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लब्धिसारः।
१४१ ह तथा जघन्य कृष्टि बन्ध और उदयमें अनन्तगुणा घटता क्रमलिये अनुभाग अपेक्षा जाननी ॥ ५१८॥ अब संक्रमणद्रव्यका विधान कहते हैं;
संकमदि संगहाणं दवं सगहे ट्ठिमस्स पढमोत्ति। . तदणुदये संखगुणं इदरेसु हवे जहाजोग्गं ॥ ५१९ ॥
संक्रामति संग्रहाणां द्रव्यं स्वकाधस्तनस्य प्रथम इति । ...
तदनुदये संख्यगुणमितरेषु भवेत् यथायोग्यम् ॥ ५१९॥ . . अर्थ-संग्रह कृष्टिका द्रव्य है वह अपनी कषायके नीचेकी कषायकी प्रथमसंग्रहकृ. ष्टितक संक्रमण करता है । उसके वाद भोगने योग्य संग्रह कृष्टिमें संख्यातगुणा द्रव्य संक्रमण होता है । अन्यकृष्टियोंमें यथायोग्य संक्रमण होता है ॥ ५१९ ॥ आगे अनुसमय अपवर्तनकी प्रवृत्तिका क्रम कहते हैं;
पडिसमयं संखेजदिभागं णासेदि कंडयेण विणा । बारससंगहकिट्टीणग्गादो किट्टिवेदगो णियमा ॥ ५२० ॥ प्रतिसमयं संख्येयभागं नाशयति कांडकेन विना ।
द्वादशसंग्रहकृष्टीनामग्रतः कृष्टिवेदको नियमात् ॥ ५२० ॥ अर्थ-कृष्टिवेदक जीव है वह कांडक विना बारह संग्रह कृष्टियोंके अग्रभागसे सब कृष्टियोंके असंख्यातवें भागको हरसमय नियमसे नष्ट करता है ॥ ५२०॥
णासेदि परहाणिय गोउंछं अग्गकिट्टियादादो। सहाणियगोउच्छं संकमदवादु घादेदि ॥ ५२१ ॥ नाशयति परस्थानिकं गोपुच्छमग्रकृष्टिघातात् । ।
स्वस्थानिकगोपुच्छं संक्रमद्रव्यात् घातयति ॥ ५२१ ॥ अर्थ-अग्रकृष्टिघातसे तो परस्थान गोपुच्छको नष्ट करता है और संक्रम द्रव्यसे खस्थान गोपुच्छको नष्ट करता है ॥ ५२१ ॥
आयादो वयमहियं हीणं सरिसं कहिँपि अण्णं च। तम्हा आयद्दवाण होदि सट्ठाणगोउच्छे ॥ ५२२ ॥
आयतो व्ययमधिकं हीनं सदृशं कुत्रापि अन्यच्च ।
तस्मादायद्रव्यान्न भवति स्वस्थानगोफुलछम् ॥ ५२२ ।। अर्थ-कहींपर संग्रहकृष्टिमें आयद्रव्यसे व्ययद्रव्य अधिक है कहीं हीन है कहीं समान है कहीं दोनों से एक ही है । इसलिये आयद्रव्यसे स्वस्थान गोपुच्छ नहीं होता ॥५२२॥