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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । द्वितीयादि संग्रहकृष्टियोंके नीचे सब देते हैं और मध्यमें पूर्ववत् एक भागको देते हैं ॥ ५३९॥
कोहस्स विदियकिट्टी वेदयमाणस्स पढमकिटिं वा। उदओ बंधो णासो अपुवकिट्टीण करणं च ॥ ५४॥
क्रोधस्य द्वितीयकृष्टिं वेदकस्य प्रथम कृष्टिरिव ।
___ उदयो बंधो नाशो अपूर्वकृष्टीनां करणं च ॥ ५४० ॥ __ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिका वेदक जीवके उदय, बंध, घात और अपूर्वकृष्टियोंका करना इत्यादि विधान प्रथमसंग्रहकृष्टिके समान जानना चाहिये ॥ ५४० ॥
कोहस्स विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्स संकमणं । सट्टाणे तदियोति य तदणंतर हेहिमस्स पढमं च ॥ ५४१ ॥
क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकृष्टिं वेद्यमानस्य संक्रमणं ।
स्वस्थाने तृतीयांतं च तदनंतरमधस्तनस्य प्रथमं च ॥ ५४१ ॥ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिके वेदकके खस्थान ( विवक्षितकषाय ) में संक्रमण होवे तो तीसरी संग्रह पर्यंत होता है और परस्थान अपनेसे नीचेकी कषायकी प्रथमसं. ग्रह कृष्टिमें होता है ॥ ५४१॥
पढमो विदिये तदिये हेछिमपढमे च विदियगो तदिये। हेट्रिमपढमे तदियो हेहिमपढमे च संकमदि ॥ ५४२॥ प्रथमो द्वितीये तृतीये अधस्तनप्रथमे च द्वितीयकस्तृतीये ।
अधस्तनप्रथमे तृतीयोऽधस्तनप्रथमे च संक्रामति ॥ ५४२ ॥ अर्थ-विवक्षितकषायकी पहली संग्रहकृष्टिका द्रव्य अपनी दूसरी तीसरी और नीचली कषायकी पहली संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है, दूसरी संग्रह कृष्टिका द्रव्य अपनी तीसरी और नीचली कषायकी पहली संग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है और तीसरी संग्रह कृष्टिका द्रव्य नीचली कषायकी पहली संग्रहकृष्टिमें ही संक्रमण करता है ॥ ५४२ ॥
कोहस्स पढमकिट्टी सुण्णोत्ति ण तस्स अत्थि संकमणं । लोभंतिमकिट्टिस्स य णत्थि पडित्थावणूणादो ॥ ५४३॥ क्रोधस्य प्रथमकृष्टिः शून्या इति न तस्यास्ति संक्रमणं ।
लोभांतिमकृष्टश्च नास्ति प्रतिस्थापनमूनतः ॥ ५४३ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टि तो शून्य हुई इसलिये उसका संक्रमण नहीं होता और लोभकी तीसरी संग्रहकृष्टिका भी संक्रमण नहीं होता, क्योंकि उलटे संक्रमणका अभाव है ॥ ५४३ ॥