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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । होना वह निर्वाण ( मोक्ष ) है । उसको आचार्य समझाते हैं कि-जहां मूलवस्तुका नाश होजावे तो उसके लिये उपाय क्यों करना । ज्ञानी पुरुष तो अपूर्वलाभके लिये उपाय करते हैं, इसलिये अभावमात्र मोक्ष कहना ठीक नहीं है ॥ दूसरा नैयायिकमतवाला कहता है-वुद्धि सुख दुःख इच्छा द्वेष प्रयत्न धर्म अधर्म संस्कार-इन नौ आत्माके गुणोंका नाश होना वही मोक्ष है । उसको भी पूर्वकथितवचनसे समाधान करना चाहिये, क्योंकि जहां विशेषरूप गुणोंका अभाव हुआ वहां आत्मवस्तुका ही अभाव आया सो ऐसा ठीक नहीं है । तीसरा सांख्यमतवाला कहता है-कार्य कारणसंबन्धसे रहित आत्माके बहुत सोते हुए पुरुषकी तरह अव्यक्त चैतन्यरूप होना वह मोक्ष है। उसका भी समाधान पूर्वकथित बचनसे होचुका, यहांपर अपना चैतन्यगुण था वह उलटा अव्यक्त होजाता है । इसतरह नानाप्रकार अन्यथा कहते हैं उनका निराकरण जैनन्याय शास्त्रोंमें किया गया है वहांसे जानना । मोक्ष अवस्थाको प्राप्त सिद्ध भगवान हमेशा अनन्त अतींद्रिय आनन्दका अनु'भव करते हैं । क्योंकि जब इन्द्रिय मनकर कुछ ज्ञान होनेमें कुछ निराकुलता होती है तव ही आत्मा अपनेको सुखी मानता है लेकिन जिस जगह सबका जानना हुआ और सर्वथा निराकुल हुआ वहांपर तो-परम सुख कैसे न हो होता ही है । तीनलोकके तीनकालके पुण्यवान् जीवोंके सुखसे भी अनन्तगुणा सुख सिद्धोंके एक समयमें होता है । क्योंकि संसारमें सुख ऐसा है कि जैसे महारोगी रोगकी कमी होनेसे अपनेको सुखी मानता है और सिद्धोंके सुख ऐसा है कि जैसे रोगरहित निराकुल पुरुष स्वभावसे ही सुखी हो । ऐसे अनन्तसुखमें विराजमान सम्यक्त्वादि आठगुण सहित लोकाग्रमें विराजे हुए सिद्धभगवान हैं वे मेरा तथा सबका कल्याण करो ॥ ६४७ ॥ इसप्रकार बाहुबलिनामा मंत्रीकर पूजित जो माधव चंद्र आचार्य उनने क्षपणासार ग्रन्थ रचा । वह यतिवृषभ आचार्य मूलकर्ता और वीरसेन आचार्य टीका कर्ता ऐसे धवल जयधवल शास्त्रके अनुसार क्षपणासार ग्रन्थ किया गया है । उसके अनुसार यहां भी क्षपणाके वर्णनरूप लब्धिसारकी गाथा उनका व्याख्यान किया है ॥
इसप्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित लब्धिसारमें चारित्रलब्धि अधिकार में क्षायिकचारित्रको कहनेवाला कर्मोंकी क्षपणारूप तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥
ग्रन्थकर्तृप्रशस्तिः। , अब आचार्य लब्धिसार शास्त्रकी समाप्ति करनेमें अपना नाम प्रगट करते हैं;
वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणंदिसिस्सेण । ... दसणचरित्तलद्धी सुसूयिया णेमिचंदेण ॥ ६४८ ॥