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लब्धिसारः। - अर्थ-पहली (क्षयोपशम ) लब्धिसे उत्पन्न हुआ जो जीवके साता आदि शुभ प्रकृतियोंके बंधनेका कारण शुभपरिणाम उसकी जो प्राप्ति वह विशुद्धिलब्धि है । अशुभकर्मके अनुभाग घटनेसे संक्लेशकी हानि और उसके विपक्षी विशुद्धपनेकी वृद्धि होना ठीक ही है ॥ ५ ॥ आगे देशनालब्धिका खरूप कहते हैं;
छद्दवणवपयत्थोपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो। देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु॥ ६ ॥
षड्द्रव्यनवपदार्थोपदेशकरसूरिप्रभृतिलाभो यः ।। __ देशितपदार्थधारणलाभो वा तृतीयलब्धिस्तु ॥ ६॥ अर्थ-छह द्रव्य और नौपदार्थका उपदेश करनेवाले आचार्य आदिका लाभ यानी उपदेशका मिलना अथवा उपदेशे हुए पदार्थोंके धारण करने ( याद रखने ) की प्राप्ति वह तीसरी देशनालब्धि है । तु शब्दसे नरकादि गतिमें जहां उपदेश देनेवाला नहीं है वहां पूर्वभवमें धारण किये हुए तत्त्वार्थके संस्कारके बलसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति जानना ॥ ६॥ आगे प्रायोग्यलब्धिको कहते हैं;
अंतोकोडाकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्धिणामा भवाभवेसु सामण्णा ॥ ७॥
अंतःकोटीकोटिविस्थाने स्थितिरसयोः यत्करणम् ।
प्रायोग्यलब्धिर्नाम भव्याभव्येषु सामान्या ॥ ७ ॥ अर्थ-पूर्वोक्त तीन लब्धिवाला जीव हरसमय विशुद्धताकी वढवारी होनेसे आयुके विना सातकर्मोंकी स्थिति घटाता हुआ अंतःकोड़ाकोडि मात्र रखे और कर्मोकी फल देनेकी शक्तिको भी कमजोर करदे ऐसे कार्यकरनेकी योग्यताकी प्राप्तिको प्रायोग्यलब्धि कहते हैं । वह सामान्यरीतिसे भव्यजीव और अभव्यजीव दोनोंके ही होसकती है ॥ ७ ॥
जेट्टवरहिदिबंधे जेवरहिदितियाण सत्ते य । ण य पडिवजदि पढमुवसमसम्म मिच्छजीवो हु॥८॥ ज्येष्ठावरस्थितिबंधे ज्येष्ठावरस्थितित्रिकाणां सत्त्वे च ।
न च प्रतिपद्यते प्रथमोपशमसम्यं मिथ्यजीवो हि ॥ ८ ॥ अर्थ-संक्लेशपरिणामवाले संज्ञी पंचेंद्री पर्याप्तके संभव जो उत्कृष्ट स्थितिबंध और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेशका सत्त्व तथा विशुद्ध क्षपकश्रेणीवालेके संभव जो जघन्य