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लब्धिसारः। अंतर्मुहूर्तमायुषि परिशेषे केवली समुद्धातम् ।
दंडं कपाटं प्रतरं लोकस्य च पूरणं करोति ॥ ६१६ ॥ अर्थ-अपनी आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर केवली समुद्धात क्रिया करते हैं । वह दण्ड कपाट प्रतर लोकपूर्णरूप चार तरहकी करते हैं ॥ ६१६ ॥
हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावजिदं हवे करणं । · तं च समुग्घादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स ॥ ६१७॥
अधस्तनं दंडस्यांतर्मुहूर्तमावर्जितं भवेत् करणं ।
तच्च समुद्घातस्य च अभिमुखभावो जिनेंद्रस्य ॥ ६१७ ॥ अर्थ-दण्डसमुद्घातकरनेके कालके पहले अन्तर्मुहूर्ततक आवर्जितकरण होता है । वह जिनेंद्र देवको समुद्धातक्रियाके सन्मुख होना है ॥ ६१७ ॥
सहाणे आवजिदकरणेवि य णत्थि ठिदिरसाण हदी। उदयादि अवट्ठिदया गुणसेढी तस्स दवं च ॥ ६१८॥ स्वस्थाने आवर्जितकरणेपि च नास्ति स्थितिरसयोः हतिः।
उदयादिः अवस्थिता गुणश्रेणी तस्य द्रव्यं च ॥ ६१८॥ अर्थ-आवर्जितकरण करनेके पहले खस्थानमें और आवर्जितकरणमें भी सयोगकेवलीके कांडकादि विधानकर स्थिति और अनुभागका घात नहीं होता तथा उदयादि अव. स्थितरूप गुणश्रेणी आयाम है और उस गुणश्रेणीका द्रव्य भी अवस्थित है ॥ ६१८ ॥ आगे आवर्जित करणमें गुणश्रेणी आयाम दिखलाते हैं;
जोगिस्स सेसकालो गयजोगी तस्स संखभागो य ।। जावदियं तावदिया आवज्जिदकरणगुणसेढी ॥ ६१९ ॥
योगिनः शेषकालः गतयोगी तस्य संख्यभागश्च ।
यावत् तावत्कं आवर्जितकरणगुणश्रेणी ॥ ६१९ ॥ अर्थ-आवर्जितकरण करनेके पहलेसमय जो सयोगीका शेषकाल, अयोगीका सवकाल और अयोगीके कालका संख्यातवां भाग इन सबको मिलानेसे जितना होवे उतना आवर्जितकरणकी अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है ॥ ६१९ ॥ अधातिया कर्मोंकी स्थिति आयुके समान करने के लिये जीवके प्रदेशोंका फैलनारूप केवलिसमुद्धात होता है । पहले समयमें दण्ड, दूसरे समयमें कपाट, तीसरे समयमें प्रतर करता है उस समय वातवलयके विना बाकी सब लोकमें आत्माके प्रदेश फैल जाते हैं सो इसका नाम मंथान भी है और चौथे समयमें लोकपूर्ण होता है उस जगह वातवलयसहित सबलोकमें आत्माके प्रदेश फैल जाते हैं । ऐसे चार समयोंमें चाररूप क्रमसे प्रदेश फैलते हैं। .