Book Title: Labdhisara
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 145
________________ लब्धिसारः । सगसगफड्डयएहिं सगजेट्टे भाजिदे सगीआदि । मझेवि अणताओ वग्गणगाओ समाणाओ ॥ ४६९ ॥ स्वकस्व स्पर्धकैः स्वकज्येष्ठे भाजिते स्वकीयादि । मध्येपि अनंता वर्गणाः समानाः || ४६९॥ अर्थ ——अपने अपने स्पर्धकों का भाग अपनी २ उत्कृष्टवर्गणाओंमें देनेसे अपनी २ आदिवर्गणाओंका प्रमाण आता है । और मध्यमें भी अनंतवर्गणा चारों कषायों की परस्पर समान होतीं हैं ॥ ४६९ ॥ I जे हीणा अवहारे रूवा तेहिं गुणित्तु पुचफलं । .. हीणवहारेणहिये अद्धं पुत्रं फलेणहियं ॥ ४७० ॥ ये हीना अवहारे रूपाः तैः गुणितं पूर्वफलं । हीनावहारेणाधिके अर्ध पूर्व फलेनाधिकम् ॥ ४७० ॥ अर्थ – 0.00 **** .... .... कोहदुसेसेणवहिदको तक्कंडयं तु माणतिए । रूपहियं सगकंडयहिदकोहादी समाणसला ॥ ४७१ ॥ द्विशेषेणावहितक्रोधे तत्कांडकं तु मानत्रये । रूपाधिकं स्वककांडकहितक्रोधादि समानशलाकाः ॥ ४७१ ॥ १३९ ताहे बहारो पदेसगुणहाणिफड्डयवहारो । पलस्स पढममूलं असंखगुणियकमा होति ॥ ४७२ ॥ तत्र द्रव्यावहारः प्रदेशगुणहानिस्पर्धकावहारः । पल्यस्य प्रथममूलं असंख्यगुणितक्रमा भवंति ॥ ४७२ ॥ अर्थ - क्रोध के स्पधकप्रमाणको मानके स्पर्धकों में घटानेसे जो शेष रहे उसका भाग क्रोध के स्पर्धकोंके प्रमाणको देनेसे जो प्रमाण आवे उसका नाम क्रोध कांडक है और माना - दि तीनमें एक एक अधिक है । और अपने २ कांडकोंका भाग अपने २ स्पर्धकों में देनेसे जो नाना कांडकोंका प्रमाण आता है उतने ही वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद चारों कषायों के परस्पर समान होते हैं ॥। ४७१ ॥ १ इसका अर्थ भाषाकारने नहीं किया इसलिये यहां भी छोड़दिया है । ल. सा. १७ 11 800 11 अर्थ — अश्वकर्णकारकके प्रथमसमय में सब द्रव्यको जिस अपकर्षण भांगहारका भाग देनेसे प्रदेशोंकी एक गुणहानिमें जितना स्पर्धकोंका प्रमाण है उसको जिसका भाग दिया वह असंख्यातगुणा है । उससे पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है ॥ ४७२ ॥

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