Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 191
________________ १७५ लब्धिसारः। वीरेंद्रनंदिवत्सेनाल्पश्रुतेनाभयनंदिशिष्येण । दर्शनचारित्रलब्धिः सुसूचिता नेमिचंद्रेण ॥ ६४८ ॥ अर्थ-वीरनंदि और इन्द्रनंदि आचार्यका वत्स, अभयनन्दि आचार्यका शिष्य ऐसे अल्पज्ञानी मुझ नेमिचन्द्रने इस लब्धिसार शास्त्रमें दर्शन चारित्रकी लब्धि अच्छीतरह दिखलाई है ॥ यहां ज्ञानदानसे पालन करनेकी अपेक्षा वत्स कहा है । और दीक्षाकी अपेक्षा शिष्य कहा है ॥ ६४८ ॥ अंतमंगल। अब आचार्य अपने गुरूके नमस्काररूप अन्तमंगल करते हैं; जस्स य पायपसाए गणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥ ६४९ ॥ ___ यस्य च पादप्रसादेनानंतसंसारजलधिमुत्तीर्णः । वीरेंद्रनंदिवत्सो नमामि तमभयनंदिगुरुम् ॥ ६४९ ॥ अर्थ-वीरनंदि और इंद्रनंदि आचार्यका वत्स मैं नेमिचंद्र ग्रन्थकर्ता जिसके चरणकमलोंके प्रसादसे अनन्तसंसारसमुद्रसे पार होगया उन अभयनंदि नामा गुरूको मैं नमस्कार करता हूं ॥ ६४९ ॥ इसतरह क्षपणासार गर्भित लब्धिसारका व्याख्यान संस्कृत छाया तथा संक्षिप्त हिंदीभापाटीकासहित समाप्त हुआ। शुभं भवतु प्रकाशकपाठकयोः । ॐ समाप्तोऽयं लब्धिसारः

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