वकरणके अंतसमयमें हास्यादि चार कर्मोंकी बंधसे व्युच्छित्ति होती है । यहांपर ही छह नोकषायोंके उदयकी व्युच्छित्ति होती है । जिस जगह ऊपर समयके भाव हमेशा नीचेके समयके भावोंके समान हों वह कर्मनाश करनेवाला सार्थक नामका धारक अपूर्वकरण जानना । उसके बाद अपने कालमें अनिवृत्तिकरण होता है ॥ ४०७ ॥ आगे उस अनिवृत्तिकरणका स्वरूप कहते हैं अणियदृस्स य पढमे अण्णं ठिदिखंडपहुदिमारवई । उवसामणा णिधत्ती णिकाचणा तत्थ वोछिण्णा ॥ ४०८॥ .. ल, सा. १५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ..... अनिवृत्तेश्च प्रथमे अन्य स्थितिखंडप्रभृतिमारभते । उपशामना निधत्तिः निकाचना तत्र व्युच्छिन्नाः ॥ ४०८॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें अन्य ही स्थितिखण्डादिक प्रारंभ किये जाते हैं, उस घातके वाद शेष रहे अनुभागका अनंत बहुभागमात्र अन्य ही अनुभागकांडक होता है और अपूर्वकरणके अंतसमयके स्थितिबन्धसे पल्यका संख्यातवां भागमात्र घटता अन्य ही स्थितिबन्ध होता है । यहांपर ही अप्रशस्त उपशम निधत्ति निकाचना इन तीन करणोंकी व्युच्छित्ति होती है। सब ही कर्म उदय संक्रमण उत्कर्षण अपकर्षण करने योग्य होते हैं ।। ४०८ ॥ बादरपढमे पढमं ठिदिखंडं विसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडयं समाणं सबस्स समाणकालम्हि ॥ ४०९॥ बादरप्रथमे प्रथमं स्थितिखंडं विसदृशं तु द्वितीयादि । स्थितिखंडकं समानं सर्वस्य समानकाले ॥ ४०९ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें पहला स्थितिखंड विसदृश है और द्वितीयादिस्थितिखंड हैं वे समानकालमें सब जीवोंके समान हैं अर्थात् जिनको अनिवृत्तिकरण आरंभकिये समान काल हुआ उनके परस्पर द्वितीयादि स्थितिकांडक आयामका समान प्रमाण जानना ॥ ४०९॥ पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिमठिदिखंडो सेसा सवस्स सरिसा हु॥ ४१०॥ पल्यस्य संख्यभागं अवरं तु वरं तु संखभागाधिकम् । घातादिमस्थितिखंडः शेषाः सर्वस्य सदृशा हि ॥ ४१० ॥ अर्थ-वह घातके पहले तक प्रथमस्थितिखंड जघन्य तो पल्यका संख्यातवां भागमात्र है और उत्कृष्ट उसके संख्यातवें भागकर अधिक है । तथा शेष द्वितीयादि स्थितिखंड सब जीवोंके समान है ॥ ४१०॥ उदधिसहस्सपुधत्तं लक्खपुधत्तं तु बंध संतो य । अणियट्टीसादीए गुणसेढीपुवपरिसेसा ॥ ४११॥ उदधिसहस्रपृथक्त्वं लक्ष्यपृथक्त्वं तु बंधः सत्त्वं च । अनिवृत्तेरादौ गुणश्रेणीपूर्वपरिशेषाः ॥ ४११ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें घटता घटता स्थितिबन्ध पृथक्त्वहजारसागरप्र. माण होता है, स्थितिसत्त्व घटता घटता पृथक्त्वलक्ष्य सागर प्रमाण होता है और गुणश्रेणी आयाम यहाँपर अपूर्वकरण कालके वीतनेके वाद शेष रहा वही जानना । समय समय Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । ११५ प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये पूर्वकी तरह गुणश्रेणी और गुणसंक्रम होता है ॥ ४११ ॥ इसतरह तीनकरण कहे । आगे स्थितिबन्धापरणका क्रम कहते हैं; ठिदिबंध सहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा । तत्थासण्णिस्सद्विदिसरिसं ठिदिबंधणं होदि ॥ ४१२ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते संख्येया बादरे गता भागाः । तत्रासंज्ञिनः स्थितिसदृशं स्थितिबंधनं भवति ॥ ४१२ ॥ अर्थ — इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभाग वीतजानेपर एक भाग शेष रहनेके अवसर में असंज्ञीपंचेंद्रीकी स्थिति के समान स्थितिबंध होता है ॥ ४९२ ॥ ठिदिबंध सह स्सगदे पत्तेयं चरतियविएहंदी | ठिदिबंध समं होदि हु ठिदिबंधमणुक्कमेणेव ॥ ४१३ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते प्रत्येकं चतुस्त्रिद्विएकेंद्री । स्थितिबंधसमं भवति हि स्थितिबंधमनुक्रमेणैव ॥ ४१३ ॥ अर्थ – पूर्वोक्त क्रम संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर क्रमसे चौइंद्री तेइंद्री दोइंद्री एकेंद्रीके स्थितिबन्धके समान सौ पचास पच्चीस एकसागर प्रमाण कर्मका स्थितिबन्ध होता है ॥ ४१३ ॥ एइंदियदीदो संखसहस्से गये हु ठिदिबंधे । पले दिवदुगं ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥ ४१४ ॥ एकेंद्रियस्थितितः संख्यसहस्रे गते हि स्थितिबंधे । पल्यैकद्व्यर्धद्विकं स्थितिबंध: वीसियत्रिकाणाम् ॥ ४१४ ॥ अर्थ – एकेंद्रियसमान स्थितिबंध से परे संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीत जानेपर वीसयोंका एकपल्य तीसियोंका डेढपल्य मोहका दो पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ ४१४ ॥ तक्काले ठिदिसंत लक्खपुधत्तं तु होदि उवहीणं । बंधोरणा वंधी ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥ ४१५ ॥ तत्काले स्थितिसत्त्वं लक्ष्यपृथक्वं तु भवति उदधीनाम् । बंधापरणं बंधः स्थितिखंडं सत्त्वमपसरति ।। ४१५ ।। अर्थ — उस समय कर्मोंका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वलक्षसागर प्रमाण होता है । वह अनिवृत्तिकरण के प्रथमसमयके स्थितिबन्ध से संख्यातगुणा कम जानना । और स्थितिबन्धापसरसे स्थितिबन्ध घटता है तथा स्थितिकांडकोंसे स्थितिसत्त्व घटता है ॥ ४१५ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पल्लस्स संखभागं संखगुणूणं असंखगुणहीणं । बंधोसरणे पलं पल्लासंखं असंखवस्संति ॥ ४१६ ॥ पल्यस्य संख्यभाग संख्यगुणोनमसंख्यगुणहीनम् । बंधापसरणे पल्यं पल्यासंख्यं असंख्यवर्षमिति ॥ ४१६ ॥ अर्थ-पल्यका संख्यातवां भाग, पूर्वबन्धसे संख्यातगुणा कम, असंख्यातगुणा घटता प्रमाण लिये स्थितिबन्धापसरणोंकर पल्यमात्र, पल्यका असंख्यातवां भागमात्र और असंख्यातवर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ ४१६ ॥ इसीप्रकार स्थितिसत्त्व जानना। एवं पलं जादा वीसीया तीसिया य मोहो य । पल्लासंखं च कमे बंधेण य वीसियतियाओ ॥ ४१७ ॥ एवं पल्यं जाते वीसिया तीसिया च मोहश्च । पल्यासंख्यं च क्रमेण बंधेन च वीसियत्रिकाः ॥ ४१७ ॥ अर्थ-इसप्रकार वीसियोंका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होनेपर वीसिय तीसिय मोह-इनका पल्यके असंख्यातकें भाग क्रमसे पूर्वसे संख्यातगुणा घटता स्थितिबन्ध होता है ॥ ४१७॥ उदधिसहस्सपुधत्तं अन्भंतरदो दु सदसहस्सस्स । तकाले ठिदिसतो आउगवजाण कम्माणं ॥ ४१८ ॥ उदधिसहस्रपृथक्त्वं अभ्यंतरतस्तु शतसहस्रस्य । तत्काले स्थितिसत्त्वं आयुर्वर्जितानां कर्मणाम् ॥ ४१८ ॥ अर्थ-उस मोहनीयके बन्ध होनेके वाद आयुके विना अन्यकर्मोंका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वहजार सागर प्रमाण होता है । यहां पृथक्त्वहजार शब्दकर लक्षके अंदर यथासम्भव प्रमाण जानना । पहले पृथक्त्व लक्ष सागरका स्थितिसत्त्व था वह कांडकघातकर यहां इतना रहा है ॥ ४१८॥ मोहगपल्लासंखठिदिबंधसहस्सगेसु तीदेसु।। मोहो तीसिय हेट्टा असंखगुणहीणयं होदि ॥ ४१९ ॥ मोहगपल्यासंख्यस्थितिबंधसहस्रकेष्वतीतेषु । मोहः तीसियं अधस्तना असंख्यगुणहीनकं भवति ॥ ४१९ ॥ अर्थ-मोहका पल्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिबन्ध होने के समयमें मोह तीसिय वीसिय कोका असंख्यातगुणाकम स्थितिबन्ध होता है ॥ ४१९ ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेहादुः । एकसराहे मोहे असंखगुणहीणयं होदि ॥ ४२० ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानां अधस्तात् । एकसमये मोहो असंख्यगुणहीनको भवति ॥ ४२० ॥ . अर्थ-ऐसा अल्प बहुत्वका क्रमलिये उतने ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर एक ही वार असंख्यातगुणा कम तीसिय वीसिय और मोहका स्थितिबन्ध होता है ॥ ४२० ॥ तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयणीयहेहादु। तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होति ॥ ४२१॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वेदनीयाधस्तात् ।। तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ४२१ ॥ अर्थ—ऐसा क्रमलिये संख्यातहजार स्थितिबंध वीतनेपर वीसियोंमें भी वेदनीयसे नीचे तीनघातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा घटता क्रम लिये स्थितिबन्ध होता है ॥ ४२१ ।। तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठा दु । तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होंति ॥ ४२२ ॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानामधस्तात् तु । ____तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ४२२ ॥ अर्थ-ऐसा क्रमलिये संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतजानेपर विशुद्धिके बलसे वीसियोंके नीचे तीसियोंमेंसे तीनघातियाओंका असंख्यातगुणा घटता स्थितिबन्ध होता है ॥ ४२२॥ तक्काले वेयणियं णामा गोदा हु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेयणियाणं कमो बंधे ॥ ४२३॥ तत्काले वेदनीयं नाम गोत्रं हि साधिकं भवति । इति मोहतीसियवीसियवेदनीयानां क्रमो बंधे ॥ ४२३ ॥ अर्थ-उस कालमें वेदनीयका स्थितिबन्ध नाम गोत्रके स्थितिबन्धसे अधिक है उसके आधे प्रमाणकर अधिक होता है इसतरह मोह तीसिय वीसिय और वेदनीयका क्रमसे बंध हुआ । यही क्रमलिये अल्प बहुत्वका होना क्रमकरण है ॥ ४२३ ॥ आगे स्थितिसत्त्वापसरणका स्वरूप कहते हैं; बंधे मोहादिकमे संजादे तेत्तियहिं बंधेहिं । ठिदिसंतमसण्णिसमं मोहादिकमं तहा संते ॥ ४२४ ॥ बंधे मोहादिक्रमे संजाते तावद्भिबंधैः। स्थितिसत्त्वमसंज्ञिसमं मोहादिक्रम तथा सत्त्वे ॥ ४२४ ॥ अर्थ-मोहादिकका क्रम लिये क्रमकरणरूप बंध होनेके वाद इसी क्रमको लिये उतने Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर असंज्ञी पंचेंद्रिीके समान स्थितिसत्त्व होता है । और उसके वाद वैसे ही स्थितिसत्त्वका होना क्रमसे जानना ॥ ४२४ ॥ ती बंधहस्से पलासंखेज्जयं तु ठिदिबंधे । तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयबद्धाणं ॥ ४२५ ॥ अतीते बंधसहस्रे पल्यासंख्येयकं तु स्थितिबंधे । तत्र असंख्येयानां उदीरणा समयबद्धानाम् ।। ४२५ ।। अर्थ —- इस क्रमकरण से परे संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होते हुए असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती है ॥ ४२५ ॥ आगे क्षपणाका खरूप कहते हैं; - ठिदिबंध सह सदे अकसायाण होदि संकमगो । ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥ ४२६ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते अष्टकषायानां भवति संक्रामक: । स्थितिखंड पृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिकविद्धं ।। ४२६ ॥ अर्थ — उसके वाद संख्यातहजार स्थितिकांडक वीतनेपर अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान • क्रोध मान माया लोभरूप आठ कषायोंका संक्रामक होता है । इसतरह मोहराजाकी सेनाके नायक आठ कषायों का नाश होनेपर शेष स्थितिसत्त्व काल अपेक्षा आवलिमात्र रहता है और निषेकोंकी अपेक्षा समयकम आवलीमात्र रहता है ॥ ४२६ ॥ ठिदिबंधपुधत्तगदे सोलसपयडीण होदि संकमगो । ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु आवलिपविद्धं ॥ ४२७ ॥ स्थितिबंधपृथक्त्वगते षोडशप्रकृतीनां भवति संक्रामक: । स्थितिखंडपृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिप्रविष्टम् ॥ ४२७ ॥ अर्थ — उसके बाद पृथक्त्व यानी संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर निद्रा निद्रा आदि तीन दर्शनावरणकी नरकगति आदि तेरह नामकर्मकी - इस तरह सोलह प्रकृतियों का संक्रामक होता है । इस तरह संख्यातहजार स्थितिखण्डोंसे उनकर्मोंका स्थितिसत्त्व आबलिमात्र रहता है || ४२७ ॥ आगे देशघातिकरणको कहते हैं; - ठिदिबंधपुधत्तगदे मगदाणा तत्तियेवि ओहि दुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचक्खभोगं पुणो चक्खु ॥ ४२८ ॥ पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विश्यं कमेण अणुभागो । बंधे देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधो ॥ ४२९ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। . ११९ स्थितिबंधपृथक्त्वगते मनोदाने तावत्यपि अवधिद्विकम् । लाभश्च पुनरपि श्रुतं अचक्षुभोगं पुनः चक्षुः ॥ ४२८॥ पुनरपि मतिपरिभोगं पुनरपि वीर्य क्रमेण अनुभागः । बंधेन देशघातिः पल्यासंख्यस्तु स्थितिबंधः ॥ ४२९ ॥ . अर्थ-सोलह प्रकृतियोंके संक्रमणके वाद पृथक्त्वसंख्यातहजार स्थितिकांडक वीत जानेपर मनःपर्यय ज्ञानावरण और दानांतरायका, उतने ही स्थितिकांडक वीत जानेपर अवधिज्ञानावरण अवधिदर्शनावरण और लाभांतरायका, उसीतरह श्रुतज्ञानावरण अचक्षुदर्शनावरण भोगांतरायका, उसीतरह चक्षुदर्शनावरण, उसीतरह मतिज्ञानावरण उपभोगांतरायका और उसीतरह वीर्यातरायका अनुभागबंध देशघाती होता है । इसी अवसरमें स्थितिबन्ध यथासंभव पल्यका असंख्यातवां भागमात्र ही जानना ॥ ४२८ । ४२९॥ आगे अंतरकरणको कहते हैं;- .. ठिदिखंडसहस्सगदे चदुसंजलणाण णोकसायाणं । एयटिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरं कुणइ ॥ ४३०॥ स्थितिखंडसहस्रगते चतुःसंज्वलनानां नोकषायाणाम् । एकस्थितिखंडोत्कीरणकाले अंतरं करोति ॥ ४३०॥ ' अर्थ-देशघातीकरणसे परे संख्यातहजार स्थितिखण्ड वीत जानेपर चार संज्वलन और नव नोकषायोंका अंतर करता है यानी बीचके निषेकोंका अभाव करता है । और एक स्थितिकांडकोत्करणका जितना काल है उतने कालकर अंतरको पूर्ण करता है॥४३०॥ संजलणाणं एकं वेदाणेकं उदेदि तद्दोण्हं ।। सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्तमावलियं ॥ ४३१॥ संज्वलनानामेकं वेदानामेकमुदेति तद्वयोः । शेषाणां प्रथमस्थिति स्थापयति अंतर्मुहूर्तमावलिकां ॥ ४३१॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधादिमेंसे कोई एक और तीनवेदोंमेंसे कोई एक वेद इसतरह उदयरूप दो प्रकृतियोंकी तो अंतर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थिति स्थापन करता है। इनके विना जिनका उदय न पायाजावे ऐसी ग्यारह प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति स्थापन करता है ॥ ४३१॥ ... उक्कीरिदं तु दवं संते पढमहिदिम्हि संथुहदि। .. बंधेवि य आबाधमदित्थिय उक्कट्टदे णियमा ॥ ४३२ ॥ अपकर्षितं तु द्रव्यं सत्त्वे प्रथमस्थितौ संस्थापयति । बंधेपि च आबाधामतिक्रम्योत्कर्षति नियमात् ॥ ४३२ ॥ अर्थ-उनकर्मोंके अंतररूप निषेकोंके द्रव्यको पूर्वकथितरीतिसे सत्त्वमें अपकर्षणकर Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । प्रथमस्थितिमें निक्षेपण करता है और उत्कर्षण किये द्रव्यको आबाधा छोड़कर बंधरूप स्थितिमें निक्षेपण करता है ॥ ४३२ ॥ आगे संक्रमणको कहते हैं सत्त करणाणि यंतरकदपढमे ताणि मोहणीयस्स । इगिठाणियबंधुदओ तस्सव य संखवस्सठिदिबंधो ॥ ४३३॥ तस्साणुपुविसंकम लोहस्स असंकमं च संढस्स । आवेत्तकरणसंकम छावलितीदेसुदीरणदा ॥ ४३४ ॥ सप्तकरणानि अंतरकृतप्रथमे तानि मोहनीयस्य । एकस्थानिकबंधोदयौ तस्यैव च संख्यवर्षस्थितिबंधः ॥ ४३३ ॥ तस्यानुपूर्विसंक्रमं लोभस्यासंक्रमं च षंढस्य । आवृत्तकरणसंक्रमं षडावल्यतीतेषूदीरणता ॥ ४३४ ॥ अर्थ-जिसने अंतर किया ऐसे अंतरकृत जीवके प्रथमसमयमें सात करणोंका प्रारंभ होता है । उनमेंसे मोहनीयका बंध उदय केवल लतारूप एकस्थानगत हुआ ये दो करण, उसी मोहनीयका स्थितिबन्ध पल्यासंख्यातभागसे घटकर संख्यातवर्षमात्र हुआ, उन्हीं मोहप्रकृतियोंका आनुपूर्वी संक्रमण होता है, लोभका अन्यप्रकृतियोंमें संक्रमण नहीं होता, नपुंसकवेदका आवृत्तकरण संक्रम हुआ, और पूर्वकर्मों के बंध होनेवाद आवलि वीतनेपर उदीरणा होती थी अब छह आवलि वीतनेपर उदीरणा होती है । इसतरह सात करणोंका युगपत् प्रारंभ होता है ॥ ४३३ । ४३४ ॥ संछुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णउंसयं चेव । सत्तेव णोकसाए णियमा कोहम्हि संछुहदि ॥ ४३५ ॥ कोहं च छुहदि माणे माणं मायाए णियमि संछुहदि । मायं च छुहदि लोहे पडिलोमो संकमो णत्थि ॥ ४३६ ॥ संक्रामति पुरुषवेदे स्त्रीवेदं नपुंसकं चैव ।। सप्तव नोकषायान् नियमात् क्रोधे संक्रामति ॥ ४३५॥ क्रोधश्च कामति माने मानो मायायां नियमेन संक्रामति । माया च कामति लोभे प्रतिलोमः संक्रमो नास्ति ॥ ४३६ ॥ अर्थ-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका द्रव्य तो पुरुषवेदमें संक्रमण करता है, पुरुषवेद हास्यादि छह ऐसें सात नोकषायका द्रव्य संज्वलन क्रोधमें, क्रोधका द्रव्य मानमें, मानका द्रव्य मायामें, मायाका द्रव्य लोभमें संक्रमण करता है । अब अन्यप्रकार संक्रम नहीं होता ॥ ४३५। ४३६ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १२१ ठिदिबंधसहस्सगदे संढो संकामिदो हवे पुरिसे । पडिसमयमसंखगुणं संकामगचरिमसमओत्ति ॥ ४३७ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते पंढः संक्रामितो भवेत् पुरुषे । प्रतिसमयमसंख्यगुणं संक्रामकचरमसमय इति ॥ ४३७ ॥ अर्थ-अन्तरकरणके अनंतरसमयसे लेकर संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतजानेपर नपुं. सकवेद पुरुषवेदमें संक्रमण किया जाता है । और समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये संक्रमणकालके अंतसमयतक वह द्रव्य संक्रमित होता है ॥ ४३७ ॥ बंधेण होदि उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। गुणसेढि असंखेजापदेसअंगेण वोधवा ॥ ४३८ ॥ बंधेन भवति उदयो अधिक उदयेन संक्रमो अधिकः । गुणश्रेणिरसंख्येयप्रदेशांगेन बोद्धव्या ॥ ४३८ ॥ अर्थ-उस कालमें पुरुषवेदके बंधद्रव्यसे उदय अधिक है और उदयद्रव्यसे संक्रमण द्रव्य अधिक है । वह अधिकता असंख्यात प्रदेशसमूहोंकर गुणश्रेणी अर्थात् गुणकारकी पङ्गिरूप जानना ॥ ४३८ ॥ गुणसे ढिअसंखेजापदेसअंगेण संकमो उदओ। से काले से काले उजो बंधो पदेसंगो ॥ ४३९ ॥ गुणश्रेण्यसंख्येयप्रदेशांगेन संक्रम उदयः । स्खे काले स्खे काले योग्यो बंधः प्रदेशांगः ॥ ४३९ ॥ अर्थ-अपने २ कालमें स्वस्थान अपेक्षा संक्रमसे संक्रम उदयसे उदय प्रदेश अपेक्षाकर असंख्यातरूप गुणकारकी पति लिये है । और अपने पुरुषवेदके बन्धकालमें प्रदेशरूप बंध भजनीय है ॥ ४३९ ॥ इदि संढं संकामिय से काले इत्थिवेदसंकमगो। अण्णं ठिदिरसखंडं अण्णं ठिदिबंधमारवई ॥ ४४०॥ इति षंढं संक्राम्य स्खे काले स्त्रीवेदसंक्रामकः। अन्यस्थितिरसखंडमन्यं स्थितिबंधमारभते ॥ ४४० ॥ ___ अर्थ-इसप्रकार नपुंसकवेदको संक्रमण कर अपने कालमें स्त्रीवेदका संक्रामक होता है अर्थात् पुरुषवेदमें संक्रमणकर क्षपण करनेवाला होता है । वहां प्रथमसमयमें पूर्व से अन्य प्रमाण लिये स्थितिकांडक अनुभागकांडक और स्थितिबन्धको आरंभ करता है ॥ ४४० ॥ थी अद्धा संखेजभागे पगदे तिघादिठिदिबंधो। वस्साणं संखेज थी संकं तापगढ़ते ॥ ४४१॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। स्त्री अद्धा संख्येयभागेपगते त्रिघातिस्थितिबंधः । वर्षाणां संख्येयं स्त्री संक्रमोपगतार्धाते ॥ ४४१ ॥ अर्थ-स्त्रीवेद क्षपणाकालका संख्यातवां भाग वीतनेपर ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय इन तीन घातियाओंके स्थितिबन्धको संकोचकर संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध करता है । उसके वाद स्त्रीवेदका स्थितिसत्त्व अन्तस्थितिकांडकरूप करता है ॥ ४४१ ॥ ताहे संखसहस्सं वस्साणं मोहणीयठिदिसंतं । से काले संकमगो सत्तण्हं णोकसायाणं ॥ ४४२॥ तस्मिन् संख्यसहस्रं वर्षाणां मोहनीयस्थितिसत्त्वम् । वे काले संक्रामकः सप्तानां नोकषायाणाम् ॥ ४४२ ॥ अर्थ-स्त्रीवेद क्षपणाकालके अन्तमें मोहनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण है । उसके बाद अपने कालमें सात नोकषायोंका संक्रामक होता है यानी संज्वलनक्रोधरूप परिणामके नाश करनेवाला होता है ॥ ४४२ ॥ ताहे मोहो थोवो संखेजगुणं तिघादिठिदिबंधो। तत्तो असंखगुणियो णामदुगं साहियं तु वेयणियं ॥ ४४३॥ तत्र मोहः स्तोकः संख्येयगुणं त्रिघातिस्थितिबंधः। ___ ततोऽसंख्येयगुणितं मामद्विकं साधिकं तु वेदनीयम् ॥ ४४३ ॥ अर्थ-उसी जगह प्रथमसमयमें मोहका स्थितिबन्ध थोड़ा है, उससे तीन घातियोंका संख्यातगुणा, उससे नाम गोत्रका असंख्यातगुणा और वेदनीयका साधिक स्थितिबन्ध होता है ॥ ४४३ ॥ ताहे असंखगुणियं मोहादु तिघादिपयडिठिदिसंतं । तत्तो असंखगुणियं णामदुगं साहियं तु वेयणिये ॥ ४४४ ॥ तस्मिन् असंख्यगुणितं मोहात् त्रिघातिप्रकृतिस्थितिसत्त्वम् । ततो असंख्यगुणितं नामद्विकं साधिकं तु वेदनीयं ॥ ४४४ ॥ अर्थ-उसी प्रथमसमयमें संख्यातवर्षमात्र मोहका स्थितिसत्त्व थोड़ा है उससे असंख्यातगुणा तीनघातियाओंका स्थितिसत्त्व है उससे असंख्यातगुणा नाम गोत्रका स्थितिसत्त्व है उससे साधिक वेदनीयका स्थितिसत्त्व है ॥ ४४४ ॥ सत्तण्हं पढमठिदिखंडे पुण्णे दु मोहठिदिसंतं । संखेजगुणविहीणं सेसाणमसंखगुणहीणं ॥ ४४५॥ सप्तानां प्रथमस्थितिखंडे पूर्णे तु मोहस्थितिसत्त्वं । संख्येय गुणविहीनं शेषाणामसंख्यगुणहीनम् ॥ ४४५ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १२३ अर्थ-सात नोकषायोंका पहला स्थितिकांडक पूर्ण होनेपर पूर्वस्थितिसत्त्वसे मोहका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणाकम है और शेष कर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा कम है ॥ ४४५॥ सत्तण्हं पढमट्ठिदिखंडे पुण्णेति घादिठिदिबंधो। संखेजगुणविहीणं अघादितियाणं असंखगुणहीणं ॥ ४४६॥ सप्तानां प्रथमस्थितिखंडे पूर्णे इति घातिस्थितिबंधः। संख्येयगुणविहीनो अघातित्रयाणामसंख्यगुणहीनः ॥ ४४६ ॥ अर्थ-सात नोकषायोंके प्रथमस्थितिखंड पूर्ण होनेपर पूर्वस्थितिबन्धसे चार घातियाओंका तो संख्यातगुणा घटता और तीन अघातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा घटता स्थितिबन्ध होता है ॥ ४४६॥ ठिदिबंधपुछत्तगदे संखेजदिमं गतं तदद्धाए । एत्थ अघादितियाणं ठिदिबंधो संखवस्सं तु ॥ ४४७॥ स्थितिबंधपृथक्त्वगते संख्येयं गतं तदद्धायाम् । अत्र अघातित्रयाणां स्थितिबंधः संख्यवर्षस्तु ॥ ४४७ ॥ अर्थ-उसके वाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतजानेपर उस सात नोकषायक्षपणाकालका संख्यातवां भाग वीतजानेसे नामगोत्र वेदनीयरूप तीन अघातियाओंका स्थितिबंध संख्यातहजार वर्षमात्र होता है ॥ ४४७ ॥ ठिदिखंडपुधत्तगदे संखा भागा गदा तदद्धाए। घादितियाणं तत्थ य ठिदिसंतं संखवस्सं तु ॥४४८ ॥ स्थितिखंडपृथक्त्वगते संख्या भागा गता तदद्धायाः। घातित्रयाणां तत्र च स्थितिसत्त्वं संख्यवर्ष तु ॥ ४४८॥ अर्थ-उसके वाद संख्यातहजार स्थितिकांडक वीतनेपर सात नोकषायकालका संख्यातबहुभाग वीतनेसे एक भागमें तीनघातियाओंका स्थितिसत्त्व संख्यात वर्षमात्र होता पडिसमयं असुहाणं रसबंधुदया अणंतगुणहीणा । बंधोवि य उदयादो तदणंतरसमय उदयोथ ॥ ४४९ ॥ प्रतिसमयमशुभानां रसबंधोदयौ अनंतगुणहीनौ । बंधोपि च उदयात् तदनंतरसमय उदयोथ ॥ ४४९ ॥ अर्थ-अशुभप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध और अनुभाग उदय समय समय प्रति अनन्त Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । गुणा कम होता है। पूर्वसमयके उदयसे उत्तरसमयका बन्ध भी और अनन्तरससयवर्ती उदय भी अनन्तगुणा घटता जानना ॥ ४४९ ॥ बंधेण होदि उदओ अहियो उदएण संकमो अहियो। गुणसेढि अणंतगुणा बोधवा होदि अणुभागे ॥ ४५०॥ बंधेन भवति उदयो अधिक उदयेन संक्रमो अधिकः । गुणश्रेणिरनंतगुणा बोद्धव्या भवति अनुभागे ॥ ४५० ॥ अर्थ-बन्धसे तो उदय अधिक है और उदयसे संक्रम अधिक है । इसतरह अनुभागमें अनन्तगुणी गुणकारकी पंक्ति जानना । भावार्थ-विवक्षित एक समयमें अनुभागके बन्धसे अनन्तगुणा अनुभागका उदय होता है उससे अनन्तगुणा अनुभागका संक्रम होता है ॥ ४५०॥ गुणसेढि अणंतगुणेणूणा य वेदगो दु अणुभागो। गणणादिकंतसेढी पदेसअंगेण वोधवा ॥ ४५१॥ गुणश्रेणिरनंतगुणेनोना च वेदकस्तु अनुभागः । गणनातिक्रांतश्रेणी प्रदेशांगेन बोद्धव्या ॥ ४५१ ॥ - अर्थ-यद्यपि उदयरूप अनुभाग समय समय प्रति अनन्तगुणा घटतारूप गुणकार पति लिये है तौभी प्रदेश अंगकर असंख्यातगुणकारकी पतिरूप जानना । भावार्थसमय २ प्रति अनुभागका उदय अनन्तगुणा घटता है तो भी कर्मपरमाणुओंका उदय समय २ प्रति असंख्यातगुणा वढता है ऐसा जानना ॥ ४५१ ॥ बंधोदएहिं णियमा अणुभागो होदि शंतगुणहीणं । से काले से काले भजो पुण संकमो होदि ॥ ४५२ ॥ बंधोदयाभ्यां नियमादनुभागो भवति अनंतगुणहीनः। स्खे काले स्खे काले भाज्यः पुनः संक्रमो भवति ॥ ४५२ ॥ ___ अर्थ-अपने कालमें अनुभाग बन्ध और उदयकर समय २ प्रति अनन्तगुणा घटता ही है । और अपने २ कालमें संक्रम भजनीय है यानी घटनेके नियमसे रहित है ॥४५२॥ संकमणं तदवढे जाव दु अणुभागखंडयं पडिदि। अण्णाणुभागखंडे आढ़ते णंतगुणहीणं ॥ ४५३॥ संक्रमणं तदवस्थं यावत्तु अनुभागखंडकं पतति । अन्यानुभागखंडे आरब्धे अनंतगुणहीनम् ॥ ४५३ ॥ अर्थ-जिस अनुभागकांडकमें संक्रमण हो उस अनुभागकांडकका घात होकर न निवटे तबतक समय समय प्रति अवस्थित ( समान ) रूप ही अनुभागका संक्रमण होता Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १२६ है । और अन्य नवीन अनुभागकांडकका प्रारंभ होजानेपर पहलेसे अनन्तगुणा घटता अनुभागका संक्रम होता है ॥ ४५३ ॥ सत्तण्हं संकामगचरिमे पुरिसस्स बंधमडवस्सं। सोलस संजलणाणं संखसहस्साणि सेसाणं ॥ ४५४ ॥ सप्तानां संक्रामकचरमे पुरुषस्य बंधोष्टवर्षम् । षोडश संज्वलनानां संख्यसहस्राणि शेषाणाम् ॥ ४५४ ॥ __ अर्थ—सात नोकषायोंके संक्रमणकालके अन्तसमयमें पुरुषवेदका स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण होता है और संज्वलनचौकड़ीका सोलह वर्षमात्र तथा शेष रहे मोह आयु विना छह कर्मोंका संख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है ॥ ४५४ ॥ ठिदिसंतं घादीणं संखसहस्साणि होति वस्साणं । होति अघादितियाणं वस्साणमसंखमेत्ताणि ॥ ४५५॥ स्थितिसत्त्वं घातिनां संख्यसहस्राणि भवंति वर्षाणाम् । भवंति अघातित्रयाणां वर्षाणामसंख्यमात्राणि ॥ ४५५ ॥ अर्थ-वहांपर ही स्थितिसत्त्व चार घातियाओंका संख्यातहजार वर्षमात्र और तीन अघातियाओंका असंख्यातवर्षप्रमाण जानना ॥ ४५५ ॥ पुरिसस्स य पढमहिदि आवलिदोसुवरिदासु आगाला। पडिआगाला छिण्णा पडिआवलियादुदीरणदा ॥ ४५६ ॥ पुरुषस्य च प्रथमस्थितौ आवलिद्वयोरुपरतयोरागालाः। ....... ... प्रत्यागालाः छिन्ना प्रत्यावलिकाया उदीरणता ॥ ४५६ ॥ अर्थ—पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमें आवलि प्रत्यावलि दोनों शेष रहनेपर आगाल प्रत्यागाल नष्ट हो जाते हैं और द्वितीयावलिसे उदीरणा होती है ॥ ४५६ ॥ द्वितीयस्थितिमें स्थित परमाणुओंको अपकर्षण करके प्रथमस्थितिमें प्राप्त करना आगाल कहा जाता है। प्रथमस्थितिमें ठहरे हुए परमाणुओंको उत्कर्षणकर द्वितीयस्थितिमें प्राप्त करना प्रत्यागाल है। अंतरकदपढमादो कोहे छण्णोकसाययं छुहदि । पुरिसस्स चरिमसमए पुरिसवि एणेण सवयं छुहदि ॥ ४५७ ॥ अंतरकृतप्रथमात् क्रोधे षण्णोकषायक संक्रामति । पुरुषस्य चरमसमये पुरुषमपि एतेन सर्व संक्रामति ॥ ४५७ ॥ अर्थ-अन्तरकरण करनेके वाद प्रथमसमयसे लेकर पुरुषवेदके उदयकालके अंतमें छह नोकषायोंका सबसत्त्व संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है । और पुरुषवेदको भी सब संज्वलन क्रोधमें निक्षेपण करता है ॥ ४५७ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । समऊणदोण्णि आवलिपमाणसमय प्पवद्धणवबंधो । विदिये दिये अस्थि हु पुरिसस्सुदयावली च तदा ॥ ४५८ ॥ समयोनद्व्यावलिप्रमाणसमयप्रबद्धनवबंधः । द्वितीयस्यां स्थितौ अस्ति हि पुरुषस्योदयावली च तदा ॥ ४५८ ॥ अर्थ - द्वितीय स्थिति में समय कम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्ध मात्र उदयावलिके निषेक पुरुषवेद के सत्त्वमें शेष रहते हैं अन्य सब संख्यातहजार वर्षमात्र स्थिति लिये पुरुषवेदका पुराना सत्त्व संज्वलनकोध में संक्रमणरूप करदिया जाता है ॥ ४५८ ॥ अब अपगतवेद की क्रिया कहते हैं; सेकाले ओणि अस्सकण्ण आदोलं । करणं तियसण्णगयं संजलणरसेसु वट्टिहिदि ॥ ४५९ ॥ स्वे काले अपवर्तनोद्वर्तनं अश्वकर्णमांदोलम् । करणं त्रिकसंज्ञागतं संज्वलनरसेषु वर्तयति ॥। ४५९ ।। अर्थ-अपने कालमें अपवर्तनोद्वर्तकरण १ अश्वकरण २ आंदोलकरण - इसतरह नामोंको प्राप्त किया है वह संज्वलन चौकड़ीके अनुभाग में प्राप्त होती है ।। ४५९ ॥ आरंभ किये प्रथम अनुभाग कांडक के घात होनेपर शेष अनुभाग क्रोधसे लेकर लोभतक अनन्तगुणा घटता, व लोभसे लेकर क्रोधतक अनन्तगुणा वढता होता है उसे अपवर्तनोद्वर्तनकरण कहते हैं । जैसे घोड़ेका कान मध्यके प्रदेश से आदितक क्रमसे घटता होता है उसीतरह प्रथमअनुभागकांडकका घात हुए वाद क्रोध आदि लोभपर्यतका क्रमसे अनुभाग घटता होता है उसे अश्वकर्ण कहते हैं । जैसे हिंडोलेको रस्सी बन्धती है वह रस्सी के बीचका प्रदेश आदिसे अन्ततक क्रमसे घटता होता है उसीतरह पूर्ववत् क्रोध से लोभतकका अनुभाग घटता होता है उसे आंदोलकरण कहते हैं । ताहे संजलणाणं ठिदिसंतं संखबस्सयसहस्सं । अंतोमुहुत्तीणो सोलसवस्साणि ठिदिबंधो ॥ ४६० ॥ तत्र संज्वलनानां स्थितिसत्त्वं संख्यवर्षसहस्रम् । अंतर्मुहूर्तहीनः षोडशवर्षाणि स्थितिबंधः ॥ ४६० ॥ अर्थ — उस अश्वकर्णके प्रारंभसमय में संज्वलन चारका स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष - मात्र है और स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम सोलह वर्षमात्र है ॥ ४६० ॥ रससंतं आगहिदं खंडेण समं तु माणगे कोहे । माया लोभवि य अहियकमा होति बंधेवि ॥ ४६१ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। रससत्त्वमागृहीतं खंडेन समं तु मानके क्रोधे। मायायां लोभेपि च अधिकक्रमं भवति बंधेपि ॥ ४६१ ॥ अर्थ-प्रारंभ किये प्रथम अनुभागकांडककर सहित इस प्रथमअनुभाग कांडकके घात होनेसे पहले मानमें क्रोधमें मायामें लोभमें जो अनुभागसत्त्व है वह अधिक क्रमलिये हुए है । और इस अश्वकर्णके प्रारंभसमयमें जो अनुभागबन्ध है उसमें भी इसीतरह अल्प बहुत्वका क्रम जानना ॥ ४६१ ॥ रसखंडफड्ढयाओ कोहादीया हवंति अहियकमा । अवसेसफड्ढयाओ लोहादि अणंतगुणिदकमा ॥ ४६२ ॥ रसखंडस्पर्धकानि क्रोधादिकानां भवंति अधिकक्रमाणि । अवशेषस्पर्धकानि लोभादेः अनंतगुणितक्रमाणि ॥ ४६२ ॥ अर्थ-घात करनेके लिये प्रथम अनुभागकांडकरूप ग्रहण किये जो स्पर्धक वे क्रोधके थोड़े हैं उससे मानादिके विशेष अधिक हैं । और प्रथम अनुभागकांडकका घात हुए वाद अवशेष रहे स्पर्धक हैं वे लोभके थोड़े हैं उससे मायादिके अनंतगुणे हैं ऐसा क्रम जानना ॥ ४६२ ॥ अब अश्वकर्णके प्रथम समयमें हुए अपूर्वस्पर्धकोंका व्याख्यान करते हैं; ताहे संजलणाणं देसावरफड्ढयस्स हेहादो। गंतगुणूणमपुचं फड्डयमिह कुणदि हु अणंतं ॥ ४६३ ॥ तस्मिन् संज्वलनानां देशावरस्पर्धकस्य अधस्तनात् । अनंतगुणोनमपूर्व स्पर्धकमिह करोति हि अनंतम् ॥ ४६३ ॥ अर्थ-उस अश्वकरणके आरंभसमयमें चारों संज्वलनकषायोंका एक साथ अपूर्वस्पर्धक देशघाती जघन्यस्पर्धकसे नीचे अनन्तगुणा घटता अनुभागरूप करता है । इस तरह अनन्ते अपूर्वस्पर्धक होते हैं ॥ ४६३ ॥ गणणादेयपदेसगगुणहाणिट्ठाणफड्ढयाणं तु। . होदि असंखेजदिम अवरादु वरं अणंतगुणं ॥ ४६४ ॥ गणनादेकप्रदेशकगुणहानिस्थानस्पर्धकानां तु । ... भवति असंख्येयं अवरतो वरमनंतगुणम् ॥ ४६४ ॥ अर्थ-गणनाकरके परमाणुओंकी गुणहानिके स्पर्धकोंका असंख्यातवां भाग अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण है और जघन्य अपूर्वस्पर्धकोंसे उत्कृष्ट अपूर्वस्पर्धकमें अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे होते हैं ॥ ४६४ ॥ इसका विशेषकथन कषायप्राभूत ( महाधवल) में कहा है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पुवाण फड्ढयाणं छेत्तूण असंखभागदवं तु । कोहादीणमपुवं फड्डयमिह कुणदि अहियकमा ॥ ४६५ ॥ पूर्वान् स्पर्धकान छित्त्वा असंख्यभागद्रव्यं तु । क्रोधादीनामपूर्व स्पर्धकमिह करोति अधिकक्रमम् ॥ ४६५ ॥ अर्थ-संज्वलन क्रोध मान माया लोभके पूर्व स्पर्धकोंके द्रव्यको अपकर्षण भागमात्र असंख्यातका भाग देकर एक भागमात्र द्रव्यको ग्रहणकर यहां अपूर्वस्पर्धक करता है । वे स्पर्धक क्रमसे अधिक २ जानना ॥ ४६५ ॥ समखंडं सविसेसं णिक्खिवियोकट्टिदादु सेसधणं । पक्खेवकरणसिद्धं इगिगोउंछेण उभयत्थ ॥ ४६६ ॥ समखंडं सविशेष निक्षिप्यापकर्षितात् शेषधनम् । प्रक्षेपकरणसिद्धं एकगोपुच्छेन उभयत्र ॥ ४६६ ॥ . अर्थ-अपकर्षणकिये द्रव्यमें कितने एक द्रव्य तो विशेष सहित समखण्डरूप अपूर्वस्पर्धकोंमें निक्षेपणकर अवशेष धनको एक गोपुच्छकर पूर्व अपूर्व दोनों स्पर्धकोंमें निक्षेपण करना सिद्ध हुआ ॥ ४६६ ॥ उक्कट्टिदं तु देदि अपुवादिमवग्गणाउ हीणकमं । पुवादिवग्गणाए असंखगुणहीणयं तु हीणकमा ॥ ४६७ ॥ अपकर्षितं तु ददाति अपूर्वादिमवर्गणा हीनक्रमम् । पूर्वादिवर्गणायामसंख्यगुणहीनकं तु हीनक्रमम् ॥ ४६७ ॥ अर्थ-अपकर्षण किये द्रव्यमेंसे अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें विशेष घटते क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । और अपूर्वस्पर्धककी अंतवर्गणामें दिये हुए द्रव्यसे साधिक अपकर्षण भागहारमात्र असंख्यातगुणा घटता पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें द्रव्य दिया जाता है ॥ ४६७ ॥ कोहादीणमपुवं जे] सरिसं तु अबरमसरित्थं । लोहादिआदिवग्गणअविभागा होंति अहियकमा ॥ ४६८॥ क्रोधादीनामपूर्व ज्येष्ठं सदृशं तु अवरमसदृशम् । लोभादिआदिवर्गणाविभागा भवंति अधिकक्रमाः ॥ ४६८ ॥ ... अर्थ-क्रोधादिचारों कषायोंके अपूर्वस्पर्धकोंकी उत्कृष्टवर्गणा अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोंके प्रमाणकी अपेक्षा समान है और जघन्यवर्गणा असमान है । वहांपर लोभादिककी जघन्य वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेद क्रमसे अधिक हैं ॥ ४६८॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । सगसगफड्डयएहिं सगजेट्टे भाजिदे सगीआदि । मझेवि अणताओ वग्गणगाओ समाणाओ ॥ ४६९ ॥ स्वकस्व स्पर्धकैः स्वकज्येष्ठे भाजिते स्वकीयादि । मध्येपि अनंता वर्गणाः समानाः || ४६९॥ अर्थ ——अपने अपने स्पर्धकों का भाग अपनी २ उत्कृष्टवर्गणाओंमें देनेसे अपनी २ आदिवर्गणाओंका प्रमाण आता है । और मध्यमें भी अनंतवर्गणा चारों कषायों की परस्पर समान होतीं हैं ॥ ४६९ ॥ I जे हीणा अवहारे रूवा तेहिं गुणित्तु पुचफलं । .. हीणवहारेणहिये अद्धं पुत्रं फलेणहियं ॥ ४७० ॥ ये हीना अवहारे रूपाः तैः गुणितं पूर्वफलं । हीनावहारेणाधिके अर्ध पूर्व फलेनाधिकम् ॥ ४७० ॥ अर्थ – 0.00 **** .... .... कोहदुसेसेणवहिदको तक्कंडयं तु माणतिए । रूपहियं सगकंडयहिदकोहादी समाणसला ॥ ४७१ ॥ द्विशेषेणावहितक्रोधे तत्कांडकं तु मानत्रये । रूपाधिकं स्वककांडकहितक्रोधादि समानशलाकाः ॥ ४७१ ॥ १३९ ताहे बहारो पदेसगुणहाणिफड्डयवहारो । पलस्स पढममूलं असंखगुणियकमा होति ॥ ४७२ ॥ तत्र द्रव्यावहारः प्रदेशगुणहानिस्पर्धकावहारः । पल्यस्य प्रथममूलं असंख्यगुणितक्रमा भवंति ॥ ४७२ ॥ अर्थ - क्रोध के स्पधकप्रमाणको मानके स्पर्धकों में घटानेसे जो शेष रहे उसका भाग क्रोध के स्पर्धकोंके प्रमाणको देनेसे जो प्रमाण आवे उसका नाम क्रोध कांडक है और माना - दि तीनमें एक एक अधिक है । और अपने २ कांडकोंका भाग अपने २ स्पर्धकों में देनेसे जो नाना कांडकोंका प्रमाण आता है उतने ही वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद चारों कषायों के परस्पर समान होते हैं ॥। ४७१ ॥ १ इसका अर्थ भाषाकारने नहीं किया इसलिये यहां भी छोड़दिया है । ल. सा. १७ 11 800 11 अर्थ — अश्वकर्णकारकके प्रथमसमय में सब द्रव्यको जिस अपकर्षण भांगहारका भाग देनेसे प्रदेशोंकी एक गुणहानिमें जितना स्पर्धकोंका प्रमाण है उसको जिसका भाग दिया वह असंख्यातगुणा है । उससे पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है ॥ ४७२ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ताहे अपुवफड्ढयपुवस्सादीदणंतिमुवदेहि । बंधो हु लताणंतिमभागोत्ति अपुवफड्डयदो ॥ ४७३॥ तस्मिन् अपूर्वस्पर्धकपूर्वस्यादितो अनंतिममुदेति । ___बंधो हि लतानंतिमभाग इति अपूर्वस्पर्धकतः ॥ ४७३ ॥ अर्थ-उस अर्श्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें उदयनिषेकोंके सब अपूर्व स्पर्धक और पूर्वस्पर्धककी आदिसे लेकर उसका अनंतवां भाग उदय होता है । और लता भागसे अनंतवें भागमात्र अपूर्वस्पर्धकके प्रथम स्पर्धकसे लेकर अन्तस्पर्धकतक जो स्पर्धक हैं उनरूप होकर बंधरूप स्पर्धक परिणमते हैं ॥ ४७३ ॥ विदियादिसु समयेसु वि पढमं व अपुवफड्डयाण विही। णवरि य संखगुणूणं 'दवपमाणं तु' पडिसमयं ॥ ४७४ ॥ णवफड्ढयाण करणं पडिसमयं एवमेव णवरि तु। दवमसंखेजगुणं फहृयमाणं असंखगुणहीणं ॥ ४७५ ॥ द्वितीयादिषु समयेषु अपि प्रथमं व अपूर्वस्पर्धकानां विधिः । नवरि च संख्यगुणोनं द्रव्यप्रमाणं तु प्रतिसमयम् ॥ ४७४ ।। नवस्पर्धकानां करणं प्रतिसमयं एवमेव नवरि तु । द्रव्यमसंख्येयगुणं स्पर्धकमानं असंख्यगुणहीनम् ॥ ४७५ ॥ अर्थ-द्वितीयादि समयोंमें भी प्रथम समयवत् अपूर्वस्पर्धकोंकी विधि है । परंतु विशेष इतना है कि वहां द्रव्य तो क्रमसे असंख्यातगुणा बढता हुआ अपकर्षण किया जाता है और किये हुए नवीन स्पर्धेकोंका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता होता है ऐसा जानना ॥ ४७४।४७५॥ पढमादिसु दिजकमं तकालजफड्ढयाण चरिमोत्ति । हीणकम से काले असंखगुणहीणय तु हीणकर्म ॥४७६ ॥ प्रथमादिषु देयक्रमं तत्कालजस्पर्धकानां चरम इति । हीनक्रमं वे काले असंख्यगुणहीनकं तु हीनक्रमम् ॥ ४७६ ॥ अर्थ-अपूर्वस्पर्धक करण कालके प्रथमादि समयोंमें अपकर्षण द्रव्य देनेका क्रम उसकालमें किये स्पर्धकोंके अन्तपर्यंत तो विशेष हीन क्रम लिये है । उसके वाद असंख्यातगुणा घटता हुआ उसके ऊपर विशेष हीन क्रमलिये जानना ॥ ४७६ ॥ पढमादिसु दिस्सकम तकालजफड्ढयाण चरिमोत्ति । हीणकम से काले हीणं हीणं कम तत्तो ॥ ४७७ ॥ १ यह पाठ भाषामें छूटा हुआ था सो अभिप्रायके अनुसार लिखागया है । इस समय प्राप्त भाषाकी प्रतिमें यह गाथा ही नहीं लिखा है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १३१ प्रथमादिषु दृश्यक्रमं तत्कालजस्पर्धकानां चरम इति । हीनक्रमं स्खे काले हीनं हीनं क्रमं ततः ॥ ४७७ ॥ अर्थ-अपूर्वस्पर्धक करणकालके प्रथमादि समयों में देखनेयोग्य परमाणुओका क्रम उस समयमें किये गये स्पर्धकोंकी अन्तवर्गणा पर्यंत विशेष घटता क्रमलिये है । और उसके ऊपर जो वर्गणा उसका भी दृश्य द्रव्य एक चयमात्र घटता हुआ है ऐसा चय घटता क्रम जानना ॥ ४७७ ॥ आगे प्रथम अनुभागकांडकके घात होनेपर क्या होता है वह दिखलाते हैं; पढमाणुभागखंडे पडिदे अणुभागसंतकम्मं तु । लोभादणंतगुणिदं उवरिं पि अणंतगुणिदकमं ॥ ४७८ ॥ प्रथमानुभागखंडे पतिते अनुभागसत्त्वफर्म तु। लोभादनंतगुणितमुपर्यपि अनंतगुणितक्रमम् ॥ ४७८ ॥ अर्थ-इस तरह प्रथम अनुभागखण्डके पतन होनेपर लोभसे अनन्तगुणा क्रमलिये अनुभागसत्त्वरूप कर्म होता है ऐसा जानना ॥ ४७८ ॥ आदोलस्स य पढमे णिवत्तिदपुवफहयाणि बहु । पडिसमयं पलिदोवममूलासंखेजभागभजियकमा ॥ ४७९ ॥ आंदोलस्य च प्रथमे निर्वर्तितापूर्वस्पर्धकानि बहूनि । प्रतिसमर्थ पलितोपममूलासंख्येयभागभजितक्रमम् ॥ ४७९ ॥ अर्थ-आंदोलकरणके प्रथमसमयमें किये हुए अपूर्वस्पर्धक बहुत हैं उसके वाद समय समय प्रति पत्यके वर्गमूलका असंख्यातवां भागकर भाजित क्रमलिये हुए जानना ॥४७९॥ आदोलस्स य चरिमे पुवादिमवग्गणाविभागादो। दो चढिमादीणादी चढिदवामेत्तणंतगुणा ॥ ४८० ॥ आंदोलस्य च चरमे पूर्वादिमवर्गणाविभागात् । द्विचटितादीनामादिः चटितव्यामात्रानंतगुणाः ॥ ४८० ॥ अर्थ-अश्वकर्णकालके अन्तसमयमें प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अनुभागके थोड़े हैं उससे आगे दूसरे वगैरःके आदिकी वर्गणामें दूने तिगुने आदि अनन्तगुणे जानना ॥.४८० ॥-- आदोलस्स य पढमे रसखंडे पाडिदे अपुषादो। कोहादो अहियकमा पदेसगुणहाणिफड्ढया तत्तो ॥ ४८१ ॥ होदि असंखेजगुणं इगिफड्ढयवग्गणा अणंतगुणा। तत्तो अणंतगुणिदा कोहस्स अपुवफड्ढयाणं च ॥ ४८२ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । माणादीणहियकमा लोभगपुवं च वग्गणा तेसिं । कोहोति य अट्ठपदा अणंतगुणिदक्कमा होति ॥ ४८३ ॥ ' आंदोलस्य च प्रथमे रसखंडे पातिते अपूर्वात् ।। क्रोधात् अधिकक्रमाः प्रदेशगुणहानिस्पर्धकास्ततः ॥ ४८१ ॥ . भवति असंख्येयगुणं एकस्पर्धकवर्गणा अनंतगुणा । ततो अनंतगुणितं क्रोधस्य अपूर्वस्पर्धकानां च ॥ ४८२ ॥ मानादीनामधिकक्रमं लोभगपूर्व च वर्गणा तेषां । __क्रोध इति च अष्ट पदानि अनंतगुणितक्रमाणि भवंति ॥ ४८३ ॥ . अर्थ-अश्वकरणकालके प्रथम अनुभागकांडकका घात होनेपर हुए क्रोधके अपूर्वस्पर्धक थोड़े हैं उससे मानादिके विशेष अधिक क्रमलिये हुए हैं । उससे प्रदेशकी एक गुणहानिके स्पर्धकोंका प्रमाण असंख्यातगुणा है । उससे एकस्पर्धकमेंकी वर्गणाओंका प्रमाण अनन्तगुणा है । उससे क्रोधके सब अपूर्वस्पर्धकोंकी वर्गणाओंका प्रमाण अनंतगुणा है । उससे मानके सब अपूर्व स्पर्धकोंकी वर्गणा विशेष अधिक क्रमलिये हैं । और लोभके अपूर्वस्पर्धकोंकी वर्गणाओंके प्रमाणसे लोभके पूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण अनन्तगुणा है । उससे लोभके पूर्वस्पर्धकोंकी वर्गणाका प्रमाण अनन्तगुणा है । उससे मायादिका प्रमाण क्रोधकी वगणापर्यंत उलटे क्रमसे अनन्तगुणा है । इस प्रकार आठ स्थानोंका अल्पबहुत्व जानना ॥ ४८१ । ४८२ । ४८३ ॥ रसठिदिखंडाणेवं संखेजसहस्सगाणि गंतूणं । तत्थ य अपुवफड्डयकरणविही णिटिदा होई ॥ ४८४ ॥ रसस्थितिखंडानामेवं संख्येयसहस्रकानि गत्वा । तत्र च अपूर्वस्पर्धककरणविधिनिष्ठिता भवति ॥ ४८४ ॥ . अर्थ-इसप्रकार क्रमसे हजारों अनुभागकांडक वीतजानेपर एकस्थितिकांडक होता है । ऐसे संख्यात हजार स्थितिकांडक जिसमें हों ऐसा अन्तर्मुहूर्तमात्र अश्वकरणकाल होनेपर अपूर्वस्पर्धककरणकी क्रिया पूर्ण होजाती है ॥ ४८४ ॥ ... आगे कृष्टि क्रियासहित अश्वकर्ण क्रिया होती है ऐसा यतिवृषभाचार्यका अभिप्राय कहते हैं; हयकण्णकरणचरिमे संजलणाणहवस्सठिदिबंधो। वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति सेसाणं ॥ ४८५॥ हयकर्णकरणचरमे संज्वलनानामष्टवर्षस्थितिबंधः। :: वर्षाणां संख्येयसहस्राणि भवंति शेषाणाम् ॥ ४८५ ॥ .. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १३३ " अर्थ-अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरणकालके अन्तसमयमें संज्वलनचारका आठ वर्षमात्र स्थितिबन्ध है । और शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण है । इसके पहले समयमें अधिक था ॥ १८५॥ ठिदिसत्तमघादीणं असंखवस्साण होंति घादीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेण ॥ ४८६ ॥ स्थितिसत्त्वमघातिनामसंख्यवर्षा भवंति घातिनाम् । .. वर्षाणां संख्येयसहस्राणि भवंति नियमेन ॥ ४८६ ॥ . अर्थ-उसी अन्तसमयमें अघातिया नाम गोत्र वेदनीयका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है पहले समयमें अधिक था । और चार घातियाकर्मोंका स्थिति सत्त्व संख्यातवर्षमात्र है ॥ ४८६ ॥ इस तरह अपूर्वस्पर्धकका अधिकार पूर्ण हुआ। आगे कृष्टिकरणमेंसे बादरकृष्टिकरणकालका प्रमाण कहते हैं छक्कम्मे संछुद्धे कोहे कोहस्स वेदगद्धा जा। - तस्स य पढमतिभागो होदि हु हयकण्णकरणद्धा ॥ ४८७ ॥ विदियतिभागो किट्टीकरणद्धा किट्टिवेदगद्धा हु। तदियतिभागो किट्टीकरणो हयकण्णकरणं च ॥४८८॥ षट्कर्मणि संक्षुब्धे क्रोधे क्रोधस्य वेदकाद्धा या। - तस्य च प्रथमत्रिभागः भवति हि हयकर्णकरणाद्धा ॥ ४८७ ॥ द्वितीयत्रिभागः कृष्टिकरणाद्धा कृष्टिवेदकाद्धा हि । .. . तृतीयत्रिभागः कृष्टिकरणं हयकर्णकरणं च ॥ ४८८ ॥ अर्थ-छह नोकषायोंको संज्वलनक्रोधमें संक्रमणकर अन्तर्मुहूर्तमात्र क्रोधवेदककाल है । उसमेंसे पहला त्रिभाग अर्श्वकर्णकरणका काल है, दूसरा त्रिभाग कुछ कम है वह चार संज्वलनकषायोंके कृष्टि करनेका काल है वह वर्त रहा है और तीसरा त्रिभाग कुछ कम है वह क्रोधकृष्टिका वेदककाल है सो आगे प्रवर्तेगा । इस कृष्टिकरणकालमें भी अश्वकर्णकरण पायाजाता है । क्योंकि यहां भी अश्वकरणके समान संज्वलनकषायोंका अनुभागसत्त्व वा अनुभागकांडक वर्तता है इसलिये यहां कृष्टिसहित अश्वकर्णकरण : पाया जाता है ऐसा जानना ॥ ४८७ ॥ ४८८ ॥ कोहादीणं सगसगपुवापुवगयफड्डयेहिंतो। उक्कडिदूण दचं ताणं किट्टी करेदि कमे ॥ ४८९ ॥ क्रोधादीनां स्वकस्वकपूर्वापूर्वगतस्पर्धकान् । अपकर्षयित्वा द्रव्यं तेषां कृष्टिः करोति क्रमेण ॥ ४८९ ॥. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। अर्थ-संज्वलन क्रोध मान माया लोभका अपना २ पूर्व अपूर्वस्पर्द्धकरूप सब द्रव्यको अपकर्षण भागहारसे भाजितकर एकभागमात्रद्रव्य ग्रहणकर यथा क्रमसे उन क्रोधादिकोंकी कृष्टि करता है ॥ ४८९ ॥ उक्कट्टिददचस्स य पल्लासंखेजभागबहुभागो। बादरकिट्टिणिबद्धो फड्ढयगे सेसइगिभागो ॥ ४९० ॥ अपकर्षितद्रव्यस्य च पल्यासंख्येयभागबहुभागः । बादरकृष्टिनिबद्धः स्पर्धके शेषैकभागः॥ ४९० ॥ अर्थ-अपकर्षण किये द्रव्यको पल्यका असंख्यातवां भागसे भाजितकर बहुभागमात्र द्रव्य बादरकृष्टिका है और शेष एक भागमात्र द्रव्य पूर्व अपूर्व स्पर्धकोंमें निक्षेपण किया जाता है ॥ ४९० ॥ किट्टीयो इगिफड्ढयवग्गणसंखाणणंतभागो दु। एकेकम्हि कसाये तियंति अहवा अणंता वा ॥ ४९१ ॥ कृष्टय एकस्पर्धेकवर्गणासंख्यानामनंतभागस्तु । एकैकस्मिन् कषाये त्रिकत्रिकमथवा अनंता वा ॥ ४९१ ॥ अर्थ-एकस्पर्धकमें वर्गणाशलाकाके अनन्तवें भागमात्र सव कृष्टियोंका प्रमाण है । अनुभागके अल्पबहुत्वकी अपेक्षा एक एक कषायमें संग्रह कृष्टि तीन तीन हैं और एक एक संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां अनन्त अनन्त हैं ॥ ४९१॥ अकसायकसायाणं दधस्स विभंजणं जहा होई । किट्टिस्स तहेव हवे कोहो अकसायपडिबद्धं ॥ ४९२ ॥ अकषायकषायाणां द्रव्यस्य विभंजनं यथा भवति । __कृष्टस्तथैव भवेत् क्रोधो अकषायप्रतिबद्धः ॥ ४९२ ॥ अर्थ-नोकषाय और कषायोंके द्रव्यका विभाग जैसे होता है वैसे ही इनकी कृष्टियोंके प्रमाणका विभाग जानना । और नोकषायकी कृष्टियां क्रोधकी कृष्टियोंमें जोड़नी । क्योंकि नोकषायोंका सव द्रव्य संज्वलनक्रोधरूप संक्रमण हुआ है ॥ ४९२ ॥ पढमादिसंगहाओ पल्लासंखेजभागहीणाओ। कोहस्स तदीयाए अकसायाणं तु किट्टीओ ॥ ४९३ ॥ प्रथमादिसंग्रहाः पल्यासंख्येयभागहीनाः। ___ क्रोधस्य तृतीयायामकषायानां तु कृष्ट्यः ॥ ४९३ ॥ अर्थ-पूर्वरीतिसे प्रथम आदि बारह संग्रह कृष्टियोंका आयाम पल्यके असंख्यातवें Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १३५ भागके क्रमसे घटता जानना । और नोकषायकी सब कृष्टियें क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें प्राप्त जाननी ॥ ४९३ ॥ कोहस्स य माणस्स य मायालोभोदएण चडिदस्स । बारस णव छ त्तिण्णि य संगहकिट्टी कमे होति ॥ ४९४ ॥ क्रोधस्य च मानस्य च मायालोभोदयेन चटितस्य । द्वादश नव षट् त्रीणि च संग्रहकृष्टयः क्रमेण भवंति ॥ ४९४ ॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधके उदय सहित श्रेणी चढनेवाले जीवके चारों कषायोंकी बारह संग्रह कृष्टि होती हैं। मानके उदय सहितके तीन कषायोंकी नौ संग्रह कृष्टियां होती हैं । मायाके उदय सहितके छह संग्रह कृष्टियां और लोभके उदयसहित श्रेणी चढनेवालेके लोभकी ही तीन संग्रह कृष्टियां होती हैं ॥ ४९४ ॥ संगहगे एकेके अंतरकिट्टी हवंति हु अणंता। लोभादि अणंतगुणा कोहादि अणंतगुणहीणा ॥ ४९५ ॥ संग्रहके एकैकस्मिन् अंतरकृष्ट्यो भवंति हि अनंताः । लोभादौ अनंतगुणाः क्रोधादौ अनंतगुणहीनाः ॥ ४९५ ॥ अर्थ-एक एक संग्रह कृष्टिमें अन्तर कृष्टियां अनन्त हैं। उनमें लोभसे लेकर क्रमसे अनन्तगुणा बढता और क्रोधसे लेकर क्रमसे अनन्तगुणा घटता अनुभाग पाया जाता है ॥ ४९५॥ लोभादी कोहोत्ति य सट्टाणंतरमणतगुणिदकमं । तत्तो बादरसंगहकिट्टी अंतरमणंतगुणिदकमं ॥ ४९६ ॥ लोभादितः क्रोधांतं च स्वस्थानांतरमनंतगुणितक्रमं । ततो बादरसंग्रहकृष्टेरंतरमनंतगुणितक्रमम् ॥ ४९६ ॥ अर्थ-कोमसे लेकर क्रोधतक खस्थान अन्तर अनन्तगुणा क्रमलिये है । उससे बादरसंग्रहकृष्टियोंका अन्तर अनन्तगुणा क्रमलिये है ॥ ४९६ ॥ लोहस्स अवरकिट्टिगदत्वादो कोधजेट्ठकिहिस्स । दवोत्ति य हीणकम देदि अणंतेण भागेण ॥ ४९७ ॥ लोभस्य अवरकृष्टिगद्रव्यात् क्रोधज्येष्ठकृष्टेः । द्रव्यांतं च हीनक्रमं दीयते अनंतेन भागेन ॥ ४९७ ॥ अर्थ-लोभकी जघन्य कृष्टिके द्रव्यसे लेकर क्रोधकी उत्कृष्टकृष्टिके द्रव्यतक हीन क्रमलिये द्रव्य दिया जाता है वह अनन्तभाग घटता क्रमलिये है ॥ ४९७॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । लोभस्स अवरकिट्टिगदवादो कोधजेलुकिहिस्स। दवं तु होदि हीणं असंखभागेण जोगेण ॥ ४९८ ॥ लोभस्यावरकृष्टिगद्रव्यतः क्रोधज्येष्ठकृष्टेः ।। द्रव्यं तु भवति हीनं असंख्यभागेन योगेन ॥ ४९८ ॥ अर्थ-लोभकी जघन्यकृष्टिके द्रव्यसे क्रोधकी उत्कृष्ट कृष्टिका द्रव्य असंख्यातवें भागकर हीन है ॥ ४९८ ॥ पडिसमयमसंखगुणं कमेण उक्कटिदूण दचं खु । संग्रहहेट्टापासे अपुवकिट्ठी करेदी हु॥ ४९९ ॥ प्रतिसमयमसंख्यगुणं क्रमेणापकृष्य द्रव्यं खलु ।। संग्रहाधस्तनपार्श्वे अपूर्वकृष्टिं करोति हि ॥ ४९९ ॥ अर्थ-समय २ प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये द्रव्यको अपकर्षणकर संग्रह कृष्टिके नीचे वा पार्श्वमें अपूर्वकृष्टिको करता है ॥ ४९९ ॥ पूर्वसमयमें की हुई कृष्टियोंमें जो नवीनद्रव्यका निक्षेपण करना वह पार्श्वमें करना समझना । हेट्ठा असंखभागं फासे वित्थारदो असंखगुणं । मज्झिमखंडं उभये दवविसेसे हवे फासे ॥५०॥ अधस्तनमसंख्यभागं पार्श्वे विस्तारतो असंख्यगुणं । मध्यमखंडमुभयं द्रव्यविशेषं भवति पार्श्वे ॥ ५०० ॥ अर्थ-संग्रहके नीचे की हुई कृष्टियों का प्रमाण सबके असंख्यातवें भागमात्र है और पार्श्वमें की हुई कृष्टियोंका प्रमाण उनसे असंख्यात गुणा है । वहां पार्श्वमें की हुई कृष्टियोंमें मध्यमखण्ड और उभयद्रव्य विशेष होता है ॥ ५० ॥ . पुवादिम्हि अपुवा पुव्वादि अपुवपढमगे सेसे। दिजदि असंखभागेणूणं अहियं अणंतभागूणं ॥ ५०१॥ __ पूर्वादौ अपूर्वा पूर्वादौ अपूर्वप्रथमके शेषे । दीयते असंख्यभागेनोनमधिकं अनंतभागोनं ॥ ५०१॥ अर्थ-अपूर्व ( नवीन ) कृष्टिकी अन्तकृष्टि से पहले जो पुरातनकृष्टि उसकी आदि कृष्टिमें असंख्यातवें भाग घटता द्रव्य दिया जाता है और पूर्व ( पुरातन) कृष्टिकी अन्तकृष्टिसे अपूर्व ( नवीन ) कृष्टि उसकी प्रथमकृष्टिमें असंख्यातवां भागमात्र अधिक द्रव्यदिया जाता है । तथा शेष सब कृष्टियोंमें पूर्वकृष्टिसे उत्तरकृष्टिमें द्रव्य अनंतवां भागमात्र घटता हुआ दिया जाता है ॥ ५०१॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १३७ बारेकारमणंतं पुवादि अपुवआदि सेसं तु। तेवीस ऊंटकूडा दिजे दिस्से अणंतभागूणं ॥ ५०२॥ द्वादशैकादशमनंतं पूर्वादि अपूर्वादि शेषं तु । त्रयोविंशतिरुष्ट्रकूटा देये दृश्ये अनंतभागोनम् ॥ ५०२ ॥ अर्थ-पुरातन प्रथमकृष्टि बारह और नवीन प्रथमकृष्टि ग्यारह तथा शेषकृष्टियां अनंत जानना । इसप्रकार देयद्रव्यमें तेवीस स्थानोंमें उष्ट्रकूट ( ऊंटकी पीठ समान.) रचना होती है । और दृश्यमानद्रव्यमें अनन्तवें भागमात्र घटता हुआ क्रम जानना ॥ ५०२ ॥ किट्टीकरणद्धाए चरिमे अंतोमुहुत्तसुज्जत्तो। चत्तारि होति मासा संजलणाणं तु ठिदिबंधो ॥५०३॥ कृष्टिकरणाद्धायाः चरमे अंतर्मुहूर्तसंयुक्ताः। चत्वारो भवंति मासाः संज्वलनानां तु स्थितिबंधः ॥ ५०३ ॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालके अन्तसमयमें अन्तर्मुहूर्त अधिक चार मास प्रमाण संज्वलनचारका स्थितिबन्ध है । अपूर्वस्पर्धककरणकालके अन्तसमयमें आठ वर्षमात्र था वह एक एक स्थितिबन्धापरणमें अन्तर्मुहूर्तमात्र कम होकर यहां इतना रहजाता है ॥ ५०३॥ सेसाणं वस्साणं संखेजसहस्सगाणि ठिदिबंधो। मोहस्स य ठिदिसंतं अडवस्संतोमुहुत्तहियं ॥५०४ ॥ शेषाणां वर्षाणां संख्येयसहस्रकानि स्थितिबंधः । मोहस्य च स्थितिसत्त्वं अष्टवर्षोन्तर्मुहूर्ताधिकः ॥ ५०४ ॥ अर्थ-शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र है । पहले भी संख्यातहजार वर्षमात्र ही था वह संख्यातगुणा घटता क्रमरूप संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण होनेपर भी आलापकर इतना ही कहा है । और मोहनीयका स्थितिसत्त्व पहले संख्यातहजार वर्षमात्र था वह घटकर यहां अन्तर्मुहूर्त अधिक आठवर्षमात्र रहा है ॥ ५०४ ॥ घादितियाणं संखं वस्ससहस्साणि होदि ठिदिसंतं । वस्साणमसंखेजसहस्साणि अघादितिण्णं तु ॥ ५०५॥ घातित्रयाणां संख्यं वर्षसहस्राणि भवति स्थितिसत्त्वम् । वर्षाणामसंख्येयसहस्राणि अघातित्रयं तु ॥ ५०५॥ अर्थ-तीन घातियाओंका संख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिसत्त्व है और तीन अघातियाओंका असंख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिसत्त्व है ॥ ५०५ ॥ पडिपदमणंतगुणिदा किट्टीयो फड्ढया विसेसहिया। किट्टीण फड्ढयाणं लक्खणमणुभागमासेज ॥ ५०६ ॥ ल.सा. १८ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । प्रतिपदमनंतगुणिता कृष्टयः स्पर्धका विशेषाधिकाः । कृष्टीनां स्पर्धकानां लक्षणमनुभागमासाद्य ॥ ५०६ ॥ अर्थ — कृष्टियां प्रतिपद अनन्तगुणा अनुभागलिये हैं । स्पर्धक विशेष अधिक अनुभा - गलिये हैं । इसप्रकार अनुभागका आश्रयकर कृष्टि और स्पर्धकोंका लक्षण है । द्रव्य अपेक्षा तो च घटता क्रम दोनोंमें ही है परंतु अनुभागके क्रमकी अपेक्षा इनका लक्षण जुदा कहा है ॥ ५०६ ॥ १३८ पुत्रापुप्फडयमणुहवदि हु किट्टिकारओ णियमा । तस्सद्धा मिट्ठा यदि पढमट्ठिदि आवलीसेसे || ५०७ ॥ पूर्षापूर्वस्पर्धकमनुभवति हि कृष्टिकारको नियमात् । तस्याद्धा निष्ठापयति प्रथमस्थितौ आवलिशेषे ॥ ५०७ ॥ - अर्थ – कृष्टिकरनेवाला उस कालमें पूर्व अपूर्वस्पर्धकोंके ही उदयको नियमसे भोगता है । इसप्रकार संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थिति में उच्छिष्टावलीमात्र काल शेष रहनेपर उस कृष्टिकरणकालको समाप्त करता है ॥ ५०७ || इसतरह कृष्टिकरण अधिकार हुआ । अब कृष्टि वेदना अधिकारको कहते हैं; - से काले किट्टीओ अहवदि हु चारिमासमडवस्सं । बंध संत मोहे पुचालावं तु सेसाणं ॥ ५०८ ॥ स्वे काले कृष्टीन् अनुभवति हि चतुर्मासमष्टवर्षं । बंधः सत्त्वं मोहे पूर्वालापस्तु शेषाणाम् ॥ ५०८ ॥ अर्थ — अपने कृष्टिवेदककालमें कृष्टियोंके उदयको अनुभवता है । द्वितीय स्थिति के निषेकोंमें स्थित कृष्टियोंको प्रथमस्थितिके निषेकोंमें प्राप्तकर भोगता है उस भोगनेका नाम वेदना है । उसके कालके प्रथमसमय में चार संज्वलनरूप मोहका स्थितिबन्ध चार महीने है और स्थितिसत्त्व आठवर्षमात्र है । तथा शेषकमका स्थितिबन्ध स्थितिसत्त्व आलापकर पूर्वोक्तप्रकार जानना || ५०८ ॥ ता कोहुच्छि सर्व्वं घादी हु देसघादी हु । दोसमऊणदुआवलिणवकं ते फट्टयगदाओ ।। ५०९ ॥ तत्र क्रोधोच्छिष्टं सर्वं घातिर्हि देशघातिर्हि । द्विसमयोनद्व्यावलिनवकं तत् स्पर्धकगतम् ॥ ५०९ ॥ अर्थ - अनुभाग सत्त्व है वह क्रोधकी उच्छिष्टावलिका तो सर्वघाती है। और संज्वन चौकड़ीका दो समय कम दो आवलिमात्र नवक समय प्रबद्धका अनुभाग देशघातिशक्तिकर सहित है । क्योंकि कृष्टिरूप बन्ध नहीं है इसलिये स्पर्धकरूप शक्तिकर युक्त है ॥ ५०९ ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १३९ लोहादो कोहादो कारउ वेदउ हवे किट्टी। आदिमसंगहकिहि वेदयदि ण विदिय तिदियं च ॥ ५१०॥ लोभात् क्रोधात् कारको वेदको भवेत् कृष्टेः । आदिमसंग्रहकृष्टिं वेदयति न द्वितीयां तृतीयां च ॥ ५१० ॥ अर्थ-कृष्टिका कारक तो लोभसे लेकर क्रमरूप है और वेदक है वह क्रोधसे लेकर क्रमरूप है । तथा यहां पहले क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिको ही अनुभवता है द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टिको नहीं अनुभवता ऐसा जानना ॥ ५१० ॥ किट्टीवेदगपढमे कोहस्स पढमसंगहादो दु। कोहस्स य पढमठिदी पत्तो उबट्टगो मोहे ॥ ५११ ॥ कृष्टिवेदकप्रथमे क्रोधस्य प्रथमसंग्रहात् तु । क्रोधस्य च प्रथमस्थितिं प्राप्तः अपवर्तको मोहे ॥ ५११ ॥ अर्थ-कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिसे क्रोधकी प्रथमस्थिति करता है, इसप्रकार मोहका घात करता है ॥ ५११ ॥ पढमस्स संगहस्स य असंखभागा उदेदि कोहस्स । बंधेवि तहा चेव य माणतियाणं तहा बंधे ॥ ५१२॥ प्रथमस्य संग्रहस्य च असंखभागान् उदयति क्रोधस्य । बंधेपि तथा चैव च मानत्रयाणां तथा बंधे ॥ ५१२,॥ अर्थ-कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियोंके असं. ख्यात बहुभाग उदय आते हैं । इसीतरह बन्धमें भी वीचकी असंख्यात बहुभागमात्र कृष्टियां जानना । उसीप्रकार मानादि तीनकी असंख्यात बहुभागमात्र कृष्टियां बन्धतीं हैं ॥ ५१२॥ कोहस्स पढमसंगहकिट्टिस्स य हेट्ठिमणुभयठाणा । तत्तो उदयट्ठाणा उवरिं पुण अणुभयट्ठाणा ॥ ५१३॥ उरि उदयट्ठाणा चत्तारि पदाणि होति अहियकमा । मज्झे उभयठाणा होति असंखेजसंगुणिया ॥ ५१४ ॥ क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकृष्टेश्चाधस्तनानुभयस्थानानि । तत उदयस्थानानि उपरि पुनरनुभयस्थानानि ॥ ५१३ ॥ उपरि उदयस्थानानि चत्वारि पदानि भवंति अधिकक्रमाणि । मध्ये उभयस्थानानि भवंति असंख्येयसंगुणितानि ॥ ५१४ ॥ . .. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ — क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियों में नीचले अनुभय स्थान थोड़े हैं उससे उस कृष्टिके उदयस्थान पल्यके असंख्यातवें भागकर अधिक हैं। उससे ऊपरके अनुभयस्थानरूप कृष्टियोंका प्रमाण अधिक है और उससे उदयस्थान अधिक हैं । इसतरह चार पद तो अधिकक्रम लिये हैं । उससे असंख्यातगुणे वीचके उभयस्थान हैं ॥५१३/५१४ ॥ यह प्रथमसमय में अल्पबहुत्व कहा है 1 विदियादिसु चउठाणा पुविलेहिं असंखगुणहीणा । तत्तो असंखगुणिदा उवरिमणुभया तदो उभया ॥ ५१५ ॥ द्वितीयादिषु चतुःस्थानानि पूर्वेभ्यो असंख्यगुणहीनानि । ततो असंख्यगुणितानि उपर्यनुभयानि तत उभयानि ।। ५१५ ।। 'अर्थ - कृष्टिकरणकालके द्वितीयादिसमयों में चारों स्थान पूर्व से असंख्यातगुणे कम हैं। उससे असंख्यातगुणे ऊपरके अनुभयस्थान हैं उससे वीचमें बन्ध उदयरूप उभयकृष्टियां असंख्यातगुणी हैं ॥ ५१५ ॥ पुविलगंधजेट्ठा हेट्ठासंखेज्जभाग मोदरिय | संपडिगो चरिमोदयवरमवरं अणुभयाणं च ॥ ५१६ ॥ पौर्विकबंध ज्येष्ठात् अधस्तनमसंख्येयभागमवतीर्य । सांप्रतिकः चरमोदयवरमवरं अनुभयानां च ॥ ५१६ ॥ अर्थ — पूर्वसमय के बन्धकी उत्कृष्टकृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागमात्र कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमान उत्तरसमयकी अन्तकी केवल उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टि होती है । उसके वाद ऊपर अनुभवष्टिकी जघन्यकृष्टि पाई जाती है ॥ ५१६ ॥ मणुभयवरदो असंखवहुभागमेत्तमोदरिय । संपडिबंधजहण्णं उदयुक्कस्सं च होदित्ति ॥ ५१७ ॥ अधस्तनानुभयवरात् असंख्यबहुभागमात्रमवतीर्य । संप्रतिबंधजघन्यं उदयोत्कृष्टं च भवतीति ॥ ५१७ ॥ अर्थ - पूर्वसमयकी अनुभय कृष्टियोंका असंख्यात बहुभागमात्र कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमान बन्धकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है उसके वाद उदयकृष्टि उत्कृष्ट होती है ॥ ५१७॥ पडसमयं अहिगदिणा उदये बंधे च होदि उक्कस्सं । बंधुये च जहणणं अनंतगुणहीणया किट्टी ॥ ५९८ ॥ प्रतिसमय महिगतिना उदये बंधे च भवति उत्कृष्टं । बंधोदये च जघन्यं अनंतगुणहीनका कृष्टिः ॥ ५१८ ॥ अर्थ- - समय समय प्रति सर्पकी गतिकी तरह उत्कृष्ट तौ उदय और बन्धमें होती Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १४१ ह तथा जघन्य कृष्टि बन्ध और उदयमें अनन्तगुणा घटता क्रमलिये अनुभाग अपेक्षा जाननी ॥ ५१८॥ अब संक्रमणद्रव्यका विधान कहते हैं; संकमदि संगहाणं दवं सगहे ट्ठिमस्स पढमोत्ति। . तदणुदये संखगुणं इदरेसु हवे जहाजोग्गं ॥ ५१९ ॥ संक्रामति संग्रहाणां द्रव्यं स्वकाधस्तनस्य प्रथम इति । ... तदनुदये संख्यगुणमितरेषु भवेत् यथायोग्यम् ॥ ५१९॥ . . अर्थ-संग्रह कृष्टिका द्रव्य है वह अपनी कषायके नीचेकी कषायकी प्रथमसंग्रहकृ. ष्टितक संक्रमण करता है । उसके वाद भोगने योग्य संग्रह कृष्टिमें संख्यातगुणा द्रव्य संक्रमण होता है । अन्यकृष्टियोंमें यथायोग्य संक्रमण होता है ॥ ५१९ ॥ आगे अनुसमय अपवर्तनकी प्रवृत्तिका क्रम कहते हैं; पडिसमयं संखेजदिभागं णासेदि कंडयेण विणा । बारससंगहकिट्टीणग्गादो किट्टिवेदगो णियमा ॥ ५२० ॥ प्रतिसमयं संख्येयभागं नाशयति कांडकेन विना । द्वादशसंग्रहकृष्टीनामग्रतः कृष्टिवेदको नियमात् ॥ ५२० ॥ अर्थ-कृष्टिवेदक जीव है वह कांडक विना बारह संग्रह कृष्टियोंके अग्रभागसे सब कृष्टियोंके असंख्यातवें भागको हरसमय नियमसे नष्ट करता है ॥ ५२०॥ णासेदि परहाणिय गोउंछं अग्गकिट्टियादादो। सहाणियगोउच्छं संकमदवादु घादेदि ॥ ५२१ ॥ नाशयति परस्थानिकं गोपुच्छमग्रकृष्टिघातात् । । स्वस्थानिकगोपुच्छं संक्रमद्रव्यात् घातयति ॥ ५२१ ॥ अर्थ-अग्रकृष्टिघातसे तो परस्थान गोपुच्छको नष्ट करता है और संक्रम द्रव्यसे खस्थान गोपुच्छको नष्ट करता है ॥ ५२१ ॥ आयादो वयमहियं हीणं सरिसं कहिँपि अण्णं च। तम्हा आयद्दवाण होदि सट्ठाणगोउच्छे ॥ ५२२ ॥ आयतो व्ययमधिकं हीनं सदृशं कुत्रापि अन्यच्च । तस्मादायद्रव्यान्न भवति स्वस्थानगोफुलछम् ॥ ५२२ ।। अर्थ-कहींपर संग्रहकृष्टिमें आयद्रव्यसे व्ययद्रव्य अधिक है कहीं हीन है कहीं समान है कहीं दोनों से एक ही है । इसलिये आयद्रव्यसे स्वस्थान गोपुच्छ नहीं होता ॥५२२॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । • अव जिसतरह खस्थान परस्थान गोपुच्छका सद्भाव होता है वैसे कहते हैं; घादयदवादो पुण वय आयदखेत्तदवगं देदि । सेसासंखाभागे अणंतभागूणयं देदि ॥ ५२३ ॥ घातकद्रव्यात् पुनर्व्ययमायतक्षेत्रद्रव्यकं ददाति । शेषासंख्यभागे अनंतभागोनकं ददाति ॥ ५२३ ॥ अर्थ-घातद्रव्यसे व्यय और आयतक्षेत्र द्रव्यको देनेसे एक स्वस्थान गोपुच्छ होता है। शेष असंख्यातभागमें अनन्तभाग कम द्रव्य दिया जाता है यह दूसरा गोपुच्छ हुआ ॥ ५२३ ॥ उदयगदसंगहस्स य मज्झिमखंडादिकरणमेदेण । दवेण होदि णियमा एवं सवेसु समयेसु ॥ ५२४ ॥ उदयगतसंग्रहस्य च मध्यमखंडादिकरणमेतेन । द्रव्येण भवति नियमादेवं सर्वेषु समयेषु ॥ ५२४ ॥ अर्थ-उदयको प्राप्त संग्रह कृष्टिका इस घात द्रव्यसे ही मध्यमखण्डादि करना होता है । इसतरह समयसमय प्रति सब समयोंमें विधान होता है ॥ ५२४ ॥ इसप्रकार घातद्रव्यकर एक गोपुच्छ हुआ। अब दूसरा विधान कहते हैं हेटाकिट्टिप्पहुदिसु संकमिदासंखभागमेत्तं तु । सेसा संखाभागा अंतरकिट्टिस्स दवं तु ॥ ५२५ ॥ अधस्तनकृष्टिप्रभृतिषु संक्रमितासंख्यभागमात्रं तु । शेषा असंख्यभागा अंतरकृष्टेर्द्रव्यं तु ॥ ५२५ ॥ अर्थ-संक्रमणद्रव्यका असंख्यातवां भाग द्रव्य नीचेकी कृष्टिमें दिया जाता है और शेष असंख्यात बहुभाग अन्तरकृष्टियोंका द्रव्य है इसीसे अन्तरकृष्टिकी जाती है ॥५२५॥ बंधहचाणंतिमभागं पुण पुवकिट्टिपडिबद्धं । सेसाणंता भागा अंतरकिट्टिस्स दवं तु ॥ ५२६ ॥ बंधद्रव्यानंतिमभागं पुनः पूर्वकृष्टिप्रतिबद्धम् । शेषानंता भागा अंतरकृष्टेर्द्रव्यं तु ॥ ५२६ ॥ - अर्थ-बन्धद्रव्यका अनन्तवां भाग पूर्वकृष्टि संबन्धी है और शेष अनन्त बहुभाग अन्तर कृष्टियोंका द्रव्य है । इस द्रव्यसे नवीन अन्तरकृष्टि की जाती है ॥ ५२६ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १४३ कोहस्स पढमकिटिं मोत्तूणेकारसंगहाणं तु । बंधणसंकमदवादपुवकिहि करेदी हुँ ॥ ५२७ ॥ क्रोधस्य प्रथमकृष्टिं मुत्तवा एकादशसंग्रहाणां तु। . बंधनसंक्रमद्रव्यादपूर्वकृष्टिं करोति हि ॥ ५२७ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके विना शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके यथासंभव बन्धद्रव्य अथवा संक्रमद्रव्यसे अपूर्व कृष्टि करता है ॥ ५२७ ॥ संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गंतूण । एकेकबंधकिट्टी किट्टीणं अंतरे होदि ॥ ५२८ ॥ संख्यातीतगुणानि च पल्यस्यादिमपदानि गत्वा । एकैकबंधकृष्टिः कृष्टीनामंतरे भवति ॥ ५२८ ॥ अर्थ-अवयवकृष्टियोंका असंख्यातवां भागमात्र बन्ध योग्य नहीं है और वीचमें जो बन्धने योग्य हैं उनकी दो कृष्टियोंके वीचमें एक अन्तराल है ऐसे पल्यके प्रथमवर्गमूलमात्र अन्तरालोंको छोड़कर उन कृष्टियोंके वीचमें एक एक अपूर्वकृष्टि होती है ॥ ५२८ ॥ दिजदि अणंतभागेणूणकमं बंधगे य णंतगुणं । तण्णंतरे णंतगुणूणं तत्तोणतभागूणं ॥ ५२९॥ दीयते अनंतभागेनोनक्रमं बंधके चानंतगुणम् । तदनंतरेऽनंतगुणोनं ततोऽनंतभागोनम् ॥ ५२९ ॥ अर्थ-अनन्तवें भागमात्रसे घटता द्रव्य दूसरी कृष्टिमें देते हैं जबतक अपूर्व कृष्टि प्राप्त न हो तबतक यह क्रम है । और उसके बाद पूर्वकृष्टियोंमें अनन्तगुणा कम द्रव्य दिया जाता है । उसके वाद अनन्तवां भागरूप विशेष घटता क्रमलिये द्रव्य दिया जाता है जबतक कि अपूर्वकृष्टि प्राप्त न हो ॥ ५२९ ॥ इसप्रकार बन्धकृष्टिका खरूप कहा । संकमदो किट्टीणं संगहकिट्टीणमंतरे होदि।। संगह अंतरजादो किट्टी अंतरभवा असंखगुणा ॥ ५३०॥ संक्रमतः कृष्टीनां संग्रहकृष्टीनामंतरे भवति ।। संग्रहे अंतरजातः कृष्टिरंतर्भवा असंख्यगुणा ॥ ५३० ॥ अर्थ-संक्रमणद्रव्यसे उत्पन्न हुई अपूर्वकृष्टियां कितनी एक तो संग्रहकृष्टियोंके नीचे होती हैं और कुछ उनके अंतरालमें उत्पन्न होती हैं । वहांपर संग्रहकृष्टियोंके अन्तरालमें उत्पन्न हुई कृष्टियोंसे अवयव कृष्टियोंके अंतरालमें हुई कृष्टियां असंख्यातगुणी हैं ॥५३०॥ __ १ "बंधणदव्वादो पुण चदुसट्ठाणेसु पढमकिट्टीसु । बंधुप्पवकिट्टीदो संकमकिटी असंखगुणा" ॥ यह गाथा क पुस्तकमें है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . रायचन्द्रजैमशास्त्रमालायाम् । संगहअंतरजाणं अपुवकिमि व बंधकिर्टि वा । इदराणमंतरं पुण पल्लपदासंखभागं तु ॥ ५३१ ॥ संग्रहांतरजानामपूर्वकृष्टिमिव बंधकृष्टिमिव । इतरेषामंतरं पुनः पल्यपदासंख्यभागस्तु ॥ ५३१ ॥ अर्थ-संग्रहकृष्टियोंके नीचे कृष्टि की थीं वहां द्रव्य देनेका विधान अपूर्वकृष्टिके समान जानना । और दूसरी कृष्टियोंका अन्तरालरूपस्थान पल्यके वर्गमूलका असंख्यातवां भाग कोहादिकिट्टिवेदगपढमे तस्स य असंखभागं तु । णासेदि हु पडिसमयं तस्सासंखेजभागकमं ॥ ५३२ ॥ क्रोधादिकृष्टिवेदकप्रथमे तस्य च असंख्यभागस्तु ।। नाशयति हि प्रतिसमयं तस्यासंख्येयभागक्रमम् ॥ ५३२ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जीव प्रथमसमयमें सब कृष्टियोंका असंख्यातवां भागमात्र कृष्टियोंको नाश करता है और इसीतरह क्रमसे हरएक समयमें असंख्यातवां भागमात्र घात जानना ॥ ५३२ ॥ कोहस्स य जे पढमे संगहकिट्टिम्हि णट्ठकिट्टीओ। बंधुज्झियकिट्टीणं तस्स असंखेजभागो हु॥ ५३३॥ क्रोधस्य च ये प्रथमे संग्रहकृष्टौ नष्टकृष्टयः। बंधोज्झितकृष्टीनां तस्यासंख्येयभागो हि ॥ ५३३ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिवेदकके सब कालमें जो कृष्टियां घात हुई उनका प्रमाण बन्धरहित कृष्टियोंके प्रमाणके असंख्यातवें भाग है ॥ ५३३ ॥ कोहादिकिट्टियादिहिदिम्हि समयाहियावलीसेसे । ताहे जहण्णुदीरइ चरिमो पुण वेदगो तस्स ॥ ५३४ ॥ क्रोधादिकृष्टिकादिस्थितौ समयाधिकावलीशेषे । तत्र जघन्यमुदीरयति चरमः पुनर्वेदकस्तस्य ॥ ५३४ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर जघन्यस्थितिकी उदीरणा करता है और वहां ही उस वेदकका अन्तसमय होता है॥५३४॥ ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणो। सत्तोवि य सददिवसा अडमासब्भहियछबरिसा ॥ ५३५ ॥ तत्र संज्वलनानां बंधो अन्तर्मुहूर्तपरिहीनः ।। सत्त्वमपि च शतदिवसा अष्टमासाभ्यधिकषड्डर्षाः ॥ ५३५ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १४५ अर्थ-वहां संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तकम सौ दिन है, पहले चार महीने था। और उसका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूतकम आठमहीना अधिक छह वर्ष है, पहले आठवर्ष था सो घटकर इतना रहा ॥ ५३५ ॥ घादितियाणं बंधो दसवासं तोमुहुत्तपरिहीणा। सत्तं संखं वस्सा सेसाणं संखऽसंखवस्साणि ॥ ५३६ ॥ घातित्रयाणां बंधो दशवर्षा अंतर्मुहूर्तपरिहीनाः।। सत्त्वं संख्यं वर्षाः शेषाणां संख्यासंख्यवर्षाः ॥ ५३६ ॥ अर्थ-घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम दशवर्षमात्र है और उनका स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्षमात्र है तथा अघातिकाँका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र है और आयुके विना तीन अघातियाओंका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है ॥ ५३६ ॥ इसप्रकार क्रोधकी प्रथमसंग्रह कृष्टिवेदकका कथन किया । से काले कोहस्स य विदियादो संगहादु. पढमठिदी। कोहस्स विदियसंगहकिट्टिस्स य वेदगो होदि ॥ ५३७ ॥ स्खे काले क्रोधस्य च द्वितीयतः संग्रहात् प्रथमस्थितिः । क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकृष्टेश्च वेदको भवति ॥ ५३७ ॥ अर्थ-उसके वाद अपने कालमें क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणीरूप प्रथमस्थिति करता है वहांपर ही क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिका वेदक होता है ।। ५३७ ॥ कोहस्स पढमसंगहकिट्टिस्सावलिपमाण पढमठिदी। दोसमऊणदुआवलिणवकं च वि चेउदे ताहे ॥ ५३८ ॥ क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकृष्टेरावलिप्रमाणं प्रथमस्थितिः। द्विसमयोनब्यावलिनवकं चापि चतुर्दश तत्र ॥ ५३८ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थितिमें उच्छिष्टावलिमात्र निषेक और द्वितीयस्थितिमें दो समय कम दो आवलिमात्र नवकसमयप्रबद्धरूप निषेक शेष सत्त्वरूप रहते हैं उसकालमें क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य चौदहगुणा होजाता है ॥ ५३८ ॥ पढमादिसंमहाणं चरिमे फालिं तु विदियपहुदीणं । हेट्ठा सवं देदि हु मज्झे पुत्र व इगिभागं ॥ ५३९ ॥ प्रथमादिसंग्रहाणां चरमे फालिं तु द्वितीयप्रभृतीनाम् । . अधस्तनं सर्व ददाति हि मध्ये पूर्व इव एकभागम् ॥ ५३९ ॥ अर्थ-प्रथमादिसंग्रह कृष्टियोंके अन्तसमयमें जो संक्रमण द्रव्यरूप फालि उसको ल.सा. १९ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । द्वितीयादि संग्रहकृष्टियोंके नीचे सब देते हैं और मध्यमें पूर्ववत् एक भागको देते हैं ॥ ५३९॥ कोहस्स विदियकिट्टी वेदयमाणस्स पढमकिटिं वा। उदओ बंधो णासो अपुवकिट्टीण करणं च ॥ ५४॥ क्रोधस्य द्वितीयकृष्टिं वेदकस्य प्रथम कृष्टिरिव । ___ उदयो बंधो नाशो अपूर्वकृष्टीनां करणं च ॥ ५४० ॥ __ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिका वेदक जीवके उदय, बंध, घात और अपूर्वकृष्टियोंका करना इत्यादि विधान प्रथमसंग्रहकृष्टिके समान जानना चाहिये ॥ ५४० ॥ कोहस्स विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्स संकमणं । सट्टाणे तदियोति य तदणंतर हेहिमस्स पढमं च ॥ ५४१ ॥ क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकृष्टिं वेद्यमानस्य संक्रमणं । स्वस्थाने तृतीयांतं च तदनंतरमधस्तनस्य प्रथमं च ॥ ५४१ ॥ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिके वेदकके खस्थान ( विवक्षितकषाय ) में संक्रमण होवे तो तीसरी संग्रह पर्यंत होता है और परस्थान अपनेसे नीचेकी कषायकी प्रथमसं. ग्रह कृष्टिमें होता है ॥ ५४१॥ पढमो विदिये तदिये हेछिमपढमे च विदियगो तदिये। हेट्रिमपढमे तदियो हेहिमपढमे च संकमदि ॥ ५४२॥ प्रथमो द्वितीये तृतीये अधस्तनप्रथमे च द्वितीयकस्तृतीये । अधस्तनप्रथमे तृतीयोऽधस्तनप्रथमे च संक्रामति ॥ ५४२ ॥ अर्थ-विवक्षितकषायकी पहली संग्रहकृष्टिका द्रव्य अपनी दूसरी तीसरी और नीचली कषायकी पहली संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है, दूसरी संग्रह कृष्टिका द्रव्य अपनी तीसरी और नीचली कषायकी पहली संग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है और तीसरी संग्रह कृष्टिका द्रव्य नीचली कषायकी पहली संग्रहकृष्टिमें ही संक्रमण करता है ॥ ५४२ ॥ कोहस्स पढमकिट्टी सुण्णोत्ति ण तस्स अत्थि संकमणं । लोभंतिमकिट्टिस्स य णत्थि पडित्थावणूणादो ॥ ५४३॥ क्रोधस्य प्रथमकृष्टिः शून्या इति न तस्यास्ति संक्रमणं । लोभांतिमकृष्टश्च नास्ति प्रतिस्थापनमूनतः ॥ ५४३ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि तो शून्य हुई इसलिये उसका संक्रमण नहीं होता और लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिका भी संक्रमण नहीं होता, क्योंकि उलटे संक्रमणका अभाव है ॥ ५४३ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ लब्धिसारः। जस्स कसायस्स जं किर्टि वेदयदि तस्स तं चेव । सेसाण कसायाणं पढमं किहि तु बंधदि हु॥ ५४४ ॥ यस्य कषायस्य यां कृष्टिं वेदयति तस्य तां चैव । शेषाणां कषायाणां प्रथमां कृष्टिं तु बध्नाति हि ॥ ५४४ ॥ अर्थ-जिस कषायकी जिस संग्रहकृष्टिको भोगता है उस कषायकी उसी संग्रहकृष्टिको बांधता है । और शेष कषायोंकी प्रथमसंग्रह कृष्टिको बांधता है ऐसा नियम है ॥ ५४४ ॥ माणतिय कोहतदिये मायालोहस्स तियतिये अहिया। संखगुणं वेदिजे अंतरकिट्टी पदेसो य ॥ ५४५ ॥ मानत्रये क्रोधतृतीये मायालोभस्य त्रिकत्रिके अधिका। संख्यगुणं वेद्यमाने अंतरकृष्टिः प्रदेशश्च ॥ ५४५ ॥ अर्थ-अवयवकृष्टियोंके द्रव्यका अल्पबहुत्व ऐसे है कि मानकी तीन, क्रोधकी तीसरी और माया लोभकी तीन तीन इनमें विशेष अधिक अवयव कृष्टियोंका तथा प्रदेशोंका ( परमाणुओंका ) प्रमाण है । और वेद्यमान ( भोग्य ) क्रोधकी दूसरी कृष्टिमें संख्यातगुणा है ॥ ५४५॥ वेदिजादिहिदिए समयाहियआवलीयपरिसेसे। ताहे जहण्णुदीरणचरिमो पुण वेदगो तस्स ॥ ५४६ ॥ वेद्यमानादि स्थितौ समयाधिकावलिकपरिशेषे । तत्र जघन्यो दीरणचरमः पुनः वेदकस्तस्य ॥ ५४६ ॥ अर्थ-जिस संग्रहकृष्टिको वेदता है उसकी प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहनेपर आगाल प्रत्यागालका नाश होता है और समय अधिक आवलि शेष रहनेपर जघन्यस्थि. तिका उदीरक तथा वेदकका अन्तसमय होजाता है ॥ ५४६ ॥ ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणो। सत्तोवि य दिणसीदी चउमासभहियपणवस्सा ॥ ५४७ ॥ तत्र संज्वलनानां बंधो अंतर्मुहूर्तपरिहीनः । सत्त्वमपि च दिनाशीतिः चतुर्मासान्यधिकपंचवर्षाः ॥ ५४७ ॥ अर्थ-वहां संज्वलनचारका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम अस्सी दिन है और उनका सत्त्व भी अन्तर्मुहूर्तकम चारमास अधिक पांचवर्षमात्र है ॥ ५४७ ॥ घादितियाणं बंधो बासपुधत्तं तु सेसपयडीणं । वस्साणं संखेजसहस्साणि हवंति णियमेण ॥ ५४८ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ . रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । घातित्रयाणां बंधी वर्षपृथत्त्वं तु शेषप्रकृतीनाम् । वर्षाणां संख्येयसहस्राणि भवंति नियमेन ॥ ५४८ ॥ अर्थ-तीन घातियाओंका स्थितिबन्ध पृथक्त्व ( तीनके ऊपर ) वर्षमात्र है और शेष अघातियाओंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र नियमसे है ।। ५४८ ॥ घादितियाणं सत्तं संखसहस्साणि होति वस्साणं । तिण्हं पि अघादीणं वस्साणि असंखमेत्ताणि ॥ ५४९ ॥ घातिन्त्रयाणां सत्त्वं संख्यसहस्राणि भवंति वर्षाणां । नयाणामपि अघातिनां वर्षा असंख्यमानाः ॥ ५४९ ॥ अर्थ-तीन घातियाओंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष है और आयुके विना तीन अघातियाओंका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है ॥ ५४९ ॥ से काले कोहस्स य तदियादो संगहादु पढमठिदी। अंते संजलणाणं बंधं सत्तं दुमास चउवस्सा ॥ ५५० ॥ स्वे काले क्रोधस्य च तृतीयतः संग्रहात् प्रथमस्थितिः । अंते संज्वलनानां बंधं सत्त्वं द्विमासं चतुर्वर्षाः ॥ ५५० ॥ अर्थ-उसके बाद अपने कालमें क्रोधकी तीसरी संग्रह कृष्टिका वेदक होता है उस वेदककालसे आवलि अधिकमात्र प्रथमस्थिति करता है । और वहां अन्तसमयमें संज्वलन चारका स्थितिबन्ध दो महीने तथा स्थितिसत्त्व चार वर्षमात्र जानना । शेषकर्मोंका पूर्ववत् है ॥ ५५० ॥ से काले माणस्स य पढमादो संगहादु पढमठिदी। माणोदयअद्धाए तिभागमेत्ता हु पढमठिदी ॥ ५५१ ॥ खे काले मानस्य च प्रथमात् संग्रहात् प्रथमस्थितिः । मानोदयाद्धायाः त्रिभागमात्रा हि प्रथमस्थितिः ॥ ५५१ ॥ अर्थ-उसके वाद अपने कालमें मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी गुणश्रेणीरूप प्रथमस्थिति करता है । वह मानके वेदककालका तीसरा भाग आवलिसे अधिक उस प्रथमस्थितिका प्रमाण है । वहां मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है ॥ ५५१ ॥ कोहपढमं व माणो चरिमे अंतोमुहुत्तपरिहीणो। दिणमासपण्णचत्तं बंधं सत्तं तिसंजलणगाणं ॥ ५५२॥ क्रोधप्रथमं व मानः चरमे अंतर्मुहूर्तपरिहीनः । दिनमासपंचाशच्चत्वारिंशत् बंधः सत्त्वं त्रिसंज्वलनानाम् ॥ ५५२ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ लब्धिसारः । अर्थ — क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिके वेदककी तरह मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदकविधान जानना । और अन्तसमय में क्रोधके विना तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम पचास दिन है और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम चालीस महीनेमात्र है ॥ ५५२ ॥ बिदियस्स माणचरिमे चत्तं बत्तीस दिवसमासाणि । अंतमुत्तीणा बंधो सत्तो तिसंजलणगाणं ॥ ५५३ ॥ द्वितीयस्य मानचरमे चत्वारिंशत्द्वात्रिंशत् दिवसमासाः । अंतर्मुहूर्तहीना बंधः सत्त्वं त्रिसंज्वलनानाम् ॥ ५५३ ॥ अर्थ - मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिके वेदकके अन्तसमय में तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम चालीस दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम बत्तीस महीनेमांत्र है ॥ ५५३ ॥ तदियस माणचरिमे तीसं चउवीस दिवसमासाणि । तिन्हं संजलणाणं ठिदिबंधो तह य सत्तो य ॥ ५५४ ॥ तृतीयस्य मानचरमे त्रिंशत् चतुर्विंशत् दिवसमासाः । त्रयाणां संज्वलनानां स्थितिबंधस्तथा च सत्त्वं च ॥ ५५४ ॥ अर्थ — उसके बाद मानकी तीसरी संग्रहकृष्टिवेदकके अन्तसमय में तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम तीस दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम चौवीस महीने मात्र होता है ॥ ५५४ ॥ पढमगमायाचरिमे पणवीसं वीस दिवसमासाणि । अंतमुत्तीणा बंधो सत्तो दुसंजलणगाणं ॥ ५५५ ॥ प्रथमगमायाचरमे पंचविंशतिः विंशतिः दिवसमासाः । अंतर्मुहूर्तहीना बंधः सत्त्वं द्विसंज्वलनकयोः ॥ ५५५ ॥ अर्थ – मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि वेदकके अन्तसमय में संज्वलन माया लोभ स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम पच्चीस दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम वीस है ॥ ५५५ ॥ बिदियगमायाचरिमे वीसं सोलं च दिवसमासाणि । अंतमुत्तीण बंध सत्तो दुसंजलणगाणं ॥ ५५६ ॥ द्वितीयगमायाचरमे विंशं षोडश च दिवसमासाः । अंतर्मुहूर्तहीना बंधः सत्त्वं द्विसंज्वलनकयोः ॥ ५५६ ॥ ३ इन दोका महीने का अर्थ – मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिवेदक के अन्तसमयमें दो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम वीस दिन है और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम सोलह महीना है ॥ ५५६ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तदियगमायाचरिमे पण्णरवारसय दिवसमासाणि । दोण्हं संजलणाणं ठिदिबंधो तह य सत्तो य ॥ ५५७ ॥ तृतीयकमायाचरमे पंचदशद्वादश दिवसमासाः । द्वयोः संज्वलनयोः स्थितिबंधस्तथा च सत्वं च ॥ ५५७ ॥ अर्थ-मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिवेदकके अन्तसमयमें दो संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम पन्द्रह दिन है और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम बारह महीने है ॥ ५५७ ॥ मासपुधत्तं वासा संखसहस्साणि बंध सत्तो य । घादितियाणिदराणं संखमसंखेजवस्साणि ॥ ५५८ ॥ मासपृथक्त्वं वर्षाः संख्यसहस्राः बंधः सत्त्वं च ।। घातित्रयाणामितरेषां संख्यमसंख्येयवोंः ॥ ५५८ ॥ अर्थ-तीन घातियाओंका स्थितिबन्ध पृथक्त्वमासप्रमाण है और स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्षमात्र है । तथा तीन अघातियाओंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षमात्र है और स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है ॥ ५५८ ॥ लोहस्स पढमचरिमे लोहस्संतोमुहुत्त बंधदुगे। दिवसपुधत्तं वासा संखसहस्साणि घादितिये ॥ ५५९ ॥ लोभस्य प्रथमचरमे लोभस्यांतर्मुहूर्त बंधद्विके। दिवसपृथक्त्वं वर्षाः संख्यसहस्रा घातित्रये ॥ ५५९ ॥ अर्थ-लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदकके अन्तसमयमें संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अथवा स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त है परंतु बन्धसे सत्त्व संख्यातगुणा है। और तीन घातियाओंका स्थितिबन्ध पृथक्त्वदिनमात्र तथा स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष है ॥ ५५९ ॥ सेसाणं पयडीणं वासपुधत्तं तु होदि ठिदिबंधो। ठिदिसत्तमसंखेजा वस्साणि हवंति णियमेण ॥ ५६० ॥ शेषाणां प्रकृतीनां वर्षपृथक्त्वं तु भवति स्थितिबंधः । स्थितिसत्त्वमसंख्येया वर्षा भवंति नियमेन ॥ ५६० ॥ अर्थ-शेष तीन अघातियाओंका स्थितिबन्ध पृथक्त्ववर्षमात्र है और स्थितिसत्त्व असं. ख्यातवर्षमात्र नियमसे होता है ॥ ५६० ॥ से काले लोहस्स य विदियादो संगहादु पढमठिदी। ताहे सुहुमं किहि करेदि तविदियतदियादो ॥ ५६१॥ स्खे काले लोभस्य च द्वितीयतः संग्रहात् प्रथमस्थितिः । तत्र सूक्ष्मां कृष्टिं करोति तद्वितीयतृतीयतः ॥ ५६१ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १५१ अर्थ-उसके वाद अपने कालमें लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे गुणश्रेणिरूप प्रथमस्थिति करता है उसका प्रमाण शेष अनिवृत्तिकरणकालके आवलिमात्र अधिक है । और उसीकालमें लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि और तृतीयसंग्रहकृष्टिसे सूक्ष्म अनुभाग शक्तिवाली सूक्ष्मकृष्टिको करता है ॥ ५६१ ॥ लोहस्स तदियसंगहकिट्टीए हेढदो अवठ्ठाणं । सुहमाणं किट्टीणं कोहस्स य पढमकिट्टिणिभा ॥ ५६२ ॥ लोभस्य तृतीयसंग्रहकृष्टया अधस्तनतो अवस्थानम् । सूक्ष्मानां कृष्टीनां क्रोधस्य च प्रथमकृष्टिनिभा ॥ ५६२ ।। अर्थ-उन सूक्ष्मकृष्टियोंका लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिके नीचे अवस्थान है और वे सूक्ष्मकृष्टिकां क्रोधकी प्रथमकृष्टिके समान हैं ॥ ५६२ ॥ कोहस्स पढमकिट्टी कोहे छुद्धे दु माणपढमं च । माणे छुद्धे मायापढमं मायाए संछुद्धे ॥ ५६३॥ लोहस्स पढमकिट्टी आदिमसमयकदसुहुमकिट्टी य। अहियकमा पंचपदा सगसंखेजदिमभागेण ॥ ५६४ ॥ क्रोधस्य प्रथमकृष्टिः क्रोधे क्षुब्धे तु मानप्रथमं च । माने क्षुब्धे मायाप्रथमं मायायां संक्षुब्धायाम् ॥ ५६३ ॥ लोभस्य प्रथमकृष्टिरादिमसमयकृतसूक्ष्मकृष्टिश्च । अधिकक्रमाणि पंचपदानि स्वकसंख्येयभागेन ॥ ५६४ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकी अवयवकृष्टियां थोड़ी हैं । क्रोधकी तीनों संग्रह कृष्टियां मानकीके ऊपर मिलानेसे मानकी प्रथमसंग्रहकी अवयवकृष्टियां अधिक हैं । मानकी तीनों कृष्टियां मायाके ऊपर मिलानेसे मायाकी प्रथमसंग्रहकी अवयवकृष्टियां अधिक हैं, मायाकी तीनों संग्रहकृष्टियां लोभके ऊपर मिलानेसे लोभकी प्रथमसंग्रहकी अवयवकृष्टिं विशेष अधिक हैं । इसतरह ये पांच स्थान संख्यातवां भाग अधिक क्रमलिये जानना ॥ ५६३ । ५६४ ॥ सुहुमाओ किट्टीओ पडिसमयमसंखगुणविहीणाओ। दबमसंखेजगुणं विदियस्स य लोहचरिमोत्ति ॥ ५६५ ॥ सूक्ष्माः कृष्टयः प्रतिसमयमसंख्यगुणविहीनाः । द्रव्यमसंख्येयगुणं द्वितीयस्य च लोभचरम इति ।। ५६५ ॥ .. अर्थ-सूक्ष्मकृष्टियां क्रमसे समय समय प्रति असंख्यातगुणी कम हैं और द्रव्य संख्यो. तगुणा द्वितीयसमयसे लेकर लोभकी सूक्ष्मकृष्टिके अन्तसमयतक जानना ॥ ५६५॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । दचं पढमे समये देदि हु सुहुमेसणंतभागूणं । थूलपढमे असंखगुणूणं तत्तो अणंतभागूणं ॥ ५६६ ॥ द्रव्यं प्रथमे समये ददाति हि सूक्ष्मेष्वनंतभागोनम् । स्थूलप्रथमे असंख्यगुणोनं ततो अनंतभागोनम् ॥ ५६६ ॥ अर्थ-सूक्ष्मकृष्टिकरणकालके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टिकी जघन्यकृष्टि से लेकर अनन्तवां भाग घटता हुआ क्रमलिये, उत्कृष्ट सूक्ष्मकृष्टिसे प्रथम जघन्यवादर कृष्टिमें असंख्यातगुणा घटता और उससे द्वितीयादि वादर कृष्टियोंमें अनन्तवां भाग घटता क्रमलिये द्रव्य दिया जाता है ॥ ५६६ ॥ इसतरह प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टिकी प्ररूपणा समाप्त हुई। विदियादिसु समयेसु अपुवाओ पुवकिटिहेट्ठाओ। पुवाणमंतरेसुवि अंतरजणिदा असंखगुणा ॥ ५६७ ॥ द्वितीयादिषु समयेषु अपूर्वाः पूर्वकृष्टयधस्तनाः। पूर्वासामंतरेष्वपि अंतरजनिता असंख्यगुणाः ॥ ५६७ ॥ अर्थ-द्वितीय आदि समयोंमें अपूर्व ( नवीन ) सूक्ष्म कृष्टियां पूर्वकृष्टियों के नीचे की जाती हैं और उनके वीच वीचमें अन्तर कृष्टियां की जाती हैं । वहां अधस्तन कृष्टियोंसे अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण असंख्यातगुणा है ॥ ५६७ ॥ दवगपढमे सेसे देदि अपुवेसणंतभागूणं । पुवापुचपवेसे असंखभागूणमहियं च ॥ ५६८॥ द्रव्यगप्रथमे शेषे ददाति अपूर्वेष्वनंतभागोनम् । पूर्वापूर्वप्रवेशे असंख्यभागोनमधिकं च ॥ ५६८ ॥ अर्थ-द्वितीयादि समयोंमें प्रथमसमयकी तरह द्रव्य दिया जाता है । विशेष इतना है कि सूक्ष्मकृष्टिके द्रव्यको अधस्तन अपूर्वकृष्टियोंमें अनन्तवां भाग घटता हुआ क्रमलिये, पूर्वकृष्टिके प्रवेशमें असंख्यातवां भागमात्र घटता और अपूर्वकृष्टि के प्रवेश होनेपर असंख्यातवां भागमात्र अधिक द्रव्य दिया जाता है ॥ ५६८ ॥ पढमादिसु दिस्सकमं सुहुमेसु अणंतभागहीणकम । बादरकिट्टिपदेसो असंखगुणिदं तदो हीणं ॥५६९ ॥ प्रथमादिषु दृश्यक्रमं सूक्ष्मेष्वनंतभागहीनक्रमम् । बादरकृष्टिप्रदेशो असंख्यगुणितस्ततो हीनः ॥ ५६९ ॥ अर्थ-प्रथमादिसमयोंमें दृश्यमान द्रव्यका क्रम सूक्ष्मकृष्टियोंमें अनन्तगुणा घटता क्रमलिये है। उसके वाद द्वितीयादि द्वितीयसंग्रहकी अन्त वादरकृष्टिपर्यंत दृश्यमानद्रव्य अनन्तगुणां घटता क्रमलिये है ऐसा जानना ॥ ५६९ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । लोहस्स तदियादो मुहुमगदं विदियदो दु तदियगदं । विदीयादो सुमगदं दवं संखेजगुणिदकमं ॥ ५७० ॥ लोभस्य तृतीयतः सूक्ष्मगतं द्वितीयतस्तु तृतीयगतं । द्वितीयतः सूक्ष्मगतं द्रव्यं संख्येयगुणितक्रमम् ॥ ५७० ॥ १५३ अर्थ — लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणत हुआ द्रव्य थोड़ा है उस द्वितीयसंग्रहकृष्टि से तीसरी संग्रह कृष्टिरूप परिणत द्रव्य संख्यातगुणा है और लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसे सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणत द्रव्य संख्यातगुणा है ॥ ५७० ॥ aaraarपढमे कोहस्स य विदियदो दु तदियादो । माणस्स य पढमगदो माणतियादो दु माणपढमगदो ॥ ५७१ ॥ मायतिगादो लोभस्सादिगदो लोभपढमदो विदियं । तदियं च गदा दवा दसपदमद्धियकमा होंति ॥ ५७२ ॥ कृष्टिवेदकप्रथमे क्रोधस्य च द्वितीयतस्तु तृतीयतः । मानस्य च प्रथमगतं मानत्रयात् तु मानप्रथमगतः ।। ५७१ ॥ मानत्रिकात् लोभस्यादिगतो लोभप्रथमतो द्वितीयं । तृतीयं च गतानि द्रव्याणि दशपदमधिकक्रमाणि भवंति ॥ ५७२ ॥ अर्थ – बादर कृष्टिवेदक कालके प्रथमसमय में क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य थोड़ा है, उससे क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष अधिक है, उससे मानकी प्रथम संग्रहकृष्टि से मायाकी प्रथम संग्रहमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष अधिक हैं, उससे मानकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष अधिक है, उससे मानकी तीसरी संग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष अधिक है, उस मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष अधिक है, उस मायाकी दूसरी संग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ प्रदेश विशेष अधिक है, उससे मायाकी तीसरी संग्रहसे लोभकी प्रथम संग्रहमें संक्रमण हुआ प्रदेश विशेष अधिक है, उस लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिसे लोभकी दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ प्रदेशसमूह विशेष अधिक है और उससे लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टि से लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ प्रदेश विशेषअधिक है | इसतरह दशस्थान अधिक क्रमलिये जानने ॥ ५७१ । ५७२ ॥ कोहस् य पढमादो माणादी कोधतदियविदियगदं । तत्तो संखेजगुणं अहियं संखेज्ज संगुणियं ॥ ५७३ ॥ ल. सा. २० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । क्रोधस्य च प्रथमात् मानादौ क्रोधतृतीयद्वितीयगतम् । ततः संख्येयगुणमधिकं संख्येयसंगुणितम् ॥ ५७३ ॥ • अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमसंग्रहमें संक्रमण द्रव्य संख्यातगुणा है, उससे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकी तीसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ द्रव्य विशेष ( पत्यका असंख्यातवां भाग ) अधिक है, उसके वाद क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकी दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमण हुआ प्रदेशसमूह संख्यातगुणा है ॥ ५७३ ॥ लोभस्स विदियकिहि वेदयमाणस्स जाव पढमठिदी। आवलितियमवसेसं आगच्छदि विदियदो तदियं ॥ ५७४ ॥ लोभस्य द्वितीयकृष्टिं वेद्यमानस्य यावत् प्रथमस्थितिः । आवलिनिकमवशेषमागच्छति द्वितीयतस्तृतीयम् ॥ ५७४ ॥ अर्थ-इसप्रकार लोभकी द्वितीयकृष्टिको वेदते हुए जीवके उसकी प्रथमस्थितिमें जबतक तीन आवलि शेष रहें तबतक दूसरीसंग्रह से तीसरी संग्रहको द्रव्य संक्रमणरूप होके प्राप्त होता है ॥ ५७४ ॥ तत्तो सुहुमं गच्छदि समयाहियआवलीयसेसाए । सवं तदियं सुहुमे णव उच्छि8 विहाय विदियं च ॥ ५७५ ॥ ततः सूक्ष्मं गच्छति समयाधिकावलीशेषायाम् । सर्वं तृतीयं सूक्ष्मे नवकमुच्छिष्टं विहाय द्वितीयं च ॥ ५७५ ॥ अर्थ-द्वितीय संग्रहकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर अनिवृत्तिकरणका अन्तसमय होता है वहां लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिका सब द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त होता है और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा आगेके समयमें उच्छिष्टावलिमात्र निषेक और समयकम दो आवलिमात्र नवक समयप्रबद्ध इन दोनोंके विना अन्य सब द्वितीय संग्रहका द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमता है ऐसा जानना ॥ ५७५ ॥ लोभस्स तिघादीणं ताहे अघादीतियाण ठिदिबंधो । अंतो दु मुहुत्तस्स य दिवसस्स य होदि वरिसस्स ॥ ५७६ ॥ लोभस्य त्रिघातिनां तत्राघातित्रयाणां स्थितिबंधः । अंतस्तु मुहूर्तस्य च दिवसस्य च भवति वर्षस्य ॥ ५७६ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयमें संज्वलनलोभका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र है । यहांपर ही मोहबन्धकी व्युच्छित्ति होती है । तीन घातियाओंका एक दिनसे कुछ कम और तीन अघातियाओंका एक वर्षसे कुछ कम स्थितिबन्ध होता है ॥ ५७६ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। ताणं पुण ठिदिसंतं कमेण अंतोमुहुत्तयं होइ । वस्साणं संखेजसहस्साणि असंखवस्साणि ॥ ५७७ ॥ तेषां पुनः स्थितिसत्त्वं क्रमेणांतर्मुहूर्तकं भवति । वर्षाणां संख्येयसहस्राणि असंख्यवर्षाणि ॥ ५७७ ॥ अर्थ-उनका स्थितिसत्त्व क्रमसे लोभका अन्तर्मुहूर्त, तीन घातियाओंका संख्यातहजार वर्ष और तीन अघातियाओंका असंख्यात वर्षमात्र है ॥ ५७७ ॥ से काले सुहुमगुणं पडिवजदि सुहुमकिट्टिठिदिखंडं। आणायदि तद्दवं उक्कट्टिय कुणदि गुणसेडिं ॥ ५७० ॥ स्वे काले सूक्ष्मगुणं प्रतिपद्यते सूक्ष्मकृष्टिस्थितिखंडं। आनयति तद्रव्यं अपकृष्य करोति गुणश्रेणिं ॥ ५७८ ॥ अर्थ-अपने कालमें सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानको प्राप्त होता है वहांपर लोभकी सूक्ष्मकृटिके स्थितिखण्डको करता है और मोह के एकभाग द्रव्यको अपकर्षणकर गुणश्रेणी करता है ॥ ५७८ ॥ गुणसेढि अंतरठिदि विदियट्ठिदि इदि हयंति पवतिया । सुहुमगुणादो अहिया अवद्विदुदयादि गुणसेढी ॥ ५७९ ॥ गुणश्रेणिरंतरस्थितिः द्वितीयस्थितिरिति भवंति पर्वत्रयाणि । ___ सूक्ष्मगुणतोऽधिका अवस्थितोदयादिः गुणश्रेणी ॥ ५७९ ॥ अर्थ-गुणश्रेणी अन्तरस्थिति द्वितीयस्थिति-ये तीन पर्व हैं । सूक्ष्मसांपरायके कालसे कुछ विशेष अधिक उदयादि अवस्थितरूप गुणश्रेणी आयाम है ॥ ५७९ ॥ उक्कट्टिदइगिभागं गुणसेढीए असंखवहुभागं । अंतरहिदे विदियठिदी संखसलागा हि अवहरिया ॥ ५८० ॥ गुणिय चउरादिखंडे अंतरसयलहिदिम्हि णिक्खिवदि । सेसबहुभागमावलिहीणे विदियहिदीए हु॥ ५८१॥ अपकर्षितैकभागं गुणश्रेण्यामसंख्यबहुभागम् । अंतरहिते द्वितीयस्थितिः संख्यशलाका हि अपहरिताः ॥ ५८० ॥ गुणित्वा चतुरादिखंडे अंतरसकलस्थितौ निक्षिपति । शेषबहुभागमावलिहीने द्वितीयस्थितौ हि ॥ ५८१ ॥ अर्थ-अपकर्षण किये द्रव्यका असंख्यातवां एक भाग द्रव्यको गुणश्रेणी आयाममें देते हैं और शेष असंख्यात बहुभागद्रव्यमें अन्तरंस्थितिसे भाजित द्वितीयस्थितिरूप जो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । संख्यातशलाका उसका भागदेनेसे जो आवे उस एकभागको चारसे गुणाकरे जो प्रमाण आवे उतना द्रव्य अन्तरस्थितिमें दिया जाता है । और शेष बहुभागरूप सब द्रव्य अतिस्थापनावलीसे हीन जो द्वितीयस्थिति उसमें दिया जाता है ॥ ५८० । ५८१ ॥ अंतरपढमठिदित्तिय असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु। हीणकम संखेजगुणूणं हीणक्कम तत्तो ॥ ५८२॥ अंतरप्रथमस्थित्यंतं च असंख्यगुणितक्रमेण दीयते हि। हीनक्रम संख्येयगुणोनं हीनक्रमं ततः ॥ ५८२ ॥ अर्थ-अन्तरायामकी प्रथम स्थितितक तो असंख्यातगुणा क्रमलिये द्रव्य दिया जाता है उसके वाद .हीनक्रमलिये संख्यातगुणा घटता फिर हीनक्रमलिये द्रव्य दिया जाता है ॥ ५८२ ॥ अंतरपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणकमेण असंखेजेण गुणं तो विहीणकमं ॥ ५८३ ॥ अंतरप्रथमस्थित्यंतं च असंख्यगुणितक्रमेण दृश्यते हि । हीनक्रमेण असंख्येयेन गुणमतो विहीनक्रमम् ॥ ५८३ ॥ अर्थ-वर्तमान दृश्यद्रव्यसे अन्तरायामके प्रथमनिषेकतक असंख्यातगुणा क्रमलिये दृश्यमान द्रव्य है । उसके वाद अन्तरामके प्रथमनिषेकतक विशेष घटता क्रमलिये है। और उसके बाद द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेकका दृश्यमान द्रव्य असंख्यातगुणा है उसके वाद उसके अन्तनिषेकतक विशेष घटता क्रमलिये दृश्यमान द्रव्य है ॥ ५८३ ॥ आगे प्रथम कांडककी अन्तफालिके द्रव्यका प्रमाणदिखलाते हैं; कंडयगुणचरिमठिदी सविसेसा चरिमफालिया तस्स । संखेजभागमंतरठिदिम्हि सवे तु बहुभागं ॥ ५८४ ॥ ___ कांडकगुणचरमस्थितिः सविशेषा चरमस्फालिका तस्य । संख्येयभागमंतरस्थितौ सर्वायां तु बहुभागम् ॥ ५८४ ॥ अर्थ-कांडकायामसे गुणित जो विशेषसहित अन्तस्थिति उसके प्रमाण अन्तफालिका द्रव्य है । उसका संख्यातवां भाग अन्तरस्थितिमें और संख्यात बहुभाग सब स्थितिमें दिया जाता है ॥ ५८४ ॥ अंतरपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिजदि हु। हीणं तु मोहविदियटिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥ ५८५ ॥ __ अंतरप्रथमस्थितिरिति च असंख्यगुणितक्रमेण दीयते हि । हीनं तु मोहद्वितीयस्थितिकांडकतो द्विघात इति ॥ ५८५ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अर्थ-मोहकी द्वितीयस्थितिकांडकघातसे लेकर द्विचरमकांडक घाततक द्रव्यको अन्तरके प्रथमनिषेकपर्यंत तो असंख्यातगुणा कमकर देते हैं । और उसके ऊपर एक एक विशेष घटता क्रमलिये अतिस्थापनावलिपर्यंत द्रव्यदिया जाता है ॥ ५८५ ॥ अंतरपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणं तु मोहविदियट्ठिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥ ५८६ ॥ अंतरप्रथमस्थितिरिति च असंख्यगुणितक्रमेण दृश्यते हि। हीनं तु मोहद्वितीयस्थितिकांडकतो द्विघातांतम् ॥ ५८६ ॥ अर्थ-मोहके द्वितीयस्थितिकांडकघातसे लेकर द्विचरमकांडक घाततक दृश्यमान द्रव्या. गुणश्रेणीके प्रथमनिषेकसे गुणश्रेणीशीर्षके ऊपर अन्तरायामके प्रथमनिषेकतक असंख्यातगुणा क्रम लिये है । उसके वाद अन्तमें एक विशेष घटता क्रम लिये दृश्यमान द्रव्य है ॥ ५८६ ॥ पढमगुणसेढिसीसं पुविल्लादो असंखसंगुणियं । उवरिमसमये दिस्सं विसेसअहियं हवे सीसे ॥ ५८७ ॥ प्रथमगुणश्रेणिशीर्ष पूर्वस्मात् असंख्यसंगुणितम् । उपरिमसमये दृश्यं विशेषाधिकं भवेत् शीर्षे ॥ ५८७ ॥ अर्थ-प्रथमसमयमें गुणश्रेणीशीर्ष पहलेसे असंख्यातगुणा है और आगेके समयमें शीर्ष में दृश्यद्रव्य विशेष अधिक है ॥ ५८७ ॥ सुहुमद्धादो अहिया गुणसेढी अंतरं तु तत्तो दु। पढमं खंडं पढंमे संतो मोहस्स संखगुणिदकमा ।। ५८८॥ सूक्ष्माद्धातो अधिका गुणश्रेणी अंतरं तु ततस्तु । प्रथमं खंडं प्रथमे सत्त्वं मोहस्य संख्यगुणितक्रमं ॥ ५८८ ॥ अर्थ- सूक्ष्मसापरायके कालसे असंख्यातवें भागकर अधिक मोहकी गुणश्रेणीका आयाम है, उससे अन्तरायाम संख्यातगुणा है, उससे सूक्ष्मसांपरायके मोहका प्रथमस्थितिकांडक आयाम संख्यातगुणा है, और उससे सूक्ष्मसांपरायके प्रथमसमयमें मोहका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ॥५८८॥ एदेणप्पाबहुगविधाणेण विदीयखंडयादीसु । गुणसेढिमुज्झियेया गोपुच्छा होदि सुहुमम्हि ॥ ५८९ ॥ एतेनाल्पबहुकविधानेन द्वितीयकांडकादिषु । गुणश्रेणिमुज्झित्वा एकं गोपुच्छं भवति सूक्ष्मे ॥ ५८९॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । .. अर्थ-इस अल्पबहुत्वविधानकर सूक्ष्मसांपरायमें द्वितीय आदि स्थितिकांडकोंके कालमें गुणश्रेणीको छोड़ ऊपरकी सब स्थितिका एक गोपुच्छ होता है ॥ ५८९॥ सुहुमाणं किट्टीणं हेट्ठा अणुदिण्णगा हु थोवाओ । उवरिं तु विसेसहिया मज्झे उदया असंखगुणा ॥ ५९० ॥ '' सूक्ष्मानां कृष्टीनां अधस्तना अनुदीर्णका हि स्तोकाः। उपरि तु विशेषाधिका मध्ये उदया असंख्यगुणाः ॥ ५९० ॥ अर्थ-सूक्ष्मकृष्टियोंमें जो जघन्यकृष्टि आदि नीचेकी कृष्टियां उदयरूप नहीं होती उनका प्रमाण थोड़ा है । उससे ऊपरली कृष्टियोंका प्रमाण पल्यासंख्यातवें भाग विशेषकर अधिक है और वीचकी उदयरूप कृष्टियां असंख्यातगुणी हैं ॥ ५९० ॥ सुहमे संखसहस्से खंडे तीदे वसाणखंडेण । आगायदि गुणसेढी आगादो संखभागे च ॥ ५९१ ॥ सूक्ष्मे संख्यसहस्र खंडेऽतीतेऽवसानखंडेन । आगाप्यते गुणश्रेणी अग्रतः संख्यभागे च ॥ ५९१ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायमें संख्यातहजार स्थितिकांडक वीतनेपर अन्तके स्थितिखण्डसे पूर्वगुणश्रेणी आयामके संख्यातवें भागमात्र आयाममें गुणश्रेणी करता है ॥ ५९१ ॥ एत्तो सुहुमंतोत्ति य दिजस्स य दिस्समाणगस्स कमो। सम्मत्तचरिमखंडे तक्कदिकजेवि उत्तं च ॥ ५९२ ॥ इतः सूक्ष्मांत इति च देयस्य च दृश्यमानस्य क्रमः। सम्यक्त्वचरमखंडे तत्कृतकार्येपि उक्तमिव ॥ ५९२ ॥ __ अर्थ-यहांसे लेकर सूक्ष्मसांपरायके अन्ततक देय द्रव्य और दृश्यमानद्रव्यका क्रम है वह जैसे सम्यक्त्वमोहनीयके अन्तस्थितिकांडकमें अथवा उसके कृतकृत्यपनेमें पहले कहा था वैसे ही जानना ॥ ५९२ ॥ - उक्किण्णे अवसाणे खंडे मोहस्स णत्थि ठिदिघादो। ठिदिसत्तं मोहस्स य सुहुमद्धासेसपरिमाणं ॥ ५९३ ॥ उत्कीर्णेऽवसाने खंडे मोहस्य नास्ति स्थितिघातः। स्थितिसत्त्वं मोहस्य च सूक्ष्माद्धाशेषपरिमाणं ॥ ५९३ ॥ अर्थ-इसप्रकार मोहराजाके मस्तक समान लोभके अन्तकांडकका घातकरते हुए मोहका स्थितिघात नहीं होता । अब सूक्ष्मसांपरायका जितना काल शेष रहा है उतना ही मोहका स्थितिसत्त्व रहा है ॥ ५९३ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १५९ णामदुगे वेयणिये अडवारमुहुत्तयं तिघादीणं । अंतोमुहुत्तमेत्तं ठिदिबंधो चरिम सुहमम्हि ॥ ५९४ ॥ नामद्विके वेदनीये अष्टद्वादशमुहूर्तकं त्रिघातिनाम् । अंतर्मुहूर्तमान स्थितिबंधः चरमे सूक्ष्मे ॥ ५९४ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें नामगोत्रका आठ मुहूर्त, वेदनीयका बारह मुहूर्त, और तीन पातियाओंका अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्यस्थितिबन्ध होता है ॥ ५९४ ॥ तिण्हं घादीणं ठिदिसंतो अंतोमुहुत्तमत्तं तु । तिण्हमघादीणं ठिदिसंतमसंखेजवस्साणि ॥ ५९५ ॥ त्रयाणां घातिनां स्थितिसत्त्वमंतर्मुहूर्तमानं तु । त्रयाणामघातिनां स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षाः ॥ ५९५ ॥ अर्थ-तीन घातियाओंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तमात्र है और तीन अघातियाओंका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है ॥ ५९५ ॥ इसप्रकार कृष्टिवेदनाका अधिकार कहा। से काले सो खीणकसाओ ठिदिरसगबंधपरिहीणो। सम्मत्तडवस्सं वा गुणसेढी दिज दिस्सं च ॥ ५९६ ॥ स्खे काले स क्षीणकषायः स्थितिरसगबंधपरिहीनः । सम्यक्त्वाष्टवर्षमिव गुणश्रेणी देयं दृश्यं च ॥ ५९६ ॥ अर्थ-समस्त चारित्रमोहके क्षयके वाद अपने कालमें क्षीणकषायवाला होता है । वह स्थिति अनुभाग इन दोनों बन्धोंसे रहित है केवल योगके निमित्तसे प्रकृति प्रदेशरूप ईर्यापथ बन्ध होता है । और जैसे सम्यक्त्वमोहनीयकी आठ वर्षकी स्थिति शेष रहनेपर कथन किया था उसी तरह यहां भी गुणश्रेणी वा देयद्रव्य वा दृश्यमान द्रव्य जानना॥५९६॥ यहां ऐसा जानना कि क्षीणकषायके प्रथमसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्ततक तो पहला पृथक्त्ववितर्कविचार नामा शुक्लध्यान रहता है और क्षीणकषायकालका संख्यातवां भाग शेष रहनेपर एकत्ववितर्क अविचार नामा दूसरा शुक्लध्यान वर्तता है। घादीण मुहुत्तंतं अघादियाणं असंखगा भागा। ठिदिखंडं रसखंडो अणंतभागा असत्थाणं ॥ ५९७ ॥ घातिनां मुहूर्तातमघातिकानामसंख्यका भागा । स्थितिखंडं रसखंडं अनंतभागा अशस्तानाम् ॥ ५९७ ॥ अर्थ-इस क्षीणकषायमें तीन घातियाओंका अन्तर्मुहूर्तमात्र और तीन अघातियाओंका पूर्वसत्त्वके असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकांडक आयाम है और अप्रशस्तप्रकृतियोंका पूर्वके अनन्त बहुभाग अनुभागकांडकका आयाम है ॥ ५९७ ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। बहुठिदिखंडे तीदे संखा भागा गदा तदद्धाए । चरिमं खंडं गिण्हदि लोभं वा तत्थ दिजादि ॥ ५९८॥ . बहुस्थितिखंडेऽतीते संख्यभागा गतास्तद्धायाः । __चरमं खंडं गृह्णाति लोभ इव तन देयादि ॥ ५९८ ॥ .. अर्थ-पूर्वरीतिसे क्रमसे बहुत स्थितिकांडक वीत जानेपर क्षीणकषायकालके संख्यात बहुभाग वीत जानेपर तीन घातियों के अन्तकांडकको ग्रहण करता है । वहां देयादि द्रव्यका विधान सूक्ष्मलोभके समान जानना ॥ ५९८ ॥ चरिमे खंडे पडिदे कदकरणिजोत्ति भण्णदे एसो। तस्स दुचरिमे णिहा पयला सत्तुदयवोछिण्णा ॥ ५९९ ॥ चरमे खंडे पतिते कृतकरणीय इति भण्यते एषः। तस्य द्विचरमे निद्रा प्रचला सत्त्वोदयव्युच्छिन्ना ॥ ५९९ ॥ ___ अर्थ-इसप्रकार अन्तकांडकका घात होनेपर इसको कृतकृत्य वेदक छद्मस्थ कहते हैं । और क्षीणकषायके द्विचरमसमयमें निद्रा प्रचला कर्मका सत्त्व और उदयका व्युच्छेद हुआ ॥ ५९९ ॥ आगे पुरुष वेद और मानादिकषायसहित श्रेणी चढनेवालेके विशेषता कहते हैं कोहस्स य पढमठिदीजुत्ता कोहादिएकदोतीहिं। खवणद्धा हि कमसो माणतियाणं तु पढमठिदी ॥६००॥ क्रोधस्य च प्रथमस्थितियुक्ता क्रोधादिएकद्वित्रयाणाम् । क्षपणाद्धा हि क्रमशो मानत्रयाणां तु प्रथमस्थितिः ॥ ६०० ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमस्थिति सहित क्रोधादि एक दो तीन कषायोंका क्षपणाकाल क्रमसे मानादि तीन कषायोंकी प्रथमस्थिति होती है ॥ ६०० ॥ माणतियाणुदयमहो कोहादिगिदुतिय खवियपणिधम्हि । हयकण्णकिट्टिकरणं किच्चा लोहं विणासेदि ॥ ६०१॥ मानत्रयाणामुदयमथ क्रोधाद्येकद्विवयं क्षपकप्रणिधौ। ... हयकर्णकिट्टिकरणं कृत्वा लोभं विनाशयति ॥ ६०१॥ अर्थ-मानादिक तीन कषायोंके उदयसहित श्रेणी चढा जीव क्रमसे क्रोधादिक एक दो तीन कषायोका क्षपणाकालके निकट अश्वकर्ण सहित कृष्टिकरणको करके लोभका नाश करता है ॥ ६०१ ॥ इसप्रकार पुरुषवेदसहित चढे चारप्रकार जीवोंकी विशेषता कही । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। १६१ अब स्त्रीवेदसहित चढे चारप्रकार जीवोंके विशेष कहते हैं; पुरिसोदएण चडिदस्सित्थी खवणद्धउत्ति पढमठिदी। इत्थिस्स सत्तकम्मं अवगदवेदो समं विणासेदि ॥ ६०२॥ पुरुषोदयेन चटितस्य स्त्री क्षपणाद्धांतं प्रथमस्थितिः । स्त्रिया सप्तकर्माणि अपगतवेदः समं विनाशयति ॥ ६०२ ॥ अर्थ-पुरुषवेदसहित चढे हुए जीवके स्त्रीवेदके क्षपणाकालतक प्रथमस्थिति होती है। स्त्रीवेद सहित चढा जीव वेद उदयकर रहित हुआ सात नोकषायके क्षपणाकालमें सब सात नोकषायोंको खिपाता है ।। ६०२॥ अब नपुंसकवेद सहित चढे जीवोंका व्याख्यान करते हैं थीपढमहिदिमेत्ता संढस्सवि अंतरादु सेढेक्क । तस्सद्धाति तदुवरिं संढा इच्छि च खवदि थीचरिमे ॥ ६०३॥ अवगयवेदो संतो सत्त कसाये खवेदि.कोहुदये । पुरिसुदये चडणविही सेसुदयाणं तु हेटुवरि ॥ ६०४ ॥ स्त्रीप्रथमस्थितिमात्रा षंढस्यापि अंतरात् षंढेकः । तस्याद्धा इति तदुपरि षंढं स्त्रीं च क्षपयति स्त्रीचरमे ॥ ६०३ ॥ अपगतवेदः संतः सप्त कषायान् क्षपयति क्रोधोदयेन । पुरुषोदयेन चटनविधिः शेषोदयानां तु अधस्तनोपरि ॥ ६०४ ॥ अर्थ-स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति प्रमाण नपुंसकवेदकी भी प्रथमस्थिति स्थापन करता है । अन्तरकरणके वाद नपुंसकवेदका क्षपणाकाल है । उसके वाद स्त्रीवेदके क्षपणाकालके अंतसमयमें सब नपुंसक व स्त्रीवेदको एक समयमें क्षय करता है। उसके बाद वेद रहित हुआ सात नोकषायोंका क्षय करता है । अब शेष नीचे वा ऊपर सब विधान क्रोधके उदय और पुरुषवेदके उदयसहित श्रेणी चढे हुएके समान जानना ॥ ६०३ । ६०४ ॥ इसतरह क्षीणकषायके द्विचरमसमयतक कथन किया । अब आगेका कथन करते हैं; चरिमे पढमं विग्धं चउदंसण उदयसत्तवोछिण्णा। . से काले जोगिजिणो सचण्हू सवदरसी य ॥ ६०५॥ चरमे प्रथमं विघ्नं चतुर्दर्शनं उदयसत्त्वव्युच्छिन्नाः । स्खे काले योगिजिनः सर्वज्ञः सर्वदर्शी च ॥ ६०५॥ अर्थ-क्षीणकषायके अन्तसमयमें पहला पांचप्रकार ज्ञानावरण पांचप्रकार अन्तराय __ ल. सा. २१ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । और चारप्रकार दर्शनावरण उदयसे और सत्त्वसे व्युच्छित्तिरूप होते हैं । इसप्रकार क्षीणकषायके अन्तसमयमें घातिकर्मोंका नाश करके उसके वाद अपने कालमें सयोग केवली जिन होता है । वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है । उसका शरीर निगोदरहित परमौदारिक होजाता है ऐसा जानना ॥ ६०५॥ खीणे धादिचउक्के गंतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपजवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ॥ ६०६ ॥ क्षीणे घातिचतुष्केऽनंतचतुष्कस्य भवति उत्पत्तिः । सादिरपर्यवसिता उत्कृष्टानंतपरिसंख्या ॥ ६०६ ॥ अर्थ-चार घातियाकर्मोंका नाश होनेपर अनन्तज्ञानादि अनन्तचतुष्टयकी उत्पत्ति होती है और वह उत्कृष्टानन्तकी संख्या आदि सहित और अन्तरहित है ॥ ६०६ ॥ आवरणदुगाण खये केवलणाणं च दंसणं होइ। विरियतरायियस्स य खएण विरियं हवे गंतं ॥ ६०७ ॥ आवरणद्विकयोः क्षये केवलज्ञानं च दर्शनं भवति । __वीर्यातरायिकस्य च क्षयेण वीर्य भवेदनंतम् ॥ ६०७ ॥ अर्थ-ज्ञानावरण दर्शनावरण इन दोनोंके नाशसे केवलज्ञान और केवल दर्शन होते हैं । और वीर्यांतरायकर्मके क्षयसे अनन्तवीर्य होता है, वह सब पदार्थोंको सदाकाल जाननेपर भी खेद नहीं होने देनेमें उपकारी ऐसी सामर्थ्यरूप है ॥ ६०७ ॥ णवणोकसायविग्घचउक्काणं च य खयादणंतसुहं । अणुवममवाबाहं अप्पसमुत्थं णिरावेक्खं ॥ ६०८॥ नवनोकषायविघ्नचतुष्काणां च क्षयादनंतसुखम् । अनुपममव्याबाधमात्मसमुत्थं निरपेक्षम् ॥ ६०८ ॥ अर्थ-नव नोकषाय और दानादि चार अन्तरायका क्षय होनेसे अनन्तसुख होता है । वह अनुपम है, किसीसे बाधा नहीं किया जाता इसलिये अव्यावाध है, आत्मासे ही उत्पन्न हुआ है और इन्द्रियादि अपेक्षासे रहित है ॥ ६०८॥ सत्तण्हं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उवसमदो खयदो दु चरित्तमोहस्स ॥ ६०९॥ सप्तानां प्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकं तु भवति सम्यक्त्वम् । वरचरणं उपशमतः क्षयतस्तु चारित्रमोहस्य ॥ ६०९ ॥ ... अर्थ-चार अनन्तानुबन्धी और तीन मिथ्यात्व-इन सातप्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। सम्यक्त्व होता है । तथा चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंके उपशमसे वा क्षयसे उत्कृष्ट यथाख्यातचारित्र होता है वह निःकषाय आत्मचरणरूप है ॥ ६०९॥ ___ अब यहां कोई प्रश्न करे कि केवलीके असातावेदनीयके उदयसे क्षुधा आदि परीषह होती हैं इसलिये आहारादि क्रियाका संभव है उसका समाधान कहते हैं जंणोकसायविग्घचउक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपयडिणुदयभवं इंदियखेदं हवे दुक्खं ॥ ६१०॥ यत् नोकषायविघ्नचतुष्काणां बलेन दुःखप्रभृतीनाम् । ____ अशुभप्रकृतीनामुदयभवं इंद्रियखेदं भवेत् दुःखं ॥ ६१० ॥ अर्थ-जो नोकषाय और चार अन्तरायके उदयके बलसे असाता वेदनी आदि अशुभ प्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न हुआ ऐसा इन्द्रियोंके खेद ( आकुलता ) उसका नाम दुःख है । वह केवलीके नहीं है । ६१० ॥ जं णोकसायविग्घचउक्काण बलेण सादपहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥ ६११ ॥ यत् नोकषायविघ्नचतुष्काणां बलेन सातप्रभृतीनाम् । शुभप्रकृतीनामुदयभवं इंद्रियतोषं भवेत् सौख्यम् ॥ ६११ ॥ अर्थ—जो नोकषाय और चार अन्तरायके उदयके बलसे साता वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्रियोंको संतोष (कुछ निराकुलता) उसका नाम इन्द्रियजनित सुख है । वह भी केवलीके नहीं संभव होता है ॥ ६११॥ उसका कारण बतलाते हैं; णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सातासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं ॥ ६१२ ॥ नष्टौ च रागद्वेषौ इंद्रियज्ञानं च केवलिनि यतः । तेन तु सातासातजसुखदुःखं नास्ति इंद्रियजम् ॥ ६१२ ॥ अर्थ-क्योंकि केवलीमें रागद्वेष नष्ट होगये हैं और इन्द्रियजनितज्ञान भी नष्ट होगया है इसकारण साता व असाता वेदनीयके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्रियजनित सुख दुःख नहीं है । इस हेतुसे यह वात सिद्ध हुई कि कारणके सद्भावसे परीषह उपचारमात्र हैं तो भी उनका दुःखरूप कार्य नहीं होता ॥ ६१२ ॥ अब दूसरा हेतु कहते हैं; समयहिदिगो बंधो सादस्सुयप्पिगो जदो तस्स । तेण असादस्सुदओ सादसरूपेण परिणमदि ॥ ६१३॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । समयस्थितिको बंधः सातस्योदयात्मको यतो तस्य । तेन असातस्योदयः सातस्वरूपेण परिणमति ॥ ६१३ ॥ अर्थ-क्योंकि केवली भगवानके एक समयमात्र स्थितिलिये सातावेदनीयका बन्ध होता है वह उदयस्वरूप ही है इसकारण असाताका उदय भी सातारूप होके परिणमता है । यहां परमविशुद्धि होनेसे साताका अनुभाग बहुत है इसलिये असाता जन्य क्षुधादि परीषह की वेदना नहीं है और वेदनाके विना उसका प्रतीकार आहार भी नहीं संभव होता ॥ ६१३ ॥ ___ आगे कोई प्रश्न करे कि आहार नहीं है तो केवलीके आहारमार्गणा कैसे कही है उसका उत्तर कहते हैं; पडिसमयं दिवतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं । समयपबद्धं बंधदि गलिदवसेसाउमेत्तठिदी ॥ ६१४ ॥ प्रतिसमयं दिव्यतमं योगी नोकर्मदेहप्रतिबद्धम् । समयप्रबद्धं बध्नाति गलितावशेषायुमात्रस्थितिः ॥ ६१४ ॥ अर्थ-सयोगकेवली जिन समय समय प्रति औदारिक शरीर संबन्धी अति उत्तम परमाणुओंके समयप्रबद्धको ग्रहण करते हैं उसकी स्थिति आयु व्यतीत होनेके वाद जितना शेष रहे उतनी है । इसलिये नोकर्मवर्गणाको ग्रहण करनेका ही नाम आहारमार्गणा है। उसका सद्भाव केवलीमें है । क्योंकि ओज १ लेप्य १ मानस १ कवल १ कर्म १ नोकर्म १ भेदसे छह प्रकारका आहार है। उनमेंसे केवलीके कर्म नोकर्म ये दो आहार होते हैं । साता वेदनीयके समयप्रबद्धको ग्रहण करता है वह कर्म आहार है और औदारिक समयप्रबद्धको ग्रहण करता है वह नोकर्म आहार है ॥ ६१४ ॥ णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे । णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ॥ ६१५ ॥ नवरि समुद्धातगते प्रतरे तथा लोकपूरणे प्रतरे। नास्ति त्रिसमये नियमात् नोकर्माहारकस्तत्र ॥ ६१५ ॥ अर्थ-इतना विशेष है कि केवलसमुद्घातको प्राप्त केवली के दो प्रतरके समय और एक लोकपूरणका समय-इसतरह तीन समयोंमें नोकर्मरूप आहार नियमसे नहीं है अन्य सब सयोगीकालमें नोकर्मका आहार है ॥ ६१५ ॥ अब जिस कालमें समुद्धात क्रिया होती है उसे कहते हैं; अंतोमुहुत्तमाऊ परिसेसे केवली समुग्घादं । दंड कवाटं पदरं लोगस्स य पूरणं कुणई ॥ ६१६ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। अंतर्मुहूर्तमायुषि परिशेषे केवली समुद्धातम् । दंडं कपाटं प्रतरं लोकस्य च पूरणं करोति ॥ ६१६ ॥ अर्थ-अपनी आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर केवली समुद्धात क्रिया करते हैं । वह दण्ड कपाट प्रतर लोकपूर्णरूप चार तरहकी करते हैं ॥ ६१६ ॥ हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावजिदं हवे करणं । · तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स ॥ ६१७॥ अधस्तनं दंडस्यांतर्मुहूर्तमावर्जितं भवेत् करणं । तच्च समुद्घातस्य च अभिमुखभावो जिनेंद्रस्य ॥ ६१७ ॥ अर्थ-दण्डसमुद्घातकरनेके कालके पहले अन्तर्मुहूर्ततक आवर्जितकरण होता है । वह जिनेंद्र देवको समुद्धातक्रियाके सन्मुख होना है ॥ ६१७ ॥ सहाणे आवजिदकरणेवि य णत्थि ठिदिरसाण हदी। उदयादि अवट्ठिदया गुणसेढी तस्स दवं च ॥ ६१८॥ स्वस्थाने आवर्जितकरणेपि च नास्ति स्थितिरसयोः हतिः। उदयादिः अवस्थिता गुणश्रेणी तस्य द्रव्यं च ॥ ६१८॥ अर्थ-आवर्जितकरण करनेके पहले खस्थानमें और आवर्जितकरणमें भी सयोगकेवलीके कांडकादि विधानकर स्थिति और अनुभागका घात नहीं होता तथा उदयादि अव. स्थितरूप गुणश्रेणी आयाम है और उस गुणश्रेणीका द्रव्य भी अवस्थित है ॥ ६१८ ॥ आगे आवर्जित करणमें गुणश्रेणी आयाम दिखलाते हैं; जोगिस्स सेसकालो गयजोगी तस्स संखभागो य ।। जावदियं तावदिया आवज्जिदकरणगुणसेढी ॥ ६१९ ॥ योगिनः शेषकालः गतयोगी तस्य संख्यभागश्च । यावत् तावत्कं आवर्जितकरणगुणश्रेणी ॥ ६१९ ॥ अर्थ-आवर्जितकरण करनेके पहलेसमय जो सयोगीका शेषकाल, अयोगीका सवकाल और अयोगीके कालका संख्यातवां भाग इन सबको मिलानेसे जितना होवे उतना आवर्जितकरणकी अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है ॥ ६१९ ॥ अधातिया कर्मोंकी स्थिति आयुके समान करने के लिये जीवके प्रदेशोंका फैलनारूप केवलिसमुद्धात होता है । पहले समयमें दण्ड, दूसरे समयमें कपाट, तीसरे समयमें प्रतर करता है उस समय वातवलयके विना बाकी सब लोकमें आत्माके प्रदेश फैल जाते हैं सो इसका नाम मंथान भी है और चौथे समयमें लोकपूर्ण होता है उस जगह वातवलयसहित सबलोकमें आत्माके प्रदेश फैल जाते हैं । ऐसे चार समयोंमें चाररूप क्रमसे प्रदेश फैलते हैं। . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । आगे कार्यविशेष जो होता है उसे कहते हैं; — ठिदिखंडमसंखेजे भागे रसखंडमप्पसत्थाणं । दि अनंता भागा दंडादीचउस समएसु ॥ ६२० ॥ स्थितिखंडमसंख्येयान् भागान् रसखंडमप्रशस्तानाम् । हंति अनंतान् भागान् दंडादिचतुर्षु समयेषु ॥ ६२० ॥ अर्थ — दण्डादिके चार समयों में स्थितिखण्ड - असंख्यात बहुभागमात्र और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागखण्ड अनन्त भागमात्र घातता है ॥ ६२० ॥ चउसमएसुरसस्त य अणुसमओवट्टणा असत्थाणं । ठिदिखंडस्सिगिसमयिगघादो अंतोमुहुत्तुवरिं ॥ ६२१ ॥ चतुःसमयेषु रसस्य च अनुसमयापवर्तनमशस्तानाम् । स्थितिखंडस्यैकसमयिकघातो अंतर्मुहूर्तोपरि ॥ ६२१ ॥ 1 अर्थ — चारसमयों में अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका अनुसमय अपवर्तन होता है अर्थात् समय समय प्रति अनुभाग घटता है । और स्थितिखण्डका घात एकसमयकर होता है । एक एक समयमें एकएक स्थितिकांडक घात करना यह माहात्म्य समुद्धात क्रियाका है । लोकपूर्णके वाद अन्तर्मुहूर्तकालकर स्थिति अनुभागका घटाना जानना ॥ ६२१ ॥ जगपूरणम्हि एक्का जोगस्स य वग्गणा ठिदी तत्थ । अंतोमुहुत्तमेत्ता संखगुणा आउआ होहि ॥ ६२२ ॥ जगत्पूरणे एका योगस्य च वर्गणा स्थितिस्तत्र । अंतर्मुहूर्तमात्रा संख्यगुणा आयुषो भवति ।। ६२२ ॥ अर्थ – लोकपूर्णके समयमें योगोंकी एक वर्गणा है और उसी समय में अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहती है वह शेष रहे आयुसे संख्यातगुणी है ॥ ६२२ ॥ आगे लोकपूर्णक्रियाके वाद समुद्धात क्रियाको समेटता है उसका क्रम कहते हैं;एत्तो पदर कवाडं दंडं पच्चा चउत्थसमयम्हि । पविसिय देहं तु जिणो जोगणिरोधं करेदीदि ॥ ६२३ ॥ अतः प्रतरं कपाटं दंडं प्रतीत्य चतुर्थसमये । प्रविश्य देहं तु जिनो योगनिरोधं करोतीति ॥ ६२३ ॥ अर्थ — इस लोकपूर्ण वाद प्रथमसमय में लोकपूर्णको समेट प्रतररूप, दूसरे समय में प्रतरको समेट कपाटरूप, तीसरे समय में कपाट समेट दण्डरूप और चौथे समयमें दण्ड को समेट सब प्रदेश मूल शरीर में प्रवेश करते हैं । यहां क्रिया करने समेटने में सात समय होते हैं । उसके वाद अन्तर्मुहूर्त विश्रामकर योगोंका निरोध करता है ॥ ६२३ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । बादरमण वचि उस्सास कायजोगं तु सुहुमजचउकं । भदि कमसो बादरहुमेण य कायजोगेण ॥ ६२४ ॥ बादरमनो वच उच्छ्वास काययोगं तु सूक्ष्मजचतुष्कम् । रुणद्धि क्रमशो वादरसूक्ष्मेण च काययोगेन ॥ ६२४ ॥ अर्थ — बादर काययोगरूप होकर वादर मनयोग, वचनयोग, उच्छ्रास, काययोग- इन चारोंका क्रमसे नाश करता है और सूक्ष्मकाय योगरूप होकर उन चारों सूक्ष्मोंको क्रमसे नाश करता है ।। ६२४ ॥ आगे कहते हैं कि बादरयोग सूक्ष्मरूप परिणमानेसे कैसे होते हैं;सणिविमणि पुणे जहण्णमणवयणकायजोगादो । कुदि असंखगुणूणं सुदुमणिपुण्णवरदोवि उस्तासं ॥ ६२५ ॥ संज्ञिद्विसूक्ष्मनि पूर्णे जघन्यमनोवचनकाययोगतः । १६७ करोति असंख्यगुणोनं सूक्ष्मनिपूर्णावरतोवि उच्छ्वासं ॥ ६२५ ॥ अर्थ —संज्ञीपर्याप्तके जघन्य मनोयोग है उससे असंख्यातगुणा कम सूक्ष्म मनोयोग करता है, दो इंद्रियपर्याप्तके जघन्य वचनयोग है उससे असंख्यातगुणा कम सूक्ष्मवचनयोग करता है और सूक्ष्मनिगोदिया पर्याप्तके जघन्य काययोगसे असंख्यातगुणा कम सूक्ष्मकाययोग करता है । तथा सूक्ष्मनिगोदिया पर्याप्तक के जघन्य उच्छाससे असंख्यातगुणा कम सूक्ष्म उच्छ्रास करता है ॥ ६२५ ॥ एक्केक्कस्स णिउंभणकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो हु । सुमं देहणिमाणमाणं हियमाण करणाणि ॥ ६२६ ॥ एकैकस्य निष्टंभनकालो अंतर्मुहूर्तमात्रो हि । सूक्ष्मं देहनिर्माणं आनं हीयमानं करणानि ॥ ६२६ ॥ अर्थ – एक एक बादर व सूक्ष्म मनोयोगादिके निरोध करनेका काल प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमात्र है और सूक्ष्मकाययोगमें स्थित सूक्ष्म - उश्वासके नष्ट करनेके वाद सूक्ष्मकाययोगके नाश करनेको प्रवर्तता है | उसके विवाइच्छा कार्य होते हैं ॥ ६२६ ॥ हुमरस य पढमादो मुहुत्तअंतोत्ति कुणदि हु अपुवे । yarफडगट्ठा सेढिस्स असंखभागमिदो ॥ ६२७ ॥ सूक्ष्मस्य च प्रथमात् मुहूर्तांतरिति करोति हि अपूर्वान् । पूर्वगस्पर्धकाधस्तनं श्रेण्या असंख्यभागमितम् ॥ ६२७ ॥ अर्थ — सूक्ष्म काययोग होनेके प्रथमसमय से लेकर अन्तर्मुहूर्तकालतक पूर्वस्पर्धकोंके नीचे जगच्छ्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अपूर्वस्पर्धक करता है ॥ ६२७ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पुवादिवग्गणाणं जीवपदेसाविभागपिंडादो। होदि असंखं भागं अपुवपढमम्हि ताण दुगं ॥ ६२८ ॥ पूर्वादिवर्गणानां जीवप्रदेशाविभागपिंडतः। भवति असंख्य भागमपूर्वप्रथमे तयोकिम् ॥ ६२८ ॥ अर्थ-पूर्व स्पर्धकोंके जीवके प्रदेशोंके पिंडसे और आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंके पिंडसे अपूर्वस्पर्धकके प्रथमसमयमें वे दोनों असंख्यातवें भागमात्र होते हैं॥६२८॥ उक्कट्टदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणियकमे । कुणदि अपुवफड्ढयं तग्गुणहीणक्कमेणेव ॥ ६२९ ॥ अपकर्षति प्रतिसमयं जीवप्रदेशान् असंख्यगुणितक्रमेण । करोति अपूर्वस्पर्धकं तद्गुणहीनक्रमेणैव ॥ ६२९ ॥ अर्थ-द्वितीयादि समयोंमें समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रमकर जीवप्रदेशोंको अपकर्षण करता है और असंख्यातगुणा हीन क्रमकर नवीन ( अपूर्व ) स्पर्धक करता है ॥ ६२९॥ सेढिपदस्स असंखं भागं पुवाण फड्ढयाणं वा। सच्चे होंति अपुवा हु फड्डया जोगपडिबद्धा ॥ ६३०॥ श्रेणिपदस्यासंख्यं भागं. पूर्वेषां स्पर्धकानां वा । सर्वे भवंति अपूर्वा हि स्पर्धका योगप्रतिबद्धा ॥ ६३० ॥ अर्थ-सब समयोंमें किये योग संबन्धी अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण जगच्छ्रेणीके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवें भागमात्र है अथवा सब पूर्वस्पर्धकोंके प्रमाणके असंख्यातवें भागमात्र है ॥ ६३०॥ एतो करेदि किटिं मुहुत्तअंतोत्ति ते अपुवाणं । हेट्टादु फड्ढयाणं सेढिस्स असंखभागमिदं ॥ ६३१ ॥ इतः करोति कृष्टिं मुहूर्तातरिति ता अपूर्वेषाम् । ___ अधस्तनात् स्पर्धकानां श्रेण्या असंख्यभागमितं ॥ ६३१ ॥ अर्थ-उसके वाद अन्तर्मुहूर्तकालतक अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे सूक्ष्मकृष्टि करता है उन सूक्ष्मकृष्टियोंका प्रमाण जगच्छ्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र, एक स्पर्धकमें वर्गणाओंका प्रमाण उसके असंख्यातवें भागमात्र है ॥ ६३१ ॥ अपुवादिवग्गणाणं जीवपदेसाविभागपिंडादो। होति असंखं भागं किट्टीपढमम्हि ताण दुगं ॥ ६३२ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः । अपूर्वादिवर्गणानां जीवप्रदेशाविभागपिंडतः । भवंति असंख्यं भागं कृष्टिप्रथमे तयोर्द्विकम् ॥ ६३२ ॥ अर्थ — अपूर्वस्पर्धकसंबन्धी सब जीवप्रदेशोंके और अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भागमात्र कृष्टिकरणके प्रथमसमयमें वे दोनों होते हैं ॥ ६३२ ॥ उक्कदृदि पडिसमयं जीवपदे से असंखगुणियकमे । तंगुणहीणकमेण य करेदि किहिं तु पडिसमए ॥ ६३३ ॥ अपकर्षति प्रतिसमयं जीवप्रदेशान् असंख्यगुणितक्रमेण । तद्गुणहीनक्रमेण च करोति कृष्टिं तु प्रतिसमये ॥ ६३३ ॥ अर्थ — द्वितीयादि समयोंमें समय समय प्रति असंख्यातगुणक्रमकर जीवके प्रदेशों को अपकर्षण करता है और समय समय प्रति पूर्वसमयमें की हुईं कृष्टियों के नीचे असंख्यात - गुणा घटता क्रमलिये नवीन कृष्टियां करता है ॥ ६३३ ॥ सेढिपदस्स असंखं भागमपुत्राण फड्ढयाणं व । साओ किट्टीओ पलस्स असंखभागगुणिदकमा ॥ ६३४ ॥ श्रेणिपदस्य असंख्यं भागं अपूर्वेषां स्पर्धकानां वा । सर्वाः कृष्ट्यः पल्यस्य असंख्य भागगुणितक्रमाः ॥ ६३४ ॥ १६९ अर्थ- – सब समयों में की हुई कृष्टियोंका प्रमाण जगच्छ्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र है अथवा अपूर्वस्पर्धकोंके प्रमाणके असंख्यातवें भागमात्र है । वे कृष्टियां क्रमसे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणित हैं ॥ ६३४ ॥ एत्थापुन्वविहाणं अपुत्रफड्डयविहिं व संजलणे । वादरकिट्टिविहिं वा करणं सुहुमाण किट्टीणं ॥ ६३५ ॥ अत्रापूर्वविधानं अपूर्वस्पर्धकविधिरिव संज्वलने । वादरकृष्टिविधिरिव करणं सूक्ष्मानां कृष्टीनाम् ॥ ६३५ ॥ अर्थ —यहांपर योगोंके अपूर्वस्पर्धक करने का विधान पूर्व कहे संज्वलन कषायके अपूवैस्पर्धक करनेके विधानके समान जानना और योगोंकी सूक्ष्मकृष्टि करनेका विधान संज्वनकी बार कृष्टि करनेके विधानके समान जानना || ६३५ ॥ किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफहुये सधे । णासे मुद्दत्तं तु किट्टीगदवेदगो जोगी ॥ ६३६ ॥ कृष्टिकरणे चरमे स्वे काले उभयस्पर्धकान् सर्वान् । नाशयति मुहूर्तं तु कृष्टिगतवेदको योगी ॥ ६३६॥ ल. सा. २२ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ अर्थ-कृष्टिकरणकालके अन्तसमय हुए वाद अपने कालमें सब पूर्व अपूर्व स्पर्धकरूप प्रदेशोंको नाश करता है । और इस समयसे लेकर सयोगी गुणस्थानके अन्तपर्यंत जो अन्तर्मुहूर्तकाल उसमें कृष्टिको प्राप्त योगको वह सयोगकेवली अनुभव करता है ॥६३६ ॥ पढमे असंखभागं हेटवरिं णासिदूण विदियादी। हेट्टव रिमसंखगुणं कमेण किर्टि विणासेदि ॥ ६३७ ॥ प्रथमे असंख्यभागं अधस्तनोपरि नाशयित्वा द्वितीयादौ । .. अधस्तनोपर्यसंख्यगुणं क्रमेण कृष्टिं विनाशयति ॥ ६३७ ॥ अर्थ-कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें थोड़े अविभागप्रतिच्छेदयुक्त नीचेकी और बहुत अविभागप्रतिच्छेदयुक्त ऊपरकी असंख्यातवें भागमात्र कृष्टियोंको बीचकी कृष्टिरूप परिणमाके नाश करता है । और द्वितीयादि समयोंमें उनसे असंख्यातगुणा क्रमलिये नीचे ऊपरकी कृष्टियोंको बीचकी कृष्टिरूप परिणमाके नाश करता है ॥ ६३७ ॥ मज्झिम बहुभागुदया किर्टि वेक्खिय विसेसहीणकमा । पडिसमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया हति ॥ ६३८ ॥ मध्या बहुभागोदयाः कृष्टिमपेक्ष्य विशेषहीनक्रमाः। प्रतिसमयं शक्तितो असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ६३८ ।। अर्थ-सब कृष्टियोंके असंख्यातबहुभागमात्र बीचकी कृष्टियां उदयरूप होती हैं इस अपेक्षा प्रतिसमय विशेष घटता क्रम लिये हैं । इसप्रकार कृष्टिके नाश करनेसे अविभाग प्रतिच्छेदरूप शक्तिकी अपेक्षा प्रथमसमयसे द्वितीयादि सयोगीके अन्तसमयतक असंख्यात गुणा घटता क्रम लिये योग पाये जाते हैं ॥ ६३८ ॥ किट्टिगजोगी झाणं झायदि तदियं खु सुहुमकिरियं तु । चरिमे अ संखभागे किट्टीणं णासदि सजोगी ॥ ६३९ ॥ कृष्टिगयोगी ध्यानं ध्यायति तृतीयं खलु सूक्ष्मक्रियं तु । चरमे च संख्यभागान् कृष्टीनां नाशयति सयोगी ॥ ६३९ ॥ .अर्थ-इसतरह सूक्ष्मकृष्टिका वेदक सयोगी जिन तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिप्रातिनामा शुक्लध्यानको ध्यावता है । यहां चिंताका कारण योग है उसके निरोधको भी ध्यान “कारणमें कार्यका उपचार कर" कहा गया है । इसप्रकार कृष्टियोंको नाश करता हुआ सयोगी अपने अन्तसमयमें कृष्टियोंका संख्यात बहुभाग शेष रहे हुएको नाश करता है ॥ ६३९॥ जोगिस्स सेसकालं मोत्तूण अजोगिसवकालं च । चरिमं खंडं गेण्हदि सीसेण य उवरिमठिदीओ ॥ ६४०॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। योगिनः शेषकालं मुक्त्वा अयोगिसर्वकालं च । चरम खंडं गृह्णाति शीर्षेण च उपरिस्थितेः ॥ ६४० ॥ अर्थ—सयोगी गुणस्थानका अन्तर्मुहूर्तमात्र काल शेष रहनेपर वेदनीय नाम गोत्रका अन्तस्थितिकांडकको ग्रहण करता है उससे सयोगीका शेष रहा हुआ काल और अयो- . गीका सब काल मिलाकर जो प्रमाण हो उतने निषेकोंको छोड़कर शेष सब स्थितिके गुणश्रेणीशीर्ष सहित ऊपरकी स्थितिके निषेकोंके नाश करनेका आरंभ करता है ॥ ६४० ॥ तत्थ गुणसेढिकरणं दिजादिकमो य सम्मखवणं वा। अंतिमफालीपडणं सजोगगुणठाणचरिमम्हि ॥ ६४१ ॥ तत्र गुणश्रेणिकरणं देयादिक्रमश्च सम्यक्षपणमिव । अंतिमस्फालिपतनं सयोगगुणस्थानचरमे ॥ ६४१ ॥ अर्थ-वहां गुणश्रेणीका करना वा देय द्रव्यादिका अनुक्रम सम्यक्त्वमोहनीयके क्षपणाविधानकी तरह जानना । और सयोगी गुणस्थानके अन्तसमयमें अघातियाओंके अन्त. कांडककी अन्तफालिका पतन होता है ॥ ६४१ ॥ इसप्रकार सयोगीके अन्तसमयमें अघातियोंकी अन्तफालिका पतन, योगका निरोध और सयोगगुणस्थानकी समाप्ति-ये तीनों एक ही समय होते हैं । इसतरह सयोगकेवलीगुणस्थानका कथन समाप्त हुआ ॥ से काले जोगिजिणो ताहे आउगसमा हि कम्माणि । तुरियं तु समुच्छिण्णं किरियं झायदि अयोगिजिणो ॥ ६४२ ॥ खे काले योगिजिनः तत्र आयुष्कसमानि कर्माणि । तुरीयं तु समुच्छिन्नक्रियं ध्यायति अयोगिजिनः ॥ ६४२ ॥ - अर्थ-उसके वाद अपनेकालमें अयोगी जिन होता है वहां आयुकर्म के समान अघातियाओंकी स्थिति होती है । वह अयोगी जिन चौथा समुच्छिन्न क्रियानिवृत्तिनामा शुक्लध्यानको ध्याता है ॥ भावार्थ-उच्छेद हुई मन वचन कायकी क्रिया और निर्वृति अर्थात् प्रतिपातता इन दोनोंसे रहित यह ध्यान है इसलिये इसका सार्थक नाम है । यहांपर भी ध्यानका उपचार पहले की तरह जानना । सब आस्रवरहित केवलीके शेषकमोंकी निर्जराका कारण जो निज आत्मामें प्रवृत्ति उसीका नाम ध्यान है ॥ ६४२ ॥ सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसओ जीयो। बंधरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई ॥ ६४३ ॥ शीलेशत्वं संप्राप्तो निरुद्धनिःशेषास्रवो जीवः। बंधरजोविप्रमुक्तः गतयोगः केवली भवति ॥ ६४३ ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ अर्थ-समस्त शीलगुणका खामी हुआ सब आस्रवोंको रोककर कर्मबन्धरूपी रज (धूलि ) रहित हुआ योग रहित अयोगी केवली होता है। भावार्थ-यद्यपि सयोगी जिनके सब शील गुणोंका खामीपना सम्भवता है परंतु योगोंका आस्रव पाया जाता है इसलिये सकल संवरके न होनेसे शीलेशस्थान सम्भव है । और यह अयोगी जिन सब तरहसे निरास्रव और निबंध होगया है ॥ ६४३ ॥ बाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं च चरिमम्हि । झाणजलणेण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥ ६४४॥ द्वासप्ततिप्रकृतयः द्विचरमके त्रयोदश च चरमे । ध्यानज्वलनेन कवलिताः सिद्धः स भवति खे काले ॥ ६४४ ॥ अर्थ- अयोगीका काल पांच हख अक्षर उच्चारणकालके समान है । वहां एक एक समयमें एक एक निषेक गलनरूप जो अधःस्थितिगलन उससे क्षीण हुई उस कालके द्विचरमसमयमें बहत्तरि प्रकृतियां और अन्तसमयमें तेरह प्रकृतियां शुक्लध्यानरूपी अमिसे ग्रासीभूत (नष्ट) होती हैं। ऐसे क्षयकर अनन्तर समयमें सिद्ध होता है। जैसे कालिमासे रहित होके शुद्ध सुवर्ण सोना ही होवे उसीतरह यह जीव सब कर्ममल रहित कृतकृत्यहशारूप निष्पन्न होता है ॥ ६४४ ॥ उन बहत्तर और तेरह प्रकृतियों के नाम कहते हैं-अनुदयरूप वेदनीय १ देवगति १ शरीर पांच ५ बन्धन पांच ५ संघात पांच ५ संस्थान छह ६ आंगोपांग तीन ३ संहनन छह ६ वर्णादिक वीस २० देवगत्यानुपूर्वी १ अगुरुलधु १ उपघात १ परघात १ उच्छास १ अप्रशस्तविहायोगति १ प्रशस्तविहायोगति १ अपर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर १ अस्थिर १ शुभ १ अशुभ १ दुर्भग १ सुखर १ दु:खर १ अनादेय १ अयशस्कीर्ति १ निर्माण १ नीचगोत्र १-ये बहत्तरि प्रकृतियां हैं । और उदयरूप सातावेदनीय १ मनुष्यायु १ मनुष्यगति १ पञ्चेंद्रीजाति १ मनुष्यानुपूर्वी १ त्रस १ बादर १ पर्याप्त १ सुभग १ आदेय १ यशस्कीर्ति १ तीर्थकर १ उच्चगोत्र १-ये तेरह प्रकृतियां अन्तसमयमें क्षय होती हैं। तिहुवणसिहरेण मही वित्थारे अठ्ठजोयणुदयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ॥ ६४५ ॥ त्रिभुवनशिखरेण मही विस्तारे अष्ट योजनान्युदयस्थिरा । धवलछत्राकारा मनोहरा ईषत्प्रभारा ॥ ६४५ ॥ अर्थ-वह जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावसे तीन लोकके शिखरपर ईषत्प्रभार नामकी आठवीं पृथ्वीके ऊपर एकसमयमें जाकर तनुवातवलयके अन्तमें विराजमान होता हैं। कैसी पृथ्वी है उसे कहते हैं । जो पृथ्वी मनुष्यपृथ्वीके समान पैंतालीस लाख योजन चौड़ी Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसारः। गोल आकार है । आठ योजन ऊंची है, स्थिर है और सफेद छत्रके आकार है खेत वर्ण है बीचमें मोटी किनारेपर पतली है और मनको हरनेवाली है ॥ यद्यपि ईषत्प्राग्भार नाम पृथ्वी घनोदधिवात बलयतक है परंतु यहां उस पृथ्वीके बीचमें सिद्ध शिला पाई जाती है उसकी अपेक्षा ऐसा कथन है। धर्मास्तिकायके अभावसे वहांसे आगे गमन नहीं होता, वहां ही चरम ( अन्तके ) शरीरसे कुछ कम आकाररूप जीवद्रव्य अनन्त ज्ञानानन्दमय विराजता है ॥ ६४५॥ पुषण्हस्स तिजोगो संतो खीणो य पढमसुकं तु । विदियं सुकं खीणो इगिजोगो झायदे झाणी ॥ ६४६ ॥ पूर्वज्ञस्य त्रियोगः शांतः क्षीणश्च प्रथमशुक्लं तु । द्वितीयं शुक्लु क्षीण एकयोगो ध्यायति ध्यानी ॥ ६४६ ॥ अर्थ-जो महामुनि पूर्वोका ज्ञाता तीन योगोंका धारक उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीवर्ती है वह पृथक्त्ववितर्कवीचार मामा पहला शुक्लध्यानको ध्याता है और दूसरे शुक्लध्यानको क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती तीनयोगोंमें एक योगका धारक होकर ध्याता है । यहांपर पृथक्त्ववितर्क वीचार उसे कहते हैं कि जुदा जुदा भावश्रुत ज्ञानकर अर्थ व्यञ्जन योगोंका संक्रमण होना । उसमें अर्थ तो द्रव्य गुण पर्याय हैं, व्यजन श्रुतके शब्द हैं और योग मन बचन काय हैं-इनका पलटना वीचार कहा जाता है । इसतरह जिसध्यानमें प्रवृत्ति होना वही पृथक्ववितकेवीचार है । और जिस जगह एकता लिये भावश्रुतसे पलटना नहीं होता अर्थात् जिस अर्थको, श्रुतरूप शब्दको, जिस योगकी प्रवृत्तिलिये ध्यावे उसको वैसे ही ध्यावे पलटे नहीं ऐसा एकत्त्ववितके ध्यान जानना ॥ ६४६॥ सो मे तिहुवणमहियो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिचो। दिसदु वरणाणदंसणचरित्तसुद्धिं समाहिं च ॥ ६४७॥ . स मे त्रिभुवनमहितः सिद्धः बुद्धो निरंजनो नित्यः । दिशतु वरज्ञानदर्शनचारित्रशुद्धिं समाधिं च ॥ ६४७ ॥ अर्थ-तीनलोकसे पूजित, सबके जाननेवाले, कर्मरूपी अञ्जनसे रहित और विनाशरहित ऐसे वे सिद्ध भगबान मुझे उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी शुद्धि और समाधि ( अनुभवदशा या संन्यासमरण ) को देवें ॥ भावार्थ-यहां सिद्धोंके मोक्ष अवस्था होना उसका खरूप सब कर्मोंका सबतरहसे नाश होनेसे संपूर्ण आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ही है। इस वारेमें अन्यमतवाले विपरीतकथन करते हैं वह श्रद्धान नहीं करना । उनमेंसे बौद्ध कहता है-जैसे दीपकका बुझना उसीतरह आत्माका स्कंधसंतानका नाश होनेसे अभाव Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । होना वह निर्वाण ( मोक्ष ) है । उसको आचार्य समझाते हैं कि-जहां मूलवस्तुका नाश होजावे तो उसके लिये उपाय क्यों करना । ज्ञानी पुरुष तो अपूर्वलाभके लिये उपाय करते हैं, इसलिये अभावमात्र मोक्ष कहना ठीक नहीं है ॥ दूसरा नैयायिकमतवाला कहता है-वुद्धि सुख दुःख इच्छा द्वेष प्रयत्न धर्म अधर्म संस्कार-इन नौ आत्माके गुणोंका नाश होना वही मोक्ष है । उसको भी पूर्वकथितवचनसे समाधान करना चाहिये, क्योंकि जहां विशेषरूप गुणोंका अभाव हुआ वहां आत्मवस्तुका ही अभाव आया सो ऐसा ठीक नहीं है । तीसरा सांख्यमतवाला कहता है-कार्य कारणसंबन्धसे रहित आत्माके बहुत सोते हुए पुरुषकी तरह अव्यक्त चैतन्यरूप होना वह मोक्ष है। उसका भी समाधान पूर्वकथित बचनसे होचुका, यहांपर अपना चैतन्यगुण था वह उलटा अव्यक्त होजाता है । इसतरह नानाप्रकार अन्यथा कहते हैं उनका निराकरण जैनन्याय शास्त्रोंमें किया गया है वहांसे जानना । मोक्ष अवस्थाको प्राप्त सिद्ध भगवान हमेशा अनन्त अतींद्रिय आनन्दका अनु'भव करते हैं । क्योंकि जब इन्द्रिय मनकर कुछ ज्ञान होनेमें कुछ निराकुलता होती है तव ही आत्मा अपनेको सुखी मानता है लेकिन जिस जगह सबका जानना हुआ और सर्वथा निराकुल हुआ वहांपर तो-परम सुख कैसे न हो होता ही है । तीनलोकके तीनकालके पुण्यवान् जीवोंके सुखसे भी अनन्तगुणा सुख सिद्धोंके एक समयमें होता है । क्योंकि संसारमें सुख ऐसा है कि जैसे महारोगी रोगकी कमी होनेसे अपनेको सुखी मानता है और सिद्धोंके सुख ऐसा है कि जैसे रोगरहित निराकुल पुरुष स्वभावसे ही सुखी हो । ऐसे अनन्तसुखमें विराजमान सम्यक्त्वादि आठगुण सहित लोकाग्रमें विराजे हुए सिद्धभगवान हैं वे मेरा तथा सबका कल्याण करो ॥ ६४७ ॥ इसप्रकार बाहुबलिनामा मंत्रीकर पूजित जो माधव चंद्र आचार्य उनने क्षपणासार ग्रन्थ रचा । वह यतिवृषभ आचार्य मूलकर्ता और वीरसेन आचार्य टीका कर्ता ऐसे धवल जयधवल शास्त्रके अनुसार क्षपणासार ग्रन्थ किया गया है । उसके अनुसार यहां भी क्षपणाके वर्णनरूप लब्धिसारकी गाथा उनका व्याख्यान किया है ॥ इसप्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित लब्धिसारमें चारित्रलब्धि अधिकार में क्षायिकचारित्रको कहनेवाला कर्मोंकी क्षपणारूप तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिः। , अब आचार्य लब्धिसार शास्त्रकी समाप्ति करनेमें अपना नाम प्रगट करते हैं; वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणंदिसिस्सेण । ... दसणचरित्तलद्धी सुसूयिया णेमिचंदेण ॥ ६४८ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ लब्धिसारः। वीरेंद्रनंदिवत्सेनाल्पश्रुतेनाभयनंदिशिष्येण । दर्शनचारित्रलब्धिः सुसूचिता नेमिचंद्रेण ॥ ६४८ ॥ अर्थ-वीरनंदि और इन्द्रनंदि आचार्यका वत्स, अभयनन्दि आचार्यका शिष्य ऐसे अल्पज्ञानी मुझ नेमिचन्द्रने इस लब्धिसार शास्त्रमें दर्शन चारित्रकी लब्धि अच्छीतरह दिखलाई है ॥ यहां ज्ञानदानसे पालन करनेकी अपेक्षा वत्स कहा है । और दीक्षाकी अपेक्षा शिष्य कहा है ॥ ६४८ ॥ अंतमंगल। अब आचार्य अपने गुरूके नमस्काररूप अन्तमंगल करते हैं; जस्स य पायपसाए गणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥ ६४९ ॥ ___ यस्य च पादप्रसादेनानंतसंसारजलधिमुत्तीर्णः । वीरेंद्रनंदिवत्सो नमामि तमभयनंदिगुरुम् ॥ ६४९ ॥ अर्थ-वीरनंदि और इंद्रनंदि आचार्यका वत्स मैं नेमिचंद्र ग्रन्थकर्ता जिसके चरणकमलोंके प्रसादसे अनन्तसंसारसमुद्रसे पार होगया उन अभयनंदि नामा गुरूको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ६४९ ॥ इसतरह क्षपणासार गर्भित लब्धिसारका व्याख्यान संस्कृत छाया तथा संक्षिप्त हिंदीभापाटीकासहित समाप्त हुआ। शुभं भवतु प्रकाशकपाठकयोः । ॐ समाप्तोऽयं लब्धिसारः Page #192 -------------------------------------------------------------------------- _