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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्। ठिदिसत्तमपुत्वदुगे संखगुणूणं तु पढमदो चरिमं ।। उवसामण अणियट्टीसंखाभागासु तीदासु ॥ २०६ ॥ स्थितिसत्त्वमपूर्वद्विके संख्यगुणोनं तु प्रथमतः चरमम् ।
उपशामनमनिवृत्तिसंख्यभागेष्वतीतेषु ॥ २०६॥ अर्थ-अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयके स्थितिसत्त्वसे अन्तसमयमें स्थितिसत्त्व है वह कांडक घात करनेसे संख्यातगुणा कम होता है । और अनिवृत्तिकरणकालके संख्यातबहुभाग वीत जानेपर एक भाग रहनेके समय उपशमकार्य होता है ॥ २०६॥ . अब उसीको दिखलाते हैं;
सम्मस्स असंखेजा समयपबद्धाणुदीरणा होदि । तत्तो मुहुत्तअंते दंसणमोहंतरं कुणई ॥ २०७॥
सम्यस्य असंख्येयानां समयप्रबद्धानामुदीरणा भवति ।
ततो मुहूर्तातः दर्शनमोहांतरं करोति ॥ २०७ ॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग शेष रहनेपर सम्यक्त्व मोहनीके असं. ख्यातसमयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । उसके वाद अन्तर्मुहूर्तकाल वीत जानेपर दर्शनमोहका अन्तर करता है ॥ २०७॥
अंतोमुहुत्तमेत्तं आवलिमेत्तं च सम्मतियठाणं । मोत्तूण य पढमहिदि दंसणमोहंतरं कुणइ ॥ २०८ ॥ अंतर्मुहूर्तमानं आवलिमात्रं च सम्यक्त्वत्रयस्थानम् ।
मुक्त्वा च प्रथमस्थितिं दर्शनमोहांतरं करोति ॥ २०८ ॥ अर्थ-सम्यक्त्व मोहनीयकी अंतर्मुहूर्तमात्र और उदयरहित मिश्र व मिथ्यात्वकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति प्रमाण नीचले निषेकोंको छोड़कर उसके ऊपरके जो अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण दर्शनमोहके निषेक हैं उनका अन्तर ( अभाव ) करता है ॥ २०८॥
सम्मत्तपयडिपढमहिदिम्मि संछुहदि दंसणतियाणं। उक्कीरयं तु दवं बंधाभावादु मिच्छस्स ॥ २०९ ॥
सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थितौ संपातयति दर्शनत्रयाणाम् ।
उत्कीर्ण तु द्रव्यं बंधाभावात् मिथ्यस्य ॥ २०९॥ .. अर्थ-उन तीनों दर्शनमोहकी प्रकृतियों के निषेकद्रव्यको उदयरूप सम्यक्त्वमोहनीकी मनमस्थितिमें निक्षेपण करता है । क्योंकि जहां नवीनबन्ध होता है वहां उत्कर्षणकर द्विती