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लब्धिसारः। योगिनः शेषकालं मुक्त्वा अयोगिसर्वकालं च ।
चरम खंडं गृह्णाति शीर्षेण च उपरिस्थितेः ॥ ६४० ॥ अर्थ—सयोगी गुणस्थानका अन्तर्मुहूर्तमात्र काल शेष रहनेपर वेदनीय नाम गोत्रका अन्तस्थितिकांडकको ग्रहण करता है उससे सयोगीका शेष रहा हुआ काल और अयो- . गीका सब काल मिलाकर जो प्रमाण हो उतने निषेकोंको छोड़कर शेष सब स्थितिके गुणश्रेणीशीर्ष सहित ऊपरकी स्थितिके निषेकोंके नाश करनेका आरंभ करता है ॥ ६४० ॥
तत्थ गुणसेढिकरणं दिजादिकमो य सम्मखवणं वा। अंतिमफालीपडणं सजोगगुणठाणचरिमम्हि ॥ ६४१ ॥ तत्र गुणश्रेणिकरणं देयादिक्रमश्च सम्यक्षपणमिव ।
अंतिमस्फालिपतनं सयोगगुणस्थानचरमे ॥ ६४१ ॥ अर्थ-वहां गुणश्रेणीका करना वा देय द्रव्यादिका अनुक्रम सम्यक्त्वमोहनीयके क्षपणाविधानकी तरह जानना । और सयोगी गुणस्थानके अन्तसमयमें अघातियाओंके अन्त. कांडककी अन्तफालिका पतन होता है ॥ ६४१ ॥ इसप्रकार सयोगीके अन्तसमयमें अघातियोंकी अन्तफालिका पतन, योगका निरोध और सयोगगुणस्थानकी समाप्ति-ये तीनों एक ही समय होते हैं । इसतरह सयोगकेवलीगुणस्थानका कथन समाप्त हुआ ॥
से काले जोगिजिणो ताहे आउगसमा हि कम्माणि । तुरियं तु समुच्छिण्णं किरियं झायदि अयोगिजिणो ॥ ६४२ ॥
खे काले योगिजिनः तत्र आयुष्कसमानि कर्माणि ।
तुरीयं तु समुच्छिन्नक्रियं ध्यायति अयोगिजिनः ॥ ६४२ ॥ - अर्थ-उसके वाद अपनेकालमें अयोगी जिन होता है वहां आयुकर्म के समान अघातियाओंकी स्थिति होती है । वह अयोगी जिन चौथा समुच्छिन्न क्रियानिवृत्तिनामा शुक्लध्यानको ध्याता है ॥ भावार्थ-उच्छेद हुई मन वचन कायकी क्रिया और निर्वृति अर्थात् प्रतिपातता इन दोनोंसे रहित यह ध्यान है इसलिये इसका सार्थक नाम है । यहांपर भी ध्यानका उपचार पहले की तरह जानना । सब आस्रवरहित केवलीके शेषकमोंकी निर्जराका कारण जो निज आत्मामें प्रवृत्ति उसीका नाम ध्यान है ॥ ६४२ ॥
सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसओ जीयो। बंधरयविप्पमुक्को गयजोगो केवली होई ॥ ६४३ ॥
शीलेशत्वं संप्राप्तो निरुद्धनिःशेषास्रवो जीवः। बंधरजोविप्रमुक्तः गतयोगः केवली भवति ॥ ६४३ ॥