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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । असंख्यातलोकमात्र अधःकरणके परिणामोंसे अपूर्वकरणके परिणाम असंख्यातलोकगुणे हैं। वे समय समयके प्रति विशेष (चय ) कर अधिक हैं । सो प्रथमसमयके परिणामों में अंतर्मुहूर्तका भाग देनेसे चयका प्रमाण आता है ।। ५०॥
जम्हा उवरिमभावा हेहिमभावेहिं णत्थि सरिसत्तं । तम्हा विदियं करणं अपुषकरणेत्ति णिहिटुं॥५१॥ . यस्मादुपरिमभावानां अधस्तनभावैः नास्ति सदृशत्वम् । - तस्मात् द्वितीयं करणमपूर्वकरणमिति निर्दिष्टम् ॥ ५१॥ अर्थ-क्योंकि ऊपरसमयके परिणाम हैं वे नीचले समयके परिणामोंके समान इसमें नहीं होते । अर्थात् प्रथमसमयकी उत्कृष्ट विशुद्धतासे भी द्वितीयसमयकी जघन्य विशुद्धता अनंत गुणी है । इसतरह परिणामोंमें अपूर्वपना है। इसलिये दूसरा करण अपूर्वकरण कहा गया है ॥ ५१ ॥
बिदियकरणादिसमयादंतिमसमओत्ति अवरवरसुद्धी। अहिगदिणा खलु सधे होंति अणतेण गुणियकमा ॥५२॥ द्वितीयकरणादिसमयादंतिमसमय इति अवरवरशुद्धी।
अहिगतिना खलु सर्वे भवंत्यनंतेन गुणितक्रमाः ॥ ५२ ॥ अर्थ-दूसरे करणके प्रथमसमयसे लेकर अंतसमयतक अपने जघन्यसे अपना उत्कृष्ट और पूर्वसमयके उत्कृष्टसे उत्तरसमयका जघन्यपरिणाम क्रमसे अनंतगुणी विशुद्धतालिये सर्पकी चालकी तरह जानना । यहांपर अनुकृष्टि नहीं होती ॥ ५२ ॥
गुणसेढीगुणसंकमठिदिरसखंडा अपुवकरणादो। गुणसंकमणेण समा मिस्साणं पूरणोत्ति हवे ॥५३॥ गुणनेणीगुणसंक्रमस्थितिरसखंडा अपूर्वकरणात् ।
गुणसंक्रमणेन समा मिश्राणां पूरण इति भवेत् ॥ ५३ ॥ अर्थ-अपूर्वकरणके पहले समयसे लेकर जबतक सम्यक्त्वमोहनीमिश्रमोहनीयका पूर्णकाल है अर्थात् जिसकालमें गुणसंक्रमणसे मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीयरूप परिणमाता है उसकालके अंतसमयतक गुणश्रेणी गुणसंक्रम स्थितिखंडन अनुभागखंडन-ये चार आवश्यक होते हैं ॥ ५३ ॥
ठिदिबंधोसरणं पुण अधापवत्ताणुपूरणोत्ति हवे । ठिदिबंधट्ठिदिखंडुक्कीरणकाला समा होति ॥५४॥ स्थितिबंधापसरणं पुनः अधःप्रवृत्तानुपूरण इति भवेत् । स्थितिबंधस्थितिखंडोत्कीरणकालाः समा भवंति ॥ ५४ ॥