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. रायचन्द्रजैमशास्त्रमालायाम् । संगहअंतरजाणं अपुवकिमि व बंधकिर्टि वा । इदराणमंतरं पुण पल्लपदासंखभागं तु ॥ ५३१ ॥ संग्रहांतरजानामपूर्वकृष्टिमिव बंधकृष्टिमिव ।
इतरेषामंतरं पुनः पल्यपदासंख्यभागस्तु ॥ ५३१ ॥ अर्थ-संग्रहकृष्टियोंके नीचे कृष्टि की थीं वहां द्रव्य देनेका विधान अपूर्वकृष्टिके समान जानना । और दूसरी कृष्टियोंका अन्तरालरूपस्थान पल्यके वर्गमूलका असंख्यातवां भाग
कोहादिकिट्टिवेदगपढमे तस्स य असंखभागं तु । णासेदि हु पडिसमयं तस्सासंखेजभागकमं ॥ ५३२ ॥ क्रोधादिकृष्टिवेदकप्रथमे तस्य च असंख्यभागस्तु ।।
नाशयति हि प्रतिसमयं तस्यासंख्येयभागक्रमम् ॥ ५३२ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जीव प्रथमसमयमें सब कृष्टियोंका असंख्यातवां भागमात्र कृष्टियोंको नाश करता है और इसीतरह क्रमसे हरएक समयमें असंख्यातवां भागमात्र घात जानना ॥ ५३२ ॥
कोहस्स य जे पढमे संगहकिट्टिम्हि णट्ठकिट्टीओ। बंधुज्झियकिट्टीणं तस्स असंखेजभागो हु॥ ५३३॥ क्रोधस्य च ये प्रथमे संग्रहकृष्टौ नष्टकृष्टयः।
बंधोज्झितकृष्टीनां तस्यासंख्येयभागो हि ॥ ५३३ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिवेदकके सब कालमें जो कृष्टियां घात हुई उनका प्रमाण बन्धरहित कृष्टियोंके प्रमाणके असंख्यातवें भाग है ॥ ५३३ ॥
कोहादिकिट्टियादिहिदिम्हि समयाहियावलीसेसे । ताहे जहण्णुदीरइ चरिमो पुण वेदगो तस्स ॥ ५३४ ॥ क्रोधादिकृष्टिकादिस्थितौ समयाधिकावलीशेषे ।
तत्र जघन्यमुदीरयति चरमः पुनर्वेदकस्तस्य ॥ ५३४ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थितिमें समय अधिक आवलि शेष रहनेपर जघन्यस्थितिकी उदीरणा करता है और वहां ही उस वेदकका अन्तसमय होता है॥५३४॥
ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणो। सत्तोवि य सददिवसा अडमासब्भहियछबरिसा ॥ ५३५ ॥ तत्र संज्वलनानां बंधो अन्तर्मुहूर्तपरिहीनः ।। सत्त्वमपि च शतदिवसा अष्टमासाभ्यधिकषड्डर्षाः ॥ ५३५ ॥