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लब्धिसारः।
सम्यक्त्व होता है । तथा चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोंके उपशमसे वा क्षयसे उत्कृष्ट यथाख्यातचारित्र होता है वह निःकषाय आत्मचरणरूप है ॥ ६०९॥ ___ अब यहां कोई प्रश्न करे कि केवलीके असातावेदनीयके उदयसे क्षुधा आदि परीषह होती हैं इसलिये आहारादि क्रियाका संभव है उसका समाधान कहते हैं
जंणोकसायविग्घचउक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपयडिणुदयभवं इंदियखेदं हवे दुक्खं ॥ ६१०॥
यत् नोकषायविघ्नचतुष्काणां बलेन दुःखप्रभृतीनाम् । ____ अशुभप्रकृतीनामुदयभवं इंद्रियखेदं भवेत् दुःखं ॥ ६१० ॥ अर्थ-जो नोकषाय और चार अन्तरायके उदयके बलसे असाता वेदनी आदि अशुभ प्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न हुआ ऐसा इन्द्रियोंके खेद ( आकुलता ) उसका नाम दुःख है । वह केवलीके नहीं है । ६१० ॥
जं णोकसायविग्घचउक्काण बलेण सादपहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥ ६११ ॥ यत् नोकषायविघ्नचतुष्काणां बलेन सातप्रभृतीनाम् ।
शुभप्रकृतीनामुदयभवं इंद्रियतोषं भवेत् सौख्यम् ॥ ६११ ॥ अर्थ—जो नोकषाय और चार अन्तरायके उदयके बलसे साता वेदनीय आदि शुभ प्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्रियोंको संतोष (कुछ निराकुलता) उसका नाम इन्द्रियजनित सुख है । वह भी केवलीके नहीं संभव होता है ॥ ६११॥ उसका कारण बतलाते हैं;
णट्ठा य रायदोसा इंदियणाणं च केवलिम्हि जदो। तेण दु सातासादजसुहदुक्खं णत्थि इंदियजं ॥ ६१२ ॥
नष्टौ च रागद्वेषौ इंद्रियज्ञानं च केवलिनि यतः ।
तेन तु सातासातजसुखदुःखं नास्ति इंद्रियजम् ॥ ६१२ ॥ अर्थ-क्योंकि केवलीमें रागद्वेष नष्ट होगये हैं और इन्द्रियजनितज्ञान भी नष्ट होगया है इसकारण साता व असाता वेदनीयके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्रियजनित सुख दुःख नहीं है । इस हेतुसे यह वात सिद्ध हुई कि कारणके सद्भावसे परीषह उपचारमात्र हैं तो भी उनका दुःखरूप कार्य नहीं होता ॥ ६१२ ॥ अब दूसरा हेतु कहते हैं;
समयहिदिगो बंधो सादस्सुयप्पिगो जदो तस्स । तेण असादस्सुदओ सादसरूपेण परिणमदि ॥ ६१३॥