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लब्धिसारः। तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानां अधस्तात् ।
एकसमये मोहो असंख्यगुणहीनको भवति ॥ ४२० ॥ . अर्थ-ऐसा अल्प बहुत्वका क्रमलिये उतने ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर एक ही वार असंख्यातगुणा कम तीसिय वीसिय और मोहका स्थितिबन्ध होता है ॥ ४२० ॥
तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयणीयहेहादु। तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होति ॥ ४२१॥ तावन्मात्रे बंधे समतीते वेदनीयाधस्तात् ।।
तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ४२१ ॥ अर्थ—ऐसा क्रमलिये संख्यातहजार स्थितिबंध वीतनेपर वीसियोंमें भी वेदनीयसे नीचे तीनघातियाकर्मोंका असंख्यातगुणा घटता क्रम लिये स्थितिबन्ध होता है ॥ ४२१ ।।
तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठा दु । तीसियघादितियाओ असंखगुणहीणया होंति ॥ ४२२ ॥
तावन्मात्रे बंधे समतीते वीसियानामधस्तात् तु । ____तीसियघातित्रिका असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ४२२ ॥ अर्थ-ऐसा क्रमलिये संख्यातहजार स्थितिबन्ध वीतजानेपर विशुद्धिके बलसे वीसियोंके नीचे तीसियोंमेंसे तीनघातियाओंका असंख्यातगुणा घटता स्थितिबन्ध होता है ॥ ४२२॥
तक्काले वेयणियं णामा गोदा हु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेयणियाणं कमो बंधे ॥ ४२३॥ तत्काले वेदनीयं नाम गोत्रं हि साधिकं भवति ।
इति मोहतीसियवीसियवेदनीयानां क्रमो बंधे ॥ ४२३ ॥ अर्थ-उस कालमें वेदनीयका स्थितिबन्ध नाम गोत्रके स्थितिबन्धसे अधिक है उसके आधे प्रमाणकर अधिक होता है इसतरह मोह तीसिय वीसिय और वेदनीयका क्रमसे बंध हुआ । यही क्रमलिये अल्प बहुत्वका होना क्रमकरण है ॥ ४२३ ॥ आगे स्थितिसत्त्वापसरणका स्वरूप कहते हैं;
बंधे मोहादिकमे संजादे तेत्तियहिं बंधेहिं । ठिदिसंतमसण्णिसमं मोहादिकमं तहा संते ॥ ४२४ ॥ बंधे मोहादिक्रमे संजाते तावद्भिबंधैः।
स्थितिसत्त्वमसंज्ञिसमं मोहादिक्रम तथा सत्त्वे ॥ ४२४ ॥ अर्थ-मोहादिकका क्रम लिये क्रमकरणरूप बंध होनेके वाद इसी क्रमको लिये उतने