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लब्धिसारः।
१४५ अर्थ-वहां संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तकम सौ दिन है, पहले चार महीने था। और उसका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूतकम आठमहीना अधिक छह वर्ष है, पहले आठवर्ष था सो घटकर इतना रहा ॥ ५३५ ॥
घादितियाणं बंधो दसवासं तोमुहुत्तपरिहीणा। सत्तं संखं वस्सा सेसाणं संखऽसंखवस्साणि ॥ ५३६ ॥ घातित्रयाणां बंधो दशवर्षा अंतर्मुहूर्तपरिहीनाः।।
सत्त्वं संख्यं वर्षाः शेषाणां संख्यासंख्यवर्षाः ॥ ५३६ ॥ अर्थ-घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम दशवर्षमात्र है और उनका स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्षमात्र है तथा अघातिकाँका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र है और आयुके विना तीन अघातियाओंका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है ॥ ५३६ ॥ इसप्रकार क्रोधकी प्रथमसंग्रह कृष्टिवेदकका कथन किया ।
से काले कोहस्स य विदियादो संगहादु. पढमठिदी। कोहस्स विदियसंगहकिट्टिस्स य वेदगो होदि ॥ ५३७ ॥
स्खे काले क्रोधस्य च द्वितीयतः संग्रहात् प्रथमस्थितिः ।
क्रोधस्य द्वितीयसंग्रहकृष्टेश्च वेदको भवति ॥ ५३७ ॥ अर्थ-उसके वाद अपने कालमें क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणीरूप प्रथमस्थिति करता है वहांपर ही क्रोधकी द्वितीयसंग्रह कृष्टिका वेदक होता है ।। ५३७ ॥
कोहस्स पढमसंगहकिट्टिस्सावलिपमाण पढमठिदी। दोसमऊणदुआवलिणवकं च वि चेउदे ताहे ॥ ५३८ ॥
क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकृष्टेरावलिप्रमाणं प्रथमस्थितिः।
द्विसमयोनब्यावलिनवकं चापि चतुर्दश तत्र ॥ ५३८ ॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थितिमें उच्छिष्टावलिमात्र निषेक और द्वितीयस्थितिमें दो समय कम दो आवलिमात्र नवकसमयप्रबद्धरूप निषेक शेष सत्त्वरूप रहते हैं उसकालमें क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य चौदहगुणा होजाता है ॥ ५३८ ॥
पढमादिसंमहाणं चरिमे फालिं तु विदियपहुदीणं । हेट्ठा सवं देदि हु मज्झे पुत्र व इगिभागं ॥ ५३९ ॥ प्रथमादिसंग्रहाणां चरमे फालिं तु द्वितीयप्रभृतीनाम् । .
अधस्तनं सर्व ददाति हि मध्ये पूर्व इव एकभागम् ॥ ५३९ ॥ अर्थ-प्रथमादिसंग्रह कृष्टियोंके अन्तसमयमें जो संक्रमण द्रव्यरूप फालि उसको
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