Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 178
________________ १६२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । और चारप्रकार दर्शनावरण उदयसे और सत्त्वसे व्युच्छित्तिरूप होते हैं । इसप्रकार क्षीणकषायके अन्तसमयमें घातिकर्मोंका नाश करके उसके वाद अपने कालमें सयोग केवली जिन होता है । वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है । उसका शरीर निगोदरहित परमौदारिक होजाता है ऐसा जानना ॥ ६०५॥ खीणे धादिचउक्के गंतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपजवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ॥ ६०६ ॥ क्षीणे घातिचतुष्केऽनंतचतुष्कस्य भवति उत्पत्तिः । सादिरपर्यवसिता उत्कृष्टानंतपरिसंख्या ॥ ६०६ ॥ अर्थ-चार घातियाकर्मोंका नाश होनेपर अनन्तज्ञानादि अनन्तचतुष्टयकी उत्पत्ति होती है और वह उत्कृष्टानन्तकी संख्या आदि सहित और अन्तरहित है ॥ ६०६ ॥ आवरणदुगाण खये केवलणाणं च दंसणं होइ। विरियतरायियस्स य खएण विरियं हवे गंतं ॥ ६०७ ॥ आवरणद्विकयोः क्षये केवलज्ञानं च दर्शनं भवति । __वीर्यातरायिकस्य च क्षयेण वीर्य भवेदनंतम् ॥ ६०७ ॥ अर्थ-ज्ञानावरण दर्शनावरण इन दोनोंके नाशसे केवलज्ञान और केवल दर्शन होते हैं । और वीर्यांतरायकर्मके क्षयसे अनन्तवीर्य होता है, वह सब पदार्थोंको सदाकाल जाननेपर भी खेद नहीं होने देनेमें उपकारी ऐसी सामर्थ्यरूप है ॥ ६०७ ॥ णवणोकसायविग्घचउक्काणं च य खयादणंतसुहं । अणुवममवाबाहं अप्पसमुत्थं णिरावेक्खं ॥ ६०८॥ नवनोकषायविघ्नचतुष्काणां च क्षयादनंतसुखम् । अनुपममव्याबाधमात्मसमुत्थं निरपेक्षम् ॥ ६०८ ॥ अर्थ-नव नोकषाय और दानादि चार अन्तरायका क्षय होनेसे अनन्तसुख होता है । वह अनुपम है, किसीसे बाधा नहीं किया जाता इसलिये अव्यावाध है, आत्मासे ही उत्पन्न हुआ है और इन्द्रियादि अपेक्षासे रहित है ॥ ६०८॥ सत्तण्हं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उवसमदो खयदो दु चरित्तमोहस्स ॥ ६०९॥ सप्तानां प्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकं तु भवति सम्यक्त्वम् । वरचरणं उपशमतः क्षयतस्तु चारित्रमोहस्य ॥ ६०९ ॥ ... अर्थ-चार अनन्तानुबन्धी और तीन मिथ्यात्व-इन सातप्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक

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