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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । • अव जिसतरह खस्थान परस्थान गोपुच्छका सद्भाव होता है वैसे कहते हैं;
घादयदवादो पुण वय आयदखेत्तदवगं देदि । सेसासंखाभागे अणंतभागूणयं देदि ॥ ५२३ ॥ घातकद्रव्यात् पुनर्व्ययमायतक्षेत्रद्रव्यकं ददाति ।
शेषासंख्यभागे अनंतभागोनकं ददाति ॥ ५२३ ॥ अर्थ-घातद्रव्यसे व्यय और आयतक्षेत्र द्रव्यको देनेसे एक स्वस्थान गोपुच्छ होता है। शेष असंख्यातभागमें अनन्तभाग कम द्रव्य दिया जाता है यह दूसरा गोपुच्छ हुआ ॥ ५२३ ॥
उदयगदसंगहस्स य मज्झिमखंडादिकरणमेदेण । दवेण होदि णियमा एवं सवेसु समयेसु ॥ ५२४ ॥ उदयगतसंग्रहस्य च मध्यमखंडादिकरणमेतेन ।
द्रव्येण भवति नियमादेवं सर्वेषु समयेषु ॥ ५२४ ॥ अर्थ-उदयको प्राप्त संग्रह कृष्टिका इस घात द्रव्यसे ही मध्यमखण्डादि करना होता है । इसतरह समयसमय प्रति सब समयोंमें विधान होता है ॥ ५२४ ॥ इसप्रकार घातद्रव्यकर एक गोपुच्छ हुआ। अब दूसरा विधान कहते हैं
हेटाकिट्टिप्पहुदिसु संकमिदासंखभागमेत्तं तु । सेसा संखाभागा अंतरकिट्टिस्स दवं तु ॥ ५२५ ॥
अधस्तनकृष्टिप्रभृतिषु संक्रमितासंख्यभागमात्रं तु ।
शेषा असंख्यभागा अंतरकृष्टेर्द्रव्यं तु ॥ ५२५ ॥ अर्थ-संक्रमणद्रव्यका असंख्यातवां भाग द्रव्य नीचेकी कृष्टिमें दिया जाता है और शेष असंख्यात बहुभाग अन्तरकृष्टियोंका द्रव्य है इसीसे अन्तरकृष्टिकी जाती है ॥५२५॥
बंधहचाणंतिमभागं पुण पुवकिट्टिपडिबद्धं । सेसाणंता भागा अंतरकिट्टिस्स दवं तु ॥ ५२६ ॥ बंधद्रव्यानंतिमभागं पुनः पूर्वकृष्टिप्रतिबद्धम् ।
शेषानंता भागा अंतरकृष्टेर्द्रव्यं तु ॥ ५२६ ॥ - अर्थ-बन्धद्रव्यका अनन्तवां भाग पूर्वकृष्टि संबन्धी है और शेष अनन्त बहुभाग अन्तर कृष्टियोंका द्रव्य है । इस द्रव्यसे नवीन अन्तरकृष्टि की जाती है ॥ ५२६ ॥