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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
प्रतिपदमनंतगुणिता कृष्टयः स्पर्धका विशेषाधिकाः । कृष्टीनां स्पर्धकानां लक्षणमनुभागमासाद्य ॥ ५०६ ॥
अर्थ — कृष्टियां प्रतिपद अनन्तगुणा अनुभागलिये हैं । स्पर्धक विशेष अधिक अनुभा - गलिये हैं । इसप्रकार अनुभागका आश्रयकर कृष्टि और स्पर्धकोंका लक्षण है । द्रव्य अपेक्षा तो च घटता क्रम दोनोंमें ही है परंतु अनुभागके क्रमकी अपेक्षा इनका लक्षण जुदा कहा है ॥ ५०६ ॥
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पुत्रापुप्फडयमणुहवदि हु किट्टिकारओ णियमा ।
तस्सद्धा मिट्ठा यदि पढमट्ठिदि आवलीसेसे || ५०७ ॥ पूर्षापूर्वस्पर्धकमनुभवति हि कृष्टिकारको नियमात् ।
तस्याद्धा निष्ठापयति प्रथमस्थितौ आवलिशेषे ॥ ५०७ ॥
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अर्थ – कृष्टिकरनेवाला उस कालमें पूर्व अपूर्वस्पर्धकोंके ही उदयको नियमसे भोगता है । इसप्रकार संज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थिति में उच्छिष्टावलीमात्र काल शेष रहनेपर उस कृष्टिकरणकालको समाप्त करता है ॥ ५०७ || इसतरह कृष्टिकरण अधिकार हुआ । अब कृष्टि वेदना अधिकारको कहते हैं; -
से काले किट्टीओ अहवदि हु चारिमासमडवस्सं । बंध संत मोहे पुचालावं तु सेसाणं ॥ ५०८ ॥
स्वे काले कृष्टीन् अनुभवति हि चतुर्मासमष्टवर्षं । बंधः सत्त्वं मोहे पूर्वालापस्तु शेषाणाम् ॥ ५०८ ॥
अर्थ — अपने कृष्टिवेदककालमें कृष्टियोंके उदयको अनुभवता है । द्वितीय स्थिति के निषेकोंमें स्थित कृष्टियोंको प्रथमस्थितिके निषेकोंमें प्राप्तकर भोगता है उस भोगनेका नाम वेदना है । उसके कालके प्रथमसमय में चार संज्वलनरूप मोहका स्थितिबन्ध चार महीने है और स्थितिसत्त्व आठवर्षमात्र है । तथा शेषकमका स्थितिबन्ध स्थितिसत्त्व आलापकर पूर्वोक्तप्रकार जानना || ५०८ ॥
ता कोहुच्छि सर्व्वं घादी हु देसघादी हु । दोसमऊणदुआवलिणवकं ते फट्टयगदाओ ।। ५०९ ॥
तत्र क्रोधोच्छिष्टं सर्वं घातिर्हि देशघातिर्हि ।
द्विसमयोनद्व्यावलिनवकं तत् स्पर्धकगतम् ॥ ५०९ ॥
अर्थ - अनुभाग सत्त्व है वह क्रोधकी उच्छिष्टावलिका तो सर्वघाती है। और संज्वन चौकड़ीका दो समय कम दो आवलिमात्र नवक समय प्रबद्धका अनुभाग देशघातिशक्तिकर सहित है । क्योंकि कृष्टिरूप बन्ध नहीं है इसलिये स्पर्धकरूप शक्तिकर युक्त है ॥ ५०९ ॥