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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
अर्थ — क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियों में नीचले अनुभय स्थान थोड़े हैं उससे उस कृष्टिके उदयस्थान पल्यके असंख्यातवें भागकर अधिक हैं। उससे ऊपरके अनुभयस्थानरूप कृष्टियोंका प्रमाण अधिक है और उससे उदयस्थान अधिक हैं । इसतरह चार पद तो अधिकक्रम लिये हैं । उससे असंख्यातगुणे वीचके उभयस्थान हैं ॥५१३/५१४ ॥ यह प्रथमसमय में अल्पबहुत्व कहा है 1
विदियादिसु चउठाणा पुविलेहिं असंखगुणहीणा ।
तत्तो असंखगुणिदा उवरिमणुभया तदो उभया ॥ ५१५ ॥ द्वितीयादिषु चतुःस्थानानि पूर्वेभ्यो असंख्यगुणहीनानि ।
ततो असंख्यगुणितानि उपर्यनुभयानि तत उभयानि ।। ५१५ ।। 'अर्थ - कृष्टिकरणकालके द्वितीयादिसमयों में चारों स्थान पूर्व से असंख्यातगुणे कम हैं। उससे असंख्यातगुणे ऊपरके अनुभयस्थान हैं उससे वीचमें बन्ध उदयरूप उभयकृष्टियां असंख्यातगुणी हैं ॥ ५१५ ॥
पुविलगंधजेट्ठा हेट्ठासंखेज्जभाग मोदरिय |
संपडिगो चरिमोदयवरमवरं अणुभयाणं च ॥ ५१६ ॥ पौर्विकबंध ज्येष्ठात् अधस्तनमसंख्येयभागमवतीर्य ।
सांप्रतिकः चरमोदयवरमवरं अनुभयानां च ॥ ५१६ ॥
अर्थ — पूर्वसमय के बन्धकी उत्कृष्टकृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागमात्र कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमान उत्तरसमयकी अन्तकी केवल उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टि होती है । उसके वाद ऊपर अनुभवष्टिकी जघन्यकृष्टि पाई जाती है ॥ ५१६ ॥
मणुभयवरदो असंखवहुभागमेत्तमोदरिय । संपडिबंधजहण्णं उदयुक्कस्सं च होदित्ति ॥ ५१७ ॥ अधस्तनानुभयवरात् असंख्यबहुभागमात्रमवतीर्य ।
संप्रतिबंधजघन्यं उदयोत्कृष्टं च भवतीति ॥ ५१७ ॥
अर्थ - पूर्वसमयकी अनुभय कृष्टियोंका असंख्यात बहुभागमात्र कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमान बन्धकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है उसके वाद उदयकृष्टि उत्कृष्ट होती है ॥ ५१७॥ पडसमयं अहिगदिणा उदये बंधे च होदि उक्कस्सं ।
बंधुये च जहणणं अनंतगुणहीणया किट्टी ॥ ५९८ ॥ प्रतिसमय महिगतिना उदये बंधे च भवति उत्कृष्टं ।
बंधोदये च जघन्यं अनंतगुणहीनका कृष्टिः ॥ ५१८ ॥
अर्थ- - समय समय प्रति सर्पकी गतिकी तरह उत्कृष्ट तौ उदय और बन्धमें होती