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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अर्थ-उससे चढनेवाले अपूर्वकरणके अन्तसमयमें स्थितिसत्त्वविशेष अधिक है, क्योंकि उसके अन्तकांडककी अन्तफालिका प्रमाण पत्यके संख्यातवें भागमात्र सम्भवता है । उससे चढनेवाले अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है वह अन्तःकोटाकोटि प्रमाण है, क्योंकि अपूर्वकरणके कालमें संख्यात हजार स्थितिकांडक होते हैं उनकर उसके प्रथमसमयमें जो स्थिति पाई जाती है उसका संख्यात बहुभागमात्र स्थितिका घात होता है, उसके अन्तसमयमें एकभागमात्र स्थिति रहती है और उस प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्वसे पहले स्थितिकांडकका घात ही नहीं है इसलिये उसके अन्तसमयके स्थितिसत्वसे प्रथमसमयवर्ती स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा जानना ॥ ३८८ ॥ इसतरह अल्पबहुत्व जानना।
इसप्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित लब्धिसारमें चारित्रलब्धि अधिकारमेंसे क्षयोपशम व उपशमलब्धिका कहनेवाला दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ॥ २ ॥
क्षायिकचारित्रका अधिकार ॥ ३ ॥
आगे माधवचंद्राचार्यविरचित संस्कृत क्षपणासारके अनुसारको लिये गाथाओंका व्याख्यान किया जाता है उसमें प्रथम मङ्गलाचरण भाषामें अनुवादित दिखलाते हैं ।
श्रीवरधर्मजलधिके नंदन रत्नाकरवर्धक सुखकार लोकप्रकाशक अतुल विमलप्रभु संतनिकरि सेवित गुनधार । माधववर बलभद्र नमितपदपद्मयुगल धारे विस्तार
नेमिचंद्रजिन नेमिचंद्रगुरु चंद्र समान नमहुं सो सार ॥१॥ अब चारित्रमोहकी क्षपणाका विधान कहते हैं
तिकरणमुभयोसरणं कमकरणं खवणदेसमंतरयं । संकम अपुवफड्ढयकिट्टीकरणुभवण खमणाये ॥ ३८९ ॥ त्रिकरणमुभयापसरणं क्रमकरणं क्षपणं देशमंतरकम् ।
संक्रमं अपूर्वस्पर्धककृष्टिकरणानुभवनानि क्षपणायाम् ॥ ३८९ ॥ अर्थ-अधःकरण आदि तीन करण, बंधापसरण, सत्त्वापसरण, कमकरण, आठ कषाय सोलह प्रकृतियोंकी क्षपणा, देशघातिकरण, अंतरकरण, संक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, कृष्टिअनुभवन–इसतरह ये चारित्रमोहकी क्षपणामें अधिकार जानने ॥३८९॥ उसके वाद ज्ञानावरणादि कर्मकी क्षपणाका अधिकार और योगनिरोध अधिकारका वर्णन किया जायगा।