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लब्धिसारः।
णामधुवोदयबारस सुभगति गोदेक विग्यपणगं च । केवल णिदाजुयलं चेदे परिणामपचया होंति ॥ ३०३ ॥ नामध्रुवोदयद्वादश सुभगत्रि गोत्रैकं विघ्नपंचकं च ।
केवलं निद्रायुगलं चैते परिणामप्रत्यया भवंति ॥ ३०३ ॥ अर्थ-उपशांतकषायमें जो उनसठ उदयप्रकृतियां पाई जाती हैं उनमेंसे तैजसशरीर आदि नामकर्मकी ध्रुवोदयी बारह प्रकृतियां, सुभग आदेय यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र, पांच अन्तराय, केवल ज्ञानावरण दर्शनावरण और निद्रा प्रचला-ये पच्चीस प्रकृतियां परिणाम प्रत्यय हैं अर्थात् वर्तमान परिणामके निमित्तसे इनका अनुभाग उत्कर्षण ( वढना ) अपकर्षण ( घटना ) आदिरूप होके उदय होता है ॥ ३०३ ॥
तेसिं रसवेदमवठाणं भवपच्चया हु सेसाओ। चोत्तीसा उवसंते तेसि तिहाण रसवेदं ॥३०४ ॥ तेषां रसवेदमवस्थानं भवप्रत्यया हि शेषाः ।
चतुस्त्रिंशत् उपशांते तेषां त्रिस्थानं रसवेदं ॥ ३०४ ॥ अर्थ-उन पच्चीस प्रकृतियोंके अनुभागका उदय उपशांत कषायके प्रथमसमयसे अंतसमयतक अवस्थित ( समानरूप) है । क्योंकि वहां परिणाम समान हैं । और शेष चौंतीस प्रकृतियां भवप्रत्यय हैं । आत्माके परिणामोंकी अपेक्षा रहित पर्यायके ही आश्रयसे इनके अनुभागमें हानि वृद्धि पायी जाती है इसलिये इनके अनुभागका उदय तीन अवस्था लिये है ॥ ३०४ ॥ इस तरह उपशांत कषाय गुणस्थानके अन्तसमयतक इक्कीस चारित्र. मोहकी प्रकृतियोंका उपशमन विधान समाप्त हुआ। आगे उपशांतकषायसे पड़नेका विधान कहते हैं
उवसंते पडिवडिदे भवक्खये देवपढमसमयम्हि । उग्घाडिदाणि सबवि करणाणि हवंति णियमण ॥ ३०५॥ उपशांते प्रतिपतिते भवक्षये देवप्रथमसमये ।
उद्घाटितानि सर्वाण्यपि करणानि भवंति नियमेन ॥ ३०५ ॥ अर्थ-उपशांतकषायके कालमें प्रथमादि अन्तसमयतक समयों में जिस किसीमें आयुके नाशसे मरकर देवपर्यायके असंयतगुणस्थानमें पड़े वहां असंयतके प्रथमसमयमें बंध उदी. रणा वगैरह सब करणोंको प्रगटकर प्रवर्तता है । क्योंकि जो उपशांत कषायमें उपशमे थे वे सब असंयतमें उपशम रहित हुए हैं ॥ ३०५ ॥
सोदीरणाण दवं देदि हु उदयावलिम्हि इयरं तु । उदयावलिबाहिरगे उंछाये देदि सेढीये ॥ ३०६ ॥