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लब्धिसारः। विदियादिसु समयेसु हि छंडदि पल्लाअसंखभागं तु । आकुंददि हु अपुवा हेट्ठा तु असंखभागं तु ॥ २९५ ॥ द्वितीयादिषु समयेषु हि त्यजति पल्यासंख्यभागं तु ।
आक्रामति हि अपूर्वा अधस्तनास्तु असंख्यभागं तु ॥ २९५ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायके द्वितीय आदिसमयोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियोंको छोड़ता है अर्थात् उदयको प्राप्त नहीं करता । और उस प्रथमसमयमें जो नीचेकी अनुदय कृष्टि कहीं थीं उनमें अन्तकृष्टिसे लेकर यहां जितना प्रमाण कहा है उतनी कृष्टियां उदयरूप होती हैं ॥ २९५॥
किटिं सुहुमादीदो चरिमोत्ति असंखगुणिदसेढीए । उवसमदि हु तचरिमे अवरहिदिबंधणं छण्हं ॥ २९६ ॥ कृष्टिं सूक्ष्मादितः चरम इति असंख्यगुणितश्रेण्याः।
उपशमयति हि तच्चरमे अवरस्थितिबंधनं षण्णाम् ॥ २९६ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायके प्रथम समयसे लेकर अन्तसमयतक असंख्यातगुणा क्रमलिये द्रव्य उपशमाता है । और सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें आयुमोहके विना छहकाँका जघन्य स्थितिबन्ध होता है ॥ २९६ ॥
अंतोमुहुत्तमत्तं घादितियाणं जहण्णठिदिबंधो। णामदुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता ॥ २९७ ॥
अंतर्मुहूर्तमानं घातित्रयाणां जघन्यस्थितिबंधः ।
नामद्विकं वेदनीयं षोडश चतुविंशश्च मुहूर्ताः ॥ २९७ ॥ अर्थ-उनमेंसे तीन घातियाओंका अन्तर्मुहूर्तमात्र, नाम गोत्रका सोलह मुहूर्त, सातावेदनीयका चौवीसमुहूर्त जघन्य स्थितिबंध होता है ॥ २९७ ॥
पुरिसादीणुच्छिटुं समऊणावलिगदं तु पचिहिदि । सोदयपढमहिदिणा कोहादीकिट्टियंताणं ॥ २९८ ॥
पुरुषादीनामुच्छिष्टं समयोनावलिगतं तु प्रत्याहंति ।
सोदयप्रथमस्थितिना क्रोधादिकृष्ट्यंतानाम् ॥ २९८ ॥ अर्थ-पुरुषवेदादिकोंका एकसमयकम आवलिमात्र निषेकोंका द्रव्य उच्छिष्टावलिरूप रहता है वह क्रोधादि सूक्ष्मकृष्टिपर्यंतोंके उदयरूप निषेकसे लेकर प्रथमस्थितिके निषेकोंके साथ उसरूप परिणमनकर उदय होता है ॥ २९८ ॥
पुरिसादो लोहगयं णवकं समऊण दोणि आवलियं । वसमदि हु कोहादीकिट्टीअंतेसु ठाणेसु ॥ २९९ ॥ . .