Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ लब्धिसारः । अपूर्वादिवर्गणानां जीवप्रदेशाविभागपिंडतः । भवंति असंख्यं भागं कृष्टिप्रथमे तयोर्द्विकम् ॥ ६३२ ॥ अर्थ — अपूर्वस्पर्धकसंबन्धी सब जीवप्रदेशोंके और अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदों के असंख्यातवें भागमात्र कृष्टिकरणके प्रथमसमयमें वे दोनों होते हैं ॥ ६३२ ॥ उक्कदृदि पडिसमयं जीवपदे से असंखगुणियकमे । तंगुणहीणकमेण य करेदि किहिं तु पडिसमए ॥ ६३३ ॥ अपकर्षति प्रतिसमयं जीवप्रदेशान् असंख्यगुणितक्रमेण । तद्गुणहीनक्रमेण च करोति कृष्टिं तु प्रतिसमये ॥ ६३३ ॥ अर्थ — द्वितीयादि समयोंमें समय समय प्रति असंख्यातगुणक्रमकर जीवके प्रदेशों को अपकर्षण करता है और समय समय प्रति पूर्वसमयमें की हुईं कृष्टियों के नीचे असंख्यात - गुणा घटता क्रमलिये नवीन कृष्टियां करता है ॥ ६३३ ॥ सेढिपदस्स असंखं भागमपुत्राण फड्ढयाणं व । साओ किट्टीओ पलस्स असंखभागगुणिदकमा ॥ ६३४ ॥ श्रेणिपदस्य असंख्यं भागं अपूर्वेषां स्पर्धकानां वा । सर्वाः कृष्ट्यः पल्यस्य असंख्य भागगुणितक्रमाः ॥ ६३४ ॥ १६९ अर्थ- – सब समयों में की हुई कृष्टियोंका प्रमाण जगच्छ्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र है अथवा अपूर्वस्पर्धकोंके प्रमाणके असंख्यातवें भागमात्र है । वे कृष्टियां क्रमसे पल्य के असंख्यातवें भाग गुणित हैं ॥ ६३४ ॥ एत्थापुन्वविहाणं अपुत्रफड्डयविहिं व संजलणे । वादरकिट्टिविहिं वा करणं सुहुमाण किट्टीणं ॥ ६३५ ॥ अत्रापूर्वविधानं अपूर्वस्पर्धकविधिरिव संज्वलने । वादरकृष्टिविधिरिव करणं सूक्ष्मानां कृष्टीनाम् ॥ ६३५ ॥ अर्थ —यहांपर योगोंके अपूर्वस्पर्धक करने का विधान पूर्व कहे संज्वलन कषायके अपूवैस्पर्धक करनेके विधानके समान जानना और योगोंकी सूक्ष्मकृष्टि करनेका विधान संज्वनकी बार कृष्टि करनेके विधानके समान जानना || ६३५ ॥ किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफहुये सधे । णासे मुद्दत्तं तु किट्टीगदवेदगो जोगी ॥ ६३६ ॥ कृष्टिकरणे चरमे स्वे काले उभयस्पर्धकान् सर्वान् । नाशयति मुहूर्तं तु कृष्टिगतवेदको योगी ॥ ६३६॥ ल. सा. २२

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192