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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ अर्थ-समस्त शीलगुणका खामी हुआ सब आस्रवोंको रोककर कर्मबन्धरूपी रज (धूलि ) रहित हुआ योग रहित अयोगी केवली होता है। भावार्थ-यद्यपि सयोगी जिनके सब शील गुणोंका खामीपना सम्भवता है परंतु योगोंका आस्रव पाया जाता है इसलिये सकल संवरके न होनेसे शीलेशस्थान सम्भव है । और यह अयोगी जिन सब तरहसे निरास्रव और निबंध होगया है ॥ ६४३ ॥
बाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं च चरिमम्हि । झाणजलणेण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥ ६४४॥ द्वासप्ततिप्रकृतयः द्विचरमके त्रयोदश च चरमे ।
ध्यानज्वलनेन कवलिताः सिद्धः स भवति खे काले ॥ ६४४ ॥ अर्थ- अयोगीका काल पांच हख अक्षर उच्चारणकालके समान है । वहां एक एक समयमें एक एक निषेक गलनरूप जो अधःस्थितिगलन उससे क्षीण हुई उस कालके द्विचरमसमयमें बहत्तरि प्रकृतियां और अन्तसमयमें तेरह प्रकृतियां शुक्लध्यानरूपी अमिसे ग्रासीभूत (नष्ट) होती हैं। ऐसे क्षयकर अनन्तर समयमें सिद्ध होता है। जैसे कालिमासे रहित होके शुद्ध सुवर्ण सोना ही होवे उसीतरह यह जीव सब कर्ममल रहित कृतकृत्यहशारूप निष्पन्न होता है ॥ ६४४ ॥ उन बहत्तर और तेरह प्रकृतियों के नाम कहते हैं-अनुदयरूप वेदनीय १ देवगति १ शरीर पांच ५ बन्धन पांच ५ संघात पांच ५ संस्थान छह ६ आंगोपांग तीन ३ संहनन छह ६ वर्णादिक वीस २० देवगत्यानुपूर्वी १ अगुरुलधु १ उपघात १ परघात १ उच्छास १ अप्रशस्तविहायोगति १ प्रशस्तविहायोगति १ अपर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर १ अस्थिर १ शुभ १ अशुभ १ दुर्भग १ सुखर १ दु:खर १ अनादेय १ अयशस्कीर्ति १ निर्माण १ नीचगोत्र १-ये बहत्तरि प्रकृतियां हैं । और उदयरूप सातावेदनीय १ मनुष्यायु १ मनुष्यगति १ पञ्चेंद्रीजाति १ मनुष्यानुपूर्वी १ त्रस १ बादर १ पर्याप्त १ सुभग १ आदेय १ यशस्कीर्ति १ तीर्थकर १ उच्चगोत्र १-ये तेरह प्रकृतियां अन्तसमयमें क्षय होती हैं।
तिहुवणसिहरेण मही वित्थारे अठ्ठजोयणुदयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ॥ ६४५ ॥ त्रिभुवनशिखरेण मही विस्तारे अष्ट योजनान्युदयस्थिरा ।
धवलछत्राकारा मनोहरा ईषत्प्रभारा ॥ ६४५ ॥ अर्थ-वह जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावसे तीन लोकके शिखरपर ईषत्प्रभार नामकी आठवीं पृथ्वीके ऊपर एकसमयमें जाकर तनुवातवलयके अन्तमें विराजमान होता हैं। कैसी पृथ्वी है उसे कहते हैं । जो पृथ्वी मनुष्यपृथ्वीके समान पैंतालीस लाख योजन चौड़ी