________________
लब्धिसारः। स्थिति अनुभाग प्रदेशरूप चतुष्क हैं वे बंध उदय उदीरणा सत्त्वमें कहे गये हैं सो प्रायोग्यनामा चौथी लब्धिके अंततक जानने ॥ ३२ ॥ आगे करणलब्धिका स्वरूप कहते हैं;
तत्तो अभवजोग्गं परिणामं वोलिऊण भयो हु। करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुवमणियहि ॥ ३३॥.
ततः अभव्ययोग्यं परिणामं मुक्त्वा भव्यो हि । . करणं करोति क्रमशः अधःप्रवृत्तमपूर्वमनिवृत्तिम् ॥ ३३ ॥ अर्थ-उसके बाद अभव्यके भी योग्य ऐसे चार लब्धिरूप परिणामोंको समाप्तकर भव्यजीव ही अधःप्रवृत्त, अपूर्व, और अनिवृत्ति करण-इन तीन करणोंको करता है ॥३३॥ इन तीनों करणों ( परिणामों ) का गोमटसारके जीवकांडमें गुणस्थानाधिकारमें तथा कर्मकांडमें त्रिकरणचूलिकाधिकारमें विशेष व्याख्यान है वहांसे जानना । अब यहां भी सामान्यतासे कहते हैं;
अंतोमुहुत्तकाला तिषिणवि करणा हवंति पत्तेयं । उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूपेण ॥ ३४ ॥ __ अंतर्मुहूर्तकालानि त्रीण्यपि करणानि भवंति प्रत्येकम् ।
उपरितः गुणितक्रमाणि क्रमेण संख्यातरूपेण ॥ ३४ ॥ अर्थ-तीनों ही करण हरएक अंतर्मुहूर्तकालतक स्थित रहते हैं तो भी ऊपरसे संख्यातगुणा क्रम लिये हुए हैं । अनिवृत्तिकरणका काल थोड़ा है उससे अपूर्वकरणका काल संख्यातगुणा है उससे संख्यातगुणा काल अधःप्रवृत्तकरणका है ॥ ३४ ॥
जम्हा हेछिमभावा उवरिमभावहिं सरिसगा हुंति । तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिहिटं॥ ३५ ॥
यस्मादधस्तनभावा उपरितनभावैः सदृशा भवंति।
तस्मात् प्रथमं करणं अधःप्रवृत्तमिति निर्दिष्टम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-जिसकारण नीचेके समयवर्ती किसी जीवके परिणाम ऊपरले समयवर्ती किसी जीवके परिणामोंके समान होते हैं इसकारण ऐसे परिणामका नाम अधःप्रवृत्तिकरण है। भावार्थ-करणोंका कथन नाना जीवों की अपेक्षा है सो किसी जीवको अधःकरण शुरू किये थोड़ा काल हुआ किसीको बहुतकाल हुआ उनके परिणाम इस करणमें संख्या और विशुद्धताकर समान भी होते हैं ऐसा जानना ॥ ३५ ॥
समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुवकरणो हु। अणियट्टीवि तहं वि य पडिसमयं एकपरिणामो ॥ ३६॥