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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । कोहदुगं संजलणगकोहे संछुहदि जाव पढमठिदी। आवलितियं तु उवरिं संछुहदि हु माणसंजलणे ॥ २६७ ॥ क्रोधद्विकं संज्वलनकक्रोधे संक्रामति यावत् प्रथमस्थितिः ।
आवलित्रिकं तु उपरि संक्रामति हि मानसंज्वलने ॥ २६७ ॥ अर्थ-अवेदके प्रथमसमयसे लेकर संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें तीन आवली शेष रहनेतक अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानरूप दो क्रोधके द्रव्यको संज्वलनक्रोधमें संक्रमण करता है । और संक्रमावली उपशमनावलि उच्छिष्टावलि इन तीनोंमेंसे संक्रमावलिके अन्तसमयतक उन दोनोंका द्रव्य संज्वलनमानमें संक्रमण होता है ॥ २६७ ॥
कोहस्स पढमठिदी आवलिसेसे तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होंति कोहस्स ॥ २६८ ॥ क्रोधस्य प्रथमस्थितिः आवलिशेषे त्रिक्रोधमुपशांतं ।
न च नवकं तत्रांतिमबंधोदयौ भवतः क्रोधस्य ॥ २६८ ॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें उच्छिष्टावलि शेष रहनेपर अन्तमें नवीनसमयप्रबद्धके विना समस्त संज्वलन क्रोधका द्रव्य अपनेरूप रहता हुआ उपशम हुआ। वहां ही संज्वलन क्रोधके बन्ध उदयका व्युच्छेद होता है ॥ २६८ ॥
से काले माणस्स य पढमहिदिकारवेदगो होदि। पढमहिदिम्मि दवं असंखगुणियक्कमे देदि ॥ २६९ ॥
तस्मिन् काले मानस्य च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति ।
प्रथमस्थितौ द्रव्यं असंख्यगुणितक्रमेण ददाति ॥ २६९ ॥ अर्थ-तीन क्रोधोंके उपशम होनेके वादमें यह संयमी संज्वलनमानकी प्रथमस्थितिके ऊपरवर्ती जो द्वितीयस्थितिका द्रव्य उसे प्रथमस्थितिके निषेकोंमें असंख्यातगुणा क्रम लिये निक्षेपण करता है और उसी प्रथमस्थितिका कर्ता भोक्ता होता है ॥ २६९ ॥
पढमट्ठिदिसीसादो विदियादिम्हि य असंखगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं जाव अइच्छावणमपत्तं ॥ २७॥ प्रथमस्थितिशीर्षत: द्वितीयादौ च असंख्यगुणहीनम् ।
ततो विशेषहीनं यावत् अतिस्थापनमप्राप्तम् ॥ २७० ॥ अर्थ-प्रथमस्थितिके अन्तसमयमें निक्षेपण किये द्रव्यसे द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेकमै निक्षेपण किया द्रव्य असंख्यातगुणा कम है और उससे ऊपर विशेष घटता क्रमलिये जबतक अतिस्थापनावली प्राप्त न हो तबतक व्यका निक्षेपण होता है ॥ २७० ॥