Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 186
________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ___ अर्थ-कृष्टिकरणकालके अन्तसमय हुए वाद अपने कालमें सब पूर्व अपूर्व स्पर्धकरूप प्रदेशोंको नाश करता है । और इस समयसे लेकर सयोगी गुणस्थानके अन्तपर्यंत जो अन्तर्मुहूर्तकाल उसमें कृष्टिको प्राप्त योगको वह सयोगकेवली अनुभव करता है ॥६३६ ॥ पढमे असंखभागं हेटवरिं णासिदूण विदियादी। हेट्टव रिमसंखगुणं कमेण किर्टि विणासेदि ॥ ६३७ ॥ प्रथमे असंख्यभागं अधस्तनोपरि नाशयित्वा द्वितीयादौ । .. अधस्तनोपर्यसंख्यगुणं क्रमेण कृष्टिं विनाशयति ॥ ६३७ ॥ अर्थ-कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें थोड़े अविभागप्रतिच्छेदयुक्त नीचेकी और बहुत अविभागप्रतिच्छेदयुक्त ऊपरकी असंख्यातवें भागमात्र कृष्टियोंको बीचकी कृष्टिरूप परिणमाके नाश करता है । और द्वितीयादि समयोंमें उनसे असंख्यातगुणा क्रमलिये नीचे ऊपरकी कृष्टियोंको बीचकी कृष्टिरूप परिणमाके नाश करता है ॥ ६३७ ॥ मज्झिम बहुभागुदया किर्टि वेक्खिय विसेसहीणकमा । पडिसमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया हति ॥ ६३८ ॥ मध्या बहुभागोदयाः कृष्टिमपेक्ष्य विशेषहीनक्रमाः। प्रतिसमयं शक्तितो असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ६३८ ।। अर्थ-सब कृष्टियोंके असंख्यातबहुभागमात्र बीचकी कृष्टियां उदयरूप होती हैं इस अपेक्षा प्रतिसमय विशेष घटता क्रम लिये हैं । इसप्रकार कृष्टिके नाश करनेसे अविभाग प्रतिच्छेदरूप शक्तिकी अपेक्षा प्रथमसमयसे द्वितीयादि सयोगीके अन्तसमयतक असंख्यात गुणा घटता क्रम लिये योग पाये जाते हैं ॥ ६३८ ॥ किट्टिगजोगी झाणं झायदि तदियं खु सुहुमकिरियं तु । चरिमे अ संखभागे किट्टीणं णासदि सजोगी ॥ ६३९ ॥ कृष्टिगयोगी ध्यानं ध्यायति तृतीयं खलु सूक्ष्मक्रियं तु । चरमे च संख्यभागान् कृष्टीनां नाशयति सयोगी ॥ ६३९ ॥ .अर्थ-इसतरह सूक्ष्मकृष्टिका वेदक सयोगी जिन तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिप्रातिनामा शुक्लध्यानको ध्यावता है । यहां चिंताका कारण योग है उसके निरोधको भी ध्यान “कारणमें कार्यका उपचार कर" कहा गया है । इसप्रकार कृष्टियोंको नाश करता हुआ सयोगी अपने अन्तसमयमें कृष्टियोंका संख्यात बहुभाग शेष रहे हुएको नाश करता है ॥ ६३९॥ जोगिस्स सेसकालं मोत्तूण अजोगिसवकालं च । चरिमं खंडं गेण्हदि सीसेण य उवरिमठिदीओ ॥ ६४०॥

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