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लब्धिसारः। अर्थ-इसतरह अप्रमत्तसे प्रमत्तमें प्रमत्तसे अप्रमत्तमें हजारों वार पलटनेकर अनन्तानुबन्धीचारके विना शेष इक्कीस चारित्रमोहकी प्रकृतियोंके उपशमानेका उद्यम करता है । अन्यप्रकृतियोंका उपशम नहीं होता ॥ २१७ ॥
तिकरणबंधोसरणं कमकरणं देसघादिकरणं च । अंतरकरणं उवसमकरणं उवसामणे होंति ॥ २१८॥ त्रिकरणं बंधापसरणं क्रमकरणं देशघातिकरणं च ।
अंतरकरणमुपशमकरणं उपशामने भवंति ॥ २१८ ॥ अर्थ-अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण-ये तीनकरण, स्थिति बन्धापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण, उपशमकरण-इसतरह आठ अधिकार चारित्रमोहके उपशमविधानमें पाये जाते हैं। उनमेंसे अधःकरणको सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानवाला मुंनि करता है ॥ २१८ ॥
विदियकरणादिसमये उवसंततिदंसणे जहण्णेण । पल्लस्स संखभागं उक्कस्सं सायरपुधत्तं ॥ २१९ ॥ द्वितीयकरणादिसमये उपशांतत्रिदर्शने जघन्येन ।
पल्यस्य संख्यभागं उत्कृष्टं सागरपृथक्त्वम् ॥ २१९ ॥ अर्थ-दूसरे अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिके जघन्यस्थितिकांडक आयाम पल्यका असंख्यातवां भागमात्र है और उत्कृष्ट पृथक्त्वसागर प्रमाण है ॥ २१९ ॥
ठिदिखंडयं तु खइये वरावरं पल्लसंखभागो दु। ठिदिबंधोसरणं पुण वरावरं तत्तियं होदि ॥ २२०॥
स्थितिकांडकं तु क्षायिके वरावरं पल्यसंख्यभागस्तु ।
स्थितिबन्धापसरणं पुनः वरावरं तावत्कं भवति ॥ २२० ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें क्षायिकसम्यग्दृष्टीके जघन्य वा उत्कृष्ट स्थितिकांडक आयाम पत्यके असंख्यातवें भागमात्र है, क्योंकि दर्शनमोहकी क्षपणाके समयमें बहुत स्थिति घटाई जाती है स्थितिके अनुसारही कांडक होता है तौभी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा है । और उपशम वा क्षायिकसम्यग्दृष्टीके स्थितिबन्धापसरण पल्यके संख्यातवें भागमात्र ही है तो भी जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा है ॥ २२० ॥ ... असुहाणं रसखंडमणंतभागाण खंडमियराणं । - -
अंतोकोडाकोडी संतं बंधं च तहाणे ॥ २२१ ॥