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लब्धिसारः। गोल आकार है । आठ योजन ऊंची है, स्थिर है और सफेद छत्रके आकार है खेत वर्ण है बीचमें मोटी किनारेपर पतली है और मनको हरनेवाली है ॥ यद्यपि ईषत्प्राग्भार नाम पृथ्वी घनोदधिवात बलयतक है परंतु यहां उस पृथ्वीके बीचमें सिद्ध शिला पाई जाती है उसकी अपेक्षा ऐसा कथन है। धर्मास्तिकायके अभावसे वहांसे आगे गमन नहीं होता, वहां ही चरम ( अन्तके ) शरीरसे कुछ कम आकाररूप जीवद्रव्य अनन्त ज्ञानानन्दमय विराजता है ॥ ६४५॥
पुषण्हस्स तिजोगो संतो खीणो य पढमसुकं तु । विदियं सुकं खीणो इगिजोगो झायदे झाणी ॥ ६४६ ॥
पूर्वज्ञस्य त्रियोगः शांतः क्षीणश्च प्रथमशुक्लं तु ।
द्वितीयं शुक्लु क्षीण एकयोगो ध्यायति ध्यानी ॥ ६४६ ॥ अर्थ-जो महामुनि पूर्वोका ज्ञाता तीन योगोंका धारक उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीवर्ती है वह पृथक्त्ववितर्कवीचार मामा पहला शुक्लध्यानको ध्याता है और दूसरे शुक्लध्यानको क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती तीनयोगोंमें एक योगका धारक होकर ध्याता है । यहांपर पृथक्त्ववितर्क वीचार उसे कहते हैं कि जुदा जुदा भावश्रुत ज्ञानकर अर्थ व्यञ्जन योगोंका संक्रमण होना । उसमें अर्थ तो द्रव्य गुण पर्याय हैं, व्यजन श्रुतके शब्द हैं और योग मन बचन काय हैं-इनका पलटना वीचार कहा जाता है । इसतरह जिसध्यानमें प्रवृत्ति होना वही पृथक्ववितकेवीचार है । और जिस जगह एकता लिये भावश्रुतसे पलटना नहीं होता अर्थात् जिस अर्थको, श्रुतरूप शब्दको, जिस योगकी प्रवृत्तिलिये ध्यावे उसको वैसे ही ध्यावे पलटे नहीं ऐसा एकत्त्ववितके ध्यान जानना ॥ ६४६॥
सो मे तिहुवणमहियो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिचो। दिसदु वरणाणदंसणचरित्तसुद्धिं समाहिं च ॥ ६४७॥ .
स मे त्रिभुवनमहितः सिद्धः बुद्धो निरंजनो नित्यः ।
दिशतु वरज्ञानदर्शनचारित्रशुद्धिं समाधिं च ॥ ६४७ ॥ अर्थ-तीनलोकसे पूजित, सबके जाननेवाले, कर्मरूपी अञ्जनसे रहित और विनाशरहित ऐसे वे सिद्ध भगबान मुझे उत्कृष्ट ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी शुद्धि और समाधि ( अनुभवदशा या संन्यासमरण ) को देवें ॥ भावार्थ-यहां सिद्धोंके मोक्ष अवस्था होना उसका खरूप सब कर्मोंका सबतरहसे नाश होनेसे संपूर्ण आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ही है। इस वारेमें अन्यमतवाले विपरीतकथन करते हैं वह श्रद्धान नहीं करना । उनमेंसे बौद्ध कहता है-जैसे दीपकका बुझना उसीतरह आत्माका स्कंधसंतानका नाश होनेसे अभाव