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लब्धिसारः। उदीयमानानामावलौ चोभयानां बाह्ये क्षेपणार्थम् । ' लोकानामसंख्येयः क्रमश उत्कर्षणो हारः ॥ ६८ ॥ अर्थ-जिन प्रकृतियोंका उदय पाया जाता है उन्हींके द्रव्यका उदयावलिमें निक्षेपण होता है । उसके लिये असंख्यातलोकका भागहार जानना । और जिनके उदय और अनुदय हैं उन दोनोंके द्रव्यका उदयावलिसे बाह्य गुणश्रेणीमें अथवा ऊपरकी स्थितिमें निक्षे. पण होता है उसकेलिये अपकर्षण भागहार जानना ॥ ६८ ॥ क्रमशः इस पदसे पल्यका असंख्यातवें भागका भी भाग प्रगट किया है। आगे इसी कथनको खुलासा करते हैं:
उक्कट्ठिदइगिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तत्थ । बहुभागमिदं दवं उवरिल्लठिदीसु णिक्खिवदि ॥ ६९ ॥ उत्कर्षितैकभागे पल्यासंख्येन भाजिते तत्र ।
बहुभागमिदं द्रव्यमुपरितनस्थितिषु निक्षिपति ॥ ६९ ॥ अर्थ-अपकर्षण भागहारका भाग देनेपर एक भागमें पल्यका असंख्यातवें भागका भागदिया उसमेंसे बहुभाग ऊपरकी स्थितिमें निक्षेपण वह जीव करता है ॥ ६९ ॥
सेसगभागे भजिदे असंखलोगेण तत्थ बहुभागं। . • गुणसेढीए सिंचदि सेसेगं चेव उदयम्हि ॥७॥
शेषकभागे भजितेऽसंख्यलोकेन तत्र बहुभागम् ।
गुणश्रेण्या सिंचति शेषैकं चैव उदये ॥ ७० ॥ अर्थ-अवशेष ( वाकी ) एक भागको असंख्यातलोकका भाग देना वहां बहुभागको गुणश्रेणी आयाममें देना और बाकीका एक भाग उदयावलिमें देना ॥ ७० ॥
उदयावलिस्स दवं आवलिभजिदे दु होदि मज्झधणं । रूऊणद्धाणघेणूणेण णिसेयहारेण ॥ ७१॥ मज्झिमधणमवहरिदे पचयं पचयं णिसेयहारेण । गुणिदे आदिणिसेयं विसेसहीणं कम तत्तो ॥ ७२ ॥ उदयावलेर्द्रव्यमावलिभजिते तु भवति मध्यधनम् । रूपोनाद्धानार्धेनोनेन निषेकहारेण ॥ ७१ ॥ मध्यमधनमक्हरिते प्रचयं प्रचयं निषेकहारेण ।
गुणिते आदिनिषेकं विशेषहीनं क्रमं ततः ॥ ७२ ॥ अर्थ-उदयावलिमें दिया जो द्रव्य उसको आवलीके समय प्रमाणका भाग देनेपर मध्यधन होता है । और उस मध्यधनको एक कम आवलि प्रमाण गच्छके आधेकम निषे.