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लब्धिसारः। अर्थ-आनतवर्गको आदि लेके ऊपरले अवेयकतक उन तेरहस्थानोंमेंसे दूसरे और तेईसवें स्थानोंके विना ग्यारह बंधापसरण स्थान पाये जाते हैं। वहां उन ग्यारह स्थानोंकर चौवीस घटानेसे बंधयोग्य छयानवै प्रकृतियों में से बहत्तरि बांधता है ॥ १८ ॥ .. . ते चेवेकारपदा तदिऊणा बिदियठाणसंजुत्ता।
चउवीसदिमेणूणा सत्तमिपुढविम्मि ओसरणा ॥ १९ ॥
तानि चैवैकादशपदानि तृतीयोनानि द्वितीयस्थानसंयुक्तानि ।
- चतुर्विंशतिकेनोनानि सप्तमीपृथिव्यामपसरणानि ॥ १९॥ अर्थ—सातवीं नरककी पृथिवीमें उन ग्यारहोंमेंसे तीसरे और चौवीसवें स्थानके विना तथा दूसरे स्थानसहित-इस तरह दस स्थान पाये जाते हैं । उन दस स्थानोंमेंसे तेईस वा उद्योतसहित चौवीस घटानेपर बंधयोग्य छयानवै प्रकृतियोंमेंसे तेहत्तरि वा बहत्तर बांधी जाती हैं क्योंकि उद्योतको बंध वा अबंध दोनों संभवते हैं ॥ १९॥
घादिति सादं मिच्छं कसायपुंहस्सरदि भयस्स दुर्ग । अपमत्तडवीसुच्चं बंधति विसुद्धणरतिरिया ॥ २०॥ घातित्रयं सातं मिथ्यं कषायपुंहास्यरतयः भयस्य द्विकम् ।
अप्रमत्ताष्टाविंशोच्चं बघ्नंति विशुद्धनरतिर्यंचः ॥ २० ॥ अर्थ--इसप्रकार व्युच्छित्ति होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको सन्मुख हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंच हैं वे ज्ञानावरण आदि तीन घातियाओंकी उन्नीस सातावेदनीय मिथ्यात्व सोलह कषाय पुरुषवेद हास्य रति भय जुगुप्सा अप्रमत्तकी अट्ठाईस उच्चगोत्र-इसतरह इकहत्तरि प्रकृतियों को बांधते हैं ॥ २०॥
देवतसवण्णअगुरुचउकं समचउरतेजकम्मइयं । सग्गमणं पंचिंदी थिरादिछण्णिमिणमडवीसं ॥ २१ ॥
देवत्रसवर्णागुरुचतुष्कं समचतुरतेजःकार्मणकम् ।
सद्गमनं पंचेंद्री स्थिरादिषण्णिर्माणमष्टाविंशम् ॥ २१ ॥ अर्थ-देवचतुष्क त्रसचतुष्क वर्णचतुष्क अगुरुलघुचतुष्क समचतुरस्रसंस्थान तैजस कार्माण शुभविहायोगति, पंचेंद्री, स्थिर आदि छह, निर्माण-ये अट्ठाईस प्रकृतियां अप्रमतकी हैं ॥ २१॥
तं सुरचउकहीणं णरचउवजजुद पयडिपरिमाणं । सुरछप्पुढवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधंति ॥ २२॥ .
१ देवचतुष्कसे देवगति देवगत्यानुपूर्वी वैक्रियिकशरीर वैक्रियिक अंगोपांग जानना ।