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लब्धिसारः। के प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये जिनका बन्ध पाया जावे ऐसी खजातिप्रकृतियोंमें संक्रमण करता है । अर्थात् अपने खरूपको छोड़ उसरूप परिणमता है ॥ ७५ ॥
एवंविह संकमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्साणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेढिम्मि ॥ ७६ ॥ _ एवंविधं संक्रमणं प्रथमकषायाणां मिथ्यमिश्रयोः।
संयोजनक्षपणयोरितरेषामुभयश्रेणौ ॥ ७६ ॥ अर्थ-ऐसा असंख्यातगुणा क्रमलिये हुए जो संक्रमण उसको गुणसंक्रमण कहते हैं । वह अनन्तानुबंधीकषायोंका गुणसंक्रमण उनके विसंयोजनमें होता है और मिथ्यात्व मिश्रमोहनीयका गुणसंक्रमण उनकी क्षपणामें होता है और अन्य प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशमक वा क्षपकश्रेणीमें पाया जाता है ॥ ७६ ॥ आगे स्थितिकांडक घातका स्वरूप कहते हैं;
पढमं अवरवरहिदिखंडं पल्लस्म संखभागं खु। सायरपुधत्तमेत्तं इदि संखसहस्सखंडाणि ॥ ७७ ॥ प्रथममवरवरस्थितिखंडं पल्यस्य संख्येयभागं खलु।
सागरपृथक्त्वमात्रमिति संख्यसहस्रखंडानि ॥ ७७ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयमें किया जो स्थितिकांडक आयाम वह जघन्य तो पल्यका संख्यातवां भागमात्र और उत्कृष्ट पृथक्त्वसागरप्रमाण है । इसतरह स्थितिखंड अपूर्वकरणके कालमें संख्यात हजार होते हैं ॥ ७७ ॥
आउगवजाणं ठिदिघादो पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिबंधो य अपुरो होदि हु संखेजगुणहीणो ॥ ७८ ॥ __ आयुष्कवानां स्थितिघातः प्रथमाञ्चरमस्थितिसत्त्वं ।
स्थितिबंधश्चापूर्वो भवति हि संख्येयगुणहीनः ॥ ७८ ॥ अर्थ-आयुकर्मको छोड़कर शेषकर्मोंके स्थितिखंड स्थितिसत्त्व स्थितिबन्ध हैं वे अपूर्वकरणके पहले समयसे अन्तके समयमें संख्यातगुणे कम हैं । यहांपर संख्यात हजार स्थितिकांडक घातकर स्थितिसत्त्वका और संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरणकर स्थितिबन्धका संख्यातगुणा कम होना जानना चाहिये ॥ ७८ ॥ आगे अनुभागकांडकघातको कहते हैं;
एकेक्कट्ठिदिखंडयणिवडणठिदिबंधओसरणकाले ।
संखेजसहस्साणि य णिवडंति रसस्स खंडाणि ॥ ७९ ॥ १ पृथक्त्व सात वा आठको कहते हैं ।