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लब्धिसारः।
१५९ णामदुगे वेयणिये अडवारमुहुत्तयं तिघादीणं । अंतोमुहुत्तमेत्तं ठिदिबंधो चरिम सुहमम्हि ॥ ५९४ ॥ नामद्विके वेदनीये अष्टद्वादशमुहूर्तकं त्रिघातिनाम् ।
अंतर्मुहूर्तमान स्थितिबंधः चरमे सूक्ष्मे ॥ ५९४ ॥ अर्थ-सूक्ष्मसांपरायके अन्तसमयमें नामगोत्रका आठ मुहूर्त, वेदनीयका बारह मुहूर्त, और तीन पातियाओंका अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्यस्थितिबन्ध होता है ॥ ५९४ ॥
तिण्हं घादीणं ठिदिसंतो अंतोमुहुत्तमत्तं तु । तिण्हमघादीणं ठिदिसंतमसंखेजवस्साणि ॥ ५९५ ॥
त्रयाणां घातिनां स्थितिसत्त्वमंतर्मुहूर्तमानं तु ।
त्रयाणामघातिनां स्थितिसत्त्वमसंख्येयवर्षाः ॥ ५९५ ॥ अर्थ-तीन घातियाओंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तमात्र है और तीन अघातियाओंका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है ॥ ५९५ ॥ इसप्रकार कृष्टिवेदनाका अधिकार कहा।
से काले सो खीणकसाओ ठिदिरसगबंधपरिहीणो। सम्मत्तडवस्सं वा गुणसेढी दिज दिस्सं च ॥ ५९६ ॥ स्खे काले स क्षीणकषायः स्थितिरसगबंधपरिहीनः ।
सम्यक्त्वाष्टवर्षमिव गुणश्रेणी देयं दृश्यं च ॥ ५९६ ॥ अर्थ-समस्त चारित्रमोहके क्षयके वाद अपने कालमें क्षीणकषायवाला होता है । वह स्थिति अनुभाग इन दोनों बन्धोंसे रहित है केवल योगके निमित्तसे प्रकृति प्रदेशरूप ईर्यापथ बन्ध होता है । और जैसे सम्यक्त्वमोहनीयकी आठ वर्षकी स्थिति शेष रहनेपर कथन किया था उसी तरह यहां भी गुणश्रेणी वा देयद्रव्य वा दृश्यमान द्रव्य जानना॥५९६॥ यहां ऐसा जानना कि क्षीणकषायके प्रथमसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्ततक तो पहला पृथक्त्ववितर्कविचार नामा शुक्लध्यान रहता है और क्षीणकषायकालका संख्यातवां भाग शेष रहनेपर एकत्ववितर्क अविचार नामा दूसरा शुक्लध्यान वर्तता है।
घादीण मुहुत्तंतं अघादियाणं असंखगा भागा। ठिदिखंडं रसखंडो अणंतभागा असत्थाणं ॥ ५९७ ॥
घातिनां मुहूर्तातमघातिकानामसंख्यका भागा ।
स्थितिखंडं रसखंडं अनंतभागा अशस्तानाम् ॥ ५९७ ॥ अर्थ-इस क्षीणकषायमें तीन घातियाओंका अन्तर्मुहूर्तमात्र और तीन अघातियाओंका पूर्वसत्त्वके असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकांडक आयाम है और अप्रशस्तप्रकृतियोंका पूर्वके अनन्त बहुभाग अनुभागकांडकका आयाम है ॥ ५९७ ॥