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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । लोभस्स अवरकिट्टिगदवादो कोधजेलुकिहिस्स। दवं तु होदि हीणं असंखभागेण जोगेण ॥ ४९८ ॥ लोभस्यावरकृष्टिगद्रव्यतः क्रोधज्येष्ठकृष्टेः ।।
द्रव्यं तु भवति हीनं असंख्यभागेन योगेन ॥ ४९८ ॥ अर्थ-लोभकी जघन्यकृष्टिके द्रव्यसे क्रोधकी उत्कृष्ट कृष्टिका द्रव्य असंख्यातवें भागकर हीन है ॥ ४९८ ॥
पडिसमयमसंखगुणं कमेण उक्कटिदूण दचं खु । संग्रहहेट्टापासे अपुवकिट्ठी करेदी हु॥ ४९९ ॥ प्रतिसमयमसंख्यगुणं क्रमेणापकृष्य द्रव्यं खलु ।।
संग्रहाधस्तनपार्श्वे अपूर्वकृष्टिं करोति हि ॥ ४९९ ॥ अर्थ-समय २ प्रति असंख्यातगुणा क्रमलिये द्रव्यको अपकर्षणकर संग्रह कृष्टिके नीचे वा पार्श्वमें अपूर्वकृष्टिको करता है ॥ ४९९ ॥
पूर्वसमयमें की हुई कृष्टियोंमें जो नवीनद्रव्यका निक्षेपण करना वह पार्श्वमें करना समझना ।
हेट्ठा असंखभागं फासे वित्थारदो असंखगुणं । मज्झिमखंडं उभये दवविसेसे हवे फासे ॥५०॥ अधस्तनमसंख्यभागं पार्श्वे विस्तारतो असंख्यगुणं ।
मध्यमखंडमुभयं द्रव्यविशेषं भवति पार्श्वे ॥ ५०० ॥ अर्थ-संग्रहके नीचे की हुई कृष्टियों का प्रमाण सबके असंख्यातवें भागमात्र है और पार्श्वमें की हुई कृष्टियोंका प्रमाण उनसे असंख्यात गुणा है । वहां पार्श्वमें की हुई कृष्टियोंमें मध्यमखण्ड और उभयद्रव्य विशेष होता है ॥ ५० ॥ . पुवादिम्हि अपुवा पुव्वादि अपुवपढमगे सेसे।
दिजदि असंखभागेणूणं अहियं अणंतभागूणं ॥ ५०१॥ __ पूर्वादौ अपूर्वा पूर्वादौ अपूर्वप्रथमके शेषे ।
दीयते असंख्यभागेनोनमधिकं अनंतभागोनं ॥ ५०१॥ अर्थ-अपूर्व ( नवीन ) कृष्टिकी अन्तकृष्टि से पहले जो पुरातनकृष्टि उसकी आदि कृष्टिमें असंख्यातवें भाग घटता द्रव्य दिया जाता है और पूर्व ( पुरातन) कृष्टिकी अन्तकृष्टिसे अपूर्व ( नवीन ) कृष्टि उसकी प्रथमकृष्टिमें असंख्यातवां भागमात्र अधिक द्रव्यदिया जाता है । तथा शेष सब कृष्टियोंमें पूर्वकृष्टिसे उत्तरकृष्टिमें द्रव्य अनंतवां भागमात्र घटता हुआ दिया जाता है ॥ ५०१॥