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लब्धिसारः।
१४३ कोहस्स पढमकिटिं मोत्तूणेकारसंगहाणं तु । बंधणसंकमदवादपुवकिहि करेदी हुँ ॥ ५२७ ॥
क्रोधस्य प्रथमकृष्टिं मुत्तवा एकादशसंग्रहाणां तु। .
बंधनसंक्रमद्रव्यादपूर्वकृष्टिं करोति हि ॥ ५२७ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके विना शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके यथासंभव बन्धद्रव्य अथवा संक्रमद्रव्यसे अपूर्व कृष्टि करता है ॥ ५२७ ॥
संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गंतूण । एकेकबंधकिट्टी किट्टीणं अंतरे होदि ॥ ५२८ ॥ संख्यातीतगुणानि च पल्यस्यादिमपदानि गत्वा ।
एकैकबंधकृष्टिः कृष्टीनामंतरे भवति ॥ ५२८ ॥ अर्थ-अवयवकृष्टियोंका असंख्यातवां भागमात्र बन्ध योग्य नहीं है और वीचमें जो बन्धने योग्य हैं उनकी दो कृष्टियोंके वीचमें एक अन्तराल है ऐसे पल्यके प्रथमवर्गमूलमात्र अन्तरालोंको छोड़कर उन कृष्टियोंके वीचमें एक एक अपूर्वकृष्टि होती है ॥ ५२८ ॥
दिजदि अणंतभागेणूणकमं बंधगे य णंतगुणं । तण्णंतरे णंतगुणूणं तत्तोणतभागूणं ॥ ५२९॥ दीयते अनंतभागेनोनक्रमं बंधके चानंतगुणम् ।
तदनंतरेऽनंतगुणोनं ततोऽनंतभागोनम् ॥ ५२९ ॥ अर्थ-अनन्तवें भागमात्रसे घटता द्रव्य दूसरी कृष्टिमें देते हैं जबतक अपूर्व कृष्टि प्राप्त न हो तबतक यह क्रम है । और उसके बाद पूर्वकृष्टियोंमें अनन्तगुणा कम द्रव्य दिया जाता है । उसके वाद अनन्तवां भागरूप विशेष घटता क्रमलिये द्रव्य दिया जाता है जबतक कि अपूर्वकृष्टि प्राप्त न हो ॥ ५२९ ॥ इसप्रकार बन्धकृष्टिका खरूप कहा ।
संकमदो किट्टीणं संगहकिट्टीणमंतरे होदि।। संगह अंतरजादो किट्टी अंतरभवा असंखगुणा ॥ ५३०॥
संक्रमतः कृष्टीनां संग्रहकृष्टीनामंतरे भवति ।।
संग्रहे अंतरजातः कृष्टिरंतर्भवा असंख्यगुणा ॥ ५३० ॥ अर्थ-संक्रमणद्रव्यसे उत्पन्न हुई अपूर्वकृष्टियां कितनी एक तो संग्रहकृष्टियोंके नीचे होती हैं और कुछ उनके अंतरालमें उत्पन्न होती हैं । वहांपर संग्रहकृष्टियोंके अन्तरालमें उत्पन्न हुई कृष्टियोंसे अवयव कृष्टियोंके अंतरालमें हुई कृष्टियां असंख्यातगुणी हैं ॥५३०॥ __ १ "बंधणदव्वादो पुण चदुसट्ठाणेसु पढमकिट्टीसु । बंधुप्पवकिट्टीदो संकमकिटी असंखगुणा" ॥ यह गाथा क पुस्तकमें है।