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कब्धिसारः ।
द्वितीयमिव तृतीयकरणं प्रतिसमयमेक एकः परिणामः । अन्ये स्थितिरसखंडे अन्यत् स्थितिबंधमाप्नोति ॥ ८३ ॥
अर्थ – दूसरे अपूर्वकरणमें कहे हुए स्थितिखण्डादिकार्य तीसरे अनिवृत्तिकरण में भी जानना । लेकिन इतना भेद है कि समय समयमें एक एक परिणाम ही होता है और यहां अन्य ही प्रमाणलिये हुए स्थितिखण्ड अनुभागखण्ड तथा स्थितिबन्धका प्रारंभ होता 2/211 23 11
संखज्जदिमे सेसे दंसणमोहस्स अंतरं कुणई ।
अण्णं ठिदिरसखंड अण्णं ठिदिबंधणं तत्थ ॥ ८४ ॥ संख्येये शेषे दर्शनमोहस्यांतरं करोति ।
अन्यत् स्थितिरसखंडमन्यत् स्थितिबंधनं तत्र ॥ ८४ ॥
अर्थ — इसतरह स्थितिखण्डादिकर अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग बाकी रहनेपर दर्शनमोहका अन्तर ( अभाव ) करता है । वहां उसके कालके प्रथमसमयमें अन्य ही स्थितिखण्ड अनुभागबन्ध स्थितिबन्धका प्रारंभ होता है ॥ ८४ ॥
दिखंडुक्करणकाले अंतरस्स णिष्पत्ती ।
अंतोमुहुत्तमेत्तं अंतरकरणस्स अद्धाणं ॥ ८५ ॥ एकस्थितिखंडोत्करणकाले अंतरस्य निष्पत्तिः । अंतर्मुहूर्तमात्रमंतरकरणस्याद्धा ।। ८५ ।।
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अर्थ
- एक स्थितिखण्डोत्करणकालमें अन्तरकरणकी उत्पत्ति होती है । वह अन्तरकरणका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ ८५ ॥
गुणसेढीए सीसं तत्तो संखगुण उवरिमठिदिं च ।
वरह य आवाहुज्झिय बंधम्हि संथुहृदि ॥ ८६ ॥ गुणश्रेण्याः शीर्ष ततः संख्यगुणं उपरितनस्थितिं च । अधस्तनोपरि चाबाधोज्झित्वा बंधे संपातयति ॥ ८६ ॥
अर्थ — गुणश्रेणीशीर्षके सब निषेक और उससे संख्यातगुणे ऊपरकी स्थिति निषे इन दोनोंको मिलानेसे अन्तरायाम होता है अर्थात् इतने निषेकोंका अभाव किया जाता है वह अन्तर्मुहूर्तमात्र है । उसके द्रव्यको मिथ्यात्वकर्मकी स्थितिका आबाधाकाल छोड़कर अन्तरायामसमान निषेकोंके नीचे वा ऊपर के निषेकोंमें निक्षेपण करता है ॥ ८६ ॥ अंतरकडपढमादो पडिसमयमसंखगुणिदमुवसमदि । गुणसंकमेण दंसणमोहणियं जाव पढमठिदी ॥ ८७ ॥
ल. सा. ४