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लब्धिसारः।
११३ लक्ष्यकोडिसागर है । और वहां सत्त्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है ॥ ४०४ ॥ इसतरह स्थितिकांडकका खरूप कहा।
एकेकढिदिखंडयणिवडणठिदिओसरणकाले। संखेजसहस्साणि य णिवडंति रसस्स खंडाणि ॥ ४०५॥
एकैकस्थितिखंडकनिपतनस्थित्युत्करणकाले ।
संख्येयसहस्राणि च निपतंति रसस्य खंडानि ॥ ४०५॥ अर्थ-एक एक स्थिति खण्डघात जिसमें होवे ऐसे स्थितिकांडकोत्करणकालमें संख्यातहजार अनुभागकांडकोंका घात होता है ॥ ४०५॥
असुहाणं पयडीणं अणंतभागा रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णत्थित्ति रसस्स खंडाणि ॥ ४०६ ॥ अशुभानां प्रकृतीनां अनंतभागा रसस्य खंडानि ।
शुभप्रकृतीनां नियमात् नास्तीति रसस्य खंडानि ॥ ४०६ ॥ अर्थ-अशुभ प्रकृतियोंका अनंत बहुभागमात्र अनुभागकांडकका प्रमाण है और प्रशस्त प्रकृतियोंका अनुभागखण्ड नियमसे नहीं होता क्योंकि विशुद्धपरिणामोंकर शुभप्रकृतियोंके अनुभागका घटाना संभव नहीं होता ॥ ४०६ ॥ इसप्रकार अनुभागखण्डका खरूप कहा।
पढमे छठे चरिमे भागे दुग तीस चदुर वोछिण्णा । बंधेण अपुवस्स य से काले वादरो होदि ॥ ४०७॥
प्रथमे षढ़े चरमे भागे द्विकं त्रिंशत् चतस्रो व्युच्छिन्नाः ।
बंधेन अपूर्वस्य च स्वे काले बादरो भवति ॥ ४०७॥ अर्थ-अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे पहले भागमें निद्रा प्रचला इन दो प्रकृतियोंकी बंधसे व्युच्छित्ति हुई । छठे भागमें देवगति आदि तीस प्रकृतियोंकी बंधव्युच्छित्ति हुई
और इसके वाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अपूर्वकरणके अंतसमयमें हास्यादि चार कर्मोंकी बंधसे व्युच्छित्ति होती है । यहांपर ही छह नोकषायोंके उदयकी व्युच्छित्ति होती है । जिस जगह ऊपर समयके भाव हमेशा नीचेके समयके भावोंके समान हों वह कर्मनाश करनेवाला सार्थक नामका धारक अपूर्वकरण जानना । उसके बाद अपने कालमें अनिवृत्तिकरण होता है ॥ ४०७ ॥ आगे उस अनिवृत्तिकरणका स्वरूप कहते हैं
अणियदृस्स य पढमे अण्णं ठिदिखंडपहुदिमारवई ।
उवसामणा णिधत्ती णिकाचणा तत्थ वोछिण्णा ॥ ४०८॥ .. ल, सा. १५