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. रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । णवरि य पुंवेदस्स य णवकं समयोणदोण्णिावलियं । मुच्चा सेसं सवं उवसंते होदि तचरिमे ॥ २५९ ॥
नवरि च पुवेदस्य च नवकं समयोनद्वथावलिकाम् । ___ मुक्त्वा शेषं सर्वमुपशांते भवति तच्चरमे ॥ २५९ ॥ अर्थ-इतना विशेष है कि उस अन्तसमयमें पुरुषवेदका एकसमयकम दो आवलिमात्र नवीनसमयप्रबद्धको छोड़ अवशेष सबको उपशमाता है ॥ २५९ ॥
तचरिमे पुंबंधो सोलसवस्साणि संजलणगाणं । तदुगाणं सेसाणं संखेजसहस्सवस्साणि ॥ २६० ॥
तञ्चरमे पुंबंधः षोडशवर्षाणि संज्वलनकानाम् ।
तहिकानां शेषाणां संख्येयसहस्रवर्षाणि ॥ २६० ॥ अर्थ-सवेद अनिवृत्तिकरणके अन्तसमयमें पुरुषवेदका स्थितिबन्ध सोलहवर्षमात्र, संज्वलनचतुष्कका बत्तीसवर्षमात्र और शेषका संख्यातहजार वर्षमात्र स्थितिबन्ध होता है । उन शेषोंमेंसे भी थोड़ा तीनघातियोंका उससे संख्यातगुणा नामगोत्रका उससे साधिक वेदनीयका स्थितिबन्ध होता है ॥ २६० ॥
पुरिसस्स य पढमठिदी आवलिदोसुवरिदासु आगाला । पडिआगाला छिण्णा पडियावलियादुदीरणदा ॥ २६१॥ . पुरुषस्य च प्रथमस्थितिः आवलिद्वयोरुपरतयोरागालाः ।
प्रत्यागालाः छिन्नाः प्रत्यावलिकांत उदीरणता ॥ २६१ ॥ अर्थ-पुरुषवेदकी अन्तरायामके नीचे कही प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहनेपर आगाल प्रत्यागालका व्युच्छेद होता है और शेष दो आवलिके प्रथमसमयसे लेकर पुरुषवेदकी गुणश्रेणी निर्जराका व्युच्छेद हुआ वहां उदयावलीसे बाह्य ऊपरके निषेकोंमें तिष्ठते द्रव्यको उदयावलीमें देते हैं ऐसी उदीरणा ही पाई जाती है ॥ २६१ ॥
अंतरकदादु छण्णोकसायदवं ण परिसगे देदि । एदि हु संजलणस्स य कोधे अणुपुविसंकमदो ॥ २६२ ॥ अंतरकृतात् षण्णोकषायद्रव्यं न पुरुषके ददाति ।
एति हि संज्वलनस्य च क्रोधे आनुपूर्विसंक्रमतः ॥ २६२ ॥ अर्थ-अन्तर करनेके वाद हास्यादि छह नोकषायोंका द्रव्य पुरुष वेदमें संक्रमण नहीं करता संज्वलनक्रोधमें ही संक्रमण करता है क्योंकि यहां आनुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है ॥ २६२ ॥