________________
लब्धिसारः। २९ । उससे संख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकके प्रथमसमयमें संभवता दर्शनमोहके विना अन्य कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध है ३० । उससे संख्यातगुणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवता उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है ३१ । उससे संख्यातगुणा अनिवृत्तिकरणके अन्तभागमें संभवता उन्हीं कर्मोंका जघन्य स्थितिसत्त्व है ३२ । उससे संख्यातगुंणा अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें संभवता उन्हीं कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है । ३३ । इस प्रकार दर्शनमोहकी क्षपणाके अवसरमें संभवते अल्प बहुत्वके तेतीस स्थान हैं ॥ १६१॥१६२ ।।
सत्तण्हं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरुं व णिप्पकप सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ॥ १६३॥
सप्तानां प्रकृतिनां क्षयात् क्षायिकं तु भवति सम्यक्त्वम् ।
मेरुरिव निष्प्रकंपं सुनिर्मलमक्षयमनंतम् ॥ १६३ ॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धी चार दर्शनमोहकी तीन-इन सातों प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायक सम्यक्त्व होता है वह सुमेरुके समान निश्चल है शंका आदि मलोंसे रहित है शिथिलताके अभावसे गाढ है और अन्तरहित है ॥ १६३ ॥
दंसणमोहे खविदे सिज्झदि तत्थेव तदियतुरियभवें । णादिकदि तुरियभवं ण विणस्सदि सेससम्मं व ॥१६४॥
दर्शनमोहे क्षपिते सिद्ध्यति तत्रैव तृतीयतुरीयभवे । ___ नातिक्रामति तुरीयभवं न विनश्यति शेषसम्यगिव ॥ १६४ ॥ अर्थ-दर्शनमोहका क्षय होनेपर उसी भवमें अथवा तीसरे भवमें या मनुष्यतिर्यंचका पहले आयु बन्धा हो तो भोगभूमि अपेक्षा चौथे भवमें सिद्धपदको पाता है। चौथे भवको नहीं उलंघन करता । और यह सम्यक्त्व शेषके उपशमिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी तरह नाशको नहीं प्राप्त होता ॥ १६४ ॥
सत्तण्हं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयलद्धी दु। उक्कस्सखइयलद्धी घाइचउक्वक्खएण हवे ॥ १६५ ॥ सप्तानां प्रकृतीनां क्षयादवरा तु क्षायिकलब्धिस्तु ।
उत्कृष्टक्षायिकलब्धिर्घातिचतुष्कक्षयेण भवेत् ॥ १६५ ॥ अर्थ-सात प्रकृतियोंके क्षयसे असंयतसम्यग्दृष्टीके क्षायिकसम्यक्त्वरूप जघन्य क्षायकलब्धि होती है और चार घातिया कर्मोंके क्षयसे परमात्माके केवलज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायक लब्धि होती है ॥ १६५॥ __ इसप्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित क्षपणासार गर्भित लब्धिसारमें दर्शनलब्धिका व्याख्यान करनेवाला पहला अधिकार समाप्त हुआ ॥१॥