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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर असंज्ञी पंचेंद्रिीके समान स्थितिसत्त्व होता है । और
उसके वाद वैसे ही स्थितिसत्त्वका होना क्रमसे जानना ॥ ४२४ ॥
ती बंधहस्से पलासंखेज्जयं तु ठिदिबंधे ।
तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयबद्धाणं ॥ ४२५ ॥ अतीते बंधसहस्रे पल्यासंख्येयकं तु स्थितिबंधे ।
तत्र असंख्येयानां उदीरणा समयबद्धानाम् ।। ४२५ ।।
अर्थ —- इस क्रमकरण से परे संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर पल्यका असंख्यातवां भागमात्र स्थितिबन्ध होते हुए असंख्यात समय प्रबद्धोंकी उदीरणा होती है ॥ ४२५ ॥ आगे क्षपणाका खरूप कहते हैं;
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ठिदिबंध सह सदे अकसायाण होदि संकमगो ।
ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥ ४२६ ॥ स्थितिबंधसहस्रगते अष्टकषायानां भवति संक्रामक: ।
स्थितिखंड पृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिकविद्धं ।। ४२६ ॥
अर्थ — उसके वाद संख्यातहजार स्थितिकांडक वीतनेपर अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान • क्रोध मान माया लोभरूप आठ कषायोंका संक्रामक होता है । इसतरह मोहराजाकी सेनाके नायक आठ कषायों का नाश होनेपर शेष स्थितिसत्त्व काल अपेक्षा आवलिमात्र रहता है और निषेकोंकी अपेक्षा समयकम आवलीमात्र रहता है ॥ ४२६ ॥
ठिदिबंधपुधत्तगदे सोलसपयडीण होदि संकमगो ।
ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु आवलिपविद्धं ॥ ४२७ ॥ स्थितिबंधपृथक्त्वगते षोडशप्रकृतीनां भवति संक्रामक: ।
स्थितिखंडपृथक्त्वेन च तत्स्थितिसत्त्वं तु आवलिप्रविष्टम् ॥ ४२७ ॥
अर्थ — उसके बाद पृथक्त्व यानी संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतनेपर निद्रा निद्रा आदि तीन दर्शनावरणकी नरकगति आदि तेरह नामकर्मकी - इस तरह सोलह प्रकृतियों का संक्रामक होता है । इस तरह संख्यातहजार स्थितिखण्डोंसे उनकर्मोंका स्थितिसत्त्व आबलिमात्र रहता है || ४२७ ॥
आगे देशघातिकरणको कहते हैं;
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ठिदिबंधपुधत्तगदे मगदाणा तत्तियेवि ओहि दुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचक्खभोगं पुणो चक्खु ॥ ४२८ ॥ पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विश्यं कमेण अणुभागो । बंधे देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधो ॥ ४२९ ॥