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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अशुभाना रसखंडमनंतभागानां खंडमितरेषाम् । - अन्ताकोटीकोटिः सत्त्वं बन्धश्च तत्स्थाने ॥ २२१ ॥ अर्थ-अशुभप्रकृतियोंका अनुभागखण्डन अनन्तबहुभागमात्र होता है एकभागमात्र शेष रहता है । विशुद्धपनेसे शुभप्रकृतियोंका अनुभागखण्डन नहीं होता । और उसी अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण है, उसमें इतना विशेष है कि स्थितिबन्धसे स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है ॥ २२१ ॥
उदयावलिस्स बाहिं गलिदवसेसा अपुषअणियट्टी। सुहुमद्धादो अहिया गुणसेढी होदि तहाणे ॥ २२२ ॥ उदयावलेबर्बाह्यं गलितावशेषा अपूर्वानिवृत्तेः ।
सूक्ष्माद्धातो अधिका गुणश्रेणी भवति तत्स्थाने ॥ २२२ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयमें उदयावलिके बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणीका प्रारंभ हुआ, उस गुणश्रेणी आयामका प्रमाण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसांपराय-इनके मिलानेके कालसे उपशांतकषायके कालका संख्यातवां भागमात्र अधिक जानना । उस अपूर्वकरणमें गुणश्रेणी होती है ॥ २२२ ॥
पढमे छठे चरिमे बंधे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । छण्णोकसायउदया अपुषचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥ २२३ ॥ प्रथमे षटे चरमे बंधे द्विकं त्रिंशत् चतस्रो व्युच्छिन्नाः ।
घण्णोकषायोदया अपूर्वचरमे व्युच्छिन्नाः ॥ २२३ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेंसे पहले भागमें निद्रा प्रचला ये दोनों, छठे भागमें तीर्थकर आदि तीस और अंतके सातवें भागमें हास्यादि चार-ऐसे छत्तीसप्रकृतियां बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । और अपूर्वकरणके अन्तसमयमें छह हास्यादि नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न होती हैं ॥ २२३ ॥
अणियट्टिस्स य पढमे अण्णट्ठिदिखंडपहुदिमारवई । उयसामणा णिवत्ती णिकाचणा तत्थ वोच्छिण्णा ॥ २२४ ॥
अनिवृत्तेः च प्रथमे अन्यस्थितिखंडप्रभृतिमारभते ।
उपशमनं निधत्तिः निकाचना तत्र व्युच्छिन्ना ॥ २२४ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें पहलेसे अन्यप्रमाण ही लिये स्थितिकांडक स्थितिबन्धापसरण अनुभागखण्ड प्रारंभ किये जाते हैं और वहां ही सब कर्मोंकी उपशम