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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
आगे कार्यविशेष जो होता है उसे कहते हैं; — ठिदिखंडमसंखेजे भागे रसखंडमप्पसत्थाणं ।
दि अनंता भागा दंडादीचउस समएसु ॥ ६२० ॥ स्थितिखंडमसंख्येयान् भागान् रसखंडमप्रशस्तानाम् । हंति अनंतान् भागान् दंडादिचतुर्षु समयेषु ॥ ६२० ॥ अर्थ — दण्डादिके चार समयों में स्थितिखण्ड - असंख्यात बहुभागमात्र और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागखण्ड अनन्त भागमात्र घातता है ॥ ६२० ॥
चउसमएसुरसस्त य अणुसमओवट्टणा असत्थाणं । ठिदिखंडस्सिगिसमयिगघादो अंतोमुहुत्तुवरिं ॥ ६२१ ॥
चतुःसमयेषु रसस्य च अनुसमयापवर्तनमशस्तानाम् । स्थितिखंडस्यैकसमयिकघातो अंतर्मुहूर्तोपरि ॥ ६२१ ॥
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अर्थ — चारसमयों में अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागका अनुसमय अपवर्तन होता है अर्थात् समय समय प्रति अनुभाग घटता है । और स्थितिखण्डका घात एकसमयकर होता है । एक एक समयमें एकएक स्थितिकांडक घात करना यह माहात्म्य समुद्धात क्रियाका है । लोकपूर्णके वाद अन्तर्मुहूर्तकालकर स्थिति अनुभागका घटाना जानना ॥ ६२१ ॥ जगपूरणम्हि एक्का जोगस्स य वग्गणा ठिदी तत्थ ।
अंतोमुहुत्तमेत्ता संखगुणा आउआ होहि ॥ ६२२ ॥ जगत्पूरणे एका योगस्य च वर्गणा स्थितिस्तत्र । अंतर्मुहूर्तमात्रा संख्यगुणा आयुषो भवति ।। ६२२ ॥
अर्थ – लोकपूर्णके समयमें योगोंकी एक वर्गणा है और उसी समय में अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहती है वह शेष रहे आयुसे संख्यातगुणी है ॥ ६२२ ॥
आगे लोकपूर्णक्रियाके वाद समुद्धात क्रियाको समेटता है उसका क्रम कहते हैं;एत्तो पदर कवाडं दंडं पच्चा चउत्थसमयम्हि ।
पविसिय देहं तु जिणो जोगणिरोधं करेदीदि ॥ ६२३ ॥ अतः प्रतरं कपाटं दंडं प्रतीत्य चतुर्थसमये ।
प्रविश्य देहं तु जिनो योगनिरोधं करोतीति ॥ ६२३ ॥
अर्थ — इस लोकपूर्ण वाद प्रथमसमय में लोकपूर्णको समेट प्रतररूप, दूसरे समय में
प्रतरको समेट कपाटरूप, तीसरे समय में कपाट समेट दण्डरूप और चौथे
समयमें दण्ड
को समेट सब प्रदेश मूल शरीर में प्रवेश करते हैं । यहां क्रिया करने समेटने में सात समय होते हैं । उसके वाद अन्तर्मुहूर्त विश्रामकर योगोंका निरोध करता है ॥ ६२३ ॥